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साहित्य

महावर, आशिक का बैनर और पुतलियां

[caption id="attachment_17053" align="alignleft"]अनिल यादवअनिल यादव[/caption]एक कहानी (8) : पुलिस वाले मंड़ुवाडीह की बदनाम बस्ती से फिर किसी लड़की को न घसीट ले जाएं, इसकी चौकसी के लिए टोलियां बनाकर रात में गश्त की जा रही थी। डर कर भागने वालियों को मनाने के लिए पंचायत हो रही थी। अदालत जाने के लिए चंदा जुटाया जा रहा था। पुराने ग्राहकों और हमदर्दों से संपर्क साधा जा रहा था। शहर में फैली इस कचरघांव के बीच मड़ुंवाडीह की बदनाम बस्ती में चुपचाप अखबारों पर रोशनाई और महावर से अनगढ़ लिखावट में ‘हमको वेश्या किसने बनाया, ‘काशी में किसने बसाया, जो किस्मत से लाचार-उन पर भी बलात्कार, पहले पुनर्वास करो-फिर धंधे की बात करो जैसे नारे लिखे जा रहे थे। पुआल, पॉलीथीन और कागज के अलावों पर एल्यूमिनियम की पतीलियों में पतली लेई पक रही थी।

अनिल यादव

अनिल यादवएक कहानी (8) : पुलिस वाले मंड़ुवाडीह की बदनाम बस्ती से फिर किसी लड़की को न घसीट ले जाएं, इसकी चौकसी के लिए टोलियां बनाकर रात में गश्त की जा रही थी। डर कर भागने वालियों को मनाने के लिए पंचायत हो रही थी। अदालत जाने के लिए चंदा जुटाया जा रहा था। पुराने ग्राहकों और हमदर्दों से संपर्क साधा जा रहा था। शहर में फैली इस कचरघांव के बीच मड़ुंवाडीह की बदनाम बस्ती में चुपचाप अखबारों पर रोशनाई और महावर से अनगढ़ लिखावट में ‘हमको वेश्या किसने बनाया, ‘काशी में किसने बसाया, जो किस्मत से लाचार-उन पर भी बलात्कार, पहले पुनर्वास करो-फिर धंधे की बात करो जैसे नारे लिखे जा रहे थे। पुआल, पॉलीथीन और कागज के अलावों पर एल्यूमिनियम की पतीलियों में पतली लेई पक रही थी।

एक पुराना कस्टमर जो पेंटर था, बैनर लिखकर दे गया, जिस पर इतनी फूल-पत्तियां बना दी थीं कि जो लिखा था, छिप गया था। स्कूल चलाने वाले लड़के अभिजीत ने राष्ट्रपति से लेकर कलेक्टर तक के नाम ज्ञापन लिखे।

एक दिन सुबह वे अचानक, चुपचाप अपने बच्चों, भूखे खौरहे कुत्तों, सुग्गों के पिंजरों, पानदानों, खाने की पोटलियों, पानी की बोतलों के साथ हाथ से सिली जरी के किनारी वाले, फूलपत्तियों से ढके बैनर के पीछे मुख्य सड़क पर आ खड़ी हुईं। आगे वही लड़का अभिजीत था और सबके हाथों में नारे लिखी तख्तियां थीं। यह अब तक के ज्ञात इतिहास में वेश्याओं का पहला जुलूस था जो आठ किलोमीटर दूर कचहरी पर प्रदर्शन करने और कलेक्टर को मांग-पत्र देने जा रहा था। तीन सौ औरतों की लंबी कतार। इनमें से ज्यादातर बस्ती में लाए जाने के बाद पहली बार बाहर शहर में निकलीं थीं। उन्हें देखने के लिए ट्रैफिक थम गया, सड़कों के किनारे और मकानों के छज्जों पर लोगों की कतारें लग गईं।

रंडियां… रंडियां… देखो, रंडियां

लेकिन वे किसी को नहीं देख रही थीं, उनकी आंखों में भीड़ से घिरे जानवर के भय की परछाई थी और रह-रहकर गुस्सा भभक जाता था। लड़ेंगे… जीतेंगे, लड़ेंगे.. जीतेंगे वे किसी का सिखाया हुआ, अजीब सा नारा लगा रही थीं जिसका उनकी जिंदगी और हुलिए से कोई मेल नहीं था। ज्यादातर औरतें बीमार, उदास और थकी हुई लग रही थीं। मामूली साड़ियों से निकले प्लास्टिक की चप्पलों वाले पैर संकोच के साथ इधर-उधर पड़ रहे थे मानो सड़क में अदृश्य गड्ढे हों, जिनमें गिरकर समा जाने का खतरा था। बच्चे और कुत्ते भी सहमे हुए थे। नारे लगाते वक्त उठने वाले हाथों में भी लय नहीं झिझक और बेतरतीबी थी। लेकिन उनकी चिंचियाती, भर्राई आवाजों में कुछ ऐसा मार्मिक जरूर था जो रह-रहकर कचोट जाता था। उनके साथ-साथ सड़कों के किनारे-किनारे लोग भी गरदनें मोड़े चलने लगे। लोगों के घूरने से घबराकर गले में हारमोनियम और ढोलक लटकाए सांजिदों ने तान छेड़ी और वे चौराहों पर रुक-रुक कर नाचने लगीं।

झिझकते, नाचते-गाते यह विशाल जुलूस जब कचहरी में दाखिल हुआ तो वहां भी सनसनी फैल गई।

वे नारे लगाती कलेक्टर के दफ्तर के सामने के बरामदे और सड़क पर धरने पर बैठीं और चारों ओर तमाशबीनों का घेरा बन गया। जल्दी ही वकील, मुवक्किल, पुलिसवाले और कर्मचारी कागज की पर्चियों पर गानों की फरमाइशें लिखकर उन पर फेंकने और नोट दिखाने लगे। कुछ ढीठ किस्म के वकील हाथों से मोर और नागिन बनाकर भीड़ में बैठी कम उमर की लड़कियों को नाचने के लिए इशारे करने लगे। वेश्याओं ने उनकी ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया, वे अपने बच्चों को संभालती नारे लगाती बैठी रहीं। दो-ढाई घंटे बाद जिलाधिकारी के भेजे प्रोबेशन अधिकारी ने आकर कहा कि विभाग के पास वेश्याओं के पुनर्वास के लिए कोई फंड और योजना नहीं है। इसके लिए केन्द्र और राज्य सरकार को लिखा गया है। उनकी मांगे सभी संबंधित पक्षों तक पहुंचा दी जाएंगी। नारी संरक्षण गृह में इतनी जगह नहीं है कि सभी को रखा जा सके। जिलाधिकारी ने आश्वासन दिया है कि अगर वे धंधा नहीं करें तो अपने घरों में रह सकती हैं, उनके साथ जोर-जबरदस्ती नहीं की जाएगी। जिलाधिकारी ने राहत फंड की उपलब्धता जानने के लिए समाज कल्याण अधिकारी को बुलवाया लेकिन पता चला कि वे इन दिनों जेल में हैं। उनके विभाग के क्लर्कों और स्कूलों के प्रधानाचार्यों ने मिलकर हजारों दलित छात्रों के नाम से फर्जी खाते खोलकर उनके वजीफे हड़प लिए थे। इस मामले का भंडा फूटने के बाद कल्याण विभाग पर इन दिनों ताला लटक रहा था।

भीड़ में से एक बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी के आगे अपनी मैली धोती का आंचल फैलाकर खड़ी हो गई और भर्राई आवाज में कहने लगी,… जब तक जवानी रही सरकार आप सब लोगन की सेवा किया। ऊपर वाले ने जैसा रखा, रह लिए अब बुढ़ापा है। सरकार उजाड़िए मत कहां जाएंगे, कहीं ठौर नहीं है। वेश्याएं हंसने लगी, बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी को ही कलक्टर समझकर फरियाद कर रही थी। बुढ़िया बोले जा रही थी, ‘जब तक जवानी रही आपकी सेवा किया सरकार।’ तमाशबीन भी हंसने लगे। प्रोबेशन अधिकारी के चेहरे का रंग उतर गया। वह जल्दी से कुछ बोलकर मुड़ा और अंग्रेजों के जमाने की कचहरी के बरामदे के विशाल खंभों के पीछे अदृश्य हो गया।

यज्ञ, जला हुआ स्कूल और संपादकों से निवेदन : वेश्याओं के जुलूस के अगले दिन दशश्वमेध के बगल में मान मंदिर घाट पर ब्रह्मचारी साधुओं और बटुकों ने सामाजिक पर्यावरण की शुद्धि के लिए गणिका उच्छेद यज्ञ शुरू कर दिया। आटे के स्त्रियों के सैकड़ों पुतले बनाए गए। उन्हें नहलाने के बाद चंदन, सिंदूर, गुग्गुल आदि का लेप करने के बाद कच्चे सूत से लपेट कर सीढ़ियों पर सजा दिया गया। हर दिन हजारों की तमाशाई भीड़ के आगे टीवी चैनलों के कैमरो की उपस्थिति में गुरू गंभीर मंत्रोच्चार के बीच इन्हें हवन कुंड में फेंका जाता था। साधु और मांत्रिक गर्व से बताते थे कि इससे वेश्याएं समूल नष्ट हो जाएंगी और काशी पुन: पवित्र हो जाएगी। इन साधुओं और बटुकों की अधिक विश्वसनीयता नहीं थी, इसलिए उन्हें बहुत समर्थन नहीं मिल पाया। इनमें से ज्यादातर साधु, पंडे थे जो खासतौर पर विदेशियों को फांसने के लिए टूटी-फूटी अंग्रेजी, फ्रेंच या स्पेनिश बोलते हुए घाटों पर अलबम लिए बैठे रहते थे। बटुक भी ऐसे थे जिन्हें पितृपक्ष के महीने में यजमानों की भारी भीड़ जुट जाने पर पुरोहित दिहाड़ी पर लगा लेते थे। उन्हें घाटों पर मुंडित सिरों के बीच थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पोथी थमाकर बिठा गया जाता था। पुराहित माइक्रोफोन पर मंत्र बोलते थे, वे उसे दुहराते थे। वे पुरोहित के निर्देशों की नकल कर यजमानों को उपनिर्देश देते थे। एक तरह से वे पिंडदान और तर्पण के दिहाड़ी मजदूरों की तरह थे।

हवन कुंड में पककर फट गई इन पुतलियों को विधि विधान पूर्वक गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता था। रात में इन हवन कुंडों को घाटों पर सोने वाले भिखारी टटोलते थे और आग पर पकी इन पुतलियों का गूदा निकालकर खा जाते थे। वे अपनी भूख मिटाने के लिए वेश्याओं को वैसे ही खा रहे थे जैसे थोड़े पैसे वाले लोग अपनी भूख मिटाने के लिए वेश्याओं से संभोग करते हैं। जब मालाओं और धागों में लिपटी प्रवाहित पुतलियां नदी के किनारों पर तिर रही थीं और उनके नितंबो, स्तनों, पेट, जांघों, चेहरों का गूदा फूलकर पानी में छितर रहा था तब वेश्याएं राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों के फेरे लगाकर मदद की गुहार कर रही थीं।

डेढ़ महीने के बाद बदनाम बस्ती के बच्चों का स्कूल एक रात जला दिया गया। यह स्कूल बस्ती के बाहर एक खंडहर पर टीन शेड डालकर चलता था। स्कूल चलाने वाले युवक अभिजीत ने बहुत कोशिश की लेकिन रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई। सभी जानते थे कि किसने जलाया है लेकिन पुलिस ने अपनी तरफ से जांच कर निष्कर्ष निकाला कि वहां रात में जुआ खेला जाता था। रात में आग तापने के लिए जुआरियों ने जो अलाव जलाया था, उसी से आग लगी थी। अखबारों में भी यही छपा क्योंकि कोई सबूत नहीं था। जिसके आधार पर आग लगाने वालों को इस घटना का जिम्मेदार ठहराया जा सके।

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यह लड़का अभिजीत दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.फिल. करने के बाद कुछ दिन मध्य प्रदेश के सीधी जिले में बेड़िनियों के एक गांव में एक साल रहा था। यहां आकर उसने वेश्याओं के कुछ बच्चों को गोद लेकर पढ़ाना शुरू किया। अब उसके स्कूल में सौ से अधिक बच्चे पढ़ते थे और उसे विश्वास था कि ये बच्चे, उस नर्क में जाने से बच जाएंगे। वेश्याएं पहले अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजती थीं क्योंकि उन्हें यकीन ही नहीं था कि उन्हें कोई सचमुच पढ़ाना चाहता है। वह लगातार वेश्याओं से कहता रहता था कि वे अपनी आमदनी अपने पास रखें, उसे अपने पतियों यानि दलालों और भड़ुओं को न दें। उस पैसे को अपने और बच्चों पर खर्च करें।

वह बदनाम बस्ती के पुरुषों की आंख की किरकिरी था। वे स्कूल जलने से खुश थे। यहां भी ज्यादातर औरतें बिना पति के अकेले नहीं रह पाती थीं। उन्हें किसी न किसी से सुरक्षा की ओट चाहिए थी। ये पति यानि दलाल, भड़ुंए और साजिंदे ही उनके लिए ग्राहक पटाकर लाते थे और ज्यादातर पैसे हड़प लेते थे। वे आम पत्नियों की ही तरह उनके नाम पर व्रत और उपवास करती थीं और वे उन्हें आम पतियों की ही तरह पीटते थे। यह लड़का अभिजीत अब सब तरफ से मायूस होकर सारे दिन अखबारों के दफ्तरों में चपरासी से लेकर संपादक तक सबसे निवेदन करता रहता था कि वे बस एक बार चलकर अपनी आंखों से बदनाम बस्ती की हालत देख लें। वहां भुखमरी की हालत है, छह औरतें कोठे छोड़कर जा चुकी हैं और दूसरे जगहों पर धंधा ही कर रही हैं। यहां अगर पुलिस पिकेट नहीं उठती और उनका धंधा नहीं शुरू होता तो वे भूखों मरेंगी, या फिर चारों ओर फैल जाएंगी। इससे वेश्यावृत्ति कम नहीं होगी, बल्कि और बढ़ेगी। सी. अंतरात्मा की तरह, आम पत्रकारों की भी उसके बारे में राय यही थी कि बच्चों को पढ़ाने की आड़ में वह लड़कियों की तस्करी का रैकेट चलाता है और वेश्याओं की आमदनी से हिस्सा लेता है। वेश्याओं की भलाई का स्वांग करते हुए वह करोड़पति हो चुका है।

डेढ़ महीना बीतने के बाद भी किसी वेश्या ने थाने में जाकर सरकारी लोन की अर्जी नहीं दी थी और कोई भी नारी संरक्षण गृह जाने को तैयार नहीं हुई। ज्यादातर साजिंदों, दलालों के जाने के बाद यह मान लिया गया था कि जल्दी ही वे सभी कहीं और चली जाएंगी, सिर्फ बूढ़ी, बीमार औरते रह जाएंगी। जिनमें से कुछ को पुलिस उठाकर संरक्षण गृह में डाल देगी। बाकियों को खदेड़ दिया जाएगा जो घूमकर भीख मांगेगी। वैसे भी जनगणना विभाग वेश्याओं की गिनती भिखारियों के रूप में ही करता आया है। …जारी….

कहानी और लेखक के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए उपर की किसी तस्वीर पर क्लिक करें.

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0 Comments

  1. ved ratna

    March 11, 2010 at 12:14 am

    behatar

  2. chugalkhor

    March 10, 2010 at 7:30 am

    padta hon to lagta hai ki munsi premchand ki kalam se ukere gaye sabd hai. ya phir raag darbari ka kathank samne aa gaya hai. dhanya hai anil ji

  3. Abhishek Shukla

    March 10, 2010 at 7:58 am

    A wonderful piece of expression. Shows the dichotomy of society, the leadership and the Police “sadaiv apke saath”.

  4. Amit Chaudhary

    March 9, 2010 at 2:21 am

    HI this amit.

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