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पत्रकारिता की काली कोठरी से (11)

Alok Nandan

जैसे-जैसे ट्रेन जम्मू की ओर जा रही थी, मीनाक्षी के कहे शब्द- ‘जम्मू मंदिरों का शहर है”, के अर्थ मेरी आंखों के सामने स्पष्ट होते जा रहे थे। जहां-तहां परेड करते और दौड़ते-भागते सैनिकों के झुंड अहसास करा रहे थे कि मैं एक संवेदनशील शहर की ओर बढ़ रहा हूं। पूरे ट्रेन में या तो तीर्थयात्री थे या फिर सैनिक। ट्रेन में बहुत जल्द मैं इन सैनिकों से घुल-मिल गया। मेरा बचपन नगालैंड की पहाड़ियों में बीता था। वहां पर सैनिकों के जीवन को नजदीक से देखने का मौका मिला था।

Alok Nandan

Alok Nandan

जैसे-जैसे ट्रेन जम्मू की ओर जा रही थी, मीनाक्षी के कहे शब्द- ‘जम्मू मंदिरों का शहर है”, के अर्थ मेरी आंखों के सामने स्पष्ट होते जा रहे थे। जहां-तहां परेड करते और दौड़ते-भागते सैनिकों के झुंड अहसास करा रहे थे कि मैं एक संवेदनशील शहर की ओर बढ़ रहा हूं। पूरे ट्रेन में या तो तीर्थयात्री थे या फिर सैनिक। ट्रेन में बहुत जल्द मैं इन सैनिकों से घुल-मिल गया। मेरा बचपन नगालैंड की पहाड़ियों में बीता था। वहां पर सैनिकों के जीवन को नजदीक से देखने का मौका मिला था।

अत: सैनिकों के मिजाज को अच्छी तरह से जानता था। बचपन के अनुभव पत्रकारिता के काम आ रहे थे। देश पर मर मिटने की छवि वाले भारतीय सैनिक अपने वेतन में इजाफा के विषय में ज्यादा सोचते थे। अधिक पैसों की उम्मीद में कठिन स्थानों पर पोस्टिंग के लिए वे लालायित रहते थे। उनसे बातचीत के दौरान उनकी इसी मनोवृत्ति का आभास हुआ। वे लोग बार-बार यही जानने की कोशिश कर रहे थे कि मुझे जम्मू जैसे क्षेत्र में काम करने के एवज में कितने पैसे मिल रहे हैं। वे लोग खुद अपने पैसों का भी हिसाब लगा रहे थे। उनकी बातचीत दो ही विषयों पर केंद्रित थी, वेतन और छुट्टी। उनके साथ बैठकर देसी तंबाकू खाते और सिगरेट-बीड़ी थूकते मैं जम्मू की ओर बढ़ा जा रहा था। कब सूरज ढला और कब अंधरे ने पृथ्वी को अपने आगोश में ले लिया, मुझे पता ही नहीं चला। रात दस बजे के करीब ट्रेन जम्मू पहुंची।

प्लेटफार्म पर चारों ओर सैनिकों का तांता लगा था। कई जगहों पर बालू की बोरियों की आड़ में सैनिक अपनी राइफलों के साथ मुस्तैदी से खड़े थे। प्लेटफार्म से बाहर निकलने के बाद लोकल बूथ से राजेन्द्र तिवारी को फोन लगाया। उनसे बात करने के बाद ऑटो पकड़कर जम्मू स्थित अमर उजाला दफ्तर रवाना हुआ। जम्मू की सड़कों पर रात का सन्नाटा पसरा था। तवी नदी पार करने के दौरान पुराने जम्मू को नदी में रिफ्लेक्ट होते देखकर मैं रोमांचित था।

करीब 20 मिनट के बाद पुरानी जम्मू के एक बाजार में स्थित अमर उजाला के दफ्तर में राजेंद्र तिवारी के सामने बैठा हुआ था। दिल्ली के संबंध में राजेंद्र तिवारी ने तमाम तरह की बातें पूछीं। बड़ी सहजता के साथ मैं उनके सभी प्रश्नों का उत्तर देता गया। मेरे संबंध में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने मेरी मुलाकात रिस्पेशन पर बैठने वाले जोशी से करा दी। रात का खाना और होटल में ठहरने की व्यवस्था जोशी ने पलक झपकते कर दी। थकान दूर करने के लिए दो-चार पैग गटकने के बाद अपने कमरे में लगे बेड पर निढाल हो गया।

सुबह मंदिरों की घनघनाहट से मेरी नींद टूटी। जागते शहर को देखने के उद्देश्य से सड़कों पर निकल गया। दूर तक टहलता रहा। सफाई कर्मचारी सड़कों पर झाड़ू लगाते, कचड़े को उठाकर लॉरियों में डालते दिख रहे थे। हर सड़क और गली में मंदिरों की घंटिया गूंज रही थीं। समय के साथ जब लोगों की आवाजाही सड़कों पर बढ़ने लगी तो मैं वापस अपने कमरे में आ गया। फ्रेश होने के बाद अपने ऑफिस पहुंचा।

साढ़े दस बजे के करीब सभी लोग ऑफिस में जमा हो गये थे। इनमें अधिकतर रिपोर्टर और फोटोग्राफर थे। राजेन्द्र तिवारी ने मेरा परिचय सभी लोगों से करा दिया। उस वक्त तक जम्मू से अमर उजाला का संस्करण नहीं निकल रहा था, हालांकि राजेंद्र तिवारी लगातार यहां से खबरें भेज रहे थे। अब जम्मू से ही पेज बनाकर मॉडम के जरिये जालंधर भेजने की योजना थी। वह इसी का अभ्यास करने की तैयारी में जुटे हुये थे। सभी रिपोर्टरों को पहले से बीट दी जा चुकी था। मुझसे बिना पूछे ही उन्होंने जम्मू के अस्पताल, नगर निगम, जल बोर्ड व बिजली विभाग से खबरें निकालने की जिम्मेदारी मुझे सौप दी। बीट रिपोर्टिंग के चक्कर में मै अब तक नहीं पड़ा था। मेरी आदत चलते-चलते खबरों पर झपट्टा मारने की थी। बीट का व्याकरण मेरी स्वतंत्र प्रवृत्ति के विपरीत था। जब मैंने उनसे कहा कि मैं तो कश्मीर में घुसने के इरादे से यहां आया हूं, तो थोड़ी देर चुप्पी के बाद उन्होंने कहा- ‘कश्मीर की  खबरें नवीन नवाज देख रहा है, फिलहाल आप अपनी बीट पर काम कीजिये।’

इस बैठक के बाद मैं जम्मू अस्पताल, नगर निगम, जम्मू जल बोर्ड और बिजली विभाग के दफ्तर में भटकता रहा। एक ही बार में मैं समझ गया कि जम्मू शहर में बिजली और जल की कमी थी। अस्पताल की स्थिति अन्य शहरों की अपेक्षा ठीक थी। नगर निगम कुछ लचर तरीके से चल रहा था। नगर निगम का कार्यभार उन दिनों कोतवाल साहेब संभाले थे। आधे घंटे तक उनके चैंबर के बाहर बैठने के बाद मुझे उनसे मिलने का अवसर मिला। इस दौरान उनके चैंबर के बाहर पड़ी गंदगी पर नजर गई। चारों और गुटके की पीक पड़ी थी। एक गंदे रेफ्रिजरेटर के सामने पड़े गिलास में जंग लगी हुई थी। 

उनसे सामना होते ही मैं पूछ बैठा, ‘जब आप अपने ऑफिस को साफ सुथरा नही रख सकते, तो नगर को कैसे साफ सुथरा रखेंगे?’ उस समय उनके चेंबर में कई लोग बैठे थे।

उन्होंने सभी को जल्दी-जल्दी बाहर किया। फिर मेरे सवालों का जवाब तलाशने लगे। उन्होंने बताया कि वह एक डॉक्टर भी हैं, इसलिए नगर को अच्छे तरीके से साफ-सुथरा रख सकते हैं।

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मैंने कहा कि रेफ्रिजरेटर के पास गिलास में जंग है। आप कैसे डॉक्टर हैं?

अपनी बौखलाहट को छुपाते हुये उन्होंने कहा, ‘मैं नहीं चाहता कि लोग गिलास छुवें, क्योंकि इससे एड्स फैलता है।’

‘आप तो शबाना आजमी के एड्स के खिलाफ चलाये जा रहे जागरूकता प्रचार की रेड़ मारने पर तुले हुये हैं। वह टीवी पर कहती फिर रही हैं कि छूने से एड्स नहीं होता और आप कहते हैं कि…’

शाम को वापस अपने ऑफिस आकर मैंने कोतवाल साहेब पर एक लंबी खबर तान दी। इस खबर को पढ़ने के बाद राजेन्द्र तिवारी ने मुझसे कहा, ‘लगता है कि आप अधिकारियों से खार खाते हैं।’

मैंने कहा, ‘सच सच होता है, इसमें खार खाने वाली क्या बात है।’

बहरहाल पहले दिन खबर में मैंने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी, लेकिन इन नालियों, गलियों और अस्पतालों से मैं पूरी तरह से असंतुष्ट था। मेरी स्थिति चले थे राम भजन को ओटन लगे कपास वाली हो गई थी। 

बीट वाली इस पत्रकारिता में मैं अपने आप को फिट करने की पूरी कोशिश करा था। हालांकि काम ज्यादा नहीं था, शाम तक सिर्फ तीन खबरें लिखनी होती थी। दिनभर मटरगश्ती करने के बाद तीन खबरें खोज निकलना मेरे लिए बच्चों का खेल जैसा था। बहुत ही कम समय में जम्मू में मैंने अपनी मजबूत नेटवर्किंग कर ली थी। राजेन्द्र तिवारी के लिए सुबह की मीटिंग बहुत ही महर्त्वपूण हुआ करती थी। सभी रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों के लिए इस मीटिंग में आना जरूरी था। लोग चाय पीते थे और एक कॉपी पर यह लिखते थे कि आज वो कौन-कौन सी खबरें देने जा रहे हैं। अपने पत्रकारिता के कैरियर में राजेन्द्र तिवारी ने जो कुछ सीखा था यहां पर उसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे थे। रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों की रूटीन मीटिंग की परंपरा के वे सच्चे वाहक थे। वह यह दावा करने से नहीं चूकते थे कि उनके पास एक इन्नोवेटिव माइंड है। यह रूटीन मीटिंग मेरे लिए जंजाल थी। सुबह से ही दूर-दराज के लोग मेरे पास खबरें लेकर पहुंचे रहते थे। इस बेतुकी मीटिंग में बैठने के बजाय मैं बाहर शिकार पर निकलना ज्यादा बेहतर समझता था। कॉपी में भावी खबरों के संबंध में लिखने पर भी मुझे झुंझलाहट होती थी।

एक दिन उन्होंने पूछा कि आप दिये जाने वाले खबरों को कॉपी में क्यों नहीं दर्ज करते। मेरे मुंह से ‘मेरा दागिस्तान’ का एक संवाद निकल पड़ा, ‘शेर को शिकार पर निकलने के पहले यह कैसे पता होगा कि आज वह गीदड़ मारेगा या हिरण या गेंडा। जहां तक मैं जानता हूं कि एक रिपोर्टर को खुद पता नहीं होता है कि आज उसके हाथ कौन सी खबरे लगने वाली हैं। इस कॉपी को काला करने का तुक मेरी समझ में नहीं आता।’

इस घटना के बाद सभी रिपोर्टरों के मुंह पर शेर वाला जुमला चढ़ गया था।

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वहां के अधिकतर रिपोर्टर मुझे पसंद करने लगे। मेरे सामने दिल की बात खुलकर बोलने लगे। इन्हीं रिपोर्टरों से मालूम हुआ कि मेरे यहां आने से पहले कई रिपोर्टरों ने राजेन्द्र तिवारी के खिलाफ सुरेश डुग्गर के नेतृत्व में बगावत की थी। राजेन्द्र तिवारी के आने से पहले रिपोर्टरों की कमान सुरेश डुग्गर के हाथ में थी। जम्मू से लंबे समय तक फ्रीलांसिंग और हिन्दुस्तान अखबार में रिपोर्टिंग करने के बाद सुरेश डुग्गर अमर उजाला में आ गये थे। जम्मू में अमर उजाला की टीम तैयार करने में उन्होंने महर्त्वपूण भूमिका निभाई। पूरी टीम सुरेश डुग्गर के प्रति समर्पित थी। शक्ति संतुलन की नीति के तहत राजेन्द्र तिवारी को जम्मू भेजा गया था। जिस वक्त राजेन्द्र तिवारी जम्मू में दाखिल हुये थे, उस वक्त सुरेश डुग्गर को यही जानकारी दी गई थी वह उनका हाथ बटाने के लिए आ रहे हैं। जम्मू आने के बाद राजेन्द्र तिवारी ने अपने तरीके से सुरेश डुग्गर की टीम को धौंस में लेना शुरू कर दिया था। इसी के साथ ही अखबार के अंदर गैंगबाजी शुरू हो गई थी।

पूरी टीम सुरेश डुग्गर के पक्ष में थी, जबकि राजेन्द्र तिवारी खुद जम्मू का वास्तविक निजाम बनने के लिए हर तरह के हथकंडों का इस्तेमाल कर रहे थे। सुरेश डुग्गर का पक्ष लेते हुये यहां के पत्रकारों ने एक दिन खबर लिखने से ही इनकार कर दिया था। वे लोग ऑफिस में आये लेकिन कंप्यूटरों को हाथ तक नहीं लगाया। यह कंप्यूटर बंद स्ट्राइक थी। यहां के माहौल पर काबू पाने के लिए रामेश्वर पांडे को खुद  आना पड़ा था। बंद कमरे में एक-एक रिपोर्टर से उन्होंने अलग से बात करते हुये स्थिति का आकलन करने की कोशिश की। उन्होंने सभी रिपोर्टरों से कहा था कि यदि आप लोग काम नहीं करेंगे तो मैं ऑफिस को बंद कर दूंगा। इतने सारे लोगों को पैदल करने के बजाय सुरेश डुग्गर ने खुद अमर उजाला से निकलना बेहतर समझा। गैंग को बचाने के लिए अपनी बलि देने वाले पत्रकार बहुत कम होते हैं। वहां के रिपोर्टरों की बातों से यही लगता था कि सुरेश डुग्गर ने उनके लिए खुद की बलि दी थी। जो भी हो, छींका बिल्ली के भाग्य से टूट गया था। रामेश्वर पांडे ने राजेन्द्र तिवारी को जम्मू में अमर उजाला का निजाम घोषित कर दिया था।

राजेन्द्र तिवारी पत्रकारिता के अंदर के तौर-तरीकों से वाकिफ थे। पत्रकारिता में सफलता पाने के मैकेनिज्म के वे बेहतर खिलाड़ी थे। रिपोर्टरों पर प्रभुत्व बनाने के लिए वह हमेशा कमजोर व्यक्ति पर जोरदार तरीके से चीखते और चिल्लाते थे। उनकी चीख और चिल्लाहट का शिकार अक्सर निजाम साहब होते थे। पत्रकारिता में वह पुरानी पीढ़ी के प्रतिनिधि थे, टाइपिंग एक उंगली से करते थे। उन्हें मेरठ से जम्मू भेजा गया था। राजेन्द्र तिवारी इस तरह से उन पर झपट्टा मारते थे कि अन्य लोग सहम जाते। हालांकि उनकी इस घुड़की का मेरे ऊपर कोई असर नहीं होता था, लेकिन उनका निजाम साहब को बुरी तरह से डांटना निःसंदेह मुझे अच्छा नहीं लगता था।

निजाम साहब के प्रतिकार के अभाव में राजेन्द्र तिवारी का मुंह कुछ ज्यादा ही खुल गया था, जबकि वहां के स्थानीय रिपोर्टरों या फोटोग्राफरों से कुछ बोलने के पहले वह हजार बार सोचते थे। चार्ल्स डाविर्न का सिद्धांत ‘शक्तिशाली कमजोर को खा जाता है’ पत्रकारिता की इस दुनिया में पूरी तरह से लागू होती है। पत्रकारिता की दुनिया में ऐसे दृश्यों की कल्पना मैंने कभी नहीं थी। मेरे जेहन में तो फ्रांसीसी क्रांति के ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ के नारे बसे हुये थे। दुनियाभर के पत्रकारों ने इन नारों को न सिर्फ सलाम किया था, बल्कि उनके कलम लंबे समय तक इन्हीं नारों से संचालित होते रहे और आज भी हो रहे हैं। मेरा यही मानना था कि जो पत्रकार इन नारों को अपने दिन प्रतिदिन के कार्य में आत्मसात नहीं करता, उसे अरब सागर में डुबो देना चाहिए था। मेरे लिये पत्रकारिता शक्ति का खेल नहीं, बल्कि मानव की गरिमा को बहाल करने का एक माध्यम था। छोटी कुर्सी से बड़ी कुर्सी तक का सफर मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता था।


पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हैं और हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के दिनों के अपने अनुभव धाराविहक रूप में पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए भाग (1),  (2), (3)(4), (5), (6), (7), (8), (9), (10) पर क्लिक कर सकते हैं। 12वां पार्ट अगले रविवार को पढ़ें।

आलोक से संपर्क [email protected] से किया जा सकता है।

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