कुछ अनुभव पत्रकारिता के- यह शीर्षक मेरे जेहन में तबसे है, जब आल इंडिया रेडियो, जालंधर से प्रसारित होने वाले युवाओं के कार्यक्रम में, इंटरव्यू लेने वाली जमात का आदमी होने के बावजूद मुझे इंटरव्यू देने के लिए बुलाया गया। यह वर्ष 1995 की बात है। तब पत्रकारिता में मुझे 7 साल हुए थे। उन दिनों मैं पंजाब में नवभारत टाइम्स का एकमात्र संवाददाता था। जब मुझे इस प्रोग्राम के लिए न्योता मिला तो कार्यक्रम आयोजिका रश्मि खुराना से मैंने कहा कि इंटरव्यू देने लायक योग्यता मेरे अंदर नहीं है।
पर उन्होंने मेरी एक न सुनी क्योंकि कार्यक्रम युवा पत्रकार के अनुभवों पर आधारित था। जब मैं हॉट सीट पर बैठा व रिकार्डिंग शुरू हुई, तब मेरे मन में खौफ छा गया। पत्रकारिता में अनुभवों को लेकर कहीं कोई ऐसा सवाल न पूछा जाए जो किसी विवादित अनुभव से ताल्लुक रखता हो या रेडियो पर किसी के खिलाफ ही कुछ उगल न बैठूं। अभी करियर के लंबे रास्ते तय करने थे। सात सालों में ही मैं कई बड़े लोगों से कई विवाद मोल ले चुका था। कहीं उन विवादित विषयों पर बातचीत न हो जाए। तब मुझे लगा कि पत्रकारिता के अनुभवों का खुलासा करना आसान काम नहीं है। उस इंटरव्यू में आए तीखे सवालों के जैसे तैसे गोलमोल जवाब देकर जान बचाई।
इस घटना के तीन साल बाद मेरे सामने ऐसे हालात आए कि मुझे मजबूरन पत्रकारिता के अनुभव कलमबद्ध करने पड़े। यह बात वर्ष 1998 की है। मैं शिमला में दिव्य हिमाचल अखबार का प्रादेशिक ब्यूरो प्रमुख था। उसके बाद अनुभव कलमबद्ध करने का सिलसिला जम नहीं पाया व वापस पंजाब आकर अनुभवों की नई पारी खेलने में जुट गया।
पत्रकारिता एक ललित कला (फाईन आर्ट) है। इसके स्वरूप में बहुत बदलाव आए हैं। अगर मीडिया का व्यवसायीकरण हुआ है तो उतनी तेज़ी से समाचार माध्यम जनता की जरूरत भी बनते गए। पत्रकारिता से जुड़े लोगों के पास अनुभवों का खजाना होता है। पत्रकार जब अपनी कलम से समाज की बुराइयों का बेधन शुरू करता है तो उसके सामने कठिनाइयां आती हैं। कुछ को धंधेबाजी के मौके मिलते हैं। कुछ आंख मूंदने की कीमत ले लिया करते हैं। बाहर वालों के लिए पत्रकारिता किसी विशेष आकर्षण से कम नहीं लेकिन जो पत्रकारिता की दुनिया के हिस्सा हैं वो लाख कठिनाइयों के बावजूद इससे दूर नहीं हो पाते। वो वो कोई और काम करने लायक नहीं रह जाते। जैसे जहाज के पंछी को जहाज पर ही रहना होता है वैसे ही पत्रकारिता से जुड़े लोग इस विचित्र दुनिया को छोड़ कर कहीं खुश नहीं रह पाते, संतुष्ट नहीं हो पाते। छपास की आदत, बाइलाइन, एक दिन का इतिहास निर्माता होने का भ्रम, जनता में पहचान… ये सब जीवन का हिस्सा बन जाता है।
पत्रकारिता के सम्मोहन में फंस कर आकाश छूने वालों को भी मैं जानता हूं। पत्रकारिता के हीरो रहे लोगों के गुमनामी भरे आखिरी दौर भी मैंने देखे हैं। कई आत्ममुग्ध ‘महान’ पत्रकारों के अतार्किक इगो को देखा व भुगता है। इस पेशे के धंधेबाजों के बने महलों की नींव भी देखी है। पत्रकारिता की आड़ में गुंडागर्दी का भी गवाह रहा हूं। सचमुच महान लोगों के चरण स्पर्श का फख्र भी हासिल है, जो कभी अपने मुंह अपने बारे में एक शब्द नहीं बोलते। हमारे पेशे में एक खास किस्म का ग्लैमर है, फिल्मी दुनिया जैसा। जैसे रजत पट पर छाया सितारा धीरे-धीरे अपनी आभा खोता हुआ गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जाता है व अचानक किसी दिन फिर से छा जाता है, वैसा ही पत्रकारिता में भी होता है। पत्रकारिता की पीड़ा भोगने वालों को भी जानता हूं जिन्हें इस पेशे ने तनाव, डिप्रेशन व सेहत खराब करने जैसे दर्द दिए हैं। इसके बावजूद वे बात करते हुए कई बार अतीत की उन सुनहरी यादों में खो कर सब गम भूल कर अपने दौर की विशेषताओं व नए दौर की कुरीतियों पर उपदेश देने लगते हैं। इन्हें कुछ लोग सनकी मान लेते हैं तो कुछ दर्द के मारे मासूम करार देते हैं। इनके पास बीती यादों को दोहराने के अलावा कुछ और नहीं बचा।
पत्रकारिता के जिस दौर की मैं पैदाइश हूं, तब और आज के दौर में बहुत बदलाव आए हैं। पहले तकनीक कम थी, मूल्यों का आदर ज्यादा था। संघर्ष तब भी था, आज भी है। फर्क इतना है कि पहला दौर योग्यता का था, आज जोड़तोड़ व चापलूसी का है। नए दौर में मूल्यों का काफी पतन हुआ है। बिना गॉडफादर वाले पत्रकारों के लिए मूल्य व नैतिकता की बात सोचते हुए पत्रकारिता में जीवित रह पाना मुश्किल हो चुका है। संपादकों के मायने बदल चुके हैं। कामकाज के तौर तरीकों में बदलाव आ चुका है। ऐसे में पुराने दौर को ढूंढने को अहमकाना कोशिश करार दिया जा सकता है। पत्रकारिता में आए मुझे बीस साल हुए हैं पर पिछले 25 साल से इस पेशे से जुड़े लोगों व साथियों की मानसिकता को मैं अच्छी प्रकार जानने बूझने का विनम्र दावा तो कर ही सकता हूं।
अपने अनुभवों को लिखने की प्रेरणा मुझे वरिष्ठ साहित्यकार सुरेश सेठ जी द्वारा तीन दशक पहले लिखी गई एक पुस्तक ‘शहर वही है’ तथा गीता डोगरा द्वारा लिखित आत्मकथा के कुछ पन्नों ‘बयान दर्ज हो’ से भी मिली। खास तौर पर सुरेश जी की पुस्तक में उनके जीवन का खास जिक्र न होते हुए, केवल छोटे-बड़े साहित्यकारों के साथ उनके अनुभवों का बेहद रोचक शैली व साहित्यक अंदाज में विवरण मिलता है। मेरी उम्र अपनी आत्मकखा लिखने लायक नहीं है और न ही जीवन में इतनी ज्यादा उपलब्धियां हासिल कर पाया हूं कि आत्मकथा लिखने बैठ जाऊं पर इन दो किताबों से इतना संकेत जरूर मिला कि अपने अनुभव लिखने के लिए खास उम्र का होना जरूरी नहीं।
बीते दौर के अनुभवों को लिख देने से बहुत सारे अपनों के रुठने का जोखिम तो है ही, पर मेरी कोशिश रहेगी कि किसी पर निजी आक्षेप लगाने से बचूं व प्रस्तुति में मिठास को कायम रखूं। यदि कुछ तथ्य कड़वे निकल आएं तो मैं उस मामले में बेईमानी नहीं करूंगा। मेरा ख्याल है कि पिछले दो दशकों में पंजाब या हिमाचल के किसी पत्रकार ने अनुभव लिखने का जोखिम नहीं उठाया। हां, कुछेक लोगों ने उपन्यास की शैली में अपनी भड़ास निकालने जैसी कोशिशें तो की हैं पर किस रचना को गंभीरता से लेकर उसे इज्जत बख्शी जाए, ऐसे फैसले तो पाठकों की अदालत में ही हुआ करते हैं।
अर्जुन शर्मा हिंदी मीडिया में 20 वर्षों से सक्रिय हैं। लगभग एक दर्जन छोटे-बड़े अखबारों, न्यूज चैनलों व पत्रिकाओं में काम कर चुके अर्जुन ने इससे इतर भी कई काम किए हैं। पत्रकारिता शिक्षा पर किताब लिखने, कई पंजाबी उपन्यासों का अन्य भाषाओं में अनुवाद करने व डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने जैसी उपलब्धियां भी उनके हिस्से में हैं। भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए अपने अनुभवों की पूंजी को पेश करने जा रहे हैं। इसकी शुरुआत वे अगले रविवार ‘किस्सा सांध्य मिलाप का’ के जरिए करने जा रहे हैं। आप उनसे संपर्क [email protected] से कर सकते हैं।