मरियल क्लर्क, थ्रिल और पुराने रंडीबाज

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अनिल यादवएक कहानी (अंतिम) : निहलानी आंखों में मोरेलिटी ब्रिज : प्रकाश की हालत उस सांप जैसी हो गई जिसने अपनी औकात से काफी बड़ा मेढक अनजाने में निगल लिया हो, जिसे न वह उगल पा रहा है न पचा पा रहा है। वह दिन में जिला कचहरी के सामने धरने पर बैठे नेताओं के पास बैठकर लनतरानियां सुनता, घर आकर रात में तस्वीरों में उनके चेहरों का मिलान करता। हर दिन उनके बयान पढ़ता और रात में रजिस्ट्री के कागजों पर उनके हलफनामे देखता। स्नेहलता द्विवेदी, डीआईजी के पिता के साथ इस बीच लखनऊ जाकर दो बार मुख्यमंत्री और कई विधायकों से मिल आई थीं। दिन में कई बार गाड़ियों से उतरने वाले सोने की चेनों, पान मसाले के डिब्बों, मोबाइल फोनों से लदे-फंदे लोग उनका हाल पूछ जाया करते थे। प्रशासन की सारी अपीलें ठुकराकर उन्होंने ऐलान कर रखा था कि यह धरना तभी उठेगा जब मड़ुवाडीह की सारी वेश्याएं शहर छोड़कर चली जाएंगी।

टेंट के आगे लगा ‘वेश्या हटाओ-काशी बचाओ’ का बैनर अब ओस और धूल में लिथड़ कर मटमैला पड़ चुका था। पुआल पर बिछे सफेद रजाई, गद्दों, मसनदों पर मैल जमने लगी थी। रोज पहनाई जाने वाली सूख कर काली पड़ चुकी गेंदे की लटकती मालाओं की झालर बन चुकी थी। गद्दे पर बिखरे लाई चने, पान के पत्तों और मुचड़े हुए अखबारों के बीच, धरना देने वाले अब भी वेश्याओं, ग्राहकों और दलालों के उत्पात के किस्से धारावाहिक सुनाए जा रहे थे। समर्थन देने वाली संस्थाओं के लिए दोपहर बाद का समय तय था। उनके नेताओं के आने के साथ माइक ऑन होता और सभा शुरू हो जाती जो कचहरी बंद होने तक चलती थी। शाम और रात का समय भजन गाने वाले कीर्तनियों के लिए था। वे सभी पूरी तन्यमता से एक पुण्य काम में सहयोग कर रहे थे।

सी. अंतरात्मा ही छवि को खुश कर सकने वाले, प्रकाश के खोजी-पत्रकारिता अभियान में मदद कर सकते थे। उसने चंट फोटोग्राफर की तरह उनकी बरसों पुरानी एक इच्छा पूरी कर दी। वे न जाने कब से कह रहे थे कि प्रकाश उनके मां-बाप की अच्छी सी तस्वीर खींच दे। उसने अंतरात्मा के घर जाकर चुपचाप तस्वीर ही नहीं खींची, एक पेंटर से उसका पोट्रेट बनवाया, अभी पेंट सूखा भी नहीं था कि अखबार में लपेटकर उन्हें भेंट कर दिया। वह खुशी और अचरज से हक्के-बक्के रह गए। उन्हें अंदाजा ही नहीं था कि उनकी छिपी हुई साध इस तरह पूरी हो जाएगी।

अंतरात्मा, प्रकाश को लेकर शहर के सबसे बड़े बिल्डर और राज्यसभा के सदस्य हरीराम अग्रवाल के पास गए, जिसको वह अपना दोस्त कहते थे। प्रकाश को यकीन नहीं था कि अंतरात्मा जैसा फटीचर पत्रकार अग्रवाल का इतना करीबी हो सकता है। वह बड़े तपाक से मिला जैसे घिसी पैंट-कमीज वाले अंतरात्मा सिद्धांतों, मूल्यों वाले कोई असफल नेता हों जिनके लिए उसके मन में अपार सहानुभूति है। उसे बताया गया कि अखबार के लिए एक फोटोफीचर करना है जिसकी थीम यह है कि प्रस्तावित निर्माण परियोजना पूरी होने के बाद मड़ुवाडीह का पिछड़ा, बदहाल इलाका कैसा दिखेगा और शहर में क्या-क्या बदलाव आएंगे। अग्रवाल, फौरन दोनों को लेकर निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी के एमडी श्रीविलास निहलानी के पास गए जो शहर के एक पांच सितारा होटल में ठहरे हुए थे। कंपनी के चीफ आर्किटेक्ट और जनसंपर्क अधिकारी को भी वहीं बुलवा लिया गया।

उस शाम वह होटल के सबसे शानदार सूट में एक बेड पर लैपटाप, ब्रीफकेसों और कागजों के ढेर से घिरा शराब पी रहा था। उसके सामने प्लास्टिक की कुर्सियों पर विभिन्न आकार-प्रकार के कारोबारी, बिल्डर, छुटभैये नेता, गुंडे, दलाल विनम्र भाव से बैठे हुए थे। उसका पेट इतना बड़ा था कि लग रहा था, उसके सांवले, विशाल शरीर के बगल में अलग से रखा हुआ है। उस पूरे परिदृश्य में उसकी आंखें विलक्षण थीं। उसकी असाधारण बड़ी आंखों का उजला परदा अति आत्मविश्वास से बुना हुआ था जिस पर आश्वस्ति से निर्मित, भूरी पुतलियां डोल रही थीं। दुनिया के सारे रहस्यों को वह जान चुका था, शायद इसीलिए किसी भी बात पर उसकी आंखें झपकती नहीं थी और न ही उनमें विस्मय का हल्का सा भी भाव आने पाता था।

अग्रवाल के आते ही उसने आर्किटेक्ट और पीआरओ को इशारा किया और मीटिंग चुटकी बजाते निपटा दी। सामने बैठे लोगों से उसने कहा, उस गांव में जिन लोगों के बड़े प्लाट हैं, उनका रेट थोड़ा बढ़ा दो। उन्हें लगाओ कि बाकी लोगों को समझाएं। फिर भी नहीं समझते तो छोड़ दो, उस गांव को भूल जाओ। हमारे पास अभी छह महीने का टाइम है। दो महीने बाद उस जमीन के सरकारी अधिग्रहण का कागज निकलवा देंगे। सरकारी रेट और सर्किल रेट दोनों हमारे रेट से कम है। थोड़ा जिंदाबाद-मुर्दाबाद होगा और पुलिस डंडा चलाएगी तो अपने आप अक्ल ठिकाने आ जाएगी। वे अपने खेत अपने हाथ में उठाकर ले आएंगे और हमें दे देंगे।

जनसंपर्क अधिकारी उन्हें दूसरे कमरे में ले गया, जहां मेज पर बेयरे खाने-पीने का सामान लगा रहे थे। सांसद अग्रवाल ने कहा, कुछ लेते रहिए, बातचीत भी चलती रहेगी, निहलानी जी व्यस्त आदमी है।

अंतरात्मा विश्वकर्मा लपककर उठे और प्रकाश के कान में कहा, ‘वही वाली पिया जाएगा। जो यह पी रहा था। व्हिस्की से सबेरे पेट भी बढ़िया साफ होगा।’

निहलानी कुर्सी में नहीं अट पाता था। अपना गिलास लिए बिस्तर में धंसते हुए बोला, इस शहर में सिटी प्लानिंग का हम नया युग शुरू करने जा रहे हैं, पुराने के ठीक बगल में नया शहर होगा जहां दुनिया के किसी भी अच्छे मेट्रो जैसी सुविधाएं होंगी। दुनिया पुराना बनारस देखने आती है लेकिन यहां के लोग इंच और सेंटीमीटर में नापी जाने वाली पतली गलियों में, टेंट में रुपया दबाए घुट रहे हैं। हम उन्हें नए खुले और मार्डन शहर में ले आएंगे। वह हंसा… कहिए अग्रवाल जी, यह कबीर दास की उल्टी बानी कैसी रहेगी।

बहुत सुंदर, बहुत सुंदर! अग्रवाल ने गिलास रखते हुए भावभीने ढंग से कहा जैसे उनका गला रुंध गया हो। खंखार कर बोले, अब देखिए भगवान की कृपा रही, डीआईजी साहब और अंतरात्मा जी ने चाहा तो दो महीने में आखिरी समस्या भी खत्म हो जाएगी। उसके बाद रोड क्लीयर है।

निहलानी हंसा, डीआईजी तो धर्मात्मा आदमी है साईं, तपस्या कर रहा है। बस अंतरात्मा जी के भाई बंदों की कृपा बनी रहे तो गाड़ी निकल जाएगी। मैंने तो इनके लिए एक पर एक फ्री का ऑफऱ सोच रखा है। एक मकान के बदले एक दुकान और एक फ्लैट ले जाओ। ऐश करो। वैसे भी हमारी स्कीम है कि जब बुकिंग होगी तो हम पुलिस, प्रेस और वकीलों का खास ख्याल रखेंगे। पत्रकार संघ से बात हुई है। अगर उन्होंने पैसा इकट्ठा कर लिया तो हम पत्रकारों के लिए अलग एक ब्लाक दे देंगे, उसमें कोई समस्या नहीं है।

अग्रवाल जी ने अंतरात्मा का कंधा थपथपाया, हमारे तो डीआईजी यही हैं, इन्होंने भी कम प्रयास नहीं किया है। अंतरात्मा की पकी दाढ़ी में मेधावी स्कूली छात्रों जैसी मुस्कान फैल गई।

निहलानी के संकेत पर आर्किटेक्ट ने मेज पर नक्शा फैला दिया। अर्धचंद्राकार घेरे में ग्यारह-ग्यारह मंजिल के तीन आवासीय काम्प्लेक्स बनने थे। जिनके बीच फैले सड़कों के जाल के धागों के इधर-उधर मार्केटिंग काम्प्लेक्स, पार्किंग जोन, स्टेडियम, सिनेमाहाल, पेट्रोल पंप, स्विमिंग पूल, पार्क, कम्युनिटी सेंटर, सिक्योरिटी आफिस छितरे हुए थे। लाल नीले रंग निशानों से भरे स्केच में प्रकाश अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा था कि इसमें बदनाम बस्ती वाली जगह कहां है।

आर्किटेक्ट, अचानक नक्शा समेटने लगा तो प्रकाश ने हड़बड़ाकर पूछा, अगर वेश्याएं मड़ुंवाडीह से नहीं हटती हैं, तब आपके प्रोजेक्ट का क्या होगा? निहलानी ने आश्वस्त भाव से कहा, नहीं हटेंगीं तो प्रोजेक्ट रुक थोड़े जाएगा बल्कि और शानदार हो जाएगा। उसने आर्किटेक्ट को इशारा किया, इन्हें मॉरेलिटी ब्रिज दिखाओ।

आर्किटेक्ट ने अब दूसरा स्केच खोलकर मेज पर फैला दिया। अर्धचंद्र के दोनों छोरों पर बनी बहुमंजिली इमारतों को एक ओवर ब्रिज से जोड़ दिया गया था। जिसके नीचे, ठीक बीच में बदनाम बस्ती थी।

आर्किटेक्ट समाचार वाचक की तरह बोलने लगा, यह नैतिकता सेतु पांच सौ मीटर चौड़ा होगा। जिसके बीच फाइबर ग्लास के ट्रांसपैरेंट स्लैब होंगे। यहां कारें आसानी से पहुंच सकेंगी। नीचे हैलोजन लाइटस होंगी, जिससे नीचे, जमींन की सारी चीजें रात में भी साफ नजर आएंगी। एक बंगीजंपिंग का प्लेटफार्म होगा और भी बहुत कुछ होगा। इस ब्रिज का इस्तेमाल मनोरंजन, सैरसपाटे लेकर निगरानी तक के लिए किया जाएगा और वहां पर…

उसे रोककर निहलानी ने बताना शुरू किया। एक एजेंसी से बात हो गई है जो लोगों को किराए पर हर दिन दूरबीनें देगी और सुरक्षा का इंतजाम देखेगी। आइडिया यह है कि वहां घूमने आने वाले लोग टिकट लेकर नीचे वेश्याओं को घूमते, ग्राहकों को पटाते और वहां चलता सारा कारोबार देख सकेंगे। इससे बड़ा मनोरंजन और क्या हो सकता है। पुलिस पेट्रोल और निगरानी के लिए खास इंतजाम होगा। पुलिस वहां से अवैध कारोबार पर नजर रखेगी, अपराधियों को पहचानेगी। इससे क्राइम कंट्रोल करने में काफी मदद मिलेगी। यह भी हो सकता है कि इससे बनने वाले मनोवैज्ञानिक दबाव, पहचाने और पकड़े जाने के डर के कारण वहां कस्टमर आना बंद कर दें। जब कारोबार ही ठप हो जाएगा तो वेश्याएं कितने दिन रहेंगी।

प्रकाश को लगा यह मजाक है। अंतरात्मा जो भौंचक, सांस रोके सुन रहे थे, ठठाकर हंस पड़े, ‘जुलुम बात है… यह तो वैसे ही है जैसे बचपन में हम लोग सरपत में छिपकर कुएं पर नहाती औरतों को देखा करते थे।’

प्रकाश ने हैरत से कहा, अगर यह मजाक नहीं है तो यह बताइए कि अगर वेश्याओं ने धंधे का नया तरीका अपना लिया, जिसमें सड़क पर कोई दिखे ही नहीं तो क्या होगा? जहां तक मनोविज्ञान की बात है तो बहुत पहले मकानों की दीवारों पर पेशाब करने वालों के बारे में भी लोग यही सोचते थे लेकिन क्या नतीजा निकला।

निहलानी ने तीसरा पेग खत्म कर लंबी हुंकार भरी, साईं तभी तो असली होना शुरू होगा। दस साल में हमारा दूरबीन कल्चर आ चुका होगा तब इंटरटेनमेंट कंपनियां अपनी लड़कियों को लाकर तुम्हारे मड़ुंवाडीह में बसा देंगी। उनकी छतों पर ओपेन एयर बार, कैबरे, स्विंमिंग पूल, सन बाथ स्टैंड, जाकुजी, साउना और तरह-तरह के खेल होंगे। लोग उन्हें देखने के लिए आएंगे। वेश्याएं इन स्मार्ट और मालदार लड़कियों वाली कंपनियों के आगे पिट जाएंगी। ये कंपनियां उनसे पूरा इलाका ही खरीदकर उसे एशिया क्या, दुनिया के सबसे बड़े ओपन एयर पीप-शो वाले इंटरटेमेंट जोन में बदल देंगी। बनारस में विदेशियों की भारी आमद को ध्यान में रखते हुए यह योजना तैयार की जा रही है लेकिन अभी पाइपलाइन में ही है। प्रकाश हैरत से नशे से रतनार, आत्मविश्वास से दमकती आंखों वाली मैहर की देवी जैसी उस मूर्ति को देखता ही रह गया।

निहालानी के सोने का समय हो चुका था।

लेआउट प्लान की फोटो कापी, योजना का ब्रोशर और कुछ तस्वीरें प्रकाश चला तो इन्हें साथ ले चला। अंतरात्मा ने प्लेट से एक मुट्ठी काजू उठाकर पैंट की जेब में डाल लिया। जनसंपर्क अधिकारी ने बाहर छोड़ते समय सभी को निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी का एक मोमेंटो, कंपनी के होलोग्राम वाली एक घड़ी, दो हजार के गिफ्ट बाउचर उपहार में दिए। अंतरात्मा को यह कहते हुए, काजू का दो किलो एक पैकेट दिया कि अपने दोस्तों की पसंद का हम खास ख्याल रखते हैं। अंतरात्मा ने बच्चे की तरह उसे गोद में उठा लिया। रास्ते में हवा लगी तो वह हिचकी लेते हुए बुदबुदाने लगे, बहुत दुर्दिन देखा दादा, बहुत दुर्दिन देखा।

वह बड़बड़ा रहे थे, सब कोई भगवान से मनाओ कि ये साला मुरल्टी का पुल न बने, नहीं तो हमारा परिवार बर्बाद हो जाएगा। बस्ती वाला मकान तो वैसे ही हाथ से निकल गया है। आशा बंधी थी कि कम्पनी खरीद लेती तो कुछ रोटी-पानी का डौल बैठ जाएगा। हमारी तो बारह सौ की रिपोर्टरी करते किसी तरह कट गई पांच-पांच बच्चे हैं, पुल बन गया तो साले कहां जाएंगे। प्रकाश ने उन्हें घर छोड़ा तब सिसक रहे थे, विश्वनाथ बाबा से मनाओ कि मुरल्टी का पुल न बने दादा।

तितलियों के पंखों की धार : बदनाम बस्ती में पहले भूखे भंवरे आते थे। तीन महीने तक खिचड़ी खाने के बाद अब भूखी तितलियां दम साधकर फूलों की तरफ उड़ने लगीं, उनके रहस्यमय पंखों के रास्ते में जो भी आया, कट गया।

शाम के धुंधलके में जब गाड़ियों का धुंआ मड़ुंवाडीह की बदनाम बस्ती के ऊपर जमने लगता, सजी-धजी तितलियां एक-एक कर बेहिचक बाहर निकलतीं। सिपाहियों के तानों का मुस्कानों से जवाब देते हुए वे सड़क पार कर जातीं। वहां पहले से खड़े उनके मौसा, चाचा, दुल्हाभाई या भाईजान यानि दलाल उन्हें इशारा करते और वे चुपचाप एक-एक के पीछे हो लेतीं। वे उन्हें पहले से तय ग्राहकों के पास पहुंचा कर लौट आते थे। जिनके कस्टमर पहले से तय नहीं होते थे, वे अतृप्त, कामातुर प्रेतों की तलाश में सड़कों और घाटों पर चलने लगतीं। औरतों को मुड़-मुड़ कर देखने और उनका पीछा करते हुए भटकने वालों को वे ठंडे, सधे ढंग से इतना उकसाती कि वे घबराकर भाग जाते या उन्हें रोककर तय तोड़ करने लगते। जो थोड़ा तेज तर्रार और आत्मविश्वासी थीं वे होटलों और सिनेमाहालों के बाहर कोनों में घात लगातीं। दोयम दर्जे की समझी जाने वाली अधेड़ औरतें रात गए बस्ती के दूसरे छोर से झुंड में निकलतीं और गांव के पिछवाड़े खेतों से होते हुए हाई-वे पर निकल जातीं। वहां ओस से भीगे, पाले से ऐंठते पैरों को कागज, प्लास्टिक और टायर जलाकर सेंकने के बाद वे एक-एक कर ढाबों पर खड़ी ट्रकों की कतार में समा जातीं। भोर में जब वे लौटतीं लारियों में, चाय की दुकानों की बेंचों और मकानों के चबूतरों पर ओवरकोट में लिपटे, पुलिस वाले आराम से सो रहे होते। पहरा देने वालों का हफ्ता तय कर दिया गया था जिसे दलाल और भड़ुए एक मुश्त पहुंचा आते थे।

एक दोपहर प्रकाश घाट पर सलमा को देखकर चक्कर खाकर गिरते-गिरते बचा। वह नीले रंग का स्कर्ट और सफेद कमीज पहने, छाती पर एक मोटी किताब दबाए, एक पंडे की खाली छतरी के नीचे बैठी छवि के पेट पर लेटी, नदी को देख रही थी। छवि का पेट थोड़ा और उभर आया था और चेहरे पर लुनाई आ गई थी। सलमा की बांह पर हाथ रखे वह जितनी शांत और सुंदर लग रही थी, उतना ही वीभत्स, हाहाकार प्रकाश के भीतर मचा हुआ था।….तो मेरा पूर्वाभास सही था। उसे मडुवाडीह में उस लड़की के बलात्कार का पता था। शायद वह वहां के बारे में मुझसे कहीं ज्यादा जानती है, उसने सोचा। उसका हाथ कैमरे पर गया कि वह दोनों की एक फोटो उतार ले लेकिन फिर वह विक्षिप्त जैसी हालत में लड़खड़ाता, भरसक तेज कदमों से दूसरे घाट की ओर चल पड़ा।  

सामने जलसमाधि लेने वाले युवक के आगे पीछे, अजीबो-गरीब अंतर्राष्ट्रीय बेड़ा गुजर रहा था। और लोगों की तरह सलमा भी नाव पर घंटे घड़ियाल बजाते, नारे लगाते लोगों को देखकर हाथ हिला रही थी।

कोई दो घंटे बाद सलमा उसे फिर दिखी। इस बार वह अकेली, छाती पर किताब दबाए भटक रही थी। वह उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था, लपक कर पास भी गया। लेकिन उसने किताब की ओर इशारा किया, आज कल तुम्हारे स्कूल में कुरान पढ़ाई जा रही है क्या?

उसने कुरान को पलट दिया और अपनी चुटिया को ऐंठते हुए हंसी। तुनक कर धीमे से कहा, जो मुझे ले जाएगा, वह किताब को नहीं पढ़ेगा… अच्छा अब आप जाइए। यहां मत खड़े होइए, बात करनी हो तो वहीं दिन में आइएगा। अब रात में कोई नहीं मिलेगा। अब प्रकाश को दिखा कि नीचे घाट की सीढ़ियों पर, नदी किनारे उसी जैसी पांच-सात और लड़कियां स्कर्ट, सलवार सूट, सस्ती जींस पहने घूम रही थीं। उनकी बुलाती आंखे, रूखे बाल, ज्यादा ही इठलाती चाल और किताबें पकड़ने का ढंग, कोई भी गौर करता तो जान जाता कि वे स्कूल-कालेज की लड़कियां नहीं हैं। जो लोग उनके खिलाफ इतने ताम-झाम से समारोहपूर्वक अपना गुस्सा उगल रहे थे, उन्हीं के बीच भटकती हुई वे कस्टमर पटा रही थीं। प्रकाश उनके दुस्साहस पर दंग था। शायद उन्हें सचमुच की हालत का पता नहीं था इसीलिए वे सड़क पर हुंकारते ट्रकों के बीच मेढ़कों की तरह फुदक रही थीं। अगर लोगों को पता चल जाता कि वे वेश्याएं है तो भीड़ उनकी टांगे चीर देती और झुलाकर नदी में फेंक देती। सलमा ने पलटकर देखा प्रकाश वहीं खड़ा, कैमरा फोकस कर रहा था। उसने पूछा ‘आप अखबार में हम लोगों को नगर-वधू क्यों लिखते हैं?’

प्रकाश ने कैमरे में देखते हुए ही कहा, ‘क्योंकि तुम किसी एक की नहीं, सारे नगर की बहू हो, तुम यहां किसी खास आदमी को तो खोज नही रही हो, जो मिल जाए उसी के साथ चली जाओगी।’

‘अच्छा तब मेयर साहब को नगर प्रमुख क्यों, नगर पिता क्यों नहीं लिखते और उनसे कह दो कि आकर हम लोगों के साथ बाप की तरह रहें।’

प्रकाश ने खिलखिलाती हुई उस वेश्या छात्रा को देखा। उसे अचानक लालबत्ती और रेडलाइट एरिया का फर्क नए ढंग से समझ में आ गया। मेयर पुरुष है, संपन्न है इसलिए लालबत्ती में घूम रहे हैं। तुम गरीब लड़की हो इसलिए अपना पेट भरने के लिए मौत के मुंह में घुसकर ग्राहक खोज रही हो।

उसकी हंसी से चिढ़कर पूछा, ‘तुम्हें यहां डर नहीं लगता। इन लोगों को पता चल गया तो?’

वह हंसती ही जा रही थी, उसने नदी के उस पार क्षितिज तक फैले बालू का सूना विस्तार दिखाते हुए कहा, ‘जिन्हें पता चल गया है, वे लड़कियों के साथ उस पार रेती में कहीं पड़े हुए हैं और वे किसी से नहीं कहने जाएंगे… अलबत्ता हल्के होकर हम लोगों को हटाने के लिए और जोर से हर हर महादेव चिल्लाएंगे।…अच्छा अब आप चलिए, नहीं तो लड़कियां आपको ही कस्टमर समझ कर पीछे लग लेंगी।’

बेईमानी का संतोष : धंधा, शहर में फैल रहा है। यह खबर डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी को लग चुकी थी। उन्होंने अफसरों की मीटिंगे की। सिपाहियों की मां-बहन की। दारोगाओं को झाड़ा, एलआईयू को मुस्तैद किया, तबादले किए लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। जो भी मड़ुंवाडीह के दोनों छोरों पर पहरा देने जाता, भड़ुओं का गुस्सैल बड़ा भाई हो जाता। जिसकी हर सुख-सुविधा का वे ढीठ विनम्रता के साथ ख्याल रखते। कप्तान वगैरह रस्मी तौर पर मुआयना करने आते तो सिपाही उन्हें वेश्याओं के खाली पड़े दो-चार घर दिखा देते। वे लौटकर रिपोर्ट देते कि धंधा बंद होने के कारण, उन घरों को छोड़कर वे कहीं और चली गईं हैं। डीआईजी ने शहर के लॉजों, होटलों में छापे डलवाने शुरू करा दिए, जिनमें बाहर से आकर धंधा कर रही कालगर्लें पकड़ी गईं लेकिन मड़ुवाडीह की कोई वेश्या नहीं मिली। हमेशा की तरह खबरे छपी कि रैकेट चलाने वालों की डायरियों और कालगर्लों के बयानों से कई सफेदपोश लोगों के नाम, पते और नंबर मिले हैं जल्दी ही पुलिस उनसे पूछताछ करेगी और उनकी कलई खुलेगी। हमेशा की तरह न पूछताछ हुई, न कलई खुली और न ही फालोअप हुआ। कालगर्लें जमानत पर छूटकर किसी और शहर चली गईं और रैकेट चलाने वालों ने भी नाम और ठिकाने बदल लिए।

प्रकाश की ड्यूटी लगाई गई कि वह शाम को पहरा देते पुलिसवालों के बीच से होकर बदनाम बस्ती से धंधे के लिए निकलने वाली लड़कियों की फोटो ले आए। उसने पहली बार बेईमानी की, जब वे निकल रहीं थी, तब वह अंतरात्मा के घर में बैठकर उनके साथ चाय पी रहा था। उनके निकल जाने के बाद वहां पहुंचकर उसने एक पूरा रोल खींच डाला, जिसमें कुहरे बीच झिलझिलाते सिपाहियों और गुजरते इक्का-दुक्का राहगीरों के सिवा और कुछ नहीं था। उसे फ्लैश चमकाते देख, दो सिपाहियों ने खदेड़ने की कोशिश की तो उसने कि वे निश्चिंत रहें आज वह एक भी फोटो ऐसा नहीं खींचेगा जिससे उनको कोई परेशानी हो। एक सिपाही ने पूछा, बहुत साधु की तरह बोल रहे हो, बाई जी लोगों ने कुछ सुंघा दिया है क्या?’

सिपाही आश्वस्त हो गए तो उन्होंने बताया कि कम उम्र की लड़कियों का धंधा बढ़िया चलने से अब नई लड़कियां भी आ रही थीं। उन्हें मड़ुवाडीह में नहीं, शहर में किराए पर लिए मकानों में रखा जा रहा था। थाने का रेट बढ़कर अब पैंतीस से पचास हजार हो गया था। प्रकाश ने अंतरात्मा से कहा कि लगता है निहलानी का मॉरेलिटी ब्रिज ही बनेगा और बड़े लोगों की चांदी रहेगी। तुम तो बाई जी लोगों से ही बात कर लो। अंतरात्मा को अफसोस था कि पुलिस भी दो टुकड़ा हो चुकी है।

प्रेस लौटकर उसने फोटो एडीटर को समझाया कि कुहरा इतना है कि वहां कुछ भी देख पाना संभव नहीं है। जो बन सकती थीं, वे यही तस्वीरे हैं। वह बेईमानी करके बहुत खुश था। उसने खुद को हताशा से बचा लिया था। उसके फोटो खींचने से अखबार की थोड़ी विश्वसनीयता बढ़ती, सर्कुलेशन बढ़ता लेकिन धंधे पर कोई फर्क नहीं पड़ता। पुलिस वाले ही बंद नहीं होने देते। वह चाहता भी नहीं था कि धंधा बंद हो। वह अब चाहता था कि चले और खूब चले।

मरियल क्लर्क, थ्रिल और पुराने रंडीबाज : कोई तीन महीने बाद, फिर बीमा कंपनी का वही मरियल क्लर्क, काला चश्मा लगाए अखबार के दफ्तर की सीढ़ियों पर नजर आया। इस बार फिर पक्की खबर लाया था कि प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी की जांच रिपोर्ट आ गई है कि पान मसाला नहीं, डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी ही अपनी पत्नी की आत्महत्या के जिम्मेदार हैं। लगातार मारपीट, प्रताड़ना के तारीखवार ब्यौरे वह लवली त्रिपाठी की डायरियों की फोटो प्रतियों में समेट लाया था। इसके अलावा वह यह खबर भी लाया था कि डीआईजी त्रिपाठी डेढ़ महीने बाद, अपने से काफी जूनियर एक महिला आईपीएस अफसर से शादी करने जा रहे हैं। इन खबरों की स्वतंत्र पड़ताल कराई जाने लगीं।

उन दिनों अखबार प्रकाश को बेहद उबाऊ लगने लगा। हर सुबह खोलते ही काले अक्षर एक दूसरे में गड्डमड्ड अपनी जगहों से डोलते हुए नजर आते थे, जिसकी वजह से सिरदर्द करने लगता था और वह अखबार फेंक देता था। इसकी एक वजह तो यही थी कि जिन घटनाओं को खुद उसने देखा और भोगा होता था, वे छपने के बाद बेरंग और प्राणहीन हो जाती थी। किसी जादू से उनके भीतर की असल बात ही भाप की तरह उड़ जाती थी। पहली लाइन पढ़ते ही वह जान जाता था कि असलियत कैसे शब्दों की लनतरानियों में लापता होने वाली है। रूटीन की बैठकों में उसे रोज झाड़ पड़ती थी कि वह अखबार तक नहीं पढ़ता इसीलिए उसे नहीं पता रहता कि शहर में क्या होने वाला है और प्रतिद्वंदी अखबार किन मामलों में स्कोर कर रहे हैं। दरअसल वह इन दिनों अपनी एक बहुत पुरानी गुप्त लालसा के साकार होने की कल्पना से थरथरा रहा था। यह लालसा थी नकचढ़ा, अहंकार से गंधाता नहीं सचमुच का रिपोर्टर होने की।  ऐसा रिपोर्टर जिसकी कलम सत्य के साथ एकमेक होकर धरती में कंपन पैदा कर सके।

उसके पास इतने अधिक कागजी सबूत, अनुभव, फोटोग्राफ और बयान हो गए थे कि अब और चुपचाप सब कुछ देखते रह पाना मुश्किल हो गया था। अब वह जब चाहे जब वेश्याओं को हटाने वालों के पाखंड का भांडा फोड़ सकता था। यही सनसनी उसके भीतर लहरों की तरह चल रही थी। सीधे सपाट शब्दों में, उसने रातों को जागकर कंपोज कर डाला कि कैसे पैसा, दारू, देह नहीं मिलने पर वेश्याओं को बसाने वाले लोकल नेता उनके खिलाफ हुए। कैसे निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी ने उनके गुस्से को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लिया। कैसे डीआईजी ने अपनी छवि बनाने के लिए धंधा बंद कराया और बाद में वे कमिश्नर के साथ कंस्ट्रक्शन कंपनी के एजेंट हो गए। कंस्ट्रक्शन कंपनी कैसे इससे बड़ा और आधुनिक वेश्यालय खोलने जा रही है। वेश्याओं को हटाने से कैसे यह धंधा और जगहों पर फैलेगा। कैसे डीआईजी के पिता और कमिश्नर ने धार्मिक भावनाओं को भड़काया और कैसे हर-हर महादेव के उद्घघोष के साथ विरोध और वेश्यावृत्ति दोनों एक साथ घाटों पर चल रहे हैं। उसका अनुमान था कि यह सीरीज छपते-छपते बीमा कंपनी के जासूसों की जांच रपट का भी सत्यापन हो जाएगा और उसके छपने के बाद सारे पाखंड के चिथड़े उड़ जाएंगे। इसके बाद शायद सचमुच वेश्याओं के पुनर्वास पर बात शुरू हो।

प्रकाश ने दो दिनों तक अपने ढंग से सभी छोटे-बड़े संपादकों को टटोला और आश्वस्त हो गया कि, उसकी रिपोर्टिंग का वक्त आ गया है। तीसरे दिन उसने रिपोर्ट, तस्वीरें, रजिस्ट्री के कागज, लेआउट प्लान और तमाम सबूत ले जाकर स्थानीय संपादक की मेज पर रख दिए। पूरे दिन वे उन्हें पढ़ते, जांचते और पूछताछ करते रहे। शाम को आकर उन्होंने उसकी पीठ थपथपाई, ‘तुम तो यार, पुराने रंडीबाज निकाले! बढ़िया रिपोर्ट हैं, हम छापेंगे।’ यह सचमुच दिल से निकली तारीफ थी।

अगले दिन अखबार की स्टियरिंग कमेटी की बैठक हुई क्योंकि इस मसले पर पुराना स्टैंड बदलने वाला था। संपादक का फैसला हो चुका था, बाकी विभागों से अब औपचारिक सहमति ली जाने की देर थी। डेढ़ घंटे की बहस के बाद अखबार के मैनेजर ने संपादक से पूछा, ‘मड़ुवाडीह में कुल कितनी वेश्याएं हैं?

‘करीब साढ़े तीन सौ’।

‘इनमें से कितनी अखबार पढ़ती हैं?’

इसका आंकड़ा किसी के पास नहीं था। उसने फैसला सुनाने के अंदाज में कहा, आज की तारीख में सारा शहर हमारे अखबार के साथ है। कुल साढ़े तीन सौ रंडिया जिनमें से कुल मिलाकर शायद साढ़े तीन होंगी जो अखबार पढ़ती हों, ऐसे में यह सब छापने का क्या तुक है। अगर कोई बहुत बड़ा और नया रीडर ग्रुप जुड़ रहा होता, तो यह जोखिम लिया भी जा सकता था।

संपादक जो ध्यान से उसका गणित सुन रहे थे हंसे। उन्होंने कहा, सवाल वेश्याओं की संख्या का नहीं है मैनेजर साहब! वे अगर तीन भी होतीं तो काफी थीं। उनके बारे में जो भी अच्छा-बुरा छपता है, उसे उनका विरोध करने वाले भी पढ़ते हैं, बल्कि उनकी ज्यादा दिलचस्पी रहती है।

मैनेजर ने पैंतरा बदला, अब आप ही बताइए कि अपने स्टैंड से इतनी जल्दी कैसे पलट जाया जाए। कल तक आप ही छाप रहे थे कि वेश्याओं की वजह से लोगों की बहू-बेटियों का घर में रहना तक मुश्किल हो गया है और डीआईजी धंधा बंद कराकर बहुत धर्म का काम कर रहा है। अब जब मुद्दा आग पकड़ चुका है तो उस पर पानी डाल रहे हैं। आप बताइए अखबार की क्रेडिबिलिटी का क्या होगा। संपादक ने समझाने की कोशिश की कि क्रेडिबिलिटी एक दिन में बनने-बिगड़ने वाली चीज नहीं है। लोग थोड़ी देर के लिए भावना के उबाल में भले आ जाएं लेकिन अंतत: भरोसा उसी का करते हैं जो उनके भोगे सच को छापता है। पहले ही दिन कोई कैसे जान सकता था कि मड़ुंवाडीह की असली अंदरूनी हालत क्या है। अब हमें जितना पता है, उतना छापेंगे। हो सकता है कल कुछ और नया पता चले उसे भी छापेंगे। अगर हमने नहीं छापा तो हमारी क्रेडिबिलिटी का कबाड़ा तो तब होगा जब लोग देखेंगे कि कंस्ट्रक्शन कंपनी मंडुवाडीह में इमारतें बना रही है।

गुणाभाग और अंततः जिंदगी : मामला उलझ गया कुछ तय नहीं हो पाया। मैनेजर ने डाइरेक्टरों से बात की। डाइरेक्टरों ने प्रधान संपादक को तलब किया। प्रधान संपादक ने फिर बैठक बुलाई। प्रधान ने स्थानीय संपादक को वह समझाया जो वे जानते-बूझते हुए नहीं समझना चाहते थे। उन्होंने उन्हें बताया कि इस इलाके के जितने बिल्डर, नेता, व्यापारी अफसर हैं निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी के साथ हैं और चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी वह बस्ती वहां से हटे ताकि काम शुरू हो। उन्होंने जनता को भी अपने पक्ष में सड़क पर उतार दिया है। अखबार एक साथ इतने लोगों का विरोध नहीं झेल सकता। खुद हमारे अखबार के इस इलाके के फ्रेंचाइजी यानि जिनकी बिल्डिंग में हम किरायेदार हैं, जिनकी मशीन पर हमारा अखबार छपता है, इस कंपनी के पार्टनर हैं। अखबार के कई शेयर होल्डरों ने भी इस कंपनी में पैसा लगा रखा है। वे सभी अपनी मंजिल के एकदम करीब हैं, और कहां हैं आप! खुद डाइरेक्टर नहीं चाहते कि उनकी राह में कोई अड़ंगा डाला जाए। नौकरी प्यारी है तो हमें, आपको दोनों को चुप रहना चाहिए, फिर कभी देखा जाएगा।

स्थानीय संपादक को निकालने की पूरी तैयारी हो चुकी थी, इसलिए उन्हें सब कुछ बहुत जल्दी समझ में आ गया। स्टियरिंग कमेटी की बैठक में प्रधान संपादक ने भाषण दिया, सभी जानते हैं कि सरसों के पत्तों पर और बैंगन में अल्लाह अपना हस्ताक्षर नहीं करते, दो सिर वाले विकृत बच्चे देवता नहीं होते, खीरे में से भगवान नहीं निकलते, गणेश जी दूध नहीं पीते। यह सब सफेद झूठ है लेकिन हम छापते हैं क्योंकि जनता ऐसा मानती है और उन्हें पूजती है। हम साढ़े तीन सौ वेश्याओं के लिए बीस लाख जनता से बैर नहीं मोल ले सकते। बाजार में हम धंधा करने बैठे हैं। हम वेश्याओं का पुनर्वास कराने वाली एजेंसी नहीं है। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है इसलिए उसकी भावनाओं का आदर करना ही होगा। मैनेजर मुस्कराया। प्रधान संपादक ने स्थानीय संपादक को मुस्करा कर देखा, ‘हम अखबार किसके लिए निकालते हैं?

‘जनता के लिए’ बेजान हंसी हंसते हुए उन्होंने कहा।

स्थानीय संपादक ने प्रकाश से इस समय लोगों में नाराजगी बहुत है इसलिए थोड़ा माहौल ठंडा होने दो तब देखा जाएगा। वह जानता था कि धरती हिलाने का मेरा अरमान सदा के लिए धरती में दफन किया जा चुका है।

उसी समय एक विचित्र बात हुई। जलसमाधि का इरादा लिए गंगा में फिरने वाला युवक एक दिन गांजे के नशे में नाव से लड़खड़ाकर नदी में गिर गया। गले में बंधी पत्थर की पटिया के पीछे वह कटी पतंग की तरह लहराता हुआ नदी की पेंदी में बैठा जा रहा था। बड़ी कोशिश करके जल पुलिस के गोताखोरों ने उसे निकाला। पुराना पत्थर काटकर उसकी जगह छोटा पत्थर बांधा गया। उसी दिन से अपने आप, गले में बंधे पत्थर का आकार घटने लगा। जैसे चंद्रमा घटता है उसी तरह पहले सिल, फिर चौकी, फिर माचिस की डिबिया के आकार का होता गया। धीरे-धीरे घटते हुए वह एक दिन ताबीज में बदलकर थम गया।

उस घटते हुए रहस्यमय पत्थर की तस्वीरें, प्रकाश के पास मौजूद हैं।

अभी वेश्याएं मड़ुवाडीह से हटी नहीं है। अब वह युवक नाव में नहीं रहता। वह गाहे बेगाहे अपने गले का ताबीज दिखाकर अपना संकल्प दोहराता रहता है कि वह एक दिन काशी को वेश्यावृत्ति के कलंक से मुक्ति दिलाकर मानेगा। लोग उसे प्रचार का भूखा, नौटंकीबाज, धंधेबाज कहते हैं और उस पर हंसते हैं। प्रकाश को लगता है कि वैसा ही एक ताबीज उसके गले में भी है, जो उसे हमेशा दिखाई देता है। उसे वह अक्सर अपनी कमीज के बटन में उलझा हुआ दिख जाता है। उसे भी लोग धंधेबाज, दलाल और एक पौवा दारू पर बिकने वाला कहते हैं। उस पर और मेरे अखबार पर हंसते हैं।

प्रकाश सोचता है कि अब छवि से जल्दी से शादी कर ले। सच लिख तो नहीं सकता लेकिन उसे अपनी जिन्दगी में स्वीकार तो कर सकता है। समाप्त

इस कथा पर लेखक अनिल यादव तक आप अपनी प्रतिक्रिया oopsanil@gmail.com के जरिए पहुंचा सकते हैं.

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Comments on “मरियल क्लर्क, थ्रिल और पुराने रंडीबाज

  • satya prakash azad says:

    manduadeeh ek aisi sachchai hai, jo aankh moodadane se gayab nahi ho sakti hai. samaj ki doosari samasyao ki tarah ye bhi ek samajik samsya hai, jise sahi tarike se suljhane ki jaroorat hai

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  • premendra srivastava says:

    is nange sach ko behtrin aur prabhvshaali dhang se rakne ke l i y e badhai. aage be kuch naye ki darkar rahegi. jai ho. jai hindustan.

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  • Pradeep Upadhyay says:

    Anil Bhai
    Achha likha lekin shayad jaldi samet diya. Kahani novel ki shakl le sakti thi. Banaras kya har sahar ka hai apna manduadeeh. Lucknow men chowk to Gorakhpur men Basantpur. Is kahani ka vistar tisari kasam aur lal pan ki begum tak bhi jaya ja sakta tha.
    Pradeep Upadhyay
    p.upadhyay.63@gmail.com

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