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पत्रकारिता शुद्ध व्यापार, संपादक का काम पीआर

ज्यादातर संपादक जातिवादी हो गए हैं : व्यापारिक काम ही करना है तो अखबार की दुकान में क्यों करें? : जब मैंने 1976 के दिनों में पहली बार दिनमान में एक स्टोरी बिहार से की थी तब यह अंदाजा बिल्कुल नहीं था कि 34 बरस बाद पत्रकारिता का पूरा चरित्र इस तरह बदल जाएगा।

<p style="text-align: justify;"><strong>ज्यादातर संपादक जातिवादी हो गए हैं</strong><strong> : व्यापारिक काम ही करना है तो अखबार की दुकान में क्यों करें? :</strong> जब मैंने 1976 के दिनों में पहली बार दिनमान में एक स्टोरी बिहार से की थी तब यह अंदाजा बिल्कुल नहीं था कि 34 बरस बाद पत्रकारिता का पूरा चरित्र इस तरह बदल जाएगा।</p>

ज्यादातर संपादक जातिवादी हो गए हैं : व्यापारिक काम ही करना है तो अखबार की दुकान में क्यों करें? : जब मैंने 1976 के दिनों में पहली बार दिनमान में एक स्टोरी बिहार से की थी तब यह अंदाजा बिल्कुल नहीं था कि 34 बरस बाद पत्रकारिता का पूरा चरित्र इस तरह बदल जाएगा।

आज जो लोग पत्रकारिता करने के लिए अखबारों में बतौर प्रशिक्षु काम कर रहे हैं उनमें से बहुतों को तो यह पता भी नहीं होगा कि कभी देश में दिनमान जैसी पत्रिका रही होगी और रघुवीर सहाय जैसे संपादक भी रहे होंगे। उन दिनों टाइम्स समूह धर्मयुग और दिनमान जैसी साप्ताहिक पत्रिकाओं के लिए कितना याद किया जाता था, यह आज के नए पत्रकारों को शायद ही पता हो। सारिका के लिए कमलेश्वर और दिनमान के लिए रघुवीर सहाय साहित्य और समाचार के लिए एक स्कूल जैसे माने जाते थे।

नई दुनिया में उन्हीं दिनों राजेंद्र माथुर ने दैनिक अखबारों के लिए एक नया कंसेप्ट गढ़ा था। इसलिए जब कलकत्ता से टेलीग्राफ समूह ने हिंदी साप्ताहिक रविवार लांच किया तो देश भर के हिंदी पाठकों ने उसे हाथों-हाथ उठा लिया था। आज के लोगों को ये पत्रिकाएं याद नहीं भी हो सकती हैं। उन दिनों पत्रकारिता ग्लैमर नहीं थी, एक मिशन जैसी चीज थी। इतने प्रशिक्षण संस्थान भी नहीं थे और रघुवीर सहाय और बाद में एसपी सिंह एक एक स्टोरी पर दूर बैठकर भी बताते थे और हम जैसे लोग सीखकर गर्व महसूस करते थे।

शायद यही कारण है कि बैंक में नौकरी लगने के बावजूद बिहार के पूर्णिया जैसी छोटी जगह से भी मुझसे एसपी और रघुवीर सहाय ने अपनी पत्रिकाओं के लिए लगातार लिखवाया। मैंने धर्मयुग में भी अनेकों आलेख लिखे लेकिन जो मजा दिनमान और रविवार में लिखकर आता था वह और जगह नहीं था। यही कारण है कि उसके कुछ ही बरस बाद यह इच्छा जगने लगी कि बैंक की नौकरी छोड़ कर सीधे किसी अखबार या पत्रिका में नौकरी की जाय और जमकर लिखा जाए।

उन दिनों इन पत्रिकाओं में एक स्टोरी छपने का मतलब था, सरकारी मशीनरी की सक्रियता। यहां तक कि दिनमान के मत सम्मत जैसे पत्र वाले कॉलम पर भी लोग बहस करते थे और प्रशासन में बैठे लोग तत्काल एक्शन में आते थे। इसके अलावा राजनीति करने वाले लोग भी अनेकों बार समाचार कथाओं को संसद या विधान सभाओं में गंभीर चर्चा करते थे।

संभवतः इन्हीं कारणों से मुझे बार बार लगता था कि मैं बैंक में नौकरी करके अपने को नष्ट कर रहा हूं। 1980 के आसपास मैंने कई बार बैंक छोड़कर सीधे पत्रकारिता में आने का प्रयास किया पर जब कुछ पत्रकार मित्रों से राय लेता तो वे साफ मना कर देते। यहां मैं तब के बिहार के जाने माने पत्रकार अरुण रंजन और परशुराम शर्मा की खास चर्चा करना चाहूंगा। इनने मुझे बार बार कहा कि स्वतंत्र लेखन ठीक है, अखबारों में नौकरी नहीं करनी चाहिए। फिर भी जब पटना से दैनिक हिंदुस्तान का प्रकाशन आरंभ हुआ तो मैं वहां के तत्कालीन संपादक श्री हरि नारायण निगम से मिला। उन्होंने तुरंत आने का आदेश दिया और मैं बैंक से लंबी छुट्टी लेकर वहां काम करने लगा।

उसके करीब एक साल बाद पटना से नवभारत टाइम्स का आना तय हुआ। वहां टेस्ट लिए गए, शायद पहली बार पत्रकारिता में यह परंपरा आई थी। मैंने भी टेस्ट दिया तो राजेंद्र माथुर बहुत प्रभावित हुए थे। पर बात पैसे पर अंटक रही थी। वहां के तत्कालीन संपादक दीनानाथ मिश्र चाहते थे कि मैं ज्वायन कर लूं। मैंने हिन्दुस्तान छोड़कर नभाटा में लगभग एक वर्ष काम किया।

इसी बीच दीनानाथ मिश्र को पटना से दिल्ली बुला लिया गया और पटना में आलोक मेहता को जिम्मेदारी दी गई। उन्हें किसी ने मेरे बारे में गलत फीड बैक दिया होगा इसलिए उनका मेरे प्रति रवैया बदलने लगा और कुछ ही महीनों में मुझे उन्हें नमस्ते करने की हालत बना दी गई। बाद में पता चला कि अनेक पत्रकार साथियों ने ही सारा माहौल ऐसा बनाया कि आलोक मेहता के मन में मेरे बारे में अनेक गलतफहमियां बैठ गईं। मैं फिर से बैंक की दुनिया में वापस हो गया।

लेकिन दीनानाथ मिश्र ऐसा मानते थे कि मुझे अखबार में रहना चाहिए, इसलिए उन्होंने मुझे गुवाहाटी से प्रस्तावित एक हिंदी दैनिक के लिए वहां भेजा। वहां जाने पर पता चला कि वहां अजीत अंजुम वगैरह भी हैं। पर एक सप्ताह में जो माहौल मुझे अखबार मालिक की ओर से मिला, उसने मुझे एहसास कराया कि वहां टिका नहीं जा सकता। मैं बिना किसी सूचना के वहां से वापस आ गया और दीनानाथ मिश्र से क्षमा मांग ली।

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इस बीच रविवार, दिनमान समेत अनेक हिंदी पत्र पत्रिकाओं में मैं बिहार से लिखता रहा। हिंदी एक्सप्रेस, श्रीवर्षा, बोरीबंदर जैसी अनेक पत्रिकाएं बड़े धनपतियों ने निकालीं, शरद जोशी और सुदीप जैसे संपादक भी रखे और सबने बिहार से मुझे जोड़े भी रखा, पर कुछ ही महीनों बाद ये बंद भी होती रहीं। जब जनसत्ता के लिए इंडियन एक्सप्रेस ने तैयारी आरंभ की तो प्रभाष जोशी ने मुझे दिल्ली बुलाया। उस समय उसके लिए पटना से उन्होंने मुझे और सुरेंद्र किशोर को ही बुलाया था।

मैंने देखा कि जनसत्ता के लिए मंगलेश डबराल जैसे लोग भी टेस्ट दे रहे थे। मैंने भी दिया। बाद में प्रभाषजी ने कहा कि पटना के लिए उन्होंने सुरेंद्र किशोर को फाइनल कर लिया है, मैं दिल्ली आकर ज्वायन कर लूं। मेरे कुछ व्यक्तिगत कारण थे, कि उस समय मैं पटना छोड़ नहीं सकता था, मैंने दुःखी होकर उन्हें मना कर दिया। उसके बाद भी उन्होंने कहा कि मैं पटना से उनके खास खबर वाले पेज के लिए नियमित लिखता रहूं। बैंक की नौकरी के साथ मैंने इस तरह का तमाम तरह का लेखन जारी रखा।

1991 में मैं अपने मित्र राजीव रंजन नाग की मदद से दिल्ली आ गया। मुझे यह मानने में जरा भी संकोच नहीं है कि राजीव ने मेरी हर कदम पर मदद की जो हमारा महानगर तक जारी रही। 2008 में जब मैं बैंक छोड़ने पर आमादा हो गया था तो राजीव ने हरवीर सिंह से कहकर मुझे बिजनेस भास्कर में जाने का रास्ता बनाया। वहां बाद में यतीशजी मुझे अनेक काम दिए और मेरे काम से वह खुश भी थे। पर वहां भी कुछ लोगों ने ऐसी राजनीति की मैं दंग रह गया।

यतीशजी अंग्रेजी से आए थे, मेरे बारे में उन्हें पहले से कोई जानकारी नहीं थी, उन्हें जो बताया गया, वे मानते गए। उन्होंने पहले मुझसे वायदा किया था कि मेरे बैंक से इस्तीफे के बाद कम से कम बैंक के बराबर के वेतन पर वहां रखेंगे। पर कभी आर्थिक मंदी कभी किसी और बहाने से मुझे टाला जाता रहा। बाद में पता चला कि उन्हें मेरे बारे में जोरदार नकारात्मक जानकारियां दी गईं। थक कर मैंने ही बिजनेस भास्कर को अलविदा कह दिया। इस बीच राजीव हमारा महानगर के प्रोजेक्ट में लगे थे। जब उसका फाइनल स्वरुप बना तो उन्होंने मुझे भी अखबार में मौका दिलाया।

पर इस बीच पत्रकारिता और अखबारी दुनिया से सीधे जुड़ने के बाद मुझे जो अनुभव मिले वे दुःखद रहे, यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है। यहां मैंने देखा कि जो लोग सामने से बिल्कुल अपने और नजदीकी होने का दावा करते हैं, वे आपको काटने में भी उतना ही सक्रिय हो जाते हैं, अगर उन्हें जरा सा भी अनुमान हो कि आपके आगे आने से उनके अहम को खतरा हो सकता है।

आलोक मेहता से मैं कई बार नौकरी के लिए अनुरोध करता रहा पर हर बार उनका कहना था कि मैं बैंक से इस दुनिया में आकर किसी पत्रकार की नौकरी खाने पर क्यों तुला रहता हूं। हालांकि उन्हें राजेश रपरिया और हरिवंश जैसे लोग अच्छे लगते रहे, जो बैंक छोड़कर ही पत्रकारिता में आए थे। पटना में उन्हें मेरे बारे में जो भी बताया गया, उसके कारण उन्होंने कभी अपने साथ जुड़ने का मौका नहीं दिया। लोग कैसे कैसे वहम पाले रहते हैं।

मैंने कई बार पहले और अब की पत्रकारिता का अध्ययन किया और बार बार इसी नतीजे पर आया कि अब पत्रकारिता कोई मिशन नहीं, शुद्ध व्यापार है और संपादक का प्रमुख काम पीआर का रह गया है। छोटा संपादक ब्यूरोक्रेसी से पीआर का काम करता है और मालिकों के काम निकलवाता है तो बड़े अखबार का संपादक सीधे केंद्रीय मंत्री या वित मंत्री और मौका लगा तो प्रधानमंत्री के माध्यम से मालिकों की मदद कराता है।

अब अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय और राजेंद्र माथुर का युग नहीं है। अब संपादकों के नाम नीतीश कुमार या लालू यादव जैसे नेता भी तय कर सकते हैं। अगर मुझमें दम है तो मैं भी किसी कमल मोरारका को पकड़ कर अपनी राजनीति कर सकता हूं। नहीं तो सड़क और दरवाजे की ओर इशारा किया जा सकता है।

मैंने देखा है कि ज्यादातर अखबारों का संपादक जातिवादी हो गया है। वह पत्रकारों में राजपूत, भूमिहार और पंडित ढूंढने में लगा है। उसके बाद वह देखता है कि उससे जुड़ने वाला व्यक्ति समाजवाद और साम्यवाद का चोला पहनता है या नहीं। वह अपने को हिंदू कहने में इतना डरता है कि उसकी घिग्गी बंधी रहती है। वह अपने को वामपंथी दिखा कर प्रगतिशील बनने का भाषण झाड़ सकता है। इसीलिए आज का ज्यादातर संपादक मालिक के व्यापार एजेंट के साथ एक छोटा सा गुट बनाकर रहता है। अपने संपादकीय पेज पर भी वह इसी छोटे से गुट के लेखक का ही आलेख छापता है और कहीं मालिक से चर्चा चली और किसी को अखबार से जोड़ने का मौका भी आता है तो इसी गुट के किसी सदस्य का नाम प्रस्तावित करता है।

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इन परिस्थियों में मेरे जैसा आदमी कहां और कैसे टिक सकता है!

हाल ही में मुझे एक पुराने मित्र और एक आंदोलननुमा अखबार के संपादक ने रांची बुलाया और खूब गर्मजोशी से मिले। फिर मुझे अपने एक प्रस्तावित संस्करण के लिए चुनौती स्वीकार करने को तैयार रहने को कहा। बाद में पता चला कि उनके व्यापार में सक्रिय हो सकने वाले अपनी ही जाति के किसी पत्रकार को कम पैसे में तैयार कर लिया।

इससे बेहतर तो मुझे भोपाल के एक बड़े दैनिक के महाप्रबंधक महोदय लगे। उन्होंने मुझे अपने अखबार के प्रस्तावित लखनउ ब्यूरो के लिए बुलाया था। मैंने जो प्रोजेक्ट उन्हें दिया, उसे उन्होंने स्वीकार कर लिया लेकिन इतना बिल्कुल साफ स्वर में कहा कि उन्हें संपादक नहीं चाहिए, मैनेजर ही चाहिए। ऐसा मैनेजर जो लिखना भी जानता हो और व्यापार करना भी जानता हो।

अगर लखनउ में कोई बड़ा विज्ञापन एजेंट और बड़ा वितरक 5 लाख रुपए से ज्यादा की सेक्यारिटी राशि जमा कर दे और अखबार को महीने में कम से कम 15 लाख का विज्ञापन दे तो आपकी और आपकी टीम की नौकरी पक्की। उसके तुरंत बाद अखबार के लखनउ संस्करण के संपादक भी आप ही होंगे। उन्होंने जिस साफगोई से बात की वह मुझे पसंद आई। वह किसी नीति, सिद्धांत और विचार का चोला ओढ़ कर कुछ नहीं कह रहे थे। उनके साथ मैं कितनी दूर तक चलने लायक हूं, यह मेरी मैनेजरी पर था।

इन सारी बातों के बाद मुझे लगने लगा है कि जब केवल व्यापार ही करना है, कमीशन देकर विज्ञापन एजेंट और वितरक जैसे पत्रकारों की ही टीम बनानी है तो यह काम अपनी छोटी सी पूंजी से भी खुद के लिए क्यों न किया जाए! क्यों सारी उर्जा दूसरों के व्यापार बढ़ाने में नष्ट की जाए। और पूंजी नहीं है तो जिस बैंकिंग की दुनिया से मैं आया हूं, वहीं वापस क्यों न चला जाय!

ठीक है कि अब सरकारी नौकरी नही मिल सकती, पर निजी बैंक तो रोटी दाल के लायक तो पैसे दे ही सकते हैं। कम से कम अपने को बुद्धिजीवी कहलाने का ढोंग करने का भ्रम तो नहीं होगा। व्यापारिक काम ही करना है तो किसी भी दुकान में काम किया जा सकता है, अखबार की दुकान में ही क्यों ! इसलिए पत्रकार साथियों, नमस्ते, अलविदा!

लेखक अंचल सिन्हा बैंक की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता में आए थे और अब फिर से वापस बैंक की नौकरी में जा रहे हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. ranjan

    June 18, 2010 at 8:01 am

    bhai sinhajee ne sateek likha hai.
    waakai journalism ka astar ab bahut gir gaya hai. dukhad hai ki jis raftaar se gir raha hai. jaise jaise sidhaant heen, mulya viheen, agyaani swaarth lolup log ( kuchh gine chune ko chhor kar) chaatukarita evam aakaa k bal par is pese ko dhandha bana rahe hain. imaandaaron ki dhajji ur rahi hai. yah pesa nikristh peson me gina jaane lagega. halanki vishwaash to uth hi chuka hai. badnaami bhi aa gayee hai. samarthwaan gyaanwaan ab bhi sarashwati ki raksha ko aage nahi aayenge to itihaas banti patrkaarita ki parinati kaisi hogi bhavishya bataaega.

  2. mamta yadav

    June 18, 2010 at 9:14 am

    anchal ji bahut hi samyik tarksangat or vartman patrkarita ki sthithi par sateek bat kahi hai aapne aamtour par bade partishith prakashan samuho me yahi ho raha hai vastav me aj na to press maliko ko patrkaro ki jarurarat hai na hi sampadko ki unhe dalal chahiye jativaad k mamle me bhi apki bat ekdam sahi hai satyta se likhne k liye sadhuvaad

  3. vandanaranjan

    June 18, 2010 at 9:15 am

    app ke leakh ne bhavuk ker diya. patrakarita ne apna chola badal liya hai.ab iska nam dalalkarita hona chahiye.jo jitna bada dalal hota hai o utna hi nami patrakar hota hai.aap jaise imandar logon ke liye is gandagi se nikalna hi sahi hai. aap ke pass to bank ki naukri ka anubhav hai. un imandar logon ka kya jo patrakarita ke alava aur kuch nahi jante.unhe to pet ke liye is gandagi mein gheshitana hi hoga.

  4. Sushil Gangwar

    June 18, 2010 at 2:06 pm

    Bank ki naukri chhodkar Patrakarita me aana samjhdari or murkhta dono hai. Dono field apni jagha achhe hai. Gar aapko patrakarita me achha break mil jata hai kowi buri baat nahi hai . Patrakarita ka girta graph or kam betan par kaam karne vale majbur patrakaar kabhi kabhi to do jun ki roti ke liye taraste hai. Eska dos kisi akhbaar ke malik ko diya jaye to behtar hoga. Vah log Salary dena hi nahi jante hai. Aaj kal har TV chennal or Akhbaar me chhatni ho rahi hai. Agar aapko kisi or field me achhi naukri karke achha paisa milta hai to esme buraaee kya hai.पापा कहते थे कि बेटा बड़ा होकर बड़ा अधिकारी बनेगा -गाडी बंगला नौकर चाकर मुफ्त में मिलेगे ? बेटे ने तो टीवी देखकर देखकर कुछ और बनने का मन बना लिया था। वह भी एक पत्रकार। आज पत्रकारिता जगत में करांति है , हर बंदा लिखना और छपना चाह रहा है । नौकरी की बात करे तो जिसका जुगाड़ है वह नौकरी कर रहा है । अगर नौकरी मिल जाये तो वेतन इतना कम की गुजारा भी न हो सके – आखिर करे तो क्या करे । इसलिए नए पत्रकारों ने नयी राह पकड़ ली है । थोडा सा पैसा और जुगाड़ है तो stingership मिल जाती है . फिर वेतन कहा से आये . कभी कभार स्टोरी टीवी पर लग जाती है तो पैसा मिल जाता है. नहीं तो उलटे सीधे काम करो। इसलिए पत्रकारिता का ग्राफ गिरता जा रहा है । आज १०० लोगो में से १५ के पास ही नौकरी है । जो लोग नौकरी कर रहे तो पेट ही पाल रहे है । मै जीवन में कितने पत्रकारों से मिला, कुछ तो वीकली , मंथली पपेर magazine और केबल चेन्नल के सहारे ही जिन्दगी बसर कर रहे है . हम दूसरे सेक्टर की बात करे तो अच्छी नौकरी और अच्छा पैसा मिल रहा है ।
    http://www.sakshatkar.com
    http://www.sakshatkar-tv.blogspot.com

  5. Sushil Gangwar

    June 18, 2010 at 2:11 pm

    फर्जी पत्रकार -सुशील गंगवार –
    पत्रकारिता का मीठा जहर रगों में चला जाये तो अनपढ़ लोग भी पत्रकार बन जाते है । आप लोगो को याद होगा ,मैंने अपने गाँव के फर्जी रिपोर्टर छिदू मामा की कहानी सुनाई थी । पत्रकारिता में फर्जी पत्रकारों को फौज खड़ी हो चुकी है । ऐसे पत्रकारों पर लगाम कैसे लगे, यह तो भारत सरकार की समझ से बाहर है । हर जिले – तहसील में टीवी और प्रिंट पत्रकार बसूली करते घूम रहे है । हर टीवी चेंनल और अखबार अपने रिपोर्टर आल इंडिया स्तर पर बनाते है । यह दुकाने गली कूचो में खुलने लगी है । फर्जी पत्रकार अखबारों में बड़े बड़े विज्ञापन देकर फर्जी रिपोर्टर एडिटर बनाकर मोटी कमाई कर रहे है। यह लोग फर्जी पत्रकारों को पैसा उघाने की तालीम देकर स्टिंग करवाने से नहीं चूकते है। पत्रकार अपनी न्यूज़ साईट खोल कर स्टिंग करने का धंधा डेल्ही N . C. R में पैसा कमाने लिए कर रहे है । इनकी पदाई आठवी तक है परन्तु भेष बदलने में माहिर है । इनके बात करने का ढंग बेहद कुशल -शातिर होता है । यह अपने आपको किसी बड़े पत्रकार से कम नहीं समझते है। कभी कभी मंत्री का नाम लेकर लोगो को चूना लगाने से बाज नहीं आते है । ऐसे पत्रकार साल एक दो बार तिहाड़ जेल की यात्रा कर लेते है । आपको फर्जी पत्रकारों से बचकर रहना होगा ।
    http://www.sakshatkar.com
    http://www.sakshatkar-tv.blogspot.com

  6. Haresh Kumar

    June 18, 2010 at 2:30 pm

    सबसे पहले आपको पत्रकारिता में इतने दिन पिपरीत परिस्तितियों के बीच गुजारने के लिए बधाई। आज आपने जो पीड़ा व्यक्त की है वह हर उस व्यक्ति की है जिसके पास जानकारी तो है लेकिन कोई गॉडफादर नहीं जो उसे संरक्षण दे सकें। मीडिया का हर अंग आज महज व्यापार का एक अंग बन कर रह गया है और अब ना पहले जैसी स्वतंत्रता रह गई है। अगर एस.पी सिंह, उदयन शर्मा, राजेंद्र माथुर, कमलेश्वर, दीनानाथ मिश्रा और रघुवीर सहाय ने अपने समय में कुछ किया तो उस समय के माहोल के चलते, तब पत्रकारिया में इतनी दखलअंदाजी नहीं होती थी। तब मीडिया में ब्लैक मनी नहीं था, अगर रहा भी होगा तो काफी कम और पत्रकारिता जगत से सरोकार रखने वाले लोग ही इस क्षेत्र में आते थे। आज आपका कहना एकदम से सही है कि पत्रकारिता आज बनिया की दुकान हो गई है। सब कुछ पैसे के जोर से चलता है. पेड न्यूज़ भी जमकर होता है। कई लोग इस क्षेत्र में उभरने से पहले ही असमय पत्रकारिता को विदा कर गए, क्योंकि वे मैनेजमेंट को खुथ नहीं कर सके। या दूसरे शब्दों में कहें तो चापलूसी नहीं कर सके। आज कल पत्रकारिता में कई ऐसे लड़के / लड़कियां मिल जायेगी आपको जिसे जानकारी के नाम देश में कितने राज्य हैं, या प्रधानमंत्री का नाम बता भी दें तो मंत्रीमंडल के सदस्यों का नाम नहीं मालूम। देश-विदेश के इतिहास को तो छोड़िए वे दस प्रसिद्ध एंकर या पत्रकार के नाम भी नहीं बता सकते। लेकिन पत्रकारिता के नाम पर दुकानदारी करने वाले लोगों के चलते ये तमाम लोग पत्रकार बन जाते हैं और पत्रकारिता को बदनाम करते हैं। जब तक आपके अंदर लगन नहीं होष आपको पढ़ने की लगन न हो। चीजों को समझने की लगन न हो। आप सफल पत्रकार बन नहीं सकते हैं। एक सर्वे कराकर आप देख/ जान सकते हैं कि अभी पत्रकारिता करने वाले लोगों में से कितने प्रतिशत लोग अपनी बीट को सही तौर पर समझते हैं।
    आज न वो सुरेन्द्र प्रताप सिंह हैं और न ही राजेन्द्र माथुर या प्रभाष जोशी जैसे माटी से जुड़े लोग। आज तो बस चाटुकारों की टोली है जो बस जानती है कि मैनेजमेंट के लोगों को कैसे खुश किया जाता है। और वे ही सफल पारी खेलते हैं, अपनी कॉपी किसी से लिखाकर अपना नाम दे देते हैं और बेचारा कुछ कह भी नहीं पाता है, क्योंकि उसके घर चूल्हा नहीं जलेगा, अगर उसने खिलाफत की तो। ऐसी स्थिति का जमकर ये लोग फायदा उठाते हैं और जमकर शोषण करते हैं। लड़कियों का तो शारीरिक शोषण होता ही है, मानसिक शोषण भी कम नहीं होता। कई चैनल और यहां तक कि प्रिंट मीडिया में भी अब पत्रकारों से विज्ञापन लाने को कहा जाता है और उसमें कई को कुछ प्रतिशत कमीशन भी मिलता है। राम जाने इस पत्रकारिता का आगे क्या हाल होगा, जिसने देश को गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकार भी दिए हैं। आने वाला समय सचमुच भयावह है और पत्रकारिता भी अन्य पेशे की तरह मात्र एक पेशा बनकर रह गया है, यहां बनिया की दुकान से भी बदतर व्यवहार होता है।
    पिछले वर्ष ही भारत में मंदी के नाम पर कितने पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया गया था, जब कि मीडिया में मंदी का कोई असर नहीं था। कई दुकान तो ऐसे ही बंद हो गए। अब लोग सब कुछ तड़का लगाकर परोसना चाहते हैं और मैनेजमेंट भी होशियार हो गया है। 24 घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनलों में न्यूज़ के नाम पर लड़कियों को नचाया जाता है, या कोई नौटंकी दिखाया जाता है, क्या यही न्यूज़ की परिभाषा है।

  7. गजेन्द्र राठौड़, राजस्थान पत्रिका, बेंगलूरु

    June 18, 2010 at 3:35 pm

    अंचल सिन्हा जी नमस्कार
    सिन्हा साहब आज की पत्रकारिता की तो बात ही छोड़ दीजिए, हालांकि मुझे इस क्षेत्र में आए जुम्मा -जुम्मा चार दिन ही हुए हैं, लेकिन मैं भी समझ गया कि यह तो जातिवाद और व्यापार करने का क्षेत्र हैं। आप ने इसे जातिवाद का नाम दिया, मैं इस को क्षेत्रवाद से भी संबोधित करना चाहूंगा। सिन्हा साहब जातिवाद के दंश को मैं भी झेल चुका हुं। अखबार के दुनिया में उच्च पदों पर आसीन उन मालिकों से मेरा एक ही सवाल हैं, क्या आप लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाले पत्र-पत्रिकाओं के मालिक हैं या एक बृहद कारखाने के?

  8. Animesh

    June 18, 2010 at 3:48 pm

    NO problem, Jayiye aur bank mein baith kar rokad giniye aur debit-credit kariye. Akhbaron mein netaon, afsaron aur dalalon ka debit-credit karne ka kaam tathakit sampadak aur maalik bakhoobi kar rahe hain. Yahan koi clash of interests wala maamla bhi nahi hai. Ab aap hi bataiye, bidiyon aur gutkon ke vigyapan ke bal par Aveek Sarkar kab tak Ravivar chalate, ya phir US-returned Sahu Sameer Jain aakhir kab tak Dharamvir Bharati aur Raghuvir Sahay ki virasat ko ghat-te vigyapanon ke bal par sambhal kar rakhte? Sameer Babu ne TOI ko Delhi me No.1 banakar hi chhoda aur ab NBT me Hinglish ka kalyan karne par tule hue hain. Parantu ye na kahen ki us zamaane me dalali nahi hoti thi. HT ke bureau chief aur chief reporter Birla seth ki kaisi dalali karte the, yeh sabko pata hai. Ab, globalisation ke daur me is peshe ka vistaar ho chuka hai aur yeh Jagaran, Bhaskar jaise akhbaraon me fail chuka hai. Jansatta is waqt jis dayaniya haalat me hai, woh sabko pata hai.Isliye bank ki naukri me hi samajhdari hai.

  9. s bhartiya

    June 18, 2010 at 5:04 pm

    bahut mushkil bhari ho gai hai aaj ki patrakarita. is peshe men bhi imandar logon ke liye jagah banana kathin ho gaya hai. chote padon par jo log hain kisi tarah apane parivar ko jivit rakhane ke liye noukeri baja rahen hain. kahin paisa hai to shanti nahi. anchal ji – is basti se nikal gaye achcha kiya. aap ke ek-do apane jo yahan hain, unhen yaad kijiye, badi mushkil men hain ve bhi.

  10. Seemant lakhera

    June 18, 2010 at 7:10 pm

    ji anchal ji, aapne bilkul sahi baat kahi……..jin logon ke baare mein aapne baat ki hai, unhe mein bhi acche se janta hoon..theek baat hai …PR waloon se paise lekar ye log roj dhalle se press release chaaptein hain…………..bilkul sahi baat hai………lakin afsoos ek baat ka hai ki aapko ye samajhne mein 30 saal lag gaye, kher koi baat nahi….der aaye durust aaye…..ab africa jaaka mauj lo……

  11. anand bharti

    June 18, 2010 at 7:25 pm

    AKHBAR KO INDUSTRY GHOSIT KAR DIYA GAYA HAI TAB PHIR USASE GANESH SHAKAR VIDYARTHI WALI PATRAKARITA KI UMMEED KYON KAR RAHE HAIN?

  12. ravishankar vedoriya 9685229651

    June 20, 2010 at 1:31 pm

    sinha sir ji apke man kim peeda akeli nahi hai ese hazaro patrakaro hai jo is samasya se joojh rahe hai lekin sacche patrakaro ki duniya hamesha bani rahi yadi ap jese acche log is setra ko chodkar jate hai to ve patrakar ke hosale buland ho jate hai apko medan nahi chodna chaiye ggni log apke sath hai

  13. BIJAY SINGH

    June 21, 2010 at 3:57 pm

    Anchal ji bilkul sachcha anubhav hai apka.aaj patrakarita ki yahi sahi taswir hai.ho bhi kyon nahi ,bajar jo itna bada ho gaya hai.saaf baat karne me koyi harz nahi ,kyonki revenue ayega tabhi akhbar chalega.par chadam katith sidhdhantwadi bane rahan dong hai.
    main 3 saal pahle delhi me mere ek mitra sanjeev raman(jo) apne bhai tridiv rman ke sath kuc channels ke liye story aadi banate the yewam bihar jharkhand news naam ki partika bhi nikale the ,ke sath S1 channel me gaya tha .sanjeev ne kaha ki wahan openings hai ,chaliye baat karte hain.
    jab hum S1 pahunche to wahan hame bashstha ji se milne ko kaha gaya .mile hum log .maine apna CV BHI DIYA.wo bolo cv to kaphi achcha hai,thik hai hum apko kama dena chahte hai.issi beech sanjeev raman ne unse kaha ki bijay ji ke aa jane se aapko bigyapan me bhi madad hogi kyonki inki bigyapan me achchi pakad hai.bas sahab ,bhadak gaye bashishtha ji,bole mujhe pure patrakar chaiye ,bigyapan ka admi to newx manage karega.hume to khalish partakar hi chahiye.
    maine unse kaha ki bhai sahab aapka channel bigyapan nahi leta hai kya?aur e to sanshthan chaegi tabhi main advt dilwawunga .waise bhi isme galat kahan hai ,channel ya akhbar ko bigyapan to chahiye na.revenue kahan se ayega.
    lekin sahab to bas so called visudhhta ki chadar odhe hue the.hum uth kar chale aye.
    baad me 2 mahine baad hi S1 ke kuc log jamshedpur me admi dhoodh rahe the jo new kam vigyapan jada dila sake.
    abb ye do rangi neeti kyon.
    lekin aise hi kathith adarshwadi logo se media bhadi pari hai.
    sare sampadak PRO ho gaye hain management ke.koyi nahi bol sakta ki wo darbari nahi kar raha hai ,CHAHE KOYI BHI HO.

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