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बिजनेस टुडे का सर्वे और एमिटी बिजनेस स्कूल

टीओआई में छपा विज्ञापन

शेष भइया, आपने जो लिखा, वही हुआ। एमिटी वाले टाप टेन में आने का ढिंढोरा पीटने लगे हैं। यहां-वहां नहीं, सीधे टाइम्स आफ इंडिया के फ्रंट पेज पर एक चौथाई पेज का विज्ञापन देकर। आपने तो बता ही दिया था कि ये लोग किस तरह सेटिंग-गेटिंग करके टाप टेन में आने लगे हैं। भोले-भाले लोगों को मूरख बनाने लगे हैं।

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शेष भइया, आपने जो लिखा, वही हुआ। एमिटी वाले टाप टेन में आने का ढिंढोरा पीटने लगे हैं। यहां-वहां नहीं, सीधे टाइम्स आफ इंडिया के फ्रंट पेज पर एक चौथाई पेज का विज्ञापन देकर। आपने तो बता ही दिया था कि ये लोग किस तरह सेटिंग-गेटिंग करके टाप टेन में आने लगे हैं। भोले-भाले लोगों को मूरख बनाने लगे हैं।

टीओआई में छपा विज्ञापनआपने तो भलमनसहत में उस बड़ी मैग्जीन का नाम नहीं दिया, जिसने टाप टेन का सर्वे किया। पर एमिटी वाले अपना गाना गाने के दौरान मैग्जीन का नाम जोर-शोर से बांच रहे हैं, बेच रहे हैं। मैग्जीन का नाम है बिजनेस टुडे। संभवतः इंडिया टुडे वालों की मैग्जीन है ये। कल का दिल्ली का टाइम्स आफ इंडिया का फ्रंट पेज देख लीजिए। न देख पाएं हों तो आनलाइन देखने के लिए टीओआई ई-पेपर और टीओआई फ्रंट पेज विज्ञापन पर क्लिक करिए। जो लोग शेष जी का लिखा न पढ़ पाए हों, वो एक बार फिर पढ़ लें और शिक्षा के बाजारीकरण के खेल तमाशे को जाने-बूझें। शेष जी का लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें- नामी पत्रिका ने पैसे लेकर डाले टाप टेन में नाम!

आपके लिखा का एक पार्ट यहां भी डाल रहा हूं ताकि सनद रहे-


”…मीडिया को अपनी लाज बचाने के लिए इस तरह के सर्वे से बाज़ आना चाहिए क्योंकि इन पत्रिकाओं की विश्वसनीयता बहुत ज्यादा होती है और सीधे सादे छात्र और उनके माता-पिता इनका भरोसा करके इन स्कूलों के चक्कर में आ जाते हैं और 2 साल का वक़्त बिताने और करीब 15 लाख रुपये खर्च करने के बाद जब जॉब मार्केट में जाते हैं या उसके पहले ही उन्हें पता लग जाता है कि एफएमएस दिल्ली तो बहुत ही अच्छा संस्थान है और वहां फीस भी बहुत कम लगती है, तो वे उस मैगजीन को शाप देते हैं जिसके सर्वे को पढ़ कर उन्होंने उस तथा कथित टॉप टेन बिज़नस स्कूल में दाखिला लिया था.

बिज़नस स्कूलों के सर्वे का यह खेल और उस से जुड़ी हेराफेरी कोई नई बात नहीं है. 1998 में जब इस पत्रिका का सर्वे आया था तो एफएमएस दिल्ली ने शिकायत की थी कि उनका नाम नीचे डाल दिया गया क्योंकि पत्रिका के प्रतिनधि ने विज्ञापन मांगा था जो नहीं दिया गया था. इस तरह के सर्वे का काम पूरे अमरीका और यूरोप में होता है. वहां होने वाले सर्वे आमतौर पर भरोसेमंद भी होते हैं. अगर वे हेराफेरी करते पाए जाते हैं तो उन पर मुक़दमा भी होता है और जुर्माना भी. शायद इसीलिए वहां की मीडिया कंपनियां गड़बड़ नहीं करतीं. लेकिन भारत में यह सारा काम नया है. शायद दस साल के करीब से यह धंधा चल रहा है. लेकिन अगर मीडिया हाउस फ़ौरन से पेश्तर संभल न गए तो उन्हें सज़ा भी होगी और जुर्माना भी क्योंकि इन्टरनेट के चलते उनकी पोल पट्टी किसी भी वेबसाइट पर खुल जायेगी….” 


उम्मीद करते हैं कि देश के नियंताओं की नींद टूटेगी और मीडिया के फर्जीवाड़े पर लगाम लगाने की कोशिश की जाएगी।

यशवंत

भड़ास4मीडिया

[email protected]

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