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कारगिल की चोटियों पर भारतीय सेना और घुसपैठियों के बीच लड़ाई शुरू हो चुकी थी। इसका स्पष्ट प्रभाव दिल्ली में चारो तरफ दिखाई दे रहा था। बरखा दत्त का नाम इसी समय मनीष सिन्हा के मुंह से सुना। उसने उत्साह से बताया था, ‘बरखा भारतीय सैनिक ठिकाने से बाहर निकल कर रिपोर्टिंग करने लगी थीं। एक सैनिक ने उसे खींचकर अंदर किया।’ मेरे मुंह से निकला, ‘यदि उस सैनिक की जगह मैं होता तो उसे सीधे घाटी में फेंक देता।’
मेरे कहने का आशय यह था कि उस वक्त भारतीय सैनिक और घुसपैठिए आमने-सामने थे, लेकिन छुपी हुई स्थिति में थे। और यह लड़की अपनी हरकत से सीधे दुश्मनों को भारतीय सैनिकों का पोजिशन बता रही थी। मनीष मेरी ओर देखता रहा। कुछ बोला नहीं। बाद में मैं बरखा दत्त की ‘इंग्लिश स्पीकिंग स्टाइल’ का दीवाना हो गया। वर्षों बाद जब टीवी से संगत हुई तब मैं बरखा दत्त को घंटों देखता था। वह अंग्रेजी में टपर टपर बोलती थीं और मैं अपलक उन्हें देखता रहता था। मेरे कान बरखा दत्त की अंग्रेजी पर टिके रहते थे।
वीर अर्जुन के ऑफिस में हर दिन कारगिल में मरने वाले भारतीयों सैनिकों की तस्वीरें आती थीं। इन तस्वीरों को पूरे सम्मान के साथ अखबार में शहीद के रूप में लगाया जाता था। इन मरे हुये भारतीय सैनिकों की तस्वीरों को देखकर मुझे झुंझलाटह होती थी। भारत के मस्तिष्क पर कश्मीर के कोढ़ बन जाने के पीछे छिपे कारण की तलाश करने की कोशिश करता तो दिमाग चकराने लगता था। कोर्स की किताबों में लिखी गई तमाम बातें मुझे बकवास नजर आती थी। भारत के बंटवारे के लिए मैं सीधे तौर पर उस समय के वर्तमान नेतृत्व को जिम्मेदार मानता था, जिनके हाथ जनता की लगाम फिसल गई थी। बंटवारे के दौरान मारे गये हजारों लोगों के बारे में जानने और सुनने के बाद यही लगता था कि गांधी जी का अहिंसावादी आन्दोलन अंत में आकर व्यवहारिक तौर पर मटियामेट हो गया था। आदर्श मानव के निर्माण की परिकल्पना के आधार पर भले की इसे स्थापित करने की पुरजोर कोशिश क्यों न की जाये।
बांग्लादेश के निर्माण को उस वक्त मैं भारत के दूसरे विभाजन के तौर पर देखता था, जबकि इस विभाजन के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी की स्तुतिगान में लाखों टन कागज काले किये जा चुके थे।
भारत सरकार के प्रेस इन्फॉरमेशन ब्यूरो में प्रत्येक दिन बहुत बड़ी संख्या में पत्रकारों का जमावड़ा होता था। पैर तक रखने की जगह नहीं होती थी। भारतीय पत्रकार इसे युद्ध बता रहे थे। सरकार भी इसे इसी रूप में प्रचारित कर रही थी। लेकिन विदेशी पत्रकारों का एक समूह तब तक इसे युद्ध मानने के लिए तैयार नहीं था जब तक भारत सरकार की ओर से युद्ध की विधिवत घोषणा नहीं कर दी जाती। विदेशी पत्रकारों के तर्क से मैं बहुत हद तक सहमत था। युद्ध और सैनिक झड़प के बीच की बारीक अंतर को मैं समझता था। कारगिल युद्ध जैसे शब्द का इस्तेमाल भारतीय अखबारों में धड़ल्ले से हो रहा था। इस संबंध में जब मैंने अपनी बात सदानंद पांडे के सामने रखी तो उन्होंने कहा, ‘पूरा देश इसे युद्ध मान चुका है, इसलिए युद्ध शब्द का इस्तेमाल ही ठीक रहेगा।’ इसके बाद खुश होते हुये बोले, ‘अरे, तुम तो लादेन के समर्थन हो, तुम्हारे ही लोग तो हैं वहां पर।’ हम दोनों एक दूसरे के साथ कंफर्टेबल हो चुके थे। ऐसी बातें और कंफर्टेबल करती थीं।
मंडी हाउस के कलाकार भी इस युद्ध को लेकर उत्तेजित थे। वहां पर कलाकारों ने सफेद कपड़े का एक बड़ा सा बोर्ड लगाया था, जिस पर कलाकार और राहगीर भारतीय सैनिकों के लिए संदेश लिखते हुये पाकिस्तानी हुक्मरानों को गालियां दे रहे थे। लेनिन का एक संदेश मैंने भी लिख मारा, ‘दोनों देशों की सेना को चाहिए कि अपनी बंदूकों का रुख अपनी-अपनी सरकारों की ओर कर दे।’ वहां पर मौजूद सभी कलाकार भड़क उठे और मेरे हटते ही उन्होंने इस संदेश को तत्काल मिटा डाला।
इस संघर्ष के दौरान अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक हलकों की चर्चाओं में मैं विशेष दिलचस्पी लेने लगा था। वहां की खबरों और रिर्पोटों से इतर हटकर मैं खुद उस क्षेत्र में जाकर वहां की स्थिति को अपनी आंखों से देखना चाहता था। दिल्ली में चाय के प्याले और शराब के पैग के साथ गढ़ी गई कहानियों को मैं हल्के तौर पर लेता था। मैं हमेशा फर्स्ट हैंड खबर में यकीन रखता था। कुंवारी खबरों का स्वाद ही कुछ और होता है। एक बार मुंह लग जाने के बाद एक सच्चा खबरची ताउम्र कुंवारी खबरों के पीछे ही भागता है।
दिल्ली के बढ़ते प्रदूषण से भी मैं बुरी तरह से परेशान था, मेरे फेफड़े नई हवा की जरूरत को महसूस कर रहे थे। रात को जब घर लौटता था तो मुंह पर कालिख की परत जमी होती थी।
मैं कश्मीर में स्थायी तौर पर घुसने की संभावना की लगातार तलाश कर रहा था। इसी दौरान आकाशवाणी में भर्ती के लिए एक विज्ञापन निकला। मनीष सिन्हा के कहने पर मैंने वहां आवेदन कर दिया। लिखित टेस्ट में तो मैं निकल गया, लेकिन भाषणबाजी वाली मेरी आवाज माइक्रोफोन के लिए फिट नहीं बैठी। उन लोगों ने मुझे चलता कर दिया। इसी बीच अशोक प्रियदर्शी से मंडी हाउस में मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि अमर उजाला अखबार जम्मू से नया संस्करण निकालने जा रहा है। उस क्षेत्र में काम करने के लिए लोगों की वहां पर जरूरत है।
मुझे याद नहीं कि मैंने अपना बायोडाटा पहले कभी बनाया था। इस बात का पता मेरे कमरे पर आने वाली टोली के लोगों को लगा। उन लोगों ने मेरे लिए मेरा बायोटाडा बनवा दिया। वह बायोडाटा लेकर मैं सीधे नोएडा स्थिति अमर उजाला के दफ्तर पूछते हुये पहुंच गया। रिसेप्शन पर आने का कारण पूछने के बाद एक महिला ने मुझे राजेश रपरिया के पास पहुंचा दिया। उन्होंने पूछा कि जम्मू-कश्मीर क्यों जाना चाहते हो तो मैंने बताया कि मैं वहां के लोगो को देखना चाहता हूं। उन्होंने सलाह दी, ‘यदि देखना ही चाहते हो तो रिसर्च करने जाओ, रिपोर्टिंग में तो बहुत सारे फालतू के काम करने पड़ेंगे।’ मैंने कहा, ‘आपकी सलाह के लिए धन्यवाद। यदि आप मुझे वहां भेज सकते हैं तो भेज दीजिये।’ मेरा बायोडाटा रखते हुये उन्होंने कहा, ‘देखते हैं।’
एक सप्ताह के अंदर मेरे पास अमर उजाला की ओर से एक पत्र आया। वे लोग एक टेस्ट लेना चाहते थे। टेस्ट वाले दिन जब पहुंचा तो एक बड़े से कमरे में 50-60 लोग टेस्ट देने के लिए बैठे हुए थे। उनमें बहुत सारी लड़कियां भी थीं। मैं भी उन्हीं के बीच चुपचाप बैठ गया। वहां बैठे सभी लोगों को एक पेज का प्रश्नपत्र दिया गया। करीब दौ पैराग्राफ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करना था। इसके अलावा कुछ एब्रिविएशन थे। दस शब्द दिये गये थे। वाक्य के माध्यम से इन शब्दों का लिंग सपष्ट करना था। साथ में एक घटनाफ्रेम दी गई थी जिसके आधार पर एक रिपोर्ट लिखना था। ये सारे काम दो घंटे के अंदर करने थे। एक घंटे में सब कुछ निपटाकर मैं वहां से चलता बना।
एक सप्ताह के भीतर अमर उजाला से दूसरा पत्र आया। मुझे मेरठ इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। निश्चित तारीख को सुबह दस बजे मेरठ पहुंच गया। उस वक्त ऑफिस ठीक से खुला भी नहीं था। अपनी आदत के मुताबिक मैं मेरठ में काफी देर तक इधर-उधर भटकता रहा। 12 बजे के करीब लौटकर आया तो देखा कि बहुत सारे लोग इंटरव्यू देने के लिए बैठे हुये हैं। एक कोने में बैठकर मैं चुपचाप एक नॉवेल पढ़ने लगा। सभी लोग आपस में बातचीत करते हुये एक दूसरे को जानने की कोशिश कर रहे थे। जब कोई इंटरव्यू देकर बाहर आता तो उससे तमाम तरह के सवाल पूछते थे। 3.30 बजे के करीब मेरा नंबर आया। इंटरव्यू रूम में घुसते वक्त मेरी नजरें राजेश रपरिया को तलाश रही थी, लेकिन वह वहां बैठे तीन लोगों में नहीं थे। मुझे बैठने के लिए कुर्सी दिया गया। इसके साथ ही बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। मेरे ठीक सामने रामेश्वर पांडे बैठे हुये थे। हालांकि उस वक्त मैं उनके विषय में कुछ नहीं जानता था।
उन्होंने पूछा, ‘जम्मू-कश्मीर क्यों जाना चाहते हों, वहां तो खतरा है?’
मेरा जवाब था, ‘देखना चाहता हूं कि वहां वाकई में क्या चल रहा है।’
उन्होंने कहा, ‘वहां लोगों की हत्या हो रही हैं। तुम्हे परेशानी होगी।’
मैंने फिर जवाब दिया, ‘कुछ परेशानी नहीं होगी। मरना होगा तो यहां भी मर जाऊगा’
उन्होंने फिर पूछा, ‘किस नेता को तुम पसंद करते हो ?’
‘हिटलर को’,
मेरा जवाब सुनकर वो हल्के से मुस्कराये।
उनके बगल में बैठे एक व्यक्ति ने कुछ शब्द कहे और पूछा कि यह किसने कहा है।
मैंने बेबाकी से कहा, ‘मुझे नहीं पता।’
उस व्यक्ति ने जोर देते हुये कहा, ‘यह हिटलर के मीन कैंफ में लिखे गये शब्द हैं।’
मैंने कहा, ‘हिटलर ने मीन कैंफ में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है।’
वह मुझसे बुरी तरह से उलझ गये। अपनी बात को मनवाने के लिए वह लगातार जोर डाले जा रहे थे, जबकि मैं अपनी ही बात पर अड़ा हुआ था। रामेश्वर पांडे ने मुस्कराते हुये बीच बचाव किया और कहा, ‘आतंकवादी चे गुआरा के विषय में तुम्हारे क्या ख्याल हैं?’
रामेश्वर पांडे की ओर देखते हुये मैंने कहा, ‘क्षमा करें, जहां तक मैं जानता हूं, चे गुआरा आंतकी नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी था।’
उसी वक्त एक व्यक्ति कमरे में तीन चाय लेकर आया। जो व्यक्ति मुझसे हिटलर को लेकर थोड़ी देर पहले उलझे हुये थे उन्होंने मुझसे पूछा, ‘चाय पीओगे?’
‘पी लूंगा’, मैंने सहजता से कहा।
चाय पीने के दौरान रामेश्वर पांडे ने कहा, ‘तुम जम्मू जाना चाहते हो, लेकिन जो आवेदन तुमने दिया है, उस पर जम्मू की स्पेलिंग गलत है। दिखाऊं तुम्हे? ‘
‘उसकी जरूरत नहीं है, होगी’, मैंने कहा।
‘तुमने स्पेशल करेस्पॉन्डेंट के लिए आवेदन दिया है। यह बहुत ऊंचा पद है। इसका मतलब समझते हो?’ उन्होंने पूछा।
‘स्पेशल करेस्पॉन्डेंट का काम है अपनी पसंद के मुताबिक विशेष खबरों पर काम करना।’
‘इससे नीचे पर काम करोगे ?’
‘कर लूंगा।’
उन्होंने मुझे थोड़ी देर के लिए बाहर बैठने को कहा। करीब पांच मिनट बाद मुझे फिर बुलाया गया। रामेश्वर पांडे ने कहा, ‘तुम्हारे उत्साह को देखते हुये हम तुम्हें अपनी टीम में शामिल कर रहे हैं। आज से अपने आप को अमर उजाला परिवार का एक सदस्य समझो। घर जाओ और जम्मू जाने की तैयारी करो।’
उस दिन मेरठ में अमर उजाला के दफ्तर से मैं एक विजेता की तरह निकला। जम्मू- कश्मीर में विधिवत घुसने का रास्ता मुझे मिल चुका था।
उस दिन रात को मेरे कमरे में रेडियो स्टेशन की ओर से भेजा गया एक ज्वाइनिंग लेटर मेरा इंतजार कर रहा था। रेडियो स्टेशन वालों ने मेरी आवाज को तो नकार दिया था, लेकिन डेस्क पर खबरें लिखने के लिए वो लोग मुझे लेने को तैयार थे। एक सप्ताह के अंदर वहां रिपोर्ट करना था। उस लेटर को एक तरफ रखकर मैं रात भर जम्मू-कश्मीर की उग्रवादियों में अपने जूते घिसने का सपना देखता रहा।
करीब तीन दिन बाद मेरे पास अमर उजाला से फिर एक पत्र आया, जिसमें मुझे जालंधर जाकर ज्वाइन करने को कहा गया था। मुझे लगा कि अमर उजाला कुछ गलती कर रहा है, मेरी नियुक्ति जम्मू जाने के लिए हुई थी, न कि जालंधर। मैंने सीधे नोएडा दफ्तर फोन किया और कहा कि मैंने जम्मू के लिए आवेदन किया था, न कि पंजाब के लिए। दूसरी तरफ से मुझे समझाया गया कि आप जालंधर में ज्वाइन करेंगे, इसके बाद आपको जम्मू भेज दिया जाएगा। आपकी नियुक्ति जम्मू के लिए ही की गई है।
मेरे अमर उजाला में जाने की खबर वीर अर्जुन के लोगों तक पहुंच गई थी। सदानंद पांडे ने कहा, ‘तुम जम्मू-कश्मीर जा रहे हो, तुम्हारे सारे भाई बंधु तो वहीं हैं।’
वीर अर्जुन के तमाम लोगों ने मुझे बधाइयां दी। मैं जल्द से जल्द जालंधर निकलने की तैयारी करने लगा। मेरे कमरों में किताबों का अंबार लगा हुआ था, और मेरी सबसे बड़ी चिंता इन किताबों को सुरक्षित रखने की थी। मैंने अपने भाई से संपर्क किया। उस वक्त तक दिल्ली विश्वविद्यालय में उसका दाखिला हो चुका था, और वहीं पर एक कमरा लेकर रहा था। अपनी सारी किताबों को सहेजकर उसके कमरे में रख दिया और अपने करीबी लोगों के साथ एक जबरदस्त पार्टी की और जालंधर के लिए निकल पड़ा।
जारी…. अगले रविवार को भाग 9 पढ़ें
लेखक आलोक नंदन मीडिया से सदा के लिए नाता तोड़ चुके हैं। इन दिनों मुंबई में हैं। कलम के जोर पर सिनेमा से रोजी-रोटी जुगाड़े हैं। वे मीडिया के अपने अनुभव को भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए धारावाहिक रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आप अगर आलोक से कुछ कहना चाहते हैं तो उन्हें [email protected] के जरिए पकड़ सकते हैं।