एक संभावित अखबार, जिसके प्रकाशन की तैयारियों को लेकर मैने दिल से काम किया, उसके प्रस्तावित स्वरूप की रचना की, उसमें जान डालने की सारी कवायद की। अंततः तीन महीने बाद उन सारी कोशिशों की शवयात्रा भी मेरे घर ही आई, एक फाईल के रूप में। यह सांध्य मिलाप को शुरू करने की तैयारियों की गवाह है व मेरे पास आज भी सुरक्षित है। मैने अपना कैरियर हिंदी मिलाप से शुरू किया था। वर्ष 1988 में यश जी ने मुझ दसवीं पास दिशाहीन नौजवान को हिंदी मिलाप में पत्रकार बनने का अवसर दिया था।
यश जी के साथ बहुत सी यादें जुड़ी हैं। मैं यह मानता हूं कि मेरे हाथ से प्लास व पेचकस लेकर, कलम थमा कर मेरे जीवन का अध्याय बदलने वाले यश जी ही थे। पत्रकारिता में आने से पहले मैं इलेक्ट्रीशियन का काम करता था। मिलाप भवन के साथ मेरा भावनात्मक रिश्ता है। ईमानदारी से कहूं तो हिंदी मिलाप के लगभग मृतप्राय हो जाने के बावजूद भी पता नहीं क्यों मेरी यह धारणा रही है कि मिलाप की संभावनाएं पूरी तरह से समाप्त नहीं हुईं।
बात वर्ष 2000 की है। 2 जून को श्री यश की बरसी का वार्षिक आयोजन था। उन दिनों मैं अमर उजाला के जालंधर संस्करण में स्टाफ रिपोर्टर हुआ करता था। यश जी के सपुत्र विश्वकीर्ति (जिन्हें हम शुरू से ही विक्की भाजी कहते हैं) ने चार लाइनों की खबर भेजी। इसमें स्व. श्री यश की बरसी से संबंधित हवन यज्ञ का विवरण था। यश जी के प्रति मेरी श्रद्धा कभी छुपी नहीं रही सो तत्कालीन सिटी चीफ यूसुफ किरमानी ने वो खबर मुझे लिखने को दी। मैने उसे विस्तार में बना दिया व श्री यश की कद्दावर शख्सीयत पर भी दो पैरे लिख दिए। तीन जून को विक्की का फोन आया, ‘अर्जुन, मिलाप के दफ्तर में आओ, तुमसे काम है।’ साल में एकाध बार विक्की बातचीत के लिए बुला लिया करते थे। मैं गया तो उन्होंने बड़ी गंभीरता से मेरे सामने मिलाप का सांध्य संस्करण शुरू करने का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव ज्यादा रोचक इसलिए लगा क्योंकि उसे शुरू करने की पूर्व तैयारियों से लेकर संपादन का सारा काम मेरे कंधों पर डालने की पेशकश की गई।
उस समय जालंधर में कोई भी सांध्य दैनिक नहीं था। उत्तम हिंदू करीब दशक पहले ही डेली मार्निंग हो चुका था। जय नंदन बंद हो गया था। सांध्य चिराग को बंद हुए भी काफी समय बीत चुका था। मैदान खाली था। संभावनाएं बेहतरीन थीं। मैने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। न्यूज कोआर्डीनेटर का अप्यांटमेंट लेटर व अमर उजाला के मुकाबले अच्छा वेतन। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि जिस अखबार के दफ्तर से कैरियर शुरू किया था (तत्कालीन परिस्थितियों के चलते ज्यादा समय टिक नहीं पाया) वहीं पर बारह साल बाद संपादक के आस-पास के पद पर मुझे दुबारा चुना गया था। खास तौर पर उन परिस्थितियों में जब हिंदी मिलाप के सामने अस्तित्व का संकट था, जिसे पुनर्जीवित करने के लिए शहर में उपलब्ध कई वरिष्ठï पत्रकारों के बजाए मुझ पर यह दॉव लगाया गया।
पांच जून को मैने अमर उजाला में त्यागपत्र दिया व बत्तीस साल छह महीने की आयु में मिलाप भवन में पूरी सजधज व संपादक जैसी अकड़ के साथ प्रवेश कर गया। वहां मुझे एक इतिहास लिखना था। अपनी योग्यता को प्रमाणित करके दिखाना था। छोटी सी उम्र में यह सब एक बड़ी चुनौती जैसा था। खैर, बैठकों का दौर शुरू हुआ। मैने रंगमंच के एक अनुभवी पर बेरोजगारी का दंश झेल रहे कलाकार विंसेट फ्रैंकलिन को अपना सहयोगी बनाया और काम शुरू कर दिया। जैसे ही मीडिया जगत में यह बात फैली कि मिलाप का सांध्य संस्करण बहुत जल्द आने वाला है, चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया। मिलाप में फिर से रौनक फैलने लगीं। शहर के मूर्धन्य पत्रकारों में एक खास किस्म की बहस छिड़ गई। खास तौर पर सांध्य मिलाप का कर्ता-धर्ता मुझे बनाए जाने पर तो ज्यादातर पत्रकारों ने नाक-मुंह सिकोड़ा, ‘यह मुंह और मसूर की दाल’ जैसे तंज कसे गए। खास तौर पर मुझ से बीस साल सीनियर पत्रकार अशोक सूरी की समस्या यह थी कि वे हिंदी मिलाप में पिछले बारह साल से पार्ट-टाइम उप-संपादक के तौर पर काम कर रहे थे। वे घोषित रूप से मेरे हर कदम के विरोधी रहे हैं। इस विरोध को सार्वजनिक करने से कभी परहेज नहीं किया। उन्हें मुझ पर इस बात को लेकर गुस्सा था कि मिलाप के इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट की तैयारी के दौर में वे हिंदी मिलाप के डेस्क पर आया करते थे पर विक्की ने उन्हें सांध्य मिलाप के संदर्भ में शामिल करना तो दूर, उनसे बात तक नहीं की थी। हालांकि इसमें मेरा कसूर नहीं था। मैने तो पहली बैठक में ही विक्की को सलाह दी थी कि सूरी जी को भी इस परियोजना में शामिल किया जाए पर विक्की ने पूरी सख्ती से इनकार कर दिया था।
मेरी भावना से बेखबर सूरी हमेशा अपने चिड़चिड़े अंदाज में ताने मारते हुए ही मुझसे मिलते। प्रस्तावित अखबार की खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज में मेरे सामने ही ढेरों बददुआएं देते। कहना बेटी को सुनाना बहू को वाले अंदाज में अप्रत्क्षय रूप से यह ताना कसना नहीं भूलते कि दुनिया में आजकल काबलियत का नहीं, चमचागिरी का जमाना है। मैं सूरी जी के पूर्वाग्रहों के बावजूद उनकी योग्यता का सदा कायल रहा हूं। पहले पन्ने की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबरों को कंपाइल करने में उनका कोई सानी नहीं है। डेस्क के काम में उनकी प्रतिभा नायाब है। फील्ड के काम में भी वे कामयाब हैं। मेरे विरोध का ले-देकर उनके पास यही तर्क था कि यह बच्चा क्या जाने अखबार व पत्रकारिता क्या होती है। मजेदार बात यह कि उनकी भावनाओं की मुझे मुक्कमल जानकारी थी पर मेरे मन में उनके प्रति कभी द्वेष भावना इसलिए नहीं आई क्योंकि वे बहुत सीनियर थे व अपना काम अच्छे से करना जानते थे पर उनकी बदजुबानी सदा ही उनका सारा खेल चौपट कर देती थी।
सूरी साहिब की एक बात सबसे खास है कि वे जरूरत से ज्यादा बड़बोले होने के बावजूद टांग खिंचाई जैसे खेल खेलना नहीं जानते थे। वे अकेले ही मेरे आलोचक थे, ऐसा भी नहीं। दूसरा नम्बर हिंदी मिलाप के भारत भूषण का था। वे प्रबंधक थे। उनकी फितरत का उल्लेख मुहावरे की भाषा में करना हो तो पंजाबी की प्रसिद्ध उक्ति ‘उज्जड़े बागां दे गालड़ पटवारी’। यह उक्तिउ नके ‘बहुमुखी’ व्यक्तित्व का खुलासा करने के लिए पर्याप्त है। वे पहले दिन से ही सांध्य मिलाप के आइडिया के विरोधी थे पर जुबान से कुछ न बोलते हुए अपनी शारीरिक भाषा व हाव-भाव से जता देते थे कि उनकी पुरानी सल्तनत में कोई भी सेंधमारी नहीं कर सकता। तीसरे सज्जन लाला जी थे जिनके ‘समाज सेवक’ पिता अविनाश चड्ढा ने उनका नाम पवन कुमार रखा था पर शराब को जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानने वाले पवन को लाला कहलवाना पसंद था। लाला का काम था, हिंदी मिलाप के दफ्तर में बैठ कर उल्टी-सीधी ही नहीं बल्कि बचकाना हरकतें करते रहना। किसी न किसी बहाने से ऊपर की मंजिल पर मिलाप परिवार के निवास में जाकर विक्की की शराब की बोतल से पैग पी आना और शाम ढलने के बाद विक्की के लिए सोडे बर्फ के इंतजाम में जुट जाना। उनके पिता अखबारों में चित्र छपवाने के एडिक्ट थे व उनके नाम के साथ समाज सेवक शब्द जरूर छपे, इसका जुगाड़ करना भी उन्हें आता था। समाज की उन्होंने कितनी सेवा की, इसका तो कोई विवरण नहीं मिलता पर बड़ा बेटा शराब के दिन-रात सेवन के कारण चल बसा था। बुढ़ापे की लाठी छोटा बेटा लाला मौत से शर्त लगाने वाले अंदाज में शराब का रसिया था। समाज सेवक जी को कभी भी इन छोटी-मोटी बातों की परवाह नहीं थी। लाला किसी के भी हल्के से उकसाने पर कोई भी हरकत कर सकता था।
हिंदी मिलाप के स्टाफ में तीन महिलाएं थीं। इनमें दो कंप्यूटर आपरेटर व एक डेस्क सहयोगी प्रोमिला वर्मा। प्रोमिला जब खुश होती तो दमकने लगती और छोटी सी बात से नाराज होती तो चार दिन उसका मुंह टेड़ा रहता। इतने सारे विचित्र चरित्रों के बीच विक्की का रवैय्या बहुत खटकता। वो सारी प्रक्रिया से उदासीन हद तक लापरवाह था। सारा दिन मिलाप भवन की ऊपरी मंजिल पर अपनी आरामगाह में बादशाहों की तरह पड़ा टीवी देखता रहता। अखबार व पत्रिकाएं पढ़ता। मूड़ होने पर ही नीचे उतरता। हालांकि मेरे साथ उसका व्यवहार बेहद दोस्ताना था पर मुझे यह बात बहुत ज्यादा खटकती कि यश जी जैसे महान पत्रकार का बेटा एक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट शुरू करने जा रहा है पर उसकी पल-प्रतिपल की प्रगति में दिलचस्पी क्यों नहीं लेता?
इस प्रकार के धुंध भरे व रहस्यमय वातावरण में मैं प्रतिबद्ध था कि सांध्य मिलाप के माध्यम से अपनी योग्यता को साबित करना है। शायद यही कारण था कि बिना माहौल की गंध को पहचाने मैं युद्ध स्तर पर जुट गया। जालंधर शहर को खबरों की ज़द में लेने के लिए जो व्यूह रचना की गई, उसके तहत दैनिक जागरण में जूनियर रिपोर्टर के पद पर काम कर रहे पर योग्यता के लिहाज से विश्वास के लायक युवा पत्रकार विनय राणा को मैने सिटी चीफ के तौर पर चुना। विनय में काफी संभावनाएं थीं व कलाकार होने के कारण खबरों को समझने व लिखने का उसका नजरिया मेरे विचारों को सूट करता था। विनय उत्साही भी था। वो ऑनलाइन काम करना भी जानता था। जालंधर के पत्रकारिता जगत में वो पहचाना भी जाता था। हमारी टीम के तीन सदस्य हो गए थे।
धीरे-धीरे कुछ नए लोगों ने भी संभावित अखबार में हाथ आजमाने के लिए दस्तक दी। मैने नए लोगों को पूरा महत्व दिया। इनमें राजेश योगी, पवन शर्मा व अन्य लोग थे जो पत्रकारिता में कैरियर बनाना चाहते थे। जून महीने के अंत तक हमारा नेटवर्क काम करने लगा। हिंदी मिलाप के पन्नों में जहां पहले जालंधर डेटलाइन लगभग नदारद रहा करती थी व पत्रकार सम्मेलनों में भी हिंदी मिलाप का कोई नामलेवा नहीं बचा था, वहीं दूसरे अखबारों की तरह हिंदी मिलाप में भी एक पन्ने व कभी-कभी उससे भी ज्यादा खबरें जालंधर से छपने लगीं। हालांकि हमारा काम सांध्य अखबार निकालना था पर प्रयोग के तौर पर भी और वैसे भी हिंदी मिलाप हमारे पास एक ऐसा मंच जरूर था जो डमी छापने से कई गुना बेहतर था। असल में किसी भी अखबार के निकलने से पहले तैयारी का दौर बड़ी छटपटाहट भरा होता है क्योंकि फील्ड के लोग काम तो करते हैं पर उनका काम बाहर की दुनिया को नहीं दिख पाता। उनकी गतिविधियों की पहुंच दफ्तर के भीतर संपादक तक ही होती है। ये स्थिति कई बार निराशा भर देती है पर यदि वही काम अभ्यास के दौरान भी छपा हुआ दिखे तो टीम में हौसला बना रहता है। हमारी ऐसी ही स्थिति थी।
टीम में पूरा उत्साह था। हमें इंतजार संसाधनों का था। जैसे कि कंप्यूटर, फील्ड स्टाफ के लिए वॉकी सेट (उन दिनों मोबाइल की काल बहुत महंगी थी व सांध्य अखबार की डेडलाइन व भागदौड़ को समेटने के लिए यह सोचा गया था कि ताजा खबर देने के लिए रिपोर्टर सीधे संपादकीय विभाग के संपर्क में रहेंगे, जिसके लिए मोटोरोला कंपनी के वॉकी सेट किराए पर लेने की योजना थी) व सांध्य अखबार का अलग से संपादकीय विभाग। जुलाई की शुरुआत हो गई। अखबार निकालने की डेडलाइन 15 अगस्त रखी गई। सारी टीम मुस्तैद थी पर मालिक का कोई अता-पता ही न था। फिर पता चला कि विक्की गर्मी की छुट्टियां बिताने शिमला गए हैं। संपर्क किया गया तो उन्होंने काफी उत्साहित होकर कहा कि हिंदी मिलाप के स्वरूप में आ रहा बदलाव शिमला में भी नोटिस किया गया है। वे जल्दी ही वापस आकर सारे प्रबंध करेंगे। 15 जुलाई के आसपास विक्की शिमला से वापस लौटे। उनकी गैरहाजरी में हिंदी मिलाप के पुराने स्टाफ के लोगों ने मेरी टीम को जम कर हतोत्साहित किया। तंज कसे गए। सांध्य मिलाप के जन्म को लेकर विक्की की निष्ठा पर सवाल उठाए गए। नई टीम के सदस्यों का मनोबल बनाए रखने के लिए मुझे बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। स्थिति यह हो गई कि एक दिन सवेरे आकर देखा तो पाया कि हमारे संयुक्त टेबल पर लगा फोन का सेट गायब है। कोई तसल्लीजनक जवाब न दे। भारत भूषण व सूरी जी की व्यंग्य भरी मुस्कान से मेरी टीम चिढ़ी बैठी थी। मुझे यह देख कर धक्का लगा कि सांध्य मिलाप के लिए तैनात फौज की पस्ती का यह आलम था कि मिलाप भवन की पुरानी लायब्रेरी वाले कमरे में पड़े लकड़ी के पलंग पर सभी ढ़ेर हुए बैठे थे। उस वक्त मेरी मनोस्थिति भी अपने साथियों से भिन्न नहीं थी क्योंकि सांध्य मिलाप को लेकर अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई थी। पर टीम लीडर होने के नाते मैं निराशाजनक विचारों को दिमाग से झटक कर फिर से टीम के उत्साह को बढ़ाने की सोचने लगा।
मैने विक्की के बेटे विशाल को प्रेरित किया कि वो अपने पापा के दफ्तर में आकर बैठे व शुरू किए गए काम को गति दे। विशाल अभी बीसेक साल का था। उसने पापा के दफ्तर को खुलवाया व मीटिंग कॉल की। विरोधी खेमा बेहद निराश था पर मेरी टीम उत्साह से भर गई। विशाल ने विश्वास दिलाया कि जल्द ही सारे संसाधन उपलब्ध करवा दिए जाएंगे। पेज़ों पर क्या-क्या जाना है, हम उसकी योजना में जुट गए। नए-नए कालम सोचे जाने लगे। पहले पन्ने का ले-आऊट बनाया गया। अखबार के संभावित साइज़ को मापने के लिए एक डम्मी छापी गई। अखबार का नारा गढ़ा गया ‘आज की खबरें आज’। विज्ञापन नीति बनाई जाने लगी ताकि सांध्य मिलाप को मुनाफे का प्रोजेक्ट बनाया जा सके। निःसंदेह सांध्य मिलाप को लेकर मैं काफी भावुक था क्योंकि इसकी सफलता के जरिए मेरे गुरु श्री यश के घराने को फिर से अखबारी दुनिया में चर्चित कराना था। मैं अपने साथियों का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें अपने घर रात के खाने व ड्रिंक पर बुलाया करता। भविष्य पर चर्चा की जाती, नए-नए सपने बुने जाते। हालांकि हाहाकारी स्थिति को मैं भांप चुका था व इस बात को लेकर चिंतित था कि जो लोग मेरी एक आवाज पर इकट्ठे हुए हैं उनका भविष्य क्या होगा?
मैं किसी को बताता नहीं था कि विक्की के साथ इतनी दूरी आ गई है कि हम दोनों एक ही भवन में होते हैं पर मुझे उनसे बात करने में भी कठिनाई हो रही है। जब नीचे से मैं फोन करता हूं तो विक्की उठा कर कहता है कि अभी आया। पर न तो वो आते हैं न ही दोबारा फोन उठाते हैं। मेरी समझ से बाहर था कि यह सब हो क्या रहा है। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता था कि विक्की ने हम सबको बेवकूफ बनाने के लिए यह सारा प्रपंच किया है। आखिर हमारी तो उससे कोई दुश्मनी भी नहीं थी! ऊपर से कोढ़ में खाज वाली स्थिति यह थी कि हिंदी मिलाप का स्टाफ हमें दूसरे खेमे का मान कर चलते हुए असहयोग से लेकर मजाक उड़ाने की मुद्रा में था। मैं बेहद मानसिक तनाव के हालात में था, तभी मेरे पुराने मित्र व लुधियाना के पत्रकार अशोक सिंघी मिलाप के दफ्तर में आए। मैं कंप्यूटर कक्ष में था, वे आधा घंटा बेसब्री भरा इंतजार करते रहे। मैने बाहर आते ही चायपानी पूछा तो उन्होंने कहा कि बाहर चलो, कोई जरूरी बात करनी है। मैं उनके साथ मिलाप भवन से बाहर निकला।
कड़कती गर्मी में हम सामने की चाय वाली दुकान पर पहुंचे। वहां दैनिक भास्कर के डिप्टी जीएम व संपादकीय सलाहकार श्री भल्ला खड़े थे। मुझे सिंघी ने बताया कि वो आजकल लुधियाना से दैनिक भास्कर के लिए काम कर रहे हैं व जालंधर से भास्कर को मेरी सेवाएं दरकार है। मैं सोच में पड़ गया क्योंकि जालंधर से भास्कर का काम अशोक सूरी देख रहे थे व पार्ट टाइम मिलाप में आकर मेरे पर तंज कसा करते थे। भास्कर का प्रबंधन उनके काम से संतुष्ट नहीं था। यह विचित्र विडंबना थी कि एक तरफ मैं सांध्य मिलाप के अनिश्चित भविष्य को लेकर जूझ रहा था और भास्कर प्रबंधन का ऑफर बड़े अप्रत्याशित तरीके से मेरे सामने था। फिर मेरे मन में आया कि यदि मैं इन परिस्थितियों में मिलाप छोड़ कर चला गया तो संदेश यह जाएगा कि मैं अपने साथियों व सांध्य मिलाप को बीच मझधार छोड़ कर चला गया। हालांकि मुझे यह भी दिख रहा था कि मिलाप प्रबंधन सांध्य संस्करण को लेकर गंभीर नहीं है। फिर भी रणछोड़ या भगोड़ा होना मुझे कबूल न हुआ। मैंने बड़ी विनम्रता से उनको ऑफर के लिए धन्यवाद दिया व बताया कि मैं इस समय एक प्रोजेक्ट का सूत्रधार हूं इसलिए बीच में छोडऩा मेरे लिए संभव नहीं है। वे चले गए। मैं अनिश्चय से भरे मिलाप भवन में जा घुसा।
जुलाई भी समाप्त हो गया था। मौसम में परिवर्तन का दौर था। बारिश और आंधी बड़े जोरों पर थीं पर हमारी हालत बीच में लटकी हुई थी। हमें कुछ भी स्पष्ट नहीं था कि हमारा क्या होने वाला है। संसाधनों के नाम पर हमें कुछ भी उपलब्ध नहीं करवाया गया। आखिरकार पांच अगस्त को मैने विक्की से सीधी भिड़ंत का मूड बनाया। मैं और विनय ऊपर चले गए व विक्की की आरामगाह का दरवाजा खटखटाया। विक्की ने बाहर आकर कहा कि वे नीचे आ रहे हैं पर मैने कहा कि आप कई बार कह कर नीचे नहीं आए, हमसे साफ-साफ बात करें कि आपका मूड़ क्या है। विक्की ने अपने दफ्तर की चाबियां माली को सौंपी व दफ्तर खोलने का हुक्म दिया। तभी उसने भारत भूषण को बुलाया। हम नीचे दफ्तर में विक्की का इंतजार कर रहे थे। भारत आया, उसके हाथ में लिफाफे थे। उसने कहा कि अब आप जिद मत करें, विक्की आपसे नहीं मिलेंगे, आप लोगों का आज तक का वेतन है, इस अध्याय को यहीं समाप्त करें। इस तरह, सांध्य मिलाप के मार्केट में न आने की आधिकारिक पुष्टि हो गई। हम बुझे मन से अपने-अपने घर चले गए। विनय व योगी दैनिक जागरण में लौट गए। मैं अमर उजाला में लौट गया, एक ऐसे योद्धा की तरह जिसे लड़ाई के लिए तो तैयार किया गया पर लड़ने का मौका नहीं दिया गया।
विक्की की जगह कोई और होता तो शायद झगड़ा भी होता क्योंकि उस व्यक्ति ने हमारे सपनों की हत्या की थी पर विक्की यश जी के पुत्र थे, इस कारण मैं विक्की से नहीं लड़ पाया। खैर, समय बीतता गया और मैं दैनिक जागरण में बतौर विशेष संवाददाता काम करने लगा। श्रीमती स्वर्ण यश (विक्की की मां जी) की मृत्यु हुई तब मैं काफी देर बाद विक्की से मिला, अफसोस करने के लिए। हमारी बातचीत फिर से शुरू हो गई। सांध्य मिलाप की भ्रूण हत्या वाले दौर के तीन साल बाद विक्की ने एक दिन मुझे ड्रिंक पर बुलाया। शायद बीते दौर में जो विक्की ने हमारे साथ किया था, उसकी मेरे द्वारा कोई शिकायत न किए जाने को लेकर भी उसके मन पर कुछ बोझ था। शराब के दौर में विक्की ने कबूल किया कि उससे गलती हुई क्योंकि उसे पंजाब केसरी के मुख्य संपादक विजय चोपड़ा ने सांध्य न निकालने को कहा था। मैंने हैरानी से सवाल नहीं किया कि आप पर उनका आखिर ऐसा क्या प्रभाव है कि आपने अपने भविष्य के बेहतरीन प्रोजेक्ट से हाथ खींच लिया?
असल में उन दिनों अमर उजाला व दैनिक जागरण की आमद के चलते पंजाब केसरी के सामने कड़ी चुनौती के हालात थे। मेरे बारे में उनकी राय शायद यही थी कि मैं भी बागी हूं जो सांध्य मिलाप के फ्रंट से उन्हें कोई नुकसान पहुंचा सकता था। हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं था। पर विक्की अपनी उस भूल के लिए बहुत पछताए। आखिरकार हिंदी मिलाप के पतन के बाद सरकारी तौर पर सुविधाओं से लेकर छोटे-बड़े कामों को लेकर विक्की, चोपड़ा परिवार पर निर्भर करते थे व मानसिक तौर पर उनके आगे दब चुके थे। यह तथ्य मन को दुखी ही करने वाला है कि हिंदी मिलाप, यश जी वाला हिंदी मिलाप कितना असहाय व मजबूर हो चुका है। विक्की ने अपने पिता की विरासत को मिट्टी में मिला दिया।
लेखक अर्जुन शर्मा हिंदी मीडिया में 20 वर्षों से सक्रिय हैं। उनसे [email protected] से संपर्क कर सकते हैं।