जंग और प्यार में सब जायज है, इस बार साबित किया बंगाल पुलिस ने. बंगाल पुलिस की कारगुजारी आजकल सुर्खियों में है. एक नक्सली नेता की गिरफ्तारी हो चुकी है और पुलिस इसे अपनी बड़ी सफलता मान रही है। जाहिर है, जिस एक शख्स ने लालगढ़ में हफ्तों राज्य पुलिस और देश की प्रशासनिक व्यवस्था को चुनौती दी हो, उसकी गिरफ्तारी पर खुश होना लाजमी है. लेकिन सवाल उठता है कि जिस तरीके से पत्रकारिता को मोहरा बनाकर इस कारनामे को अंजाम दिया गया है वो ठीक है? और उपर से मीडियाघरानों की चुप्पी, बड़े पत्रकार होने का दावा करने वालों की खामोशी..? यह सब आखिर किस तरफ इशारा करती है? छत्रधर महतो और बंगाल पुलिस के इस नाटक पर कुछ लिखूं, उससे पहले मैं बता देना चाहता हूं कि मैं मौजूदा हालात में नक्सलवाद का समर्थक नहीं हूं लेकिन अपने पाठकों को ये भी साफ करता चलूं कि इन नक्सलियों के बीच हमने एक बार नहीं, कई बार हफ्तों दिन गुजारा है.
इनके साथ जंगलों की खाक छानी है. जंगलों में जानवरों और नक्सलियों के बीच सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा की है. इसलिये मैंने अपने अल्पज्ञान से इनको काफी करीब से देखा है. इनकी बुराइयों पर जमकर लिखा भी है। पत्रकारिता से इतर बिहार के कुछ जिलों में नक्सलवाद को पनपते हमने काफी करीब से देखा-जाना है। समानता की इनकी बातें हमें अपील करती रही है लेकिन बेवजह हत्याओं का मैं विरोधी रहा हूं। हम लौटते हैं अपने मुद्दे पर नहीं तो यह ऐसा विषय है जिस पर काफी कुछ लिखा जा सकता है। मुद्दा यह कि जिस तरीके से पुलिस ने पत्रकार का सहारा लिया क्या वो तरीका ठीक है?
यहां कई बाते हैं. मैं सबसे पहले उन पत्रकारों को कठघरे में खड़ा करता हूं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि विदेशी एजेंसी के पत्रकार बने पुलिसवालों से महतो की मीटिंग तय कराई। क्या ये जानबूझकर था? इस पर मेरा ये मानना है कि ऐसा संभव नहीं है क्योंकि स्थानीय स्तर का काई पत्रकार ऐसा जोखिम नहीं ले सकता क्योंकि वो इतना तो जानता है कि अपनी पंचायत लगाकर कान काटने, उंगली काटने या फिर कई दिन उल्टा लटकाने के फैसले करने वाले ये लोग गद्दारी को कभी माफ नहीं करेंगे… हां, लेकिन उस पत्रकार की एक गलती जरूर है कि उसने चंद पैसों के लालच में बिना ज्यादा जांच पड़ताल किये इन नकली एजेंसी के पत्रकारों पर भरोसा कर लिया और उनका ऐसा करना भी कई सवाल खड़े करता है… यहां भी बात समानता की आती है कि जिस स्ट्रिंगर की खबरों के सहारे न्यूज चैनल या राष्ट्रीय अखबार बड़े-बड़े खेल कर रहे हैं उन्हें चंद पैसों के लिये क्या-क्या करना पड़ता है… मतलब साफ है कि इस पेशे में भी समानता नहीं है और अगर समानता की वकालत करता छत्रधर महतो अपनी लड़ाई लड़ रहा है तो क्या बुरा कर रहा है। अगर वो स्थानीय पत्रकार संपन्न होता तो उसे ऐसे काम करने की जरूरत नहीं पड़ती और फिर भी करता तो उसे ठोक बजाकर करता। दूसरी बात इन पुलिस वालों की ..
आप सोचिए, अगर किसी खबर का सच जानने के लिए अगर आप पुलिस की वर्दी पहन लें और बकायदा रिवाल्वर लगाकर कहीं पहुंच जाएं…. तो क्या हमारे देश का कानून हमें ऐसा करने की इजाजत देगा, कतई नहीं… तो फिर एक दूसरे पेशे को हथियार के रूप में आजमाने के लिये पुलिसवाले दोषी क्यों नहीं है? दशकों से पत्रकार वहां पहुंचते रहे हैं जहां पुलिस-प्रशासन का जाना दूभर रहा है और वो सिर्फ इसलिये कि इस पेशे पर तमाम बुराईयों के बावजूद हर तबका भरोसा करता रहा है। ऐसे में नकली पत्रकार बनकर ऐसा करना न सिर्फ पत्रकारिता के साथ धोखा है बल्कि समाज के साथ भी सौतेला व्यवहार है क्योंकि ऐसी घटनाएं बार-बार दुहराई जाएंगी…. और फिर समाज के उस तबके का विश्वास हमसे उठेगा जो सामने नहीं आना चाहता लेकिन पत्रकार उनकी बातें मुख्यधारा तक पहुंचाते हैं। इसके दूरगामी परिणाम बहुत ही भयानक होंगे क्योंकि जब समाज का कोई भी एक या उससे अधिक हिस्सा मुख्यधारा से कटेगा और उसके संवाद भी स्थापित नहीं होगा तो जाहिर है विवाद होगा क्योंकि – जहां संवाद नहीं है वहीं विवाद शुरू होता है। और फिर न तो किसी छत्रधर महतो को हम, आप या पुलिसवाले जान पाएंगे और न ही ऐसी गिरफ्तारी हो सकेगी।
कुल मिलाकर बंगाल पुलिस का ये कदम उस आतंकवादी से ज्यादा बेहतर नहीं है जिसने पत्रकार के वेश में वीडियो कैमरे में बम लगाकर अफगानिस्तान के लोकप्रिय नेता अहमद शाह मसूद की हत्या कर दी थी। और इन सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि इस मसले पर कोई कुछ बोल नहीं रहा…. ये खामोशी पत्रकारिता के लिए और खासकर खोजी पत्रकारिता के लिए, जहां सूत्र काफी मायने रखते हैं, बेहद खतरनाक है।