Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

पत्रकारिता की काली कोठरी से (7)

Alok Nandan(1),  (2), (3)(4), (5), (6) से आगे..

दिल्ली स्थिति विभिन्न देशों के दूतावासों में भी मेरी आवाजाही होने लगी थी। इन दूतावासों में काम करने वाले राजनयिकों के नजरिये से भारतीय प्रसंग को तौलने की कला सीखने लगा था। हालांकि अधिकतर जोर सांस्कृतिक मेल-मिलाप की खबरों पर ही देता था। भारत में जर्मनी का सांस्कृतिक केंद्र मैक्समूलर भवन की ओर मेरा आकर्षित होना स्वाभाविक था। मैक्समूलर भवन की लाइब्रेरी और कैंटीन मेरी पसंदीदा जगह थी। मैं यहां की लाइब्रेरी का सदस्य बन गया।

Alok Nandan

Alok Nandan(1),  (2), (3)(4), (5), (6) से आगे..

दिल्ली स्थिति विभिन्न देशों के दूतावासों में भी मेरी आवाजाही होने लगी थी। इन दूतावासों में काम करने वाले राजनयिकों के नजरिये से भारतीय प्रसंग को तौलने की कला सीखने लगा था। हालांकि अधिकतर जोर सांस्कृतिक मेल-मिलाप की खबरों पर ही देता था। भारत में जर्मनी का सांस्कृतिक केंद्र मैक्समूलर भवन की ओर मेरा आकर्षित होना स्वाभाविक था। मैक्समूलर भवन की लाइब्रेरी और कैंटीन मेरी पसंदीदा जगह थी। मैं यहां की लाइब्रेरी का सदस्य बन गया।

उस लाइब्रेरी में नीत्शे के साथ-साथ शॉपनहावर को पढ़ने का खूब मौका मिला। लाइब्रेरी में ऑडियो विजुअल की भी सुविधा थी। हिटलर से संबंधित जितने भी कैसेट थे, सबको देख डाला। एक बार नहीं, बार-बार। नाजी लिटरेचर तो शुरू से ही मुझे अपनी ओर आकर्षित करता था। उस लाइब्रेरी में हिटलर के प्रचार मंत्री गोयल्स पर भी बहुत सारी किताबें थी। गोयल्स और हिटलर के भाषणों का पूरा एक संकलन ही था। दुनिया के इतिहास में ‘नेशनल सोशलिज्म’ की तरफ मैं आकर्षित था, लेकिन हिटलर द्वारा किये गये जनसंहारों को देखकर मैं ठिठक जाता था। मुझे लगता था कि लाशों की नींव पर बनाई गई कोई भी व्यवस्था उचित नहीं हो सकती।

हालांकि एक असफल कलाकार से डिक्टेटर तक की उसकी यात्रा मुझे रोमांचित करती थी। गोयल्स का यह बयान कि ‘मैं प्रेस को प्यानों की तरह बजाता हूं’, मुझे राज्य और प्रेस के संबंधों की गहनता से पड़ताल करने के लिए भी प्रेरित करता था। मैक्समूलर भवन की ओर से आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मुझे एक सदस्य के नाते विधिवत आमंत्रित किया जाता था। मंडी हाउस के रवींद्र भवन की कलादीर्घा में मैक्समूलर भवन की ओर से एक पेंटिग्स प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। इसमें मैं भी आमंत्रित था। प्रदर्शनी का टाईटल था -‘आर्ट अंडर दि वाइमर रिपब्लिक’। कलादीर्घा में घूमते हुये एक-एक तस्वीरों को मैं गौर से देख रहा था।

सभी तस्वीरें वाइमर रिपब्लिक की विलासिता, अय्याशी और पतन की कहानी बयां कर रही थी। उसी वक्त मेरी नजर उन चार तस्वीरों पर पड़ी, जिन पर थर्ड राइक के शासनकाल की तारीख अंकित थे। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक महिला प्रोफेसर को इस पेंटिग प्रदर्शनी का अनावरण करना था। पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था। जैसे ही उस महिला प्रोफेसर ने द्वीप प्रज्वलित करने के लिए हाथ बढ़ाया, मैंने ऊंची आवाज में उन्हें रोकते हुये कहा, ‘इस प्रदर्शनी में कुल 40 पेंटिग्स हैं। इनका टाईटिल है ‘आर्ट अंडर दि वाइमर रिपब्लिक’, जबकि चार तस्वीरें ‘थर्ड राइक’ के शासनकाल की हैं। यह गलत है। या तो इन चार तस्वीरों को हटा दो या फिर इसका टाईटिल बदल दो।’

वहां पर मौजूद सभी लोग मेरी तरफ आश्चर्यचकित नजरों से देख रहे थे। वह महिला प्रोफेसर भी अवाक थी। प्रदर्शनी को संभाल रहे एक जर्मन अधिकारी ने मजाकिया लहजे में मुझे सैल्यूट मारते हुए कहा, ‘यस सर’ और उसने महिला प्रोफेसर से दीप प्रज्जवलित करने को कहा। कूटनयिक गलियारे में घूमते हुये इनके रंग से मैं वाफिक हो चुका था। उस जर्मन अधिकारी की ओर देखते हुये मैंने कहा, ‘मेरी बात समझ में नहीं आ रही है क्या? गलती सुधारो, नहीं तो आगे का कार्यक्रम नहीं होने दिया जाएगा।’

जर्मन अधिकारी को समझ में आ गया कि मामला गंभीर है। लोगों के बीच भी खुसफुसाहट शुरू हो गई थी। मेरी ओर देखते हुये उसने बड़ी नम्रता से कहा, ‘इन तस्वीरों को हटाने या टाइटल बदलने में समय लग जाएगा। कार्यक्रम को चलने दें। मैं वादा करता हूं कि कार्यक्रम के बाद इन तस्वीरों को हटा दिया जाएगा।’  उसकी बाते मुझे व्यवहारिक लगी। मैं मान गया। दीप प्रज्जवलन के बाद कई लोग मेरे पास आये और सही बात को सही समय पर सामने लाने के लिए बधाई दी।

अरविंद गौड़ की नाटक मंडली से मेरा ठीक-ठाक तालमेल बैठ गया था। मैक्समूलर भवन में हिटलर पर लगातार पढ़ते रहने के बाद हिटलर को लेकर एक नाटक लिखना शुरू कर दिया। मेरी नजर दिल्ली के अंग्रेजी भाषी दर्शकों पर थी, इसलिए मैं हिटलर के जीवन को अंग्रेजी में समेटना शुरू कर दिया। पूरी स्क्रिप्ट तैयार होने के बाद मैंने इसकी चर्चा मैक्समूलर भवन के एक जर्मन अधिकारी से की। उन्होंने कहा कि हिटलर को लेकर हम भारत में किसी भी तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल नहीं हो सकते हैं। यह हमारी सरकार की नीति के खिलाफ है। जर्मनी में ‘मीन कैंफ’ पर प्रतिबंध लगा हुआ है। उस जर्मन अधिकारी की बेबाकी मुझे अच्छी लगी।

इसके बाद स्क्रिप्ट को लेकर मैंने अरविंद गौड़ से संपर्क साधा। पढ़ने के बाद उन्होंने कहा कि इसमें नाटकीय तत्वों का अभाव है, लेकिन डायलाग बहुत आक्रामक हैं। बहरहाल, उन्होंने भी मंचन करने से इनकार कर दिया। पीयूष मिश्रा उन दिनों मंडी हाउस की नाटकीय गतिविधियों में काफी सक्रिय थे। इस स्क्रिप्ट पर उनसे चर्चा की तो वे भड़क उठे। उन्होंने कहा कि मैं नहीं समझता कि हिटलर पर नाटक करने की जरूरत है। इस व्यक्ति का समाज के प्रति कुछ भी योगदान नहीं है, इसने मानवता को कलंकित किया है। अंत में निराश होकर मुझे इस स्क्रिप्ट को छोड़ देना पड़ा।

प्रत्येक दिन जामिया मिलिया इस्लामिया से आईटीओ स्थित वीर अर्जुन के दफ्तर आने में मुझे करीब सवा घंटे लग जाते थे। रात 11 बजे के बाद घर लौटने के लिए मुश्किल से बस मिलती थी। रात को जल्दी घर लौटना पड़ता था, जबकि इच्छा दिल्ली की सड़कों पर मटरगस्ती करने की रहती थी। इसी बीच मंडी हाउस में मेरी मुलाकात महुआ से हुई। वह कत्थक केंद्र की छात्रा थी। उसने मुझे बताया कि उसके दो रूम के फ्लैट में एक कमरा खाली है। यह फ्लैट लक्ष्मीनगर में था। मैं इस कमरे में शिफ्ट हो गया। महुआ के जरिये ही मेरी मुलाकात राम बहादूर रेणू से हुई। रेणू एनएसडी में तीसरे वर्ष का छात्र था। दोनों प्यार करते थे और शादी करने वाले थे। जो कमरा मुझे वहां रहने को मिला था उसमें पहले राष्ट्रीय सहारा की पत्रकार अनिता कर्ण रहा करती थी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लक्ष्मी नगर से आईटीओ की दूरी काफी कम है। पत्रकारिता और रंगमंच के क्षेत्र में संघर्ष करने वालों के लिए लक्ष्मीनगर बेहतर शरणस्थली था। लक्ष्मीनगर में मैंने एक वर्ष में तीन-चार कमरे बदले। मेरी कोशिश ऐसा कमरा लेने की होती, जिसमें आवाजाही की समस्या न हो। रात एक, डेढ़ बजे लौटूं तो कोई टोकने वाला न हो। अब देर रात गये मैं दिल्ली की सड़कों पर पसरे जीवन को देखता और इसके रूप को समझने की कोशिश करता। दिन और रात की परवाह किये बिना मैं खबरें समेटता रहता।

युवा पत्रकार इलेक्ट्रानिक मीडिया की ओर आकर्षित होने लगे थे। उस वक्त चैनलों की आंधी तो नहीं आई थी, लेकिन राष्ट्रीय पटल पर इसकी सुगबुगाहट होने लगी थी। बिनोद दुआ और प्रणय राय से कभी सीधा संपर्क तो नहीं हुआ था, लेकिन इन दोनों के चेहरों को दूरदर्शन के जमाने से ही जानने लगा था। पटना में स्कूल के दिनों में आम चुनावों के समय इनके विश्लेषण को रात-रात भर जागकर देखा करता। हालांकि ज्यादा रुचि उन दिनों प्रसारित होने वाली फिल्मों में होती थी। विनोद दुआ की बात तो समझ में आती, लेकिन अंग्रेजी की वजह से प्रणय राय को ठीक से पकड़ नहीं पाता था। दिल्ली आने के बाद मंडी हाउस में सफदर हाशमी के शहादात दिवस पर विनोद दुआ से मुलाकात हो गई थी, लेकिन प्रणय राय अभी भी पकड़ से बाहर थे।

‘एसपी सिंह स्कूल’ के तमाम पत्रकार एक खास ट्रेंड पर चलते हुये परिपक्व हो चुके थे। लोग इनके चेहरे और आवाज को पहचानने लगे थे। पुण्य प्रसून वाजपेयी, आशुतोष, प्रबल प्रताप सिंह, देबांग आदि पत्रकारिता में ‘एरर और लर्न’ की प्रक्रिया से गुजर रहे थे। स्क्रीन पत्रकारिता से मैं बहुत दूर था। मुझे तो सिर्फ किताबें चाटने और अपनी कलम चलाने में यकीन था। आशुतोष की राइटिंग स्टाईल को पसंद करता था। टीवी पर उन्हें देखा नहीं था, क्योंकि टीवी से मैं दूर रहता था। हिन्दुस्तान अखबार में प्रत्येक सप्ताह छपने वाला उनका कॉलम ‘आफ्टर ब्रेक’ में उनके कहने का अंदाज यकीकन अच्छा लगता था।   

मेरे कई साथी स्क्रीन पत्रकारिता में हाथ पैर मार रहे थे। मेरा कलम पर यकीन था। नेपोलियन बोनापार्ट के ये शब्द कहीं गहरे मेरे दिमाग में धंसे हुये थे, ‘कलम तलवार से ज्यादा शक्तिशाली है’।  वीर अर्जुन के प्लेटफॉर्म से होकर कई लोग इलेक्ट्रॉनिक जर्नलिज्म में चले गये। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर रुख करने के लिए कई बार लोगों ने मुझे उकसाया भी, लेकिन मैं वीर अर्जुन में डटा रहा। कुछ लोगों ने दूसरे प्रिंट मीडिया हाउसों में जाने की सलाह दी, लेकिन उन मीडिया हाउसों में काम करने वाले अपने साथियों की स्थिति से मैं संतुष्ट नहीं हो पा रहा था। वीर अर्जुन की स्वतंत्रता मुझे रास आ गई थी। गर्मी के दिनों में ऊपर घूमता पंखा और जाड़े के दिनों में चौबीसों घंटे जलने वाले हीटर की खुशबू भरी गर्माहट मुझे अच्छी लगती थी।

कई युवा पत्रकारों को अखबरों में जूते घिसता देख रहा था। मेरी स्वतंत्रता उनके लिए ईष्या का कारण थी। रिपोर्टिंग में लगे लोग अपनी बीट पर भागते रहते, जबकि डेस्क पर काम करने वाले लोगों की स्थिति क्लर्क और अनुवादक से अधिक नहीं थी। कम से कम उनकी बातों को सुनकर मुझे ऐसा ही लगता। हालांकि वे चरणबद्ध तरीके से पत्रकारिता की राह पर आगे बढ़ रहे थे, जबकि मैं बनैले सूअर की तरह हर कहीं मुंह मारने के लिए स्वतंत्र था। मैं जहां कहीं भी होता था मेरी नजर सिर्फ खबरों की तलाश कर रही होती। सामाजिक सरोकार से जुड़े मामलों पर मैं विशेष ध्यान देता था। लोग अपनी समस्याएं और खबरें लेकर मेरे पास आते थे। 

एक बार वीर अर्जुन के दफ्तर में एक साधु मेरे पास आया। उसने बताया कि वह पिछले कई वर्षों से दिल्ली पुलिस के लिए जासूसी कर रहा है। कई अपराधियों को पकड़वाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुका है। पिछले एक साल से दिल्ली पुलिस के अधिकारी उसे पैसे नहीं दे रहे। वह चाहता था कि मैं उसकी बात को अपने अखबार में लिखूं। मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन वह न माना। मुझे भी उसकी खबर रोचक लगी। उसकी तस्वीर के साथ उसकी पूरी राम कहानी वीर अर्जुन में लिख डाली। दूसरे दिन जब वह दफ्तर आया तो उसके हाथ, पैर और चेहरे पर चोट के निशान थे। मुझे देखते ही चिल्लाने लगा, ‘बच्चा, दिल्ली पुलिस वालों ने तो पैसे नहीं दिए लेकिन चोर-बदमाशों ने पकड़कर मेरी खूब धुनाई की।’

दिल्ली पुलिस मुख्यालय में भी मेरा आना-जाना हो गया था। वैसे, क्राइम बीट जितेंद्र के पास थी। वह पुलिस मुख्यालय से मिलने वाले प्रेस रिलीज के आधार पर ही खबरें बनाता था। उसकी अनुपस्थिति में एक बार मुझे सदानंद पांडे ने मुख्यालय भेज दिया। अजय राज शर्मा ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर का पद संभाला था। संयोग से उस दिन वह खुद किसी मामले पर पत्रकारों को संबोधित कर रहे थे। पहले से टाइप की गई एक कॉपी करीब 15 मिनट तक वह अंग्रेजी में पढ़ते रहे। इसके बाद अंग्रेजी मीडिया के पत्रकारों ने कई सवाल दागे। एक के बाद एक सभी लोग अंग्रेजी में बोले जा रहे थे। कुछ देर तक उनको सुनने के बाद मैं सीधे अजय राज शर्मा से पूछ बैठा। ‘दिल्ली पुलिस अपना प्रेस रिलीज अंग्रेजी में क्यों जारी करती है, हिन्दी में क्यों नहीं? मैं एक हिन्दी अखबार का प्रतिनिधि हूं और मुझे आपकी पढ़ी गई बात बिल्कुल समझ में नहीं आई। दिल्ली पुलिस अपना पेपर वर्क हिन्दी में क्यों नहीं करती है, जबकि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है?’

अजय राज शर्मा को मेरा अंदाज पसंद आया। वह तुरंत हिन्दी पर उतर आये। उनकी धाराप्रवाह हिन्दी को सुनकर न सिर्फ मुझे बल्कि वहां मौजूद सभी हिन्दी पत्रकारों को अच्छा लगा। प्रेस कांफ्रेंस के बाद कई पत्रकार मेरे पास आये और बधाई दी। दिल्ली पुलिस पर मैं लगातार खबरें बना रहा था। पुलिस मुख्यालय में प्रत्येक दिन एक-आध घंटा बैठका लगाने की आदत हो गई थी। एक दिन एक अधिकारी ने कहा कि ‘सच्ची खबरें लिखने का इतना ही शौक है तो शोयेब इल्यासी पर क्यों नहीं लिखते। वह दुनियाभर में इमानदारी-सच्चाई की बातें करता फिर रहा है और खुद मस्जिद की जमीन पर कब्जा करके ऑफिस खोले है। जाकर खुद अपनी आंख से देख आओ।’

उस वक्त शोएब इल्यासी ‘इंडिया मोस्ट वांटेड’ कार्यक्रम में अपराध और अपराधियों के खिलाफ बिगुल फूंक कर राष्ट्रीय हीरो का स्टेटस इंज्वाय कर रहे थे। मैंने ‘इंडिया मोस्ट वांटेड’ का एक भी एपीसोड नहीं देखा था। मैं सीधे इलायासी के दफ्तर पहुंचा। कस्तूरबा गांधी मार्ग के अंतिम छोर पर एक गोलंबर में मस्जिद और इलायासी का दफ्तर दोनों था। इलयासी अपने कैरियर के पीक पर थे। उनका अपना तामझाम तो था ही, पुलिस से उच्च श्रेणी की सुरक्षा भी मिली हुई थी। करीब 15 मिनट तक इंतजार करने के बाद उन्होंने मुझे ऑफिस के अंदर बुलाया। देश के कोने-कोने से लोग उनसे मिलने आये थे। इनकी मौजूदगी में ही बातचीत का सिलसिला चल निकला।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जब उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप ‘इंडिया मोस्ट वांटेड’ देखते हैं? तो मैंने सपाट सा उत्तर दिया, ‘अभी तक इस कार्यक्रम को देखने का अवसर नहीं मिला।’ बातचीत के दौरान उनसे तमाम तरह के सवाल किए। उन्होंने भी अपने आप को सुभाष चंद्र बोस का फैन बताते हुये बहुत सारी बातें कहीं। मैं धैर्य के साथ सही समय का इंतजार कर रहा था। जब वह पूरी रवानगी में आ गये तो मैंने दिल्ली पुलिस के अधिकारी का प्रश्न रखते हुये कहा, ‘आप धार्मिक स्थल का कॉमर्शियल इस्तेमाल कर रहे हैं, ऐसा कहा जा रहा है।’ थोड़ी देर के लिए उनके चेहरे का रंग उड़ गया। फिर संभलते हुये बोले, ‘हमारे बुजुर्ग यहां पर वर्षों से अपनी सेवा दे रहे हैं, इसलिए यदि मैंने ऑफिस खोल रखा है तो गलत क्या है? ‘ उनकी बात से मैं संतुष्ट नहीं था, लेकिन उनके जवाब को कलमबद्ध करके वहां से चलता बना।

वापस ऑफिस आने के बाद सदानंद पांडे से इस मुद्दे पर काफी देर बातचीत हुई। अंत में उन्होंने कहा, ‘इलियासी के ऑफिस का मामला चाहे जो हो, लेकिन वह काम बेहतर कर रहा है। हमें उसके खिलाफ नहीं जाना चाहिए।’ बहुत हद तक मैं भी उनकी बात से सहमत था। उसके ऑफिस के मुद्दे को हटाकर मैंने उसका इंटरव्यू अपने अखबार में प्रकाशित कर दिया। 

तीसरे दिन सदानंद पांडे ने मुझे बुलाकर पूछा, ‘तुम शराब पीते हो?’ शराब तो मैं गड़गच्च कर पीता था, लेकिन उनके प्रश्न का सीधा जवाब देने के बजाय मैंने पूछा, ‘आप यह क्यों पूछ रहे हैं?’ उन्होंने कहा, ‘अनिल नरेंद्र जी के पास इलियासी का फोन आया था कि आपका रिपोर्टर उनसे शराब की बोतल मांग रहा है।’ इसके पहले कि मैं कुछ कह पाता उन्होंने खुद ही कहा, ‘मुझे यकीन है कि तुम ऐसा कभी नहीं कर सकते।’ इस पहेली पर बहुत सोचने के बाद भी मेरे हाथ कुछ नहीं पड़ा। 

जारी….       अगले रविवार को भाग 8 पढ़ें


पत्रकार आलोक नंदन अब मीडिया की चाकरी को बाय-बाय बोल चुके हैं। इन दिनों मुंबई में हैं। कलम के जोर पर बालीवुड से रोजी-रोटी जुगाड़े हैं। उनसे [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement