सुधींद्र कुलकर्णी की अचानक उमड़ी पत्रकारिता ने भाजपा को संकट में डाल दिया है। भाजपा का पत्रकार प्रेम और पत्रकारों को नेता बनाने की आदत ने पार्टी को कई बार परेशान किया है। आज पत्रकारों के भाजपा प्रेम और भाजपा के पत्रकारों पर किए गए उपकारों के बारे में।
एक साहब हुआ करते हैं चंदन मित्रा। एक जमाने में घोर कॉमरेड थे। उसके बाद कांग्रेस के चमचे बने और इनाम में हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बन गए। इसके पहले टाइम्स ऑफ इंडिया में थे और भगवा कायाकल्प तभी शुरू हो गया था। भारत के सबसे पुराने अखबार पॉयनियर में संपादक बने और जब पॉयनियर के मालिक थापर बंधुओं को अखबार चलता हुआ नहीं दिखा तो उन्होंने इसे बेचने का फैसला कर लिया।
चंदन मित्रा उन दुर्लभ पत्रकारों में से एक रहे होंगे जिन्होंने मालिकों से अखबार खरीद लिया। तब तक भाजपा की सरकार आ चुकी थी और लालकृष्ण आडवाणी की चंदन मित्रा पर बड़ी कृपा थी। आडवाणी खुद भी पत्रकार रह चुके हैं इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। बहादुर शाह जफर मार्ग पर एक महंगे पते पर चल रहे अखबार और नोएडा में अखबार की आधुनिक प्रेस खरीदने के लिए आईसीआईसीआई बैंक ने मित्रा को खुल कर कर्जा दिया। यह कर्जा आज तक वापस नहीं हुआ है। आडवाणी के कहने पर बैंक की तब की रीजनल प्रमुख चंदा कोचर ने इस कर्जे की कार्यवाही की थी। कोचर अब बैंक की भारत में मुखिया हैं।
चंदन मित्रा ने बाद में नोएडा की प्रेस, जो बैंक के पास गिरवी रखी थी, वह भी बेच खाई। यह बात अलग है कि पॉयनियर बहुत सारे पत्रकारों का कर्जदार है जिन्हें किसी न किसी बहाने वेतन नहीं दिया गया। बीच में पॉयनियर ने एक हिंदी साप्ताहिक भी निकाला था जिसका उदघाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था और वहां चंदन मित्रा इस बात पर दुखी हो गए थे कि अटल जी ने पुराने रिश्तों की वजह से उनसे ज्यादा भाव मुझे दिया था।
चंदन मित्रा अब भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं और कभी-कभी उन्हें भाजपा का दूत बना कर कई राज्यों में भेजा जाता है। इसके अलावा स्वप्न दास गुप्ता हैं जो पहले वामपंथी थे और अब भाजपा के महान विचारकों में से एक हैं। दास गुप्ता साफ सुथरे आदमी हैं और पार्टी से राज्य सरकारों द्वारा मिल सकने वाली सुविधाओं के अलावा कुछ नहीं लेते। इसके अलावा कंचन गुप्ता हैं जो टेलीग्राफ और स्टेट्समैन में काम करने के बाद कुछ दिन पॉयनियर में भी रहे हैं। वे भी संघ के और भाजपा के प्रतिष्ठित विचारकों में से एक हैं। भाजपा ने सत्ता खोने के बाद अपने खास पत्रकारों कंचन गुप्ता, स्वप्न दास गुप्ता, ए. सूर्य प्रकाश को अपने घर के अखबार पॉयनियर में एक तरह से पेंशन पर रखवा दिया। चंदन मित्रा और उनके साथी, सुधींद्र कुलकर्णी उस दिन से भाजपा की चुनाव रणनीति और खास तौर पर मीडिया रणनीति बनाने में लग गए थे जब 10 दिसंबर 2007 को राजनाथ सिंह ने लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी की ओर से अगला प्रधानमंत्री घोषित किया था।
भाजपा ने पत्रकारों को पर्याप्त भाव दिया है। सबसे पहले दीनानाथ मिश्र जो पांचजन्य के संपादक रहने के बाद 1977 में आडवाणी के सूचना और प्रसारण मंत्री रहते हुए नवभारत टाइम्स में पहुंचाए गए थे, राज्यसभा में उत्तर प्रदेश से निर्वाचित करवाए गए। वे संघ परिवार के पुराने स्वयं सेवक थे। मगर बलवीर पुंज को भाजपा में शामिल करके राज्यसभा में ले जाना सबको चकित करता है। पुंज तो एक्सप्रेस समूह के सबसे नन्हे अखबार फाइनेंशियल एक्सप्रेस के संपादक थे और जहां तक अपनी जानकारी है, संघ परिवार या भाजपा से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। फिर भी वे राज्यसभा में पहुंचे। राज्यसभा में प्रभात झा भी हैं और वे भी पत्रकार रह चुके हैं लेकिन उन्हें इसलिए अपवाद कहा जाएगा क्योंकि वे संघ द्वारा संचालित दैनिक स्वदेश में पत्रकार रह चुके हैं। वहां वे मेरे वरिष्ठ सहकर्मी थे। मगर प्रभात झा ने पार्टी में बहुत काम किया है और ग्वालियर से लेकर भोपाल तक पार्टी कार्यालय के प्रभारी होने के अलावा पार्टी के प्रवक्ता भी रह चुके हैं।
इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी में एक ही कायदे के पत्रकार को लाया गया। उस पत्रकार का नाम है अरुण शौरी। दुनिया के बड़े वित्तीय संस्थानों में लाखों रुपए महीने का वेतन आज से तीस साल पहले लेने वाले अरुण शौरी जय प्रकाश आंदोलन के दौरान उसमें हिस्सेदारी के लिए भारत आए थे। आंदोलन खत्म हुआ तो आसानी से जैसे प्रभाष जोशी सांसद बन सकते थे वैसे ही अरुण शौरी भी सांसद बन सकते थे और नेता भी। लेकिन अरुण शौरी ने पत्रकारिता का रास्ता चुना। इंडियन एक्सप्रेस में दो पारियों में पहले कार्यकारी संपादक और फिर प्रधान संपादक रहे और खोजी पत्रकारिता की ऐसी धूम मचाई कि उन्हें दुनिया के सबसे सम्मानित मैगसेसे सम्मान से सम्मानित किया गया। पद्मश्री और पद्मभूषण तो उन्हें मिल ही चुका है।
अरुण शौरी हद दर्जे के ईमानदार आदमी हैं और उन्हें भ्रष्ट करना बड़े से बड़े धनकुबेर के लिए भी संभव नहीं है। पहले रिलायंस के खिलाफ उन्होंने जो अभियान छेड़ा उससे रिलायंस जैसी महाकंपनी लगभग बंद होने के कागार पर आ गई थी। इसके अलावा बोफोर्स जैसे मुद्दे पर भी उन्होंने सनसनीखेज रहस्योदघाटन किए। भाजपा में उन्हें बाइज्जत लाया गया और योजना तथा विनिवेश का मंत्रालय सौपा गया। उन्होंने बीमार पड़ी सारी सरकारी कंपनियों के विनिवेश की योजना बनाई जो राजनीति में पड़ कर बीच में स्थगित नहीं हो गई होती तो सरकार के खजाने में लाखों करोड़ रुपए आते और लाखों लोगों को रोजगार मिलता। मगर सब अरुण शौरी नहीं होते। ज्यादातर चंदन मित्रा और सुधींद्र कुलकर्णी जैसे ही होते हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी, आपको याद होगा कि पत्रकारिता से राजनीति में आए हैं। वे वीर अर्जुन के संपादक रहे हैं। इसके अलावा स्वदेश और राष्ट्र धर्म जैसे प्रकाशनों की नींव भी उन्होंने रखी है। मगर उनके राजकाज में चाहे जिस जाने-अनजाने पत्रकार को पार्टी में ला कर संसद और मंत्रिमंडल तक नहीं पहुंचा दिया जाता था। सुधींद्र कुलकर्णी भाजपा के लिए जैसे भास्मासुर साबित हुए हैं उसके बाद लालकृष्ण आडवाणी को भी सोचना पड़ेगा कि किस पत्रकार को कितना भाव दें? अपनी तो खैर उनसे बोलचाल ही बंद हैं।