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सच न घटता है न बढ़ता है, बृजेश जी

[caption id="attachment_15044" align="alignleft"]अमलेंदु उपाध्यायअमलेंदु उपाध्याय[/caption]बी4एम पर प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोषी के एक अभियान, जिसमें उन्होंने चुनाव के दौरान कुछ समाचारपत्रों द्वारा धन लेकर खबरें छापने पर ऐतराज जताया है, पर कई नामी गिरामी पत्रकार अपनी भड़ास निकाल चुके हैं। यहां मैं अपनी बात प्रारंभ करने से पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं ना तो प्रभाष जी का प्रवक्ता हूं और न कभी उनसे मिला हूं। रही बात आलोक तोमर और बृजेश कुमार सिंह की तो आलोक तोमर को भी बरसों से पढ़ता रहा हूं पर मिला कभी नहीं हूं और यह बृजेश कुमार सिंह कौन हैं, मैं नहीं जानता। इसलिए मैं न तो आलोक तोमर के खेमे में हूं और न बृजेश सिंह के। दूसरी बात यह कि मैंने कभी जनसत्ता में नौकरी भी नहीं की है और वहां नौकरी मांगने जा भी नहीं रहा हूं। इसलिए मैं सिर्फ मुद्दे की बात करना चाहता हूं।

अमलेंदु उपाध्याय

अमलेंदु उपाध्यायबी4एम पर प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोषी के एक अभियान, जिसमें उन्होंने चुनाव के दौरान कुछ समाचारपत्रों द्वारा धन लेकर खबरें छापने पर ऐतराज जताया है, पर कई नामी गिरामी पत्रकार अपनी भड़ास निकाल चुके हैं। यहां मैं अपनी बात प्रारंभ करने से पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं ना तो प्रभाष जी का प्रवक्ता हूं और न कभी उनसे मिला हूं। रही बात आलोक तोमर और बृजेश कुमार सिंह की तो आलोक तोमर को भी बरसों से पढ़ता रहा हूं पर मिला कभी नहीं हूं और यह बृजेश कुमार सिंह कौन हैं, मैं नहीं जानता। इसलिए मैं न तो आलोक तोमर के खेमे में हूं और न बृजेश सिंह के। दूसरी बात यह कि मैंने कभी जनसत्ता में नौकरी भी नहीं की है और वहां नौकरी मांगने जा भी नहीं रहा हूं। इसलिए मैं सिर्फ मुद्दे की बात करना चाहता हूं।

प्रभाष जी ने अखबारों के जिस कारनामे पर ध्यान खींचा है, अखबारों के वह कुकृत्य पत्रकारिता को सिर्फ लाला की नौकरी समझने वालों के लिए सम्मान की बात हो सकते हैं लेकिन जो लोग पत्रकारिता को मिशन बनाकर या आम आदमी की आवाज समझकर काम करते हैं, उनके लिए अपमान की बात है। बता दिया जाए कि ‘जागरण’ पर सवाल प्रभाष जी ने तो बहुत बाद में उठाए हैं सबसे पहले तो जागरण के खिलाफ मोर्चा तो उन अटल बिहारी वाजपेयी, जिन्होंने नरेंद्र मोहन को राज्यसभा का सदस्य बनाया था, की खड़ाऊ लेकर चुनाव लड़ रहे लालजी टंडन ने खोला था। साथ में उन मोहन सिंह ने, जिनकी पार्टी ने महेंद्र मोहन को राज्यसभा का सदस्य बनाया था, खुला सवाल किया था कि महेंद्र मोहन बताएं कि राज्यसभा सदस्य बनने के लिए उन्होंने सपा को कितने रूपए दिए थे। जहां तक जागरण का सवाल है तो उसने पत्रकारिता का अपमान पहली बार नहीं किया हैं इससे पहले भी बाबरी मस्जिद की शहादत के वक्त पत्रकारिता को कलंकित किया था और उसके कृत्य पर उसे प्रेस कौंसिल से लताड़ भी पड़ी थी।

जागरण जैसे अखबार में कर्मचारियों के भयंकर शोषण की कई कहानियां हैं। रही बात बिकने की तो ‘हंस’ कम बिकती है और ‘मायापुरी’ व ‘मनोहर कहानियां’ ज्यादा बिकती हैं। प्रेमचंद का ‘गोदान’ कम बिकता है लेकिन वेदप्रकाश शर्मा या ओमप्रकाश शर्मा नाम के किसी आदमी का ‘वर्दी वाला गुंडा’ ज्यादा बिकता है। प्रभाष जोशी होने का मतलब हर कोई नहीं समझ सकता। किसी का यह कहना कि खबर बेचने में बुराई क्या है, ठीक वैसा ही तर्क है कि एक भले घर की लड़की कॉलगर्ल बन जाए और कहे कि वह वेश्या नहीं है और शरीर तो उसका है, तो उसे बेचने में किसी को क्या आपत्ति है।

आलोक तोमर की भाषा से आपत्ति को लेकर मेरा कहना है कि हर तथाकथित ‘सभ्य’ व्यक्ति को आम आदमी की भाषा से नफरत होती है. उसकी नजर में ‘हरामी’ तो गाली है लेकिन ‘बास्टर्ड’ गीता के श्लोक की तरह है। और भिंड मुरैना की पुष्ठिभूमि से आना कोई अपराध नहीं है। जिस भिंड, मुरैना और चंबल की पुष्ठिभूमि पर तंज कसा जा रहा है, उस चंबल के डाकू बहुत मॉरल वाले लोग हुए हैं। रही बात ‘तिहाड़’ की तो मेरा मानना है कि ‘सच’ बोलने की सजाओं में आलोक तोमर का तिहाड़ जाना और उमेश डोभाल का अंत, दोनों हो सकते हैं। लेकिन आलोक तोमर ने ना तो कभी चंद्रास्वामी से अपने संबंध छिपाए और न दाउद के भाई नूरा से। बृजेशजी ने शायद विनोद शुक्ला नाम के आदमी का नाम नहीं सुना है। अगर नहीं सुना है तो मालूम कर लें, वे जागरण के लखनऊ संस्करण के संपादक थे और क्या वे भी जेल गए थे? पर क्यों? इसी तरह बरेली में एक चंद्रकांत त्रिपाठी नाम के सज्जन हैं जो जागरण के सर्वेसर्वा हैं। उनकी जेब में कलम नहीं मिलेगी लेकिन दफ्तर में राइफल रखते हैं। बृजेश जी, जरा भाषण देने से पहले अपने संस्थान की करतूतों पर एक सरसरी नजर ही डाल लेते।

अब अंत में मुद्दे की बात। चुनाव के दौरान कई बड़े अखबारों ने जैसा नंगई का नाच खेला और जनजागरण का अभियान भी चलाया, वह अमिताभ बच्चन के उस विज्ञापन की याद ताजा कर देता है जब निठारी कांड के बाद अमिताभ कह रहे थे कि -‘यूपी में है दम/ चूंकि जुर्म यहां है कम’। क्या तमाशा है कि एक बड़ा अखबार चुनाव के दौरान अपील कर रहा है कि अपराधियों को वोट न दें और उसी पन्ने पर नक्सली नेता और कई संगीन वारदातों के आरोपी अब सांसद कामेश्वर बैठा का गुणगान कर रहा है कि वे बहुत भले आदमी हैं। वैसे भी प्रभाष जी ने किसी पत्रकार पर उंगली नहीं उठाई है, उन्होंने अखबार मालिकों को कठघरे में खड़ा किया है। एक स्वामीभक्त मुलाजिम होने के नाते किसी कर्मचारी का अपने लाला के बचाव में उतरना स्वाभाविक है। चूंकि ऐसा करने से उन्हें नौकरी में तरक्की भी मिल सकती है और पगार भी बढ़ सकती है। लेकिन इस देश में बहुत बड़ी संख्या उन पत्रकारों की है जो प्रभाष जोषी, कमलेश्वर, राजेंद्र माथुर, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, उदयन शर्मा और एसपी सिंह जसे लोगों से प्रेरणा लेते रहे हैं लेकिन पूर्णचंद्र गुप्त, नरेंद्र मोहन या महेंद्र मोहन किस पत्रकार के आदर्श हैं, जरा प्रकाश डालें बृजेशजी!!!!


लेखक अमलेन्दु उपाध्याय राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ में सहायक संपादक हैं। अमलेन्दु बात बोलेगी हम नहीं नामक ब्लाग के संचालक भी हैं। इनसे संपर्क करने के लिए [email protected] पर मेल करें।

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