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मैं भास्कर का कर्जदार क्यों हूं?

[caption id="attachment_16556" align="alignleft"]आलोक तोमरआलोक तोमर[/caption]आज कल देश भर से ई-मेल और एसएमएस आ रहे हैं जिनका सार यह है कि जिस भास्कर समूह का नमक हजारों पत्रकार खाते हैं और तुम भी खा चुके हो, उसके खिलाफ लगातार लिख कर के साबित क्या करना चाहते हो? कुछ मित्रों ने याद दिलाया है कि पहले मैंने नई दुनिया के अभय छजलानी के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था क्योंकि शायद मुझे वहां नौकरी नहीं मिली थी और मैं असल में अपने गुरु प्रभाष जोशी के स्टेनो के तौर पर काम कर रहा था। नई दुनिया वाली कहानी खत्म हो गई लेकिन यह सारे दोस्त भास्कर वाले हैं। आम तौर पर डेस्क पर या शुरुआती पदों पर काम करने वाले। लगता हैं जैसे इन्हें आलोक तोमर के नाम की सुपारी दे दी गई है और कहा गया है कि नेट पर ही निपटा दो। मगर जो तथ्य निकल कर आ रहे हैं वे इतने प्रचंड हैं कि अपन तो लिखेंगे और देख लेंगे कि कितनी ताकत इन महाबलियों के पास हैं। अब हेमलता अग्रवाल की बात लीजिए। वे भास्कर के संस्थापक द्वारका प्रसाद अग्रवाल की सबसे बड़ी बेटी हैं और जब भास्कर समूह का कॉरपोरेट रूप बन रहा था तो उन्हें बाकायदा संयुक्त प्रबंध निदेशक बनाया गया था। रमेश चंद्र अग्रवाल को शायद अपनी सौतेली बहन की हिस्सेदारी मंजूर नहीं थी।

आलोक तोमरआज कल देश भर से ई-मेल और एसएमएस आ रहे हैं जिनका सार यह है कि जिस भास्कर समूह का नमक हजारों पत्रकार खाते हैं और तुम भी खा चुके हो, उसके खिलाफ लगातार लिख कर के साबित क्या करना चाहते हो? कुछ मित्रों ने याद दिलाया है कि पहले मैंने नई दुनिया के अभय छजलानी के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था क्योंकि शायद मुझे वहां नौकरी नहीं मिली थी और मैं असल में अपने गुरु प्रभाष जोशी के स्टेनो के तौर पर काम कर रहा था। नई दुनिया वाली कहानी खत्म हो गई लेकिन यह सारे दोस्त भास्कर वाले हैं। आम तौर पर डेस्क पर या शुरुआती पदों पर काम करने वाले। लगता हैं जैसे इन्हें आलोक तोमर के नाम की सुपारी दे दी गई है और कहा गया है कि नेट पर ही निपटा दो। मगर जो तथ्य निकल कर आ रहे हैं वे इतने प्रचंड हैं कि अपन तो लिखेंगे और देख लेंगे कि कितनी ताकत इन महाबलियों के पास हैं। अब हेमलता अग्रवाल की बात लीजिए। वे भास्कर के संस्थापक द्वारका प्रसाद अग्रवाल की सबसे बड़ी बेटी हैं और जब भास्कर समूह का कॉरपोरेट रूप बन रहा था तो उन्हें बाकायदा संयुक्त प्रबंध निदेशक बनाया गया था। रमेश चंद्र अग्रवाल को शायद अपनी सौतेली बहन की हिस्सेदारी मंजूर नहीं थी।

इसलिए कंपनी की इक्विटी शेयर का बहुमत अपने नाम करने के लिए उन्होंने तमाम तरीके अपनाए। ये सुप्रीम कोर्ट का फैसला कह रहा है कि इसके लिए 1956 के कंपनी एक्ट का उल्लंघन भी किया गया। इसी फैसले में यह भी कहा गया है कि द्वारका प्रसाद अग्रवाल एंड ब्रदर्स ने भास्कर पब्लिकेशन एंड अलाइड इंडस्ट्रीज को प्रींटिंग प्रेस लीज पर दी थी मगर बाकायदा इस पर कब्जा भी कर लिया गया। प्रेस पर ताला लगा दिया गया और एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट ने पुलिस से ताला खुलवाया मगर द्वारका प्रसाद अग्रवाल को यह प्रेस उनके जीते जी फिर कभी वापस नहीं मिली।

खुद रमेश अग्रवाल ने जबलपुर के कलेक्टर के सामने हलफनामा देकर कहा कि द्वारका प्रसाद अग्रवाल एंड कंपनी दैनिक भास्कर अखबार की मालिक है। यह हलफनामा भी पीआईवी एक्ट के तहत द्वारका प्रसाद अग्रवाल और अन्य की ओर से दाखिल किया गया था। फिर कहानी में मोड़ कहां से आया यह समझ में नहीं आता। आप जानते हैं कि बीच में रमेश अग्रवाल और उनके बेटे सुधीर अग्रवाल को जब लगने लगा कि भास्कर नाम उनके हाथ से जाने ही वाला हैं तो उन्होंने नव भास्कर के नाम से अखबार निकालने के लिए आवेदन किया।

अब महेश अग्रवाल यह कहते हैं कि द्वारका प्रसाद अग्रवाल एंड ब्रदर्स में उनका तीस प्रतिशत हिस्सा है। उनकी चिट्ठी के आधार पर कंपनी मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने मुंबई स्टाक एक्सचेंज को पत्र लिख कर भास्कर समूह के शेयर्स के मामले में और खास तौर पर इसके स्वामित्व के सवाल पर सतर्कता बरतने के लिए निर्देश दिए ताकि आम निवेशक को धोखा न हो।

आरएनआई यानी समाचार पत्रों के पंजीयक कार्यालय में अचानक दैनिक भास्कर द्वारका प्रसाद अग्रवाल एंड ब्रदर्स से रायटर्स एंड पब्लिशर्स की संपत्ति बन गया। लकवे के शिकार और भास्कर को देश का सबसे बड़ा अखबार बनाने का सपना देखने वाले द्वारका प्रसाद अग्रवाल को आरएनआई की एक चिट्ठी से इस बात का पता चला। मामला जब सुप्रीम कोर्ट में था तो सीधे आदेश दिए गए कि 29 जून 1992 को भास्कर के स्वामित्व की जो स्थिति थी वही वैध मानी जाएगी। यह फैसला 7 जुलाई 2003 को आया था।

इसके बावजूद डीबी कार्प्स के नाम से शेयर बेचने का जो ऐलान किया गया उसमें सिर्फ इसका बहुत नन्हें अक्षरों में हवाला दे दिया गया। अदालत के आदेश पर जहां जहां से भास्कर का प्रकाशन होता है उन सब जगहों के कलेक्टरों को निर्देश दिए गए कि वे एक तो नव भास्कर नाम से रमेश चंद्र अग्रवाल या द्वारका प्रसाद अग्रवाल को अखबार पंजीकृत करने की अनुमति नहीं दे और दूसरे यह सुनिश्चित करें कि भास्कर का स्वामित्व जिस कंपनी के नाम हैं उसमें कोई हेर फेर नहीं किया जाए।

कहानी आइने की तरह साफ है। अदालत एक बार फैसला दे चुकी हैं और जो अपीले की गई हैं उन पर भी देर सबेर जब भी फैसला आएगा तब तथ्य बोलेंगे, तिकड़में नहीं। तथ्य यह है कि भास्कर समूह आज की तारीख में देश की काफी बड़ी ताकतों में से एक हैं और आरएनआई पर जरूर कोई काला जादू चलाया गया होगा क्योंकि एक असाधारण मामले में पंजीयक ने भास्कर के स्वामित्व का फैसला करने के लिए सभी पक्षों की बैठक बुलाई। कानूनन वे ऐसी कोई बैठक नहीं बुला सकते थे। बैठक रद्द करनी पड़ी मगर अपनी ओर से समाचार पत्रों के तत्कालीन पंजीयक ने स्वामित्व बदलने का फैसला रायटर्स एंड पब्लिशर्स कंपनी के नाम कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में यह भी लिखा है कि पंजीयक का यह काम गैर कानूनी था।

कहानी के कई पहलू हैं और हम कोई वकील नहीं हैं कि उन सबको आसानी से समझ सके या आपको समझा सके। इसलिए अपन सीधे नमकहरामी वाले इल्जाम पर आ जाते हैं। भास्कर में मैंने कभी नौकरी नहीं की। एक बार खुद स्वर्गीय द्वारका प्रसाद अग्रवाल ने बुलाया था मगर पहले भी लिख चुका हूं कि इरादा दिल्ली आने का था इसलिए वहां काम नहीं कर सका।

इसके बाद सन 2000 के आसपास खुद भास्कर समूह से बुलावा आया कि आप भास्कर के भाषा सलाहकार बन जाइए। यह बुलावा हमारे अत्यंत प्रतिभाशाली दोस्त और फिलहाल भास्कर समूह में संपादक यशवंत ब्यास की ओर से आया था। जयपुर से शुरूआत की। महीने में एक या दो बार जाता था, कुछ दिन रहता था और पत्रकारों के बीच बैठ कर उनकी कॉपी ठीक करता था। पहले लंबे दौर में खासा कोठी सर्किट हाउस में रहा और दूसरी बार एक होटल में। इस होटल की भी एक कहानी है।

एक बार उस समय भास्कर के जयपुर संस्करण के संपादक और अब दिवंगत बाबू लाल शर्मा खाने पर आए थे। बाबू लाल जी को उस जमाने से जानता था जब वे माया पत्रिका के संपादक होते थे। खाने के साथ दो दो बीयर भी ली गई। बाद में जब बिल अदायगी के लिए भेजा गया तो बीयर के चार सौ रुपए मेरी फीस में से काट लिए गए। अपने संपादक के प्रति इतना सम्मान हैं भास्कर समूह के मालिकों का।

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भास्कर के वर्तमान समूह संपादक श्रवण गर्ग बड़े भाई की तरह हैं और उन्होंने ही डेटलाइन इंडिया की सेवाएं बीस हजार रुपए प्रतिमाह पर लेना शुरू की थी। रोज पहले पन्ने पर खबरे छपती थी। सप्ताह में एक बार संपादकीय पन्ने पर फोटों के साथ लेख छपता था। उन दिनों मेरा लिखा टीवी धारावाहिक जी मंत्री जी स्टार पर प्रसारित हो रहा था। जी टीवी पर प्रधानमंत्री नामक धारावाहिक चल रहा था। मेरे सीरियल की लोकप्रियता इतनी थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सीरियल के निर्माता एनडीटीवी को फोन कर के उसके कैसेट मंगवाए। हमारे एक उत्साही साथी ने खबर भेज दी कि टीवी के लोकतंत्र में प्रधानमंत्री को मंत्री ने पछाड़ा। हमें भी नहीं पता था कि जी टीवी के साथ भास्कर समूह के व्यवसायिक रिश्ते हैं। जी के मालिकों ने आपत्ति की और डेटलाइन इंडिया की सेवाएं खत्म। सो जो नमक खाया, अपने काम का खाया, किसी के दान का नहीं खाया।

चलते चलते एक सूचना यही कि मैं भास्कर समूह का आजीवन कर्जदार क्यों हूं? एक बार उसी भाषा संपादक के अवतार में जयपुर में था तो श्री माधव राव सिंधिया का फोन आया। उन्होंने कहा कि कानपुर में एक रैली हैं और तुम्हे चलना है। बात मोबाइल पर हो रही थी इसलिए श्री सिंधिया भी नहीं जानते थे कि मैं कहा हूं। मैंने कहा कि मैं जयपुर में हूं और आने में कम से कम छह घंटे लग जाएंगे। इस तरह श्री सिंधिया के साथ जाना नहीं हो सका और आप सब जानते हैं कि उसी विमान दुर्घटना में श्री सिंधिया और हमारे कई पत्रकार साथी मारे गए थे। इसलिए अगर भास्कर ने मुझे जयपुर बुला कर काम नहीं दिया होता तो शायद मैं भी उस जहाज में बैठता और मेरी कई पुण्य तिथिया मन चुकी होती। धन्यवाद यशवंत ब्यास, आपकी वजह से मैं जिंदा हूं। वैसे भास्कर ने मेरी फीस का पूरा हिसाब आज तक नहीं किया। मगर जिंदगी बच गई इसलिए उन्हें माफ करते हैं।


लेखक आलोक तोमर जाने-माने पत्रकार हैं.

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