पत्रकार आलोक नंदन ने मीडिया हाउसों की नौकरी न करने की ठान ली है। प्रिंट और टीवी में लंबे समय तक काम करने के बाद उन्होंने क्षुब्ध मन से यह कड़ा और बड़ा फैसला लिया है। आखिर ऐसा क्या हुआ उनके साथ जिसके चलते उन्हें इस सख्त फैसले तक पहुंचना पड़ा? वो क्या अनुभव थे? वे कौन लोग थे? वो कौन सी प्रवृत्ति है जिसके चलते आलोक नंदन जैसे ईमानदार पत्रकार एक समय के बाद वर्तमान पत्रकारिता में खुद को कतई फिट नहीं पाते और इस मीडिया की मुख्य धारा से ही मुंह मोड़ लेते हैं?
इन सवालों के जवाब देने के लिए भड़ास4मीडिया के अनुरोध पर आलोक नंदन अपनी पत्रकारीय ज़िंदगी की दास्तान लिख रहे हैं जो पहली बार इस पोर्टल के जरिए पूरे देश के मीडिया जगत तक पहुंचेगा।
वे खुद की इस सच्ची दास्तान में सब कुछ सच-सच लिखेंगे, ऐसा उनका वादा है। वे किसी को नहीं बख्शेंगे, ऐसा उनका इरादा है। अपने संस्मरण को उन्होंने खुद शीर्षक दिया है- पत्रकारिता की काली कोठरी से। उनके दिए शीर्षक के साथ ही यह दास्तान तब तक हम आप तक पहुंचाते रहेंगे जब तक आलोक नंदन इस दास्तान की कड़ियां लिखते रहेंगे। आज से शुरुआत कर रहे हैं। पहली किश्त पेश है। आप पढ़ें। अगर इस संस्मरण पर आलोक से कुछ कहना है तो आप [email protected] पर उन्हें सीधे मेल कर सकते हैं। भड़ास4मीडिया तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं तो [email protected] पर मेल कर सकते हैं।
– संपादक, भड़ास4मीडिया
माखन लाल चतुर्वेदी के नाम पर ताम-झाम में फंसा
एमए की परीक्षा देने के बाद दिमाग में आगे की तस्वीर पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी थी। पत्रकार बनने के अलावा और कोई लक्ष्य नहीं था। इसके पहले एक झोंक पटना के लगभग सभी अखबारों में मैं छप चुका था, इसलिए छपास की बीमारी से ऊपर उठ चुका था। पत्रकारिता मेरे लिए एक मिशन था, गंभीर मिशन। उस वक्त मुझे लगता था कि पत्रकार बनने के सिवा मैं और कुछ बन ही नहीं सकता था। उस वक्त पटना में घोर गांधीवादी जितेंद्र सिंह सच्चिदानंद पत्रकारिता संस्थान को चला रहे थे। तीन हजार रुपये देकर मैंने वहां एडमिशन ले लिया था, लेकिन सत्र के हिसाब से यह संस्थान काफी पीछे चल रहा था। इस संस्थान को मगध विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त थी, और भ्रष्टाचार व लेटलतीफी के लिए मगध विश्वविद्यालय कुख्यात था।
मार्क्स की ‘दास कैपिटल’ चाट चुका था, हिटलर की ‘मीन कैफ’ जुबानी याद थी और मतदान के दौरान बूथ पर लालू के गुंडों की गुंडागर्दी देखने के बाद लोकतंत्र की सड़ास का निजी अनुभव हो चुका था। लगता था कि बहुत कुछ करना है। कलम को हथियार बनाने की धुन सिर पर सवार हो चुकी थी। सच्चिदानंद पत्रकारिता संस्थान से मोह भंग होने के बाद पत्रकारिता में विधिवत प्रवेश करने के पूर्व अच्छे पत्रकारिता संस्थान की तलाश शुरू कर दी। उसी वक्त जाकिर हुसैन के संस्थापक उत्तम सिंह ने माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय से सांठगांठ करके अपने यहां इसी बैनर के तले पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए अखबारों में विज्ञापन दिए। विज्ञापन देखने के बाद मैंने भी डेढ़ सौ रुपये खर्च करके फार्म खरीदा और भर दिया। इस संस्थान में दाखिले के लिए पूरे ताम-झाम के साथ इंटरव्यू लिया गया।
पटना के सारे छटुआ लोग इंटरव्यू देने के लिए आए थे, कुछ को जानता था और कुछ को बाद में जाना। उत्तम सिंह इंटरव्यू लेने वालों में खुद बैठे हुए थे, और साथ में थे समीर सिंह, जो कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय थे और हमेशा यही कहते थे कि उन्होंने पत्रकारिता में तोप चला रखी है और आज तक के अगुवा एसपी सिंह उनके साले हैं।
बहरहाल, उत्तम सिंह ने मुझसे एक सवाल पूछा था, ‘क्या तुम्हारे परिवार से कोई पत्रकार है?’ मेरा जवाब था- नहीं। इंटरव्यू कोतवाली के बगल इंडियन मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट की बिल्डिंग में चल रहा था। इंटरव्यू देने आए तमाम खुर्राट लोग आरक्षण पर गरमा-गरम बहस कर रहे थे, लालू आरक्षण की आग पर अपनी राजनीति की रोटी सही तरीके से सेंक रहे थे। पूरा समाज स्पष्ट रूप से दो भागों में बंटा हुआ था, पत्रकारिता में दाखिला लेने वाले छात्र भी। कुछ दिन के बाद पत्रकारिता के इस संस्थान में बड़ी सहजता से दाखिला हो गया और क्लास शुरू होने की घोषणा भी कर दी गई।
पहले दिन क्लास में करीब 50 से अधिक लोग आए थे। प्रभात खबर के एक पत्रकार उस दिन पढ़ाने आए थे। पहली क्लास थी। उन्होंने आते ही पत्रकारिता के इतिहास पर बोलना शुरू किया। उनकी घिसी-पिटी बातों को सुनकर मैं कसमसा रहा था। मुझे लग रहा था कि पत्रकारिता के इतिहास को मैं उनसे बेहतर समझा सकता हूं क्योंकि पत्रकारिता से संबंधित बहुत सारी किताबें मैंने न सिर्फ चाट रखी थीं बल्कि गहन चिंतन के बाद पत्रकारिता को लेकर मेरी सोच भी स्पष्ट हो चुकी थी। अपने स्थान से उठकर मैंने उस पत्रकार भाई से कहा, ”आप मेरी जगह पर आकर बैठो और मुझे पढ़ाने दो।”
मेरी बात को सुनकर पत्रकार बंधु थोड़ा घबराए और क्लास छोड़कर जाने की धमकी दी। मुझसे कुछ दूरी पर निर्भय आक्रोश (अब निर्भय देव्यांश हो गए हैं और कोलकाता में पत्रकारिता के साहित्य की सेवा में लगे हुए हैं) बैठे हुए थे। उन्होंने पत्रकार बंधु को क्लास से बाहर जाने को कहा और मुझे पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। क्लास में पहले दिन ही मैं पत्रकारिता के इतिहास को छात्रों के सामने परत दर परत खोलता चला गया। इधर, मैं क्लास में चालू था, उधर उत्तम सिंह के कानों में यह बात पहुंची। वह भागते हुए क्लास में आए और फिर वे मुझे बैठाकर अपने तरीके से पत्रकारिता के फंडे झाड़ने लगे। क्लास में धांसू इंट्री के बाद पहले दिन से छात्रों के बीच मेरी अपनी एक मौलिक पहचान बन गई थी।
इतना तो तय था कि चाहे कुछ भी हो, लेकिन पत्रकारिता को लेकर मैं सामान्य नहीं था। इसको लेकर दीवानगी की सारी सीमाओं को पार कर चुका था। और करता भी क्यों नहीं जब मेरे उम्र के सभी लोग कमीशन की तैयारी कर रहे थे तो मैं फ्रांसीसी और रूसी क्रांति के साथ मगजमारी कर रहा था। एक-एक नंबर की प्रतियोगी पढ़ाई से बहुत दूर, रूसो, मिराब्यू, राब्सपीयर, लेनिन, त्रोतस्तकी आदि को गड़प रहा था।
नियमित क्लास शुरू होने के बाद मैं हर रोज क्लास में सबसे पहले आता था, और ब्लैकबोर्ड पर ‘मीन कैंफ’ से हिटलर की कोई शानदार उक्ति को निकाल रख देता था। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इंग्लैंड के प्रचार अभियान की हिटलर ने तार्किक तरीके से काफी तारीफ की थी, और मैं पूरी तरह से हिटलर का कायल हो चुका था। अचानक घोर साम्यवादी से फासीवादी बनने के मुसोलिनी की कहानी मुझे काफी आकर्षित करती थी। संपादकीय मंडल से निकालने के बाद मुसोलिनी ने जिस तरह से इटली की जनता को सीधे सड़क पर उतर कर संबोधित करना शुरू कर दिया था, उसकी कहानी मुझे बेहद आकर्षित करती थी।
पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मेरे दिमाग में हिटलर, मुसोलिनी और मार्क्स बुरी तरह से फसाद कर रहे थे। दिमाग में चलने वाला संघर्ष जुबान पर अक्सर आ जाता था, और देखते ही देखते उत्तम सिंह मुझे हिटलर कहने लगे और क्लास की लड़कियां मुसोलिनी ।
पत्रकारिता के इस संस्थान में मेरी भाषणबाजी काफी मुखर हो गई थी, और यह बात प्रोफेसर इंचार्ज समीर सिंह को हजम नहीं हो रही थी। एक दिन खास अवसर पर उन्होंने संस्थान में ही एक सार्वजनिक कार्यक्रम का आयोजन किया और उसमें बोलने के लिए अपने मनपसंद छात्रों विवेक और हिमांशु (इस वक्त विवेक कहां हैं, पता नहीं, हिमांशु हिंदुस्तान को अपनी सेवाएं दे रहे हैं) का चयन किया। जब मैंने उनसे अपना नाम वक्ताओं की सूची में डालने को कहा तो उन्होंने कहा- जो तुम कहना चाहते हो, वह मुझे लिखकर दो। अपनी आदत लिखकर बोलने की नहीं थी। सीधे और सपाट तरीके से बोलने का मैं आदी हो चुका था। सभा शुरू हुई, एक के बाद एक वक्ता लोग आते गए और बोलते गए। मुझे मौका नहीं दिया जा रहा था। काफी हील-हुज्जत के बाद उन्होंने मुझे मंच पर बुलाया और कहा कि आप सिर्फ दो मिनट में अपनी बात रखिए। इसके पहले तमाम वक्ता आधे-आधे घंटे तक बोल चुके थे। मैंने एक मिनट में अपनी बात रखते हुए नेपोलियन बोनापार्ट की एक कहानी सुनाई और चलता बना। इस घटना के बाद से यह स्पष्ट हो चुका था कि समीर सिंह हर कदम पर मेरे लिए मुसीबत खड़ी करने वाले हैं। उन्होंने कई छात्रों को जाति विशेष के आधार पर गोलबंद करना शुरू कर दिया। इस छोटे से पत्रकारिता संस्थान में धारा के नीचे एक और धारा बहने लगी। हालांकि मेरा मानना था कि ”नो पोलिटिक्स इज दि बेस्ट पोलिटिक्स”।
इसी बीच एक और घटना गट गई। बिहार के वरिष्ठ पत्रकार विकास कुमार झा ने इस पत्रकारिता संस्थान में एक मई मजदूर दिवस के दिन बाल श्रम पर रोकथाम के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया। सभी छात्रों को इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया। पटना के कई नामी पत्रकार और समाज सेवक इस कार्यक्रम में आमंत्रित थे। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता ”जागो बहन” संस्थान की संस्थापिका कर रहीं थीं, और इसके संचालक थे समीर सिंह।
कार्यक्रम पूरे शबाब पर था। वक्ता लोग एक के बाद एक बाल श्रम के खिलाफ उल्टियां कर रहे थे। इसी बीच मेरी नजर कैंटीन में काम करने वाले एक छोटे से बच्चे पर गई, जो इस सेमिनार हॉल में मौजूद सभी लोगों को पानी पिला रहा था। मेरी खोपड़ी में स्वाभाविक गुस्से की आंधी उठी। अपने बगल में बैठे संदीप (अभी सिक्किम में सरकारी सेवा में लगा हुआ है) से मैंने कहा कि इस मुद्दे को यहीं इसी सभा में मजबूती से उठाना चाहिए। इसके जवाब में उसने कहा, एक पत्रकार का काम है सच्चाई को सामने लाना, सिर्फ कलम चलाना नहीं। यदि नाराज होते हैं तो हो जाएं, हू केयर्स!
हॉल में उठकर मैंने समीर सिंह से कहा कि मैं इसी वक्त कुछ कहना चाहता हूं। समीर सिंह एक कुशल संचालक थे, उन्होंने मुझे अपनी बात कहने की इजाजत नहीं दी। मेरी बात को सुनकर ”जागो बहन” की संस्थापिका ने अपने अध्यक्षीय पावर का इस्तेमाल करते हुए मुझे मंच पर तत्काल बुला लिया। उस बच्चे को अपने साथ लेकर मैं मंच पर पहुंचा, और सीधा सा सवाल किया, इस तमाम भाषणबाजी का क्या तुक है, जब इसी संस्थान में एक बच्चा मई दिवस को सभी लोगों को पानी पिला रहा है। इस बच्चे के अधिकार कहां दफन हैं?
समीर सिंह ने आनन-फानन में विकास कुमार झा के कहने पर इस बच्चे के लिए किताब देने की घोषणा की और मुझसे पूछे बिना उस बच्चे को पढ़ाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी। विकास कुमार झा ने मुझसे कहा कि उनके आफिस में आकर मैं उस बच्चे के लिए किताब कलेक्ट कर लूं। बाद में अवधेश प्रीत, जो उस वक्त हिंदुस्तान अखबार में अहम ओहदे पर थे, ने मुझसे कहा कि हम लोग यहां बौद्धिक बहस करने के लिए एकत्र हुए हैं, न कि एक्शन के लिए।
बाद में गांधी मैदान के पास स्थित विकास कुमार झा के आफिस में मैं उस बच्चे के लिए किताब एकत्र करने गया। वहां किताबें तो नहीं मिली, लेकिन विकास कुमार झा के साथ नए संबंध की शुरुआत जरूर हुई और वहीं से पत्रकारिता में व्याप्त राजनीति के तल में व्यवहारिक तौर पर उतरने का मौका मिला। मैं विकास कुमार झा के पास जब भी जाता था, मेरे हाथ में कोई न कोई किताब जरूर होती थी। अपने दरबार में बैठे लोगों से मेरे विषय में वे अक्सर कहा करते थे- इसका जन्म ही किताब के साथ हुआ है।
एक मई की घटना के बाद कैंटीन में काम करने वाले लड़के को पढ़ाई की सुविधा तो नहीं मिली, लेकिन उसकी हमेशा के लिए छुट्टी जरूर कर दी गई। उत्तम सिंह सामाजिक सरोकार के गंभीर मुद्दे को अच्छी तरह समझते थे, और प्रबंधन के तो वह भीष्म पितामह ही थे।
पत्रकारिता की पढ़ाई चलती रही। एक मुझे छोड़कर सभी लोग कोर्स की किताबें पढ़ते थे। अवधेश प्रीत क्लास में खूब शेरो-शायरी करते थे और एक लोकप्रिय शिक्षक के तौर पर वे अपने आप को स्थापित कर चुके थे। एक कहानी मैंने अवधेश प्रीत को लिखकर दी और उनसे उस कहानी पर राय मांगी। उन्होंने राय तो नहीं दी, लेकिन उस कहानी को अपने तरीके से फिर लिखकर हिंदुस्तान में अपने नाम से चेप दिया, शब्दों के वे जादूगर तो थे ही। इसके बाद हम दोनों के संबंध कुछ इस तरह से थे- वे क्लास में शेरो-शायरी सुनाते थे और दूसरी बेंच पर बैठकर मैं नाजीवादी लिट्रेचर पढ़ता रहता था। वो टोकते तो मैं कहता कि मैं हिटलर को समझने की कोशिश कर रहा हूं।
….जारी
भाग दो अगले रविवार को