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साहित्य

तो बहनों, धंधा बंद

एक कहानी (4) : मडुवाडीह के आसपास के गांवों- मोहल्लों से लोकल नेताओं के बयान और अफसरों के पास ज्ञापन आने लगे कि वेश्याओं को वहां से तुरंत हटाया नहीं गया तो वे आंदोलन करेंगे। आंदोलन से प्रशासन नहीं सुनता तो वे खुद खदेड़ देंगे। रातों रात कई नए संगठन बन गए, राजनीति के कीचड़ में कुमुदिनी की तरह अचानक उभरी एक सुंदर और गदबदी महिला नेता स्नेहलता द्विवेदी आस-पास के इलाकों का दौरा कर औरतों को गोलबंद करने लगीं। उनका कहना था कि वे जान दे देंगी लेकिन काशी के माथे से वेश्यावृत्ति का कलंक मिटाकर रहेंगी। कई रात बैठकें और सभाएं करने के बाद वे एक दिन कई गांवों की महिलाओं को लेकर कचहरी के सामने की सड़क पर धरने पर बैठ गईं। तैयारी लंबी थी, यह धरना पहले क्रमिक फिर महीनों चलने वाले आमरण-अनशन में बदल जाने वाला था।

एक कहानी (4) : मडुवाडीह के आसपास के गांवों- मोहल्लों से लोकल नेताओं के बयान और अफसरों के पास ज्ञापन आने लगे कि वेश्याओं को वहां से तुरंत हटाया नहीं गया तो वे आंदोलन करेंगे। आंदोलन से प्रशासन नहीं सुनता तो वे खुद खदेड़ देंगे। रातों रात कई नए संगठन बन गए, राजनीति के कीचड़ में कुमुदिनी की तरह अचानक उभरी एक सुंदर और गदबदी महिला नेता स्नेहलता द्विवेदी आस-पास के इलाकों का दौरा कर औरतों को गोलबंद करने लगीं। उनका कहना था कि वे जान दे देंगी लेकिन काशी के माथे से वेश्यावृत्ति का कलंक मिटाकर रहेंगी। कई रात बैठकें और सभाएं करने के बाद वे एक दिन कई गांवों की महिलाओं को लेकर कचहरी के सामने की सड़क पर धरने पर बैठ गईं। तैयारी लंबी थी, यह धरना पहले क्रमिक फिर महीनों चलने वाले आमरण-अनशन में बदल जाने वाला था।

डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के खिचड़ी बालों की खूंटियों में कंधी फेरने के दिन आने में अभी देर थी लेकिन वह दुर्लभ क्षण सामने था। अपने धार्मिक पिता की इच्छा पूरी करने और अपनी दागदार छवि धुलने का सही समय आ गया था। अचानक एक दिन वे लाव-लश्कर के साथ दोपहर में मंडुवाडीह बस्ती पहुंचे और सबको बुलाकर ‘आज से धंधा बंद’ का फरमान सुना दिया। उन्होंने सरकार की ओर से ऐलान किया, धर्म और संस्कृति की राजधानी काशी के माथे पर वेश्यावृत्ति का कलंक बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वेश्याएं शहर छोड़ दें। उनके जाते ही मडुवाडीह की बदनाम बस्ती से गुजरने वाली सड़क के दोनों छोरों पर पुलिस पिकेट लगा दी गई। शामों को बस्ती की तरफ लपकने वालों की ठुकाई होने लगी। नियमित कस्टमर सड़कों के किनारे मुर्गा बने नजर आने लगे। जो सिपाही रोज कोठों पर मुंह मारते थे, उनके मुंह लटक गए। थाने के बूढ़े दीवान ने खिजाब लगाना बंद कर दिया। घुंघरूओं की खनक, रूप की अदाएं, पियक्कड़ों की बकबक, दलालों का कमीशन और पुलिस का हफ्ता सब हवा हो गए। मंडुवाडीह के कर्फ्यू जैसे माहौल में अखबार काजल और लिपिस्टिक से ज्यादा जरूरी चीज हो गया।

अखबार के सर्कुलेशन में हल्का उछाल आया। उस हफ्ते अखबार की स्टियरिंग कमेटी की मीटिंग में यूनिट मैनेजर ने अपनी रिपोर्ट पेश की कि इस स्टोरी सीरीज का लोगों और प्रशासन पर जोरदार असर हुआ है। धार्मिक संस्थाओं के विज्ञापनों का फ्लो भी बढ़ा है। इसे जारी रखा जानी चाहिए।

सी. अंतरात्मा अखबार के उपेक्षित कोने से उठाकर सबसे चौड़ी डेस्क पर लाए गए और अचानक अपने व्यक्तित्व की दीनता को तिरोहित कर बेधड़क, व्यास की भूमिका में आ गए। वे अपने पड़ोस के मोहल्ले की दिनचर्या, आयोजनों, झगड़ों, अर्थशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र पर धारा प्रवाह, थोड़ा इतराते हुए बोलते जाते। प्रेस के सबसे बेहतरीन, वरिष्ठ लिक्खाड़ उसे लिपिबद्ध करते जाते। प्रकाश ने उन्हें वेश्या-विशेषज्ञ की उपाधि दी लेकिन उसी क्षण, उसके भीतर विचार आया कि दुर्बल अंतरात्मा भूखे सांड़ों को चारा खिला रहे हैं, जैसे ही उनका पेट भरेगा वे उन्हें हुरपेट कर खदेड़ देंगे। अंतरात्मा की जानकारियों में वह सब भी अनायास शामिल हो गया जो कुछ ये लिक्खाड़ बचपन से वेश्याओं के बारे में सुनते, जानते और अपनी कल्पना से जोड़ते आए थे।

कोठों का एक रंगारंग धारवाहिक तैयार हुआ, जिसका लव्बोलुआब यह था कि ज्यादातर वेश्याएं बहुत अमीर, सनकी और कुलीन हैं। कई शहरों में उनकी कोठियां, बगीचे, कारें, फार्म हाउस और बैकों में लॉकर हैं। वे चाहें तो यह धंधा छोड़कर कई पीढ़ियों तक बड़े आराम से रह सकती हैं लेकिन हर शाम एक नए इश्क की आदत ऐसी लग गई है कि वे यह धंधा नहीं छोड़ सकतीं। एक तरफ कार्टूनों, इलेस्ट्रेशनों और सजावटी टाइप फेसेज से सजा यह रंगीन धारावाहिक था तो दूसरी तरफ रूटीन की तथ्यात्मक रिपोर्टें थीं, जिनकी शुरुआत इस तरह होती थी, ‘डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी की पवित्र काशी को वेश्यावृत्ति के कलंक से मुक्त कराने की मुहिम रंग ला रही है, आज चौथे दिन भी धंधा, मुजरा दोनों बंद रहे। अब तक कुल छियालीस लोगों को बदनाम बस्ती में घुसने की कोशिश करते पकड़ा गया। इनमें से ज्यादातर को जानकारी नहीं थी कि धंधा बंद हो चुका है। आइंदा इधर नहीं आने की चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।

डीआईजी के इस पुण्य काम की चारों ओर प्रशंसा हो रही थी। अखबारों के दफ्तरों में संगीतमय, संस्कृतनिष्ठ नामों वाले अखिल जंबूद्वीप विद्धत परिषद, हितकारिणी परिषद, जीव दया हितकारिणी समिति, मानव कल्याण मंडल, स्त्री प्रबोधिनी पुष्करणी, काशी गौरव रक्षा समिति, पराहित सदाचार न्यास, वेद-ब्रह्मांड अध्ययन केन्द्र आदि पचासों संगठनों की ‘साधु-साधु’ का निनाद करती विज्ञप्तियां बरसने लगीं। कहीं न कहीं हर दिन उनका सम्मान और अभिनंदन को रहा था। सी. अंतरात्मा अब इस धन्यवाद से टपकते पुलिंदे को संक्षिप्त करने दोपहर बाद बैठते और देर रात तक निचुड़ कर घर जाते। उनके लिए अलग से आधा पेज तय करना पड़ा क्योंकि यह संपादकीय नीति थी कि सभी विज्ञप्तियां और दो-तीन प्रमुख लोगों के नाम जरूर छापे जाएं। जिसका नाम छपेगा, वह अखबार जरूर खरीदेगा।

तीस साल बाद इतिहास खुद को दुहरा रहा था। तब बदनाम बस्ती शहर के बीच दालमंडी में हुआ करती थी। बस्ती नहीं, तब उन्हें तवायफों के कोठे कहा जाता था। वहां तहजीब थी, मुजरा था, उनके गाए ग्रामोफोन के रिकार्ड थे, किन्हीं एक बाईजी से एक ही खानदान की कई पीढ़ियों के गुपचुप चलने वाले इश्क थे। यहीं से कई मशहूर फिल्म अभिनेत्रियां और क्लासिकी गायिकायें निकलीं जिनके भव्य वर्तमान में हेठा अतीत शालीनता से विलीन हो चुका है। वहां जमींदार, रईस और हुक्काम आते थे। जमींदारी और रियासतें जा चुकी थीं फिर भी कोठे की वह तहजीब गिरती, पड़ती विद्रूपों के साथ बहुत दिन घिसटती रही। सत्तर के दशक में भयानक गरीबी और लड़कियों की तस्करी के कारण वहां भीड़ बहुत बढ़ गई। जिन गलियों में रईसों की बग्घियां खड़ी होती थी वहां लफंगे हड़हा सराय के मशहूर चाकू लहराने लगे। लोगों के विरोध के कारण तवायफों को शहर की सीमा पर मडुवाडीह में बसा दिया गया।

तवायफों के जाने के बाद वहां चीन और बांग्लादेश से आने वाले तस्करी के सामानों का चोर बाजार बस गया। अब वहां नकली सीडी का सबसे बड़ा बाजार है। इलेक्ट्रानिक्स के विलक्षण देशी इंजीनियर इन दिनों वहां मिलते हैं, जिनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है लेकिन कबाड़ से किसी भी देश की किसी भी मल्टीनेशनल कंपनी के मोबाइल, सीडी प्लेयर, कैमरे और म्युजिक सिस्टम तैयार करके बेचते हैं। अब तक वेश्यावृत्ति एक सुसंगठित, विशाल व्यापार बन चुकी थी। मडुवाडीह में गजलें, दादरा और टप्पे सुनना तो दूर गेंदे के फूल की एक पत्ती तक नहीं बिकती थी। वहां सिर्फ निर्मम धंधा होता था जहां कारखानों के मजदूरों से लेकर रिक्शेवाले तक ग्राहक थे। ग्लोबल दौर के प्लास्टिक मनी वाले रईसों को अब हाथ में गजरा लपेट कर धूल, सीलन और अनिल यादवकूड़े से बजबजाती बदनाम बस्ती में जाने की कतई जरूरत नहीं थी। उन्हें अपनी पसंद के रंग, साइज और भाषा की कालगर्लें होटलों, फार्महाउसों और ड्राइंगरूमों में ही मिल जाती थीं। इनमें से कई अपने कस्बों, शहरों या प्रदेश की सुंदरी प्रतियोगिताओं की विजेता थीं। मिस लहुराबीर से लेकर मिस नार्थ इंडिया तक बस एक फोनकॉल की दूरी पर सजी-धजी इंतजार करती रहती थीं। ….जारी…

लेखक और इस कहानी के बारे में ज्यादा जानने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें.

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0 Comments

  1. ranjeet yadav

    March 10, 2010 at 8:55 am

    aur bhi madhyamo se aam admi tak ye story pahunche

  2. chugalkhor

    March 6, 2010 at 7:43 am

    शिवदासपुर में अब सन्नाटा है. मुझे याद है किशन महाराज ने एक बार कशी विद्यापीठ में एक कार्यक्रम के दौरान आईजी के सामने कहा था कि शिवदास पुर के उजड़ने से अब बनारस शहर में वैश्याए फ़ैल गए है. शिवदास पुर को उजाड़ना ठीक नहीं था. किशन महाराज ने ये बात शहर कि चिंता करते हुए कही थी. शिवदास पुर के खाली होने से मासूम लडकियो का वहां के जाल में फसना बंद हो गया. शिवदास पुर का सबसे बड़ा दलाल रहमत २००६ में जब एन्कोउन्टर में मारा गया उसके बाद उसके सम्पति का पता चला. कई करोड़ कि थी सम्पति. खुद के बच्चे कॉन्वेंट स्कूल में पड़ते थे. दुसरो कि बेटियो से धंधा करवाता था. अनिल जी ने बहुत ही मार्मिक मुद्दे को छुआ है. क्योकि जिन्हें आप और हम घ्रणा से देखते है वो भी हमारी माँ बहन बेटी कि तरह औरत है. जो या तो मज़बूरी में बेच दे गए या फिर दलालों ने फुसला कर मंडी में बेच दिया. उनके माँ बाप आज भी उन्हें दूंढ रहे है…….. आप अपने बेटी के बारे में सोचेंगे तो इनका दर्द और मजबूरी समझ में आ जायगी.

  3. deepak Agrawal

    March 5, 2010 at 11:29 am

    anil ji, bahut dino se miss kar rahe the. ab kami puri hue
    deepak Agrawal

  4. chugalkhor

    March 5, 2010 at 5:50 am

    anil ji ka yathartha bahut dino se miss kar rahe the. ab kami puri hue

  5. kamta

    March 5, 2010 at 5:26 am

    विस्‍तृत अध्‍ययन और गहन मानवीय सरोकार से उपजी कहानियां जो शायद अनिल अपने अखबारों में कभी नहीं लिख पाये।

    मिलान कीजिए : कालमार्क्‍स ने दास कैपिटल में तत्‍कालीन टाइम्‍स लंदन और दूसरे अखबारों की रिपोर्टों का खूब हवाला दिया है लेकिन आज के अखबारों में पत्रकारों के लिए वैसा लिख पाना मुमकिन नहीं है जिसकी प्रामाणिकता को विश्‍वसनीय माना जाये और‍ जिसमें जिंदगी धड़कती हो।

    खैर, माध्‍यम बदलकर ही सही बेचैन आत्‍मा अपना काम तो कर ही रही है। कोटिश: धन्‍यवाद।

  6. Pradeep Upadhyay

    March 5, 2010 at 4:55 am

    Anil Yadav ne achha vishaya uthaya hai. Anil ke likhene ka andaj nirala hai.

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