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प्रभाष जोशी के पड़ोस में होली की वसूली

आलोक तोमरहमारे समाज में एक परंपरा रही है कि घर का कोई बड़ा बूढ़ा संसार से चला जाता है तो उस साल कोई उत्सव नहीं मनाया जाता। एक साल का यह पारिवारिक शोक धार्मिक नहीं बल्कि आत्मीय रिवाज है। कहने की जरूरत नहीं कि प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता के सबसे बड़े और सबसे खरे नाम थे। अचानक वे चले गए और जाते जाते भी वे अनेक आंदोलनों में शामिल थे। उनका जाना सिर्फ जनसत्ता वालों के लिए नहीं बल्कि पूरी पत्रकारिता के लिए समवेत शोक हैं। प्रभाष जी जनसत्ता हाउसिंग सोसायटी के अध्यक्ष थे। दरअसल उन्हीं की प्रेरणा से यह सोसायटी बनी थी और निर्माण विहार में अच्छा खासा घर होने के बावजूद प्रभाष जी इसी सोसायटी के पहली मंजिल वाले घर में रहते थे। आखिरी रात भी वे यहीं थे।

आलोक तोमर

आलोक तोमरहमारे समाज में एक परंपरा रही है कि घर का कोई बड़ा बूढ़ा संसार से चला जाता है तो उस साल कोई उत्सव नहीं मनाया जाता। एक साल का यह पारिवारिक शोक धार्मिक नहीं बल्कि आत्मीय रिवाज है। कहने की जरूरत नहीं कि प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता के सबसे बड़े और सबसे खरे नाम थे। अचानक वे चले गए और जाते जाते भी वे अनेक आंदोलनों में शामिल थे। उनका जाना सिर्फ जनसत्ता वालों के लिए नहीं बल्कि पूरी पत्रकारिता के लिए समवेत शोक हैं। प्रभाष जी जनसत्ता हाउसिंग सोसायटी के अध्यक्ष थे। दरअसल उन्हीं की प्रेरणा से यह सोसायटी बनी थी और निर्माण विहार में अच्छा खासा घर होने के बावजूद प्रभाष जी इसी सोसायटी के पहली मंजिल वाले घर में रहते थे। आखिरी रात भी वे यहीं थे।

इस सोसायटी के कुछ परम उत्साही लोगों ने तय किया कि होली का त्यौहार बहुत शान से और धूम धाम से मनाएंगे। जनसत्ता सोसायटी के मैदान में ही होली खेली जाएगी, रंग बिखेरे जाएंगे और फिर दावत होगी। ये उत्साही आयोजक इस उत्सव के लिए सोसायटी में सबसे चंदा वसूल कर रहे हैं। हो सकता है कि प्रभाष जी के घर भी उनका जाना हो और वहां भी वे चंदा मांगे। प्रभाष जी खुद बहुत उत्सव प्रिय व्यक्ति थे और उनकी उत्सव धर्मिता भी लोगो को याद रहेगी। मगर उनके चले जाने के बाद पहली होली उनकी रची जनसत्ता सोसायटी में मने यह हजम होने वाली बात नहीं है। अभी तो प्रभाष जी को चाहने वालों की आंखों के आंसू भी नहीं सूखे हैं।

प्रभाष जोशी को गुजरे अभी चार महीने भी नहीं हुए. उनकी शोक सभाओं का सिलसिला पूरे देश में चल रहा है पर उनके कुछ तथाकथित चेलों ने उनके घर के सामने ही होली का जश्न मनाने का फैसला किया है। प्रभाष जोशी के कहने पर जो सोसायटी बनी, वहां के चंद लोग इस होली पर जश्न मनाने जा रहे हैं। इसके लिए 350 रुपये जबरन चंदा भी लिया जा रहा है ताकि सामूहिक भोज (जिसे इस मौके पर गिद्ध भोज कहना ज्यादा उचित होगा) हो और होली का बाकी कार्यक्रम हो सके। इस बारे में जनसत्ता के कुछ पत्रकारों ने विरोध भी किया लेकिन सोसायटी के कर्ताधर्ता जो अपने को भारत सरकार मानते हैं, वे चंदा उगाहने में जुटे हुए हैं।

ज्यादातर लोगों का कहना है कि प्रभाष जी के कुछ महीने पहले हुए निधन को देखते हुए कोई सामूहिक जश्न और भोज का कार्यक्रम नहीं किया जाना चाहिए. उनका परिवार और उनके करीबी लोगों को यह सब बुरा भी लगेगा पर फिर भी उनके तथाकथित चेले जश्न मनाने में जुटे हुए हैं। इससे पहले इलाहाबाद में जिस आदमी के खिलाफ प्रभाष जोशी आन्दोलन करने गए थे और कहा था- अगर सर कटाने की बात आई तो पहला व्यक्ति मै होऊंगा, उसी आदमी की चौखट पर उनकी अस्थियां रख कर उनका अनादर क्या जा चुका है। इसे लेकर इलाहाबाद के छात्र अपनी नाराजगी भी जाता चुके हैं। अब दूसरा तमाशा जनसत्ता सोसाइटी में शुरू हो रहा है।

आलोक तोमर जाने-माने पत्रकार हैं.

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0 Comments

  1. snigdha awatans

    February 16, 2010 at 9:20 am

    Jansatta society men jokuchh ho raha hai wah sharmnak hai. Patrakar jabran wasooli karen,yah baat apneap men galat hai. Prabhash ji ke nidhan par abhi shok manana chahiey, holi naheen.

  2. ravi sharma

    February 16, 2010 at 10:44 am

    आलोक तोमर जी, आपकी यह बात हजम नहीं हुई। आप प्रभाष जी के चेले हैं और आपको इसमें कोई शर्म भी नहीं है। यह बात ठीक है। हर किसी को अपना पक्ष चुनने की आजादी है। लेकिन प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता के सबसे बडे और खरे नाम थे, यह कहने का हक आपको किसने दे दिया। प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता के जातिवादी चेहरे का प्रतीक थे। और उनके मरने से पहले यह बात कुछ उत्‍साही लोगों के कारण खूब उछली भी थी।

    एक बात और कहना चाहता हूं। कोई आदमी जातिवादी हो, सतीवादी हो या बलात्‍कारी ही क्‍यों न हो, उस मरने पर खुशी जाहिर नहीं की जा सकती। हर आदमी प्रकृति की नियामत है। उसके निर्माण में कई चीजों की भूमिका होती है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं उसके मर जाने के बाद लोग उत्‍सव मनना ही बंद कर दें। आदमी मर जाता है, लेकिन दुनिया चलती रहती है आप जैसे चेलों के प्रलाप के बावजूद।

  3. kalkoot

    February 17, 2010 at 4:31 am

    साहिब आपने बिलकुल सही कहा लेकिन
    चाटुकारिता भी कोई चीज है की नहीं
    बात बात में लोगो देख लेने की धमकी वेब पर लिखना
    की मैं चम्बल से हूँ
    तो उठा बन्दूक और कर दे सफाया उत्सव मनाने वालों का

  4. pratul

    February 17, 2010 at 4:39 am

    alokjee,is tarah ke ghatiya sawal uthana band karein.behtar ho kuch gambheer muddo per kagad kaare kiya karein.prabhashjee chale gaye to kya poora hindi jagat anant kaal tak vilaap kerta rahe? yun bhee utsav dukh aur shok ko door karne ka ek achcha madhyam hai.haan agar aap holi nahi mana rahe hain to iskee soochna de sakte hain.behtar ho holi ke din aap andmaan nicobaar ya lakhshyadweep ka rukh karein.

  5. जनसत्ता परिवार

    February 18, 2010 at 2:29 am

    मित्रो, जिन पत्रकारों को आलोक तोमर के प्रभाषजी की मौत पर होली मनाने के बारे में लिखे पर एतराज है। जिन लोगों को आलोक तोमर की इन भावनाओं से विरोध है। और जिन साथियों को आलोक तोमर की यह श्रद्धा विधवा विलाप लगती है। उनको अपनी सलाह है कि वे अपने पिता की मौत हो जाने पर अपने घर के बाहर दीए जलाएं और दीपावली की तरह जगर – मगर करती रोशनी का आयोजन करें। इन लोगों को अपनी दूसरी सलाह यह भी है कि वे अपने किसी भी सम्मानित परिजन की मौत पर रंग खेलें, गुलाल उड़ाएं। अरे यार, किसी बुजुर्ग और सम्मानित व्यक्ति की मौत के बाद इतना ते संयम रखें कि आपकी अपनी इज्जत बनी और बची रहे। कोई भी, थोड़ा सा भी संजीदा व्यक्ति होगा, वह किसी भी हालत में प्रभाषजी की मौत के बाद तत्काल आ रही इस होली के मौके पर हो रहे रंग खेल और ‘गिद्ध’ भोज को गलत ही कहेगा। फिर भी जो कर रहे हैं, वे अगर करने पर तुल ही गए हैं, तो करने दीजिए। दुनिया में सारे लोग समझदार ही होते हैं, ऐसा तो है नहीं। रही बात प्रभाष जी के हिंदी पत्रकारिता में सबसे बडे और खरे होने की, तो इस पर किसी को एतराज है, तो वे कोई उनकी बराबरी के किसी दूसरे आदमी का नाम बता दें। प्रभाष जी भारतीय पत्रकारिता के सूर्य थे, और अब वे नहीं हैं तो भी हमेशा रहेंगे। यह सार्वजनिक तथ्य है कि भारतीय पत्रकारिता में जिस तरह के मालिकों की पौध खर – पतवार की तरह उग रही है, उसमें किसी भी राम नाथ गोयनका के पैदा होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। तो फिर प्रभाष जी पैदा होने की उम्मीद कैसे ती जा सकती है। मतलब साफ है कि सड़ी हुई मानसिकता के लोग प्रभाष जी के चले जाने के बाद उनके बारे में किसी भी तरह का विधवा विलाप करते रहें। लेकिन प्रभाष जी से सौ सीढ़ियां नीचे खड़े व्यक्ति को पैदा करने का माद्दा आज किसी में भी नहीं है, यह सत्य है। प्रभाष जी ने भारतीय पत्रकारिता को राम बहादुर राय, बनवारी, हरि शंकर व्यास, आलोक तोमर, संजय निरुपम, निरंजन परिहार, राजीव शुक्ला, प्रदीप सिंह, राजेश नायक, जैसे धुरंधर पत्रकार दिए हैं। तो, श्रीश मिश्रा अनिल बंसल, रजनी नागपाल, सुरेन्द्र किशोर, मनोहर नायक, अजय शर्मा, कुमार आनंद, रवींद्र त्रिपाठी, मंगलेश डबराल, पारुल शर्मा, शभु नाथ शुक्ला, श्याम आचार्य, महेश पाण्डेय, अम्बरीश कुमार, प्रभात रंजन दीन, हेमंत शर्मा, आत्मदीप, बीरबल चौरसिया, शम्स ताहिर खान, कुमार संजोय सिंह, जयप्रकाश, विवेक सक्सेना, प्रदीप श्रीवास्तव, मनोज मिश्र, अरविंद मोहन जैसे गजब के लोग भी उन्ही की देन है। वे वास्तव में भारत के सबसे सिद्व और प्रसिद्व संपादक थे। इस तथ्य को स्वीकारो भाई। और जहां तक बात आलोक तोमर की है, तो वे जैसे हैं, वैसे ही है। दुनिया के लिए वे अपने को बदल नहीं सकते। एक खरा और सही पत्रकार ऐसा ही होता है। हम सब एक जैसे ही हैं। और आलोक तोमर जीवन के उस मुकाम पर हैं, जहां कोई उनका समर्थन कर सकता है, या विरोध में खड़ा हो सकता है। पर कोई भी उनको अनदेखा नहीं कर सकता। यही आलोक तोमर के होने की असलियत है। किसी ने आलोक तोमर के लिखे पर टिप्पणी की है कि …हर आदमी प्रकृति की नियामत है। उसके निर्माण में कई चीजों की भूमिका होती है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं उसके मर जाने के बाद लोग उत्सनव मनना ही बंद कर दें। आदमी मर जाता है, लेकिन दुनिया चलती रहती है हम जैसे चेलों के प्रलाप के बावजूद।….., तो ऐसों को अपनी सलाह है कि वे अपने पूजनीय पिताजी की मौत पर शोक के बजाय दीपावली मनाएं और छमिया नचाएं। ठीक रहेगा ना ?

  6. Prime Time India

    February 18, 2010 at 2:41 am

    आलोक जी आपने सही लिखा है। प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता के सबसे बडे और खरे नाम तो थे ही, वे अपनी नजर में भारतीय पत्रकारिता के भीष्म पितामह थे। प्रभाषजी जनसत्ता सोसायटी के मुखिया थे। उस मुखिया की सोसायटी के परिजन कौरव सेना के सदस्य लगते हैं।

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