: ‘विभूति कांड’ के बहाने साहित्येतर रचना-धर्मिता पर चर्चा : साहित्यकारों को उस रात जैसा देखा-सुना वह अकल्पनीय : महिला साहित्यकार को अपनी जंघा पर बैठाने पर कटिबद्ध दिखे युग-पुरुष : विभूति नारायण राय हिंदी साहित्य की एक चर्चित हस्ती हैं. स्वाभाविक तौर पर प्रत्येक चर्चित व्यक्ति की तरह उनकी बातों और उनके शब्दों का अपना एक अलग महत्व और स्थान होता है.
कारण यह है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की तरह साहित्य में भी अंततोगत्वा व्यक्ति की महत्ता सर्वाधिक हो जाती है, बहुधा विचारों और घटना-क्रमों से भी बढ़ कर. यह प्रवृत्ति इतिहास में देखी जा सकती है, जो ज्यादातर कतिपय महानायकों का व्याख्यान नज़र आती है. यही बात तमाम अन्य कला विधाओं पर लागू है, खेल पर और कई बार तो विज्ञान जैसे अपेक्षाकृत वस्तुनिष्ट और नीरस विषय पर भी.
अब आज के युग में तो सेलिब्रिटी की अवधारणा हो गयी है तो हम विभूति जी को हिंदी साहित्य का एक सेलेब्रिटी कह सकते हैं. लेकिन इस प्रकार के पेज थ्री सेलिब्रिटी के आगमन के पूर्व भी हिंदी साहित्य व्यक्ति-केन्द्रिकता के भाव से अलग कदापि नहीं था. हाँ, यह जरूर है कि जहां तक मेरी जानकारी है, पहले के साहित्यकार अपने वजूद और अपनी महत्ता के लिए अपनी कृतियों पर ज्यादा आधारित थे, अपने टेढ़े- मेढ़े वक्तव्यों और उलूल-जुलूल हरकतों पर नहीं. दुर्भाग्य का विषय है कि जितनी तेजी से हिंदी साहित्य का पाठक वर्ग घट रहा है, उतनी ही तेजी से साहित्येतर रचना-धर्मिता में इजाफा हो रहा है. किसी भी तरह चर्चा में रहना जरूरी है, चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े. कुछ भी- मतलब कुछ भी.
और वह कुछ भी तो शायद सचमुच कई बार ऐसा कुछ भी होता है जिसके बारे में जानने और सोचने पर एक औसत आदमी के मन में यही बात कौंधती है कि ये लोग साहित्यकार हैं या साहित्य के मदारी. साहित्य से मेरा भी लगाव है और मैं भी कवितायें और कहानियां लिखा करता हूँ. हिंदी में भी और अंग्रेजी में भी. ये अलग बात है कि मेरे साहित्य में उस गहराई का अभाव है जो श्रेष्ठ साहित्य में संभवतः रहता है. लेकिन मैं अपनी साहित्यिक सृजनात्मकता से संतुष्ट रहता हूँ क्यूंकि मैं इससे अधिक और इससे अच्छा शायद नहीं लिख सकता. इसका एक कारण यह भी है कि मैं उस विषय पर नहीं लिखता जिस पर हर कोई लिख रहा हो और उस भाषा और शब्दावली में नहीं लिखता जो वर्तमान में मान्य हो क्यूंकि साहित्य के लम्बरदार ऐसा कर रहे हैं. और वह भी नहीं कर सकता जो मैंने बहुधा सुना है और एक बार देखा भी है.
यह बात जुडी है लखनऊ के एक प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कार समारोह से. चूँकि साहित्य का कीड़ा मुझमे भी कुलबुलाता रहता था और काफी परेशान करता था, इसीलिए साहित्य के पुरोधाओं से जुड़ने और उनके समक्ष अपने आप को सामने रख सकने की इच्छा बलवती रहा करती थी. इसी के मारे मैं उस साहित्य समारोह में भी शामिल हुआ. दिन भर तो जो चला वह ठीक ही था क्यूंकि सारी बातें वही हुई जो मैं भी काफी अरसे से जानता था और जिसमे कुछ ऐसा नयापन नहीं था जिसके लिए मैं अपना पूरा दिन देता, यदि मेरे अन्दर ये साहित्यिक कीटाणु नहीं होते और अपनी उपस्थिति का एहसास कराने की तीव्र भावना नहीं होती.
लेकिन असली कहानी दिन में नहीं शाम में हुई जब मुझे भी समारोह के बाद वाले डिनर पर बुलाया गया. एक होटल था, ठीक-ठाक ही था. नाम भूल चुका हूँ. वहीँ हम सब लोग पहुचे. मेरे लिए सब नया था. जो लोग वहां आये थे वे अपने-आप में बड़े नाम थे, वैसे मैं चेहरे से शायद एक-आध को ही पहचानता था. लेकिन हाँ, जब नाम बताया जाता या फिर किसी माध्यम से परिचय होता तो मालूम होता कि ये तो बड़ा साहित्यकार है (पुरुष या महिला). इतना सब तो ठीक था पर जब कुछ समय बीतने लगा और फिर महफ़िल सी जमने लगी तो माहौल में स्वाभाविक तरावट आने लगी. दुर्भाग्यवश मैं इस आनंद से वंचित रहा हूँ अतः मेरे मुख्य काम इन तमाम लोगों से वार्ता करना और इससे बढ़ कर उनकी बातें सुनना था.
और इसी जगह मुझे ऐसा अनुभव हुआ जिसकी मैंने उम्मीद नहीं की थी. वहां चार या पांच महिला लेखिकाएं थीं और कई सारे पुरुष लेखक. इन्ही लेखिकाओं को लेकर इस प्रकार की बातें शुरू हुई और इस किस्म की भाषा और शब्दावली में हुई जो शायद ठेठ गाँव के किसी तथाकथित असभ्य समाज में ही सुनने को मिलता. मैं बहुत सामान्य व्यक्ति हूँ और मेरे लिए तो यह सचमुच बड़ा विचित्र था पर उससे भी बढ़ कर अचम्भा उन महिला लेखिकाओं के आचरण को देख कर था. साफ दिख रहा था कि वे अपने साहित्य को उंचाईयां देने के लिए यह साहित्येतर काम बड़े आनंद से कर रही हैं. या फिर शायद ऊपर से अपने आप को उन्मुक्त दिखाने का स्वांग रच रही हैं. इतना भर भी ठीक रहता. अगर मैं गंवार या पिछड़ा हूँ तो यह मेरी समस्या है, उन आधुनिक और बंधन-मुक्त महिलाओं या पुरुषों की नहीं. वैसे भी वहां विद्वत-जनों का रेला था, सामान्य नागरिकों का नहीं.
पर वास्तविक दिक्कत तब आने लगी जब एक महिला साहित्यकार के वर्चस्व को लेकर वहां उपस्थित दो बराबर के शक्तिशाली साहित्यविदों में बाता-कही होने लगी जो जल्दी ही इतनी विद्रूप और अशोभनीय हो गयी जिसके विषय में आम आदमी शायद कल्पना नहीं कर सके. एक दूसरे की पोल खोलने से लेकर एक दूसरे को नीचा दिखाने तक का खेल चला. और फिर लगने लगा कि सचमुच की हाथ-पाई ना हो जाए. और वह महिला साहित्यकार इस युद्ध के विजेता का बड़े धैर्य के साथ इंतजार करती रहीं.
इसी बीच लोगों का ध्यान एक दूसरी जगह बरबस चला गया क्यूंकि वहां से अचानक एक महिला के चीखने की आवाज़ आई, देखने पर मालूम हुआ कि एक अति-मूर्धन्य साहित्यकार और स्वयंभू युग-पुरुष उस महिला को जबरदस्ती अपनी जंघा पर बैठाने को कटिबद्ध हैं और वह महिला ऐसा नहीं चाह रही है. युग-पुरुष इस भंगिमा को पसंद नहीं कर पा रहे थे और उस महिला को कई तरह की व्यक्तिगत लान्छ्नाओं से बिंध रहे थे जिसमें उनके चरित्र का विषद विवरण और उनके पूर्व कृत्य सम्मिलित थे.
कुल मिला कर मेरे लिए यह अनुभव ऐसा नहीं था कि मुझे दुबारा इस प्रकार के आयोजनों में जाने का उत्साह बने. साहित्य में रुचि तो थोड़ी-बहुत बची हुई है और अपनी मर्जी के अनुरूप पढता-लिखता रहता हूँ, भले मेरा लेखन उत्कृष्ट हो या अथवा सामान्य. पर इतना अवश्य है कि अपनी लेखकीय प्रतिभा को चमकाने के लिए मैं इस प्रकार की खलीफागिरी शायद ही कर पाऊंगा, जिसका मुझे दीदार हुआ था. मैं विभूति जी के लेख पर उठे विवाद के समय यह घटना मात्र इस कारण से सोचने को विवश हो गया क्यूंकि मुझे ऐसा लगने लगा है कि एक व्यापक स्तर पर हिंदी साहित्य को एक विषय विशेष तक सीमित कर देने और उसके साथ साहित्य से जुड़े मूलभूत समस्याओं और अन्य विषयों को पूर्णतया गौण कर देने की मठाधीशी प्रवृति संभवतः हिंदी साहित्य के साथ एक व्यापक अन्याय है. चूँकि मैं ताकतवर हूँ, अतः मैं तो वही करूंगा और कहूंगा और लिखूंगा जो मेरा मन करेगा, दुनिया चूल्हे-भांड में जाए, यह अपने भर तो ठीक है पर यदि इसे थोड़े निस्पृह दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह विचित्र तथा साहित्य के लिए अहितकर ही लगता है. देह को स्वंतंत्र करो पर थोडा बहुत तो देह के परे भी सोचो.
इस रूप में मुझे विभूति जी की बात बहुत गलत नहीं जान पड़ती जब वे कहते हैं कि “लेखिकाओं में यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है।” समरथ को नहीं दोष गोसाईं, यह सही है पर इसे इतना मत खीच दो कि इससे बदबू और घिन्न आने लगे. राय साहेब की तरह पुलिस का आदमी हूँ, गाली गलौज करना खूब आता है पर मात्र खुद को मौजूदा साहित्य के योग्य साबित करने के लिए जोरदार गालियाँ लिखूं, गंदे शब्दों का प्रयोग करूँ, और भद्दी बातें लिखूं, इस मकसद से कि कोई मुझे पुरातन ना समझ ले, ऐसी बात मेरी समझ से बाहर है. और दावे से कह सकता हूँ कि समझ में किसी भी साहित्य-रत्न से किसी भी प्रकार पीछे नहीं होउंगा. हाँ यह भी सही है कि मेरी दृष्टि में राय साहेब ने इस शब्द विशेष का प्रयोग नहीं ही किया होता तो बेहतर था. लेकिन यदि इसे हम उन शब्दों की तुलना में देखें जो कतिपक “महान’ पत्रिकाओं में लिखे नज़र आ रहे हैं तो शायद यह तुलनात्मक दृष्टि से उतना बड़ा नहीं दिख पड़ रहा जितना कई योद्धा अनवरत प्रयोग कर रहे हैं- नृशंस, उन्मुक्त और शक्ति-धारिता के भाव से.
लेकिन इसके साथ यह अनुरोध भी स्त्री देह के इस कृत्रिमता-पूर्ण रचित स्व-पोषित अवधारणा के परे भी एक व्यापक साहित्यिक संसार है जिसे भी इन महान साहित्यकारों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी इस विषय को. सच में आज हिंदी साहित्य को साहित्यकारों और साहित्यिक जुगलबंदों से आगे आम जनता और उसके सारोकारों से जोड़ना शायद साहित्यिक जगत की सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है.
लेखक अमिताभ ठाकुर लखनऊ में पदस्थ आईपीएस हैं. इन दिनों शोध कार्य में रत हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
K.P.CHAUHAN
August 5, 2010 at 8:43 am
priy bandhu , aapne apne lekh “saahitykaar hain yaa madaari “ke antrgat likhaa hai ,yadi hamaare desh me saahitykaaron ki aayojnon aisee hi bhumikaa hai ki achchhe saahitykaar kisi ko ————-kher mujhe to likhne bhar se lajjaa mahsoos ho rahi hai to aise saahitykaar chaahe wo lekhikaa hon athwaa lekhakhon dono ke liye bade shrm ki baat hain ,ye log to desh ki maanmaryaadaa ko bhi samaapt karne me lage hai ,jaisaa ki aapne likhaa ki aise aayojno me jaanaa aapke liye naamumkin hai ,waastaw me koi bhi ijjatdaar vyakti jaanaa nahin chaahegaa ,mere vichaaron me to inko samaaj se tilaajli de deni chaahiye ,ek kawi yaa lekhak kaa darjaa ishwar ke baraabar hotaa hai ye to use kalankit karne me lage hai
Raghvendra Shukla
August 9, 2010 at 4:31 pm
Sir Ji Acche Dhang Se aaina aap ne dikha diya
Manik
August 19, 2010 at 9:36 am
agreed