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ब्यूरो चीफ ने पीटा तो खफा मैनेजरों ने इस्तीफा भेजा!

अमर उजाला, कानपुर में बवाल मचा हुआ है। खबर है कि कानपुर यूनिट के अधीन आने वाले हरदोई जिले के ब्यूरो चीफ बृजेश मिश्रा और इसी जिले में मार्केटिंग के स्टाफर के रूप में काम कर रहे कमलाकांत मिश्रा के बीच मारपीट हो गई। आरोप लगाया जा रहा है कि बृजेश मिश्रा ने कमलाकांत के साथ मारपीट की और बेइज्जत किया। बृजेश की इस हरकत की शिकायत उपर तक की गई पर जब कोई कार्रवाई नहीं हुई तो कानपुर यूनिट के अधीन आने वाले सभी जिलों के मार्केटिंग के लोगों ने एकजुट होकर इस्तीफा देने की धमकी दे डाली। बताया जा रहा है कि कुछ लोगों ने वाकई इस्तीफा भेज दिया है। कुछ का कहना है कि सभी मैनेजरों ने दबाव बनाने के लिए एक साथ इस्तीफा भेजा है।

<p align="justify">अमर उजाला, कानपुर में बवाल मचा हुआ है। खबर है कि कानपुर यूनिट के अधीन आने वाले हरदोई जिले के ब्यूरो चीफ बृजेश मिश्रा और इसी जिले में मार्केटिंग के स्टाफर के रूप में काम कर रहे कमलाकांत मिश्रा के बीच मारपीट हो गई। आरोप लगाया जा रहा है कि बृजेश मिश्रा ने कमलाकांत के साथ मारपीट की और बेइज्जत किया। बृजेश की इस हरकत की शिकायत उपर तक की गई पर जब कोई कार्रवाई नहीं हुई तो कानपुर यूनिट के अधीन आने वाले सभी जिलों के मार्केटिंग के लोगों ने एकजुट होकर इस्तीफा देने की धमकी दे डाली। बताया जा रहा है कि कुछ लोगों ने वाकई इस्तीफा भेज दिया है। कुछ का कहना है कि सभी मैनेजरों ने दबाव बनाने के लिए एक साथ इस्तीफा भेजा है। </p>

अमर उजाला, कानपुर में बवाल मचा हुआ है। खबर है कि कानपुर यूनिट के अधीन आने वाले हरदोई जिले के ब्यूरो चीफ बृजेश मिश्रा और इसी जिले में मार्केटिंग के स्टाफर के रूप में काम कर रहे कमलाकांत मिश्रा के बीच मारपीट हो गई। आरोप लगाया जा रहा है कि बृजेश मिश्रा ने कमलाकांत के साथ मारपीट की और बेइज्जत किया। बृजेश की इस हरकत की शिकायत उपर तक की गई पर जब कोई कार्रवाई नहीं हुई तो कानपुर यूनिट के अधीन आने वाले सभी जिलों के मार्केटिंग के लोगों ने एकजुट होकर इस्तीफा देने की धमकी दे डाली। बताया जा रहा है कि कुछ लोगों ने वाकई इस्तीफा भेज दिया है। कुछ का कहना है कि सभी मैनेजरों ने दबाव बनाने के लिए एक साथ इस्तीफा भेजा है।

कानपुर आफिस में तैनात उप प्रबंधकों ने भी ब्यूरो चीफ पर कार्रवाई करने के लिए यूनिट हेड पर दबाव बनाया हुआ है लेकिन यूनिट हेड संपादकीय के किसी आदमी पर कार्रवाई सीधे नहीं कर सकते। संपादकीय के आदमी पर कार्रवाई संपादकीय विभाग के वरिष्ठ ही कर सकते हैं। यूनिट हेड केवल अपनी राय, सलाह और मशवरा दे सकते हैं। सूत्रों के मुताबिक मैनेजमेंट बनाम एडिटोरियल की यह जंग अमर उजाला के मालिकों तक पहुंच चुकी है। कहा जा रहा है कि अबकी कुछ आर-पार होकर रहेगा। इस बारे में पुष्ट जानकारी के लिए भड़ास4मीडिया की तरफ से फोन जब अमर उजाला, कानपुर के यूनिट हेड भूपेंद्र दुबे को मिलाया गया तो शुरू में उनका फोन बिजी बताता रहा, बाद में नाट रीचेबल बोलने लगा।

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  1. उपदेश अवस्थी

    January 15, 2010 at 9:29 am

    यदि यह खबर बिल्कुल वैसी ही है जैसी लिखी गई है तो प्रिंट मीडिया के लिए निश्चित रूप से यह बहुत ही निराशाजनक मोड़ है। मुझे लगता है कि अब समय आ गया है जबकि संपादकीय विभाग को अपनी आजादी की परिभाषाएं बदल लेनी चाहिए। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि ”उनकी हवा में हाथ लहराने की स्वतंत्रता वहां जाकर खत्म हो जाती है जहां से किसी दूसरे के गाल की सीमाएं शुरू होतीं हैं।” अमर उजाला के प्रबंधन को भी ऐसे ब्यूरो चीफ को हटाने में कतई देरी नहीं करनी चाहिए। इस मामले में विषय यह है ही नहीं कि ब्यूरो के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार किसे है, किसे नहीं। चूंकि संबंधित ब्यूरो चीफ ने अपनी सीमाओं से बाहर जाते हुए मारपीट जैसी घटना को अंजाम दिया है अत: प्रबंधन में हर उस अधिकारी को ऐसे कर्मचारी को दण्डित कर देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है जिसे कि सबसे पहले इसकी सूचना मिली।
    जांच, वाद-विवाद, दोनों पक्षों की दलीलें और न्याय की प्रकिया बाद में होती रहेगी। सबसे पहले उसे निलंबित कर दिया जाना चाहिए। यदि मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव की गलती भी प्रतीत होती है तो उसे भी निलंबित कर दिया जाना चाहिए, लेकिन निर्णय के लिए किसी की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती।
    चूंकि मामला अनुशासनहीनता का है अतः यह प्रबंधन के पाले में ही जाता है। कोई भी संपादक किसी भी ब्यूरो चीफ या रिपोर्टर या अपने संपादकीय साथियों को यह लायसेंस नहीं दे सकता कि वे अपने साथी कर्मचारियों के साथ मारपीट करे या अनुशासनहीन बना रहे। यदि कर्मचारी निर्धारित समय पर उपस्थित नहीं होता, अनुशासन नीति का पालन नहीं करता एवं इस तरह गुंडागर्दी करता है तो केवल और केवल प्रबंधन की ही जिम्मेदारी है कि वह निर्णय ले और कड़ी कार्रवाई करे ताकि पुनः किसी की हिम्मत न हो। यूनिट हेड को अपनी शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए। मुखिया होने के नाते अपनी टीम की सुरक्षा करना उनकी जिम्मेदारी है। डरपोक लोगों को नेतृत्व के पद नहीं स्वीकारना चाहिए। पीड़ित साथी को भी चाहिए कि संस्थागत कार्रवाई की प्रतीक्षा किए बिना सबसे पहले ब्यूरो चीफ के खिलाफ प्रकरण दर्ज कराएं, यदि पुलिस प्रकरण दर्ज न करे तो सीधे न्यायालय में इस्तागासा प्रस्तुत करे।
    याद रखे कोई भी पत्रकार या नेता कानून से बड़ा नहीं होता और इतना बड़ा तो कतई नहीं होता कि उसके खिलाफ कोई कार्रवाई ही न हो सके। दूसरे अविलंब ऐसी टीम को छोड़ दें जिसके लीडर में अपने साथियों की रक्षा का दम नहीं है। यदि आपमें टेलेन्ट है तो दोस्त मार्केटिंग विभाग में जॉब की कमी नहीं होती।
    जहां तक विषय संपादकीय और प्रबंधन के बीच मतभेदों का है तो संपादकीय विभाग के साथियों को अच्छी तरह से यह समझ लेना चाहिए कि प्रबंधन का अपना सम्मान होता है और वह उसे देना ही होगा। वो वक्त अब नहीं रहा जब किसी एक पत्रकार या संपादक के उपस्थित होने भर से अखबार की बिक्री बढ़ जाया करती थी। यदि आज भी ऐसे पत्रकार या संपादक हों तो प्रबंधन उन्हें सर आंखों पर रखने को तैयार हैं परंतु संपादकीय के ऐसे लोग जिन्हें लोग पढ़ना पसंद नहीं करते, यदि गणेश शंकर विद्यार्थी के समतुल्य सम्मान और अधिकार की उम्मीद करते हैं तो शायद वे गलतफहमी में हैं।
    उपदेश अवस्थी
    राज एक्सप्रेस
    भोपाल

  2. उपदेश अवस्थी

    January 15, 2010 at 9:30 am

    और हां, संपादकीय विभाग के गुरूर और अहंकार ने ही आज यह हालात पैदा कर दिए है कि इस विभाग के अंदर चलने वाली विद्वता एवं योग्यता की प्रतियोगिता समाप्त हो गई है। सचमुच आज बहुत कम ऐसे कलमकार हैं जिन्हें लोग पढ़ना पसंद करते हों, यदि संपादकों की कलम में दम होता तो अखबारों को घाटे में नहीं बेचना पढ़ता। 16 पेज के रंगीन अखबार की कीमत कम से कम 6 रुपए होती। बिक्री बढ़ाने के लिए या बिक्री को स्थिर बनाए रखने के लिए प्रबंधन द्वारा शुरू की जाने वाली कोई भी उपहार योजना, उस अखबार के संपादक के गाल पर सीधा थप्पड़ होती है। ऐसी योजनाएं प्रमाण-पत्र होतीं हैं कि इस अखबार में संपादकीय विभाग बहुत कमजोर है, तभी तो प्रबंधन को दूसरे रास्ते अपनाने पड़ रहे हैं।

    संपादकीय विभाग को चाहिए कि वह अपना सम्मान बनाए रखने के लिए प्रयास करे। प्रबंधन उनका सम्मान रखता है, इसीलिए अखबारों में समाचार ऊपर और विज्ञापन नीचे छापे जाते हैं। उस वक्त भी जब किसी बड़ी कंपनी का विज्ञापन नीचे हो और उसके ऊपर दो कौड़ी की खबर पेज भरने के लिए चस्पा कर दी गई हो। राजस्व प्रबंधन जुटाता है और प्रयोग संपादकीय विभाग के लोग करते हैं। राजस्व विभाग कोई टिप्पणी भी नहीं करता, लेकिन यदि हालात यही रहे तो ऐसा हमेशा नहीं चलेगा। संपादकीय विभाग के लोगों को कु हार की तरह काम करना होगा, जब गर्मी आए तो घड़े सुराही बनाएं और दीपावली पर दीपक। बाजार में अपनी मर्जी के उत्पाद नहीं बेचे जा सकते। पाठक समझदार हो गए हैं। पहले हॉकर से मना करने के लिए पाठकों को सुबह पांच बजे उठना पड़ता था, इस आलस में कई अखबार बंद ही नहीं हो पाते थे, लेकिन अब हेल्पलाइन पर तत्काल फोन आ जाता है। सरकुलेशन भी शेयर बाजार की तरह हर रोज घट-बढ़ जाती है।
    यह एक कड़वा सत्य है कि अखबारों का खुदरा विक्रय मूल्य नहीं बढ़ पा रहा है। 25 नए पैसे बढ़ाते हैं तो बिक्री धड़ाम से गिर जाती है। यह एक अंतिम अलार्म है संपादकों के नाम, कि संभल जाएं, पाठको की रुचि के अनुरूप जानकारियां उपलब्ध कराएं। अपना घमंड, अपना अहंकार त्याग दें, लोकप्रियता के सस्ते साधनों का उपयोग न करें, धीर बनें, गंभीर बनें, ध्यान करें, अध्ययन करें, चिंतन करें और इस सबसे पहले समाज का सर्वे करें, अपने कमरों में डेस्क के ऊपर बैठकर गुटका थूकते-थूकते समाज का नेतृत्व नहीं किया जा सकता। परिश्रम करना होगा। यदि नहीं किया और हालात यही रहे तो प्रबंधन को राजस्व के लिए मार्केटिंग विभाग के ऊपर निर्भर होना ही होगा और तब संपादकों के छाती पीटने से कुछ नहीं होगा।
    जो लोग राजस्व की व्यवस्था को नहीं समझ पाते या प्रबंधन एवं मार्केटिंग विभाग को अपना शत्रु समझते हैं, कृपया किसी ऐसे समाचार पत्र को चलाकर दिखाएं जहां उक्त दोनों विभाग न हों। चाहें तो कोई नया अखबार शुरू कर लें, और देश भर के ऐसे तमाम स्वतंत्रता सेनानी मिलकर उसे देश का दसवां बड़ा अखबार बनाकर दिखाएं। यदि यह संभव नहीं तो सच का सामना करें, घर के बड़े बेटे को सम्मान देना सीखें।
    उपदेश अवस्थी
    राज एक्सप्रेस
    भोपाल

  3. ANUJ AGARWAL

    January 15, 2010 at 12:45 pm

    amar ujala management ko dono ko hardoi se hatakar transfer karna chahiya janch karkey jiski galti usey santhan sey bahar ka rasta dikhana hoga. office premises may marpeet ghoor anushashanheenta hai. amar ujala ko behtar mahol ka prayas bhi pure group mey karna hoga.

  4. ANUJ AGARWAL

    January 15, 2010 at 12:46 pm

    anuj agarwal
    ex astt manager amar ujala bareilly

  5. anand kumar, journalist

    January 15, 2010 at 2:52 pm

    kanpur amar ujala ki sthiti se main bakhubi wakif hu.GM rahe kamlesh dixit ji ke jane ke baad hi kanpur unit ka bhattha baithna suru ho gaya. prasar ghatkar aadha rah gaya. lagatar akhbar ka juloos nikal raha hai. ab ye naye jhagre per tatkal action nahi hua to sthiti aur kharab hogi.

  6. anand kumar, journalist

    January 15, 2010 at 2:53 pm

    aage-aage dekhiye hota hai kya.

  7. niles singh

    January 15, 2010 at 5:07 pm

    kishi bhi industry me sabse aham cheej hoti hai product, product me aham hoti hai quality, quality me aham hota hai jaminee pakad!

    apan baat kar rahe hai akhabar liom ki to kishi bhi manegar, marketing pramukh ya koi anya!

    akhabar line me yadi kuchh bikata hai to khabar, n ki vijyapan! aishe me yadi akhabar se khabaro ko hata diya jay to akhabar malik ak week to kya ak din bhi akhabar nahi chal sakata! aishe me aap kalpna kar sakte hai ki kishi bhi akhabar ka kya fiture hoga! bharm me jeene walo ko yah achchhe tarah samajha lena chahiye ki bina khabar ke akhabar ko log kharedna to kya dekhana bhi nahi chahege! yakin na ho to ak din bina khabar ka akhabar market me bhech kar dikhayen!

    ab rahi baat editorial aur marketing department ki! isme kishi bhibhag ki mahanta ka sabaal hi paida nahi hota!
    jab yah malum hai ki bina khabar ke akhabar, akhabar nahi hota to phir yah to samajh me aa gaya hoga ki akhabar me kiski kya ahmiyat hai!

    jaha tak akhhbar me marketing ya managment ki baat hai to yah to kishi bhi company, industry kya koi bhi kary ke liye jaroori to hai lekin akhbhar line me yah toda goud hai! hum samjhte hai ki iska example dene ki jaroorat nahi hai!

    gaflat me jeene wallo ko yah bhi samajh lena chahiye ki yadi logo ke beech akhabar ka market badana hai to aapko pahle vijyapan ki nahi khabaro ki jarrorat hoti hai! aur khabaro ki jaroorat ko poora karne ke liye jee hujoori ki nahi balki khabar likhane wale ki jaroorat hoti hai. aishe me aap vijyapan se page bharkar akhabar ka market nahi bana sakte! akhabar ko tel-sabun ki tarah bechkar market me chalne ka sapna dekhane walo ko yah samajh lena chahiye ki akhabar ka market khabaro se banta hai. aur jab akharbar me public ke manpasand ki khabre hogi to akhabar ko market nahi banana padega, balki khud market ban jayega. aur jab akharbar ka market ban jayega to managment ya marketing dipartment ko na to vijyapan ke liye bhagna padega aur na hi prashar ke liye! aishe me ad agenciaa ya publicity chahne wale khud chalkar akhabar office tak aayege.

    mera maksad mahanta sabit karna nahi hai balki bharm me jeene walo ko yah batana hai ki band aankho se sapne dekna chodkar samay ko samjhane ka hai. kishi bhi company ki unnati apsi matbhed se nahi balki mel-milap ya mil-julkar kary karne se hoti hai. kishi ek aadmi ke charitra ya karyshaili se us byakti ke line se jude logo se jodkar nahi dekha jana chahiye.

    ant me ek baat aur ki akhabar ki pahchan khabro se hoti hai na ki vijyapan ya marketing se. attah yah bharm chodkar jis kishi sansthan me rahe miljulkar rahen. matbhedo ya apsi mahanta ki baat na kar akhabar ki mahanta ki baat kare yahi hum apke liye aur journalism ya media ke liye unnati ka marg prasast krne wala hai.
    na ki ………………………………………………..!

    hindusthan samachar, bhopal

  8. महेंद्र विश्वकर्मा

    January 19, 2010 at 10:38 am

    उपदेशजी बात बडे और छोटे बेटे की नहीं, सामंजस्य की है
    उमर उजाला कानपुर के हरदोई जिले के ब्यूरोचीफ ने मार्केटिंग विभाग के कर्मचारी के साथ मारपीट की यह सुनकर बुरा लगा। संबंधित मामले की अमर उजाला प्रबंधन को निष्पक्षता से जांच कर दोषी के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, फिर चाहे वह ब्यूरो हो या मार्केटिंग विभाग का व्यक्ति हो। केवल भडास की खबर के आधार पर एक तरफा ब्यूरो को दोषी मान लेना भी जायज नहीं है। बात यदि मारपीट तक पहुंची है तो
    जरूर इसके पीछे कोई बडी बात होगी। जिसका पता अमर उजाला प्रबंधन को लगाकर ही फैसला करना चाहिए। हालांकि भडास में ही यह स्पष्ट हो गया कि मार्केटिंग विभाग का व्यक्ति ही दोषी है। इस मामले में उपदेश अवस्थीजी के कमेंट पढे। पढकर अच्छा लगा कि वे दोषी पर कार्रवाई चाहते हैं। लेकिन यह पढकर तकलीफ भी हुई कि उनकी प्रबंधन वाली नजर में संपादकीय विभाग चाहे वह संपादक हो या रिपोर्टर या फिर
    कोई भी कर्मचारी, उसकी ज्यादा अहमियत नहीं है। उपदेशजी आपने मार्केटिंग विभाग को अखबार का बडा बेटा तो बता दिया पर ये नह बताया कि संपादकीय और सर्कुलेशन विभाग वाले कौन से नंबर के बेटे हैं और फिर ईडीपी विभाग भी बचा है। मैं बताना चाहूंगा कि किसी भी अखबार की प्राणवायु उसका संपादकीय विभाग ही होता है और इस यूनिवर्सल सत्य को बदला नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर जब कोई नया अखबार शुरू
    होता है तो पहले संपादक और संपादकीय विभाग को मजबूती देने की बात पर विचार होता है, ताकि अखबार को पठनीय बनाया जा सके, न कि पाठकों और कंपनियों से सीधे विज्ञापन मांगने की। इसके बाद अखबार के सर्कुलेशन विस्तार करने की बात की जाती है, क्योंकि विज्ञापन देने वाला यह जरूर देखता है कि आपका अखबार कितना पढा जाता है। अखबार को रीडरशिप संपादकीय विभाग ही देता है और इसके सैकडों उदाहरण हैं।
    हां अंत में विज्ञापनों के रास्ते तय किए जाते हैं। देश और प्रदेश में जितने भी अखबार बेहतर ढंग से चल रहे हैं उनके संपादकीय विभाग को एक बार टटोल लीजिए तो स्वतः ही आपका मुगालता दूर हो जाएगा कि मार्केटिंग विभाग किसको बडा बेटा मानते हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि संपादकीय विभाग और सर्कुलेशन विभाग रेल्वे ट्रेक की दोनों पटरियां हैं जिन पर मार्केटिंग विभाग अपना इंजन
    दौडाता है। आप समझ गए होंगे मेरे कहने का तात्पर्य कि आधार कौन है और किसको सम्मान मिलना चाहिए। रही बात गणेश शंकर विद्यार्थीजी जैसे पत्रकार बनने और सम्मान पाने की तो यहां में कहना चाहूंगा कि कोई भी पत्रकार पैदा होते ही महान नहीं बन जाता उसके कर्म उसे महान बनाते हैं। आज भी ऐसे अनेकों पत्रकार हैं जिनके नाम के लेखन से अखबार या पत्रिकाओं की बिक्री होती है।
    आपने लिखा है कि संपादक पाठकों की भावनाओं को नहीं समझते हैं और एसी कमरों में बैठकर गुटखा थूकते रहते हैं। उपदेशजी ही बताएं कि वो ऐसे कितने संपादकों से मिल चुके हैं, क्योंकि आज तक मुझे और मेरे संपादकीय विभाग के साथियों को ऐसे संपादकों से मिलने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है जो प्रतिभाहीन हों और सिर्फ गुटखा थूककर अपना कार्य कुशलतापूर्वक कर रहे हैं। आपका मानना है कि संपादकीय
    विभाग अखबार का रेवेन्यू नहीं बढा सकता तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि संपादकीय विभाग ही ऐसा है जो यदि परोक्ष रूप से मार्केटिंग विभाग का साथ देना छोड दे तो प्रबंधन के लिए एक-एक रूपए के विज्ञापन जुटाना मुश्किल हो जाएगा। संपादकीय विभाग तो अकेले अखबार बेहतर तरीके से चला सकता है पर मेरी नजर में शायद मार्केटिंग विभाग के लिए यह लोहे के चने चबाने के समान होगा। पाठक खबर पढने को
    प्राथमिकता देते हैं और खबरों के साथ हम आप विज्ञापन छापकर पाठक तक संबंधित कंपनी की बातें पहुंचाते हैं। विज्ञापन न हो तो केवल खबरों से भरा अखबार पढा जा सकता है पर केवल विज्ञापन से भरा अखबार पाठक के कितने काम का है ये तो आप ही बता सकते हैं। जरा बाजारीकरण की अंधी दौड से बाहर निकलकर सोचिए तो पता चलेगा कि अखबारों की गिरती छवि और सर्कुलेशन के पीछे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से
    मार्केटिंग विभाग ही जिम्मेदार होता है। संपादकीय विभाग की स्वतंत्रता छीनने का मामला हो या फिर खबरों को बिजनेस खबरें बनाने का, महत्वपूर्ण खबरों को रोकने का मामला हो या रिपोर्टरों का दायरा निश्चित करने का या फिर घोटालों को दबाने का सबके पीछे परोक्ष रूप से मार्केटिंग विभाग की भूमिका अहम होती है। यदि मार्केटिंग विभाग संपादकीय विभाग पर आश्रित होना छोडकर स्वयं प्रयास करे
    तो अच्छा बिजनेस लाया जा सकता है। हो सकता है जो मैंने लिखा वो आफ नजरिए में बेबुनियाद हो पर मेरे कहने का आशय यह है कि मतभेद वहीं पैदा होते हैं जहां बडा, छोटा, मझला, बेकार, अहम और वर्चस्व की बातें आती हैं। किसी भी अखबार के संस्थान की सफलता का मूल मंत्र यह है कि सभी सहयोगी चाहे वह किसी भी विभाग के हों, को बराबर का सम्मान मिले आपसी भाईचारा रहे और खबरों के लिए संपादकीय विभाग को
    प्रबंधन की और से स्वतंत्रता हो। देश और प्रदेश के सफलतम और बडे अखबारों का प्रबंधन रेवेन्यू लाता है और संपादकीय विभाग की गरिमा बनाए रखता है, वो भी 8 रुपए का अखबार 3 रुपए में बेचते हैं। इस बात की आलोचना करने से अच्छा है इससे कुछ सबक लें और छोटे और बडे में तालमेल बिठाने की दिशा में प्रयासकर अपनी ऊर्जा आलोचना और समालोचना की बजाय संस्थान की उत्तरोत्तर प्रगति के लिए प्रयोग करें।
    जिस तरह शरीर के सभी अंग तभी कार्य करते हैं जब उसका अंदरूनी सिस्टम मजबूत हो ठीक उसी तरह अखबार के संस्थान में कार्यरत प्रत्येक व्यक्ति का योगदान अखबार की प्रगति में शरीर के अंदरूनी सिस्टम के समान होता है।

    महेंद्र विश्वकर्मा
    भोपाल

  9. UPDESH AWASTHEE

    January 20, 2010 at 1:56 pm

    यशवन्त जी
    कमेंट इस तरह छापने के बजाए अपनी पुरानी व्यवस्था ठीक थी। जिस सूरत में सवाल होता था, उसी सूरत में जबाव भी दिखाई देता था। उसकी अपनी रीडरशिप आ जाती थी। ऐसे छापने पर अच्छी रीडरशिप नहीं आती। मेरी बात शायद उन लोगों तक पहुंची ही नहीं जिन तक मैं पहुंचाना चाहता था। ये झगड़ा तो एक बहाना था, बहस छेड़ने का, लेकिन अफसोस बहस शुरू ही नहीं हो पाई।
    उत्तरप्रदेश से अमरउजाला के पूर्व सहायक प्रबंधक अनुज अग्रवाल का कमेंट आया। वैसा ही जैसा होना चाहिए था।
    आनन्द कुमार जी ने इस बहाने कमलेश जी की तारीफ कर डाली। कमेंट विषय से बाहर था।
    भोपाल से मेरे प्रिय मित्र नीलेश सिंह जी ने पन्द्रह जनवरी को एवं महेन्द्र विश्वकर्मा जी ने 19 जनवरी को अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं। प्रतिक्रिया में एक बार फिर संपादकीय विभाग का निबंध पढ़ने को मिला, सच से बहुत दूर
    मैं चाहता था कि संपादकीय विभाग के लोग तिलमिलाएं, लेकिन जो लिमिलाते हुए दिख रहे हैं ये वो नहीं हैं। अमरउजाला के संपादकीय विभाग की ओर से प्रतिक्रिया आनी चाहिए थी, तब मजा आता।
    खैर जो आ गई है उसी से काम चला लेते हैं। मेरे मित्रों ने शायद मेरी प्रतिक्रिया पूरी नहीं पढ़ी। आधी अधूरी बात को मुद्दा बनाने की कोशिश की। वो भी नाकाम। संपादकीय विभाग का निबंध मुझे भी याद है। मेरे प्रिय मित्रों ने अखबार की स्थापना की बात की है। मुझे स्थापना का अच्छा खासा अनुभव है। मैने अपनी शुरुआत ही इस लाइन से की थी कि यदि खबर सही है तो… दूसरे मेरा तात्पर्य केवल इतना था कि प्रबंधन के पास इतना अधिकार होता है कि अनुशासनहीनता की स्थिति में तुरन्त निलंबन की कार्रवाई करे। बाद में संपादक की अदालत में फैसला हो ही जाएगा। निष्पक्षता से जांच की नेतागिरी वाली दलील का कोई अर्थ नहीं है। एक बार दोनों का निलंबन हुआ तो सारा पक्षपात और निष्पक्षता अपने आप सामने आ जाएगी। विषय को टालने के बजाए निर्णय पर लाना चाहिए। इस योग्यता के लिए शिक्षा और अनुभव की जरूरत होती है। मेरा मूल विषय यही है। अमरउजाला में विषय को टाला जा रहा था। अभी तक टाला ही गया। प्रबंधन की ओर से निर्णय नहीं हुआ है।
    उपदेश अवस्थी

  10. UPDESH AWASTHEE

    January 20, 2010 at 1:57 pm

    जब एक 12वीं पास व्यक्ति या ज्यादा से ज्यादा स्नातक, स्नात्कोत्तर व्यक्ति खुद को पत्रकार बताते हुए सारी की सारी व्यवस्था की समीक्षा करता है तो बड़ा दर्द होता है। यहां मैं बात अपवाद की नहीं कर रहा। 100 में 20 पत्रकार अभी भी भले हैं, तभी तो लोग थोड़ा बहुत भरोसा कर लेते हैं, लेकिन विद्वता और योग्यता की जो प्रतियोगिता इस विभाग में होनी चाहिए। दिखाई नहीं देती। मैं संपादकीय विभाग के उन्हीं 20 प्रतिशत लोगों से मुखातिब था कि कृपया संभल जाइए, पत्रकारिता में प्रवेश के कुछ नियम कायदे बनाइए। समाज को किस दिशा में ले जाना है, पहले विचार तो कीजिए। ये 20 प्रतिशत लोग बड़े अकेले हो गए हैं। मैं इन्हे एकजुट करना चाहता था। ताकि पत्रकारिता को एक दिशा मिल सकती।
    संपादकीय विभाग का यह बचपना (जो कमेंट्स में पढ़ने को मिला) तो मैं रोज ही देखता हूं। मैं केवल यही बताना चाहता हूं कि आजादी के बाद से 60 के दशक तक संपादकीय विभाग की स्याही में इतना उजाला हुआ करता था कि समाज के समृद्ध नागरिक अखबार निकालने के लिए संपादकों को गुप्तदान दिया करते थे। उन दिनों लगभग हर प्रमुख शहर से अखबार छपा करते थे। सरकार या प्रशासन के विरोध में लिखने की प्रतियोगिता नहीं थी। विज्ञापन विभाग की स्थापना ही नहीं हुई थी। 70 से 80 के दशक तक भी कलम की रौशनाई में इतना दम था कि ट्रेडल मशीन पर छपा ब्लेक एण्ड व्हाइट अखबार 1 रुपए 20 पैसे में बिका करता था, जबकि पूरी प्रक्रिया की लागत पांच सौ प्रतियों की स्थिति में पचास पैसे से ज्यादा नहीं होती थी। अच्छा कागज लगाओ तो सत्तर पैसे। विज्ञापन की जरूरत तब भी नहीं थी। हां, समृद्ध नागरिकों ने नियमित दान बन्द कर दिया था अतज् संपादकों ने दीपावली, स्वतन्त्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस तीन ऐसे अवसर निकाले जब वे संस्थान की प्रगति के लिए सहयोग का आग्रह किया करते थे। सहयोग करने वाले समृद्ध नागरिकों के प्रति अखबार में आभार ज्ञापित किया जाता था। तब संपादक नौकरी नहीं करते थे, अपना अखबार निकालते थे, मालिक, मुद्रक, प्रकाशक हुआ करते थे।
    धीरे धीरे समृद्ध नागरिकों को सेठ के बजाए समाजसेवी कहने का सिलसिला प्रिय संपादकीय विभाग ने ही शुरु किया। बस यहीं से शुरु संपादकीय विभाग का पतन, जो निरन्तर जारी है। स्व. राजीव गांधी के प्रधानमन्त्रित्व काल से लेकर पीवी नरसिंहाराव के प्रधानमन्त्रित्व तक संपादकीय विभाग के कई ईमानदार, जनहितैषी, देशप्रेमी पत्रकारों को चौथ वसूली करते देखा गया। अधिकारियों ने महीना नहीं भेजा तो भ्रष्टाचार की खबरें शुरू। भेज दिया तो अधिकारी अच्छा। ये दुकानदारी किसने शुरू की…? अब जब तमाचा पड़ा तो दर्द होता है।
    मैंने कई ऐसे संपादकों के साथ काम किया है जिनके साथ खड़े होने पर गर्व होता है। जो कुछ भी कहने से पहले कई बार सोचते है¡। जब लिखते हैं जो जैसे अक्षर कागज से बाहर निकल आते हैं। लोग उन कतरनों को सम्भालकर रखते हैं। अखबारों के मालिक भी उनसे मिलने उनकी टेबल पर आते हैं। उन्हें बुलाया नहीं जाता, लेकिन जानते हैं इस मुकाम तक पहुंचने के लिए बड़े ही ज्ञान, शिक्षा, बुद्धि, विवेक, सीखने की ललक, योग्यता, अनुभव और त्याग की आवश्यकता होती है। मुझे दुख है कि नई पीढ़ी में इस परंपरा के साथी दिखाई नहीं दे रहे। यदि मिल जाएं तो यकीन मानिए अखबार पांच रुपए में ही बिकेगा।
    मैंने थप्पड़ उन बहुसंय संपादकीय साथियों को मारा है जिन्हे यही नहीं मालूम की वो किस दिशा में जा रहे हैं। जिनकी अपनी कोई गरिमा ही नहीं, जिनका अपना कोई आभा मण्डल ही नहीं। बस पदों पर बैठे हैं। मालिकों की मजबूरी है कुर्सी खाली नहीं छोड़ सकते, किसी न किसी को तो बिठाना ही होगा।
    एक पत्रकार ने इन्टरव्यू के दौरान एक खबर पटल पर रखी, किसी गांव में हेण्डपंप खराब थे जिससे मासूम बच्चों का स्वास्थ्य खराब हो गया, कई बच्चे हॉçस्पटल में भतीü हुए। छाती फुलाते हुए उस पत्रकार ने बताया कि इस खबर के छपते ही पीएचई विभाग के तीन अधिकारी सस्पेण्ड हुए।
    मैं समझ नहीं पाया कि उसने खबर लिखी क्यों थी, तीन अधिकारियों को सस्पेण्ड कराने के लिए…? उस हेण्डपंप का क्या हुआ जो खराब था, सुधरा या नहीं…? खबर का असर क्या होना चाहिए था, समाचार की सफलता का मापदण्ड क्या है। संपादकीय विभाग वाले सहिष्णु होने के बजाए हिंसक क्यों होते जा रहे हैं।
    विरोध मत कीजिए, विचार कीजिए
    अपना घर सुधार लो,
    हमें मालूम है अखबार समाचारों के लिए ही बिकता है
    इसीलिए हमने पहले भी लिखा है कि समाचार ऊपर छापे जाते हैं और विज्ञापन नीचे
    इसका महत्व तो समझो भाई। यूं ही गरियाने से क्या होगा।
    मुझे लगता है कि अभी वक्त है सुधारा जा सकता है। 10 साल बाद शायद सम्भव न हो।

    उपदेश अवस्थी

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