अमर उजाला, बरेली से खबर है कि शशि शेखर के जमाने में अप्वाइंट किए गए पांच प्रशिक्षु उप संपादकों को स्थानीय संपादक प्रभात सिंह ने बाहर का रास्ता दिखा दिया है. ये करीब छह महीनों से यहां कार्यरत थे. इन्हें पांच से छह हजार रुपये महीने मिलते थे. रिपोर्टिंग करने वाले को मोबाइल व पेट्रोल का भुगतान अलग से मिलता था.
सूत्रों के मुताबिक कल इन्हें एचआर डिपार्टमेंट ने आफिस न आने के लिए कह दिया है. एचआर ने यह कदम स्थानीय संपादक की सिफारिश पर उठाया. माना यह जा रहा है कि शशि शेखर के जमाने के अप्वायंटी होने के कारण प्रबंधन इनकी नौकरी पक्की न करने का मन बना चुका था. निकाले गए लोगों का नाम उनके भविष्य को ध्यान में रखते हुए यहां प्रकाशित नहीं किया जा रहा है. निकाले गए लोगों में एक लड़की है जो रिपोर्टिंग टीम में शामिल थी. एक लड़का प्रादेशिक डेस्क पर था. तीन लोग बरेली जिले के कस्बों में तैनात थे.
Shishir Kumar Das
February 2, 2010 at 10:42 am
It’s really not good!!
rahul mittal
February 2, 2010 at 3:51 pm
Editors guild ke chairman Rajdeep ko is mamle me hastakshep karna chahiye….
Mrituenjay
February 3, 2010 at 3:40 am
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से अनिल चमड़िया की नियुक्ति निरस्त करने पर ब्लॉग पर जमकर बहस हो रही है। बेशक अगर अनिल जी को ग़लत तरीके से निकाला गया तो विरोध होना चाहिए। लेकिन प्रभात सिंह टाइप के संपादक जिस तरह से नए पत्रकारों के कैरियर से खिलवाड़ कर रहे हैं इस तरह की हरकत पर भी गंभीर बहस की जरुरत है। प्रभात जी ने जिस तरह से एक झटके में ही पांच बच्चों के बाहर का रास्ता दिखा दिया, व भी सिर्फ इसलिए कि उनकी नियुक्ति उनके विरोधी संपादक ने की थी, बेहद शर्मनाक है। जेए एयरवेज में छंटनी पर मीडिया के विरोध के आगे झुकते हुए मैनेजमेंट को अपना फैसला वापस लेना पड़ा था। लेकिन अपनी ही बिरादरी की छंटनी पर हम चुप क्यों हैं। पत्रकारिता की दुर्दशा पर सब चर्चा करते हैं, लेकिन पत्रकार पर नहीं। निकाले गए बच्चों में हो सकता है कल कोई ग़लत रास्ता अख्तियार कर ले। इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा, समाज को रास्ता दिखाने वाली पत्रकारिता या पत्रकारिता के नाम पर अपनी रोटी सेंकने वाले इस तरह के संपादक?
anand
February 3, 2010 at 6:33 am
aadarniya patrakar mitron,
prabhat ji ne nauukri se hi nikala hai uska kya wo to dusri mil jayegi, isme ghabrane ki koiu baat hi nhi hai, media ki field cricket k khel ki tarah hai isme kab koi patrakar sampadak ban jaye koi bharosa nhi aaj jin logon ko nikala hai ho skta hai aane wale dinon me wahi amar ujala ke head editor ban jayen tab is tarah k gair peshewar logon ko ka kya hoga. jo mie hue power ka durupyog karte hain unhe ek seek yaad dilata hoon,”maze me aakar maut ko nhi bhulana chahiye” kyon mitron thik kaha na. PRABHAT SINGH JI aap bhi sun rhe hain na.
रमेंद्र
February 4, 2010 at 7:34 am
क्या एक भी काम का नहीं था ?
छंटनी शब्द नया नहीं रहा अब हम पत्रकारों के लिए. बीते साल इसने बहुत रुलाया. नए वर्ष में मंदी के खत्म होने की खबरों के बीच आशा बंधी कि खतरा टल गया. लेकिन नहीं, बरेली के ताजा उदाहरण ने इसे फिर से जिंदा कर दिया. अब ये तो नहीं कहेंगे कि मंदी फिर से आ गई… हां लाई जरूर जा रही है, पुराने खौफ को भुनाते हुए. यहां ये बात दीगर है कि मंदी की नकारात्मकता के बीच एक बात सामने आई कि ठूंठ हो चुके लोगों की जगह अब स्किल्ड-लेबर तवज्जो पाएंगे. लिहाजा, नई पौध की उम्मीदें बरकरार रहीं. ये पीढ़ी ज्यादा जोश के साथ पत्रकारिता की धारा में आई है. धारणाओं या पूर्वाग्रहों को तोड़ते हुए काबिल बनने की दौड़ में आगे रहने के लिए. लिहाजा, इन्हें एक सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता. लेकिन, धारणाएं यूं ही तो खत्म नहीं हो जाती न…. बरेली ऐसी ही नजीर पेश कर रहा है.
प्रभात सिंह पत्रकार हैं, उससे ज्यादा एक काबिल फोटोग्राफर हैं. संपादक भी हैं. फिर ये बात काबिलेगौर है कि उन्हें एक झटके में पांच पत्रकारों को निकालने की क्या सूझी. हो सकता है कि निकाले गए पत्रकारों में से कुछ पत्रकारिता के मापदंडों पर अनफिट हों. लेकिन ये सवाल मौजूं है कि क्या सबके सब नकारे थे ? क्या उनमें से कोई अमर उजाला के पत्रकारीय धरातल पर खरा नहीं उतरता था ? या फिर कोई पूर्वाग्रह तो नहीं था ?
सवाल तो उठेंगे. क्योंकि पत्रकारिता जब नई तकनीक से चल रही हो, ज्यादा कार्यकुशल लोगों की डिमांड पैदा कर रही हो, ऐसे में इन प्रोफेशनल्स को कैसे अनफिट करार दे दिया गया ? शायद प्रभात सिंह मनन करें……[b][/b]
mahesh singh
February 11, 2010 at 11:37 am
bhut bura hua, sashi shekhar ke jane me bhala en becharo ka kya dosh…..