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इस अन्याय के लिए तो मीडिया भी दोषी है

अरशद अली खानभोपाल गैस कांड के दोषियों को दण्डित करने को लेकर सात जून को जब यहां की अदालत ने अपना फैसला सुनाया तो भोपाल के मीडिया ने छाती पीट-पीट कर आसमान सर पर उठा लिया, ऐसा लगा जैसे मीडिया का सब कुछ लुट गया हो। बरसाती मेंढक की तरह सभी क़लमवीर गहरी नींद से जाग गए, कानून के इस पेंचीदा मसले की ऐसे-ऐसे लोगों ने समीक्षा कर डाली जिनका कानून की किताब से कभी भी सीधा वास्ता नहीं रहा, बस लिखना था, सो लिख दिया। हकीकत यह है कि अदालत ने जो फैसला सुनाया है वह अप्रत्याशित नहीं है। फैसले के अंजाम के बारे में सभी जानते थे, क्योंकि अदालत में जिस धारा 304ए को लेकर मुकदमा चल रहा था उसका नतीजा यही निकलना था। लेकिन 8 जून को सभी अखबारों ने फैसले को अप्रत्याशित घटनाक्रम की तरह पेश किया।

अरशद अली खान

अरशद अली खानभोपाल गैस कांड के दोषियों को दण्डित करने को लेकर सात जून को जब यहां की अदालत ने अपना फैसला सुनाया तो भोपाल के मीडिया ने छाती पीट-पीट कर आसमान सर पर उठा लिया, ऐसा लगा जैसे मीडिया का सब कुछ लुट गया हो। बरसाती मेंढक की तरह सभी क़लमवीर गहरी नींद से जाग गए, कानून के इस पेंचीदा मसले की ऐसे-ऐसे लोगों ने समीक्षा कर डाली जिनका कानून की किताब से कभी भी सीधा वास्ता नहीं रहा, बस लिखना था, सो लिख दिया। हकीकत यह है कि अदालत ने जो फैसला सुनाया है वह अप्रत्याशित नहीं है। फैसले के अंजाम के बारे में सभी जानते थे, क्योंकि अदालत में जिस धारा 304ए को लेकर मुकदमा चल रहा था उसका नतीजा यही निकलना था। लेकिन 8 जून को सभी अखबारों ने फैसले को अप्रत्याशित घटनाक्रम की तरह पेश किया।

लगा जैसे, इन्हें पता ही नहीं हो कि फैसला क्या आने वाला है। सभी अखबारों को रवैया संगठित गिरोह की तरह रहा। सभी ने सरकार, सीबीआई और अदालत को कठघरे में खड़ा कर दिया। किसी ने अपने गिरेबां में नहीं झांका। हकीकत यह है कि गैस पीड़ितों के साथ हुए इस अन्याय के लिए मीडिया भी उतना ही बड़ा दोषी है, जितने दूसरे। इन पच्चीस सालों में मीडिया ने एक बार भी जनता को यह बताने की कोशिश नहीं की कि सरकार, सीबीआई और अदालत में क्या घाल-मेल चल रहा है।

अदालत का फैसला आने के पहले ही कानून के मामूली जानकार भी दोषियों को मिलने वाली सजा के बारे में जानते थे, लेकिन मीडिया ने फैसले को लेकर सरकार, सीबीआई और अदालत को जिस प्रकार से कटघरे में खड़ा किया है, उससे ऐसा लगा जैसे कोई अप्रत्याशित घटना घट गयी हो। यदि मीडिया भोपाल के गैस पीड़ितों का वास्तविक हितैषी होता तो जब 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 304 के तहत गैरइरादतन हत्या के मामले को बदलकर धारा 304ए के तहत लापरवाही से हुई मौत का दर्जा देकर दोषियों को छूट दी थी तभी सरकार पर दबाव बनाकर सुप्रीम कार्ट के फैसले को बदला जा सकता था, लेकिन शायद उस समय मीडिया को अदालत की अवमानना का भूत सता रहा था।

कानून के जानकार भी यही बात कह रहे हैं कि धारा 304ए में इससे अधिक सजा का प्रावधान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश ए.एच.अहमदी ने भी 1996 में अपने फैसले का बचाव करते हुए कहा है कि अगर कुछ ग़लत था तो किसी ने उसकी समीक्षा की मांग क्यों नहीं की। उनका मतलब साफ है कि यदि उसी समय सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर इतना हल्ला मच जाता, जितना अब मच रहा है तो वह कारगर साबित होता, लेकिन उस समय मीडिया में इतनी प्रतिस्पर्धा नहीं थी, जितनी अब है। यही कारण रहा कि मीडिया ने गैस पीड़ितों की आवाज़ बनने में संकोच किया, परिणाम सबके सामने है।

दूसरों के सर ठीकरा फोड़कर मीडिया अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। लेकिन अब लकीर पीटने से भी गैस पीड़ितों का कोई भला होने वाला नहीं है। तिल-तिल कर मर रहे गैस पीड़ित तो संगठनों, नेताओं और धंधेबाज़ अखबार वालों के लिए सिर्फ़ और सिर्फ एक मुद्दा बन कर रह गए हैं, जो समय-समय पर उछलता रहा है ओर उछलता रहेगा।

अरशद अली खान

भोपाल

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0 Comments

  1. sonu

    June 11, 2010 at 7:41 am

    arsad bhai
    apne lkir se hatkar bat ki. aj media ko khbar bechani hai… to is trasdi ki itni fikr dhikai. jab khabr dhanda nhi ta tab sahi patrkaro ko kisi ke marne ki kya fir thi… kora dhanda hai

  2. केशव पटेल

    June 9, 2010 at 7:50 pm

    25 साल के आंसूओं की कीमत 25 हजार
    जिंदगी देने वाले, मरता छोड़ गये, अपनापन जताने वाले तन्हा छोड़ गये, जब पड़ी जरूरत हमें अपने हमसफर की, वो जो साथ चलने वाले, रास्ता मोड़ गये… 178 लोगों के जुबान से निकला दर्द भी सरकार को नहीं पसीजा पाया. भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल बाद जो फैसला आया है उसने ना जाने कितनी उम्मीदों को मौत दे दी है. 25 साल तक न्याय की आस में अपनों को खो जाने का दर्द समटे लोगों की आंखों के आंसुओं का मोल लगा महज 25 हजार. ये है भारतीय न्याय प्रणाली. नरसंहार के लिए मिलने वाले दंड का स्वरूप अचानक ही दुर्घटना में बदल गया. वाह. 25 साल का समय कम नहीं होता. एक पूरी पीढ़ी तैयार हो जाती है. ना जाने कितने परिवार इस आस में जी रहे थे कि न्याय की देवी की तराजू में उनके आंसूओं का मोल कुछ तो होगा. महज 25 हजार के जुर्माने औऱ दो साल की कैद, ये सज़ा है मौत के सौदागरों की. साल दर साल जाने कितनी लड़ाइयों के बाद पीड़ितों का ये सपना टूट गया है. 25 साल से जहरीली गैस से प्रभावित लोगों की नरक यात्रा आज भी उनकी पीढ़ी झेल रही है. ऐसे में इस फैसले ने त्रासदी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे लोगों को जीते जी ही मार डाला है. मामले में मुख्य अभियुक्त वॉरेन एंडरसन आज भी फरार बताया जा रहा है. दुनिया के पापा अमेरिका ने उसे भारत को सौपने से इंकार कर दिया है. एक तरफ इस तथाकथित वैश्विक पापा की एक हुंकार पर बाकी के सारे देशों की पैंट गीली होने की नौबत तक आ जाती है. ऐसे में कभी यह अपराधी सज़ा पा सकेगा, यह भी एक सवाल है. क्या हम कभी इतने शक्तिशाली हो पायेंगे कि इस वैश्विक पापा के सामने सीना तान के वारेन नामक इस अपराधी को समर्पण के लिए कह सकें. ना जाने कब ये समय आयेगा. आयेगा भी या नहीं, कोई नहीं जानता है.
    यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन लिमिटेड की स्थापना से लेकर, गैस रिसाव और उसके बाद इस मामले की सुनवाई से लेकर फैसले के दिन तक हर बार लोगों की भावनाओं और उनके विश्वास को छला गया है. और इस फैलसे ने तो अब हमारे वैश्विक पप्पा के लिए एक दरवाजा औऱ खोल दिया है. जाहिर सी बात है, जब हमारे देश ने ही हमारे लोगों को छला तो फिर अमेरिका क्यों चाहेगा इस मामले को आगे बढ़ाना.
    सरकार है पूरी तरह से जिम्मेदार : 25 साल के इस लंबे समय का सबसे बड़ा कारण सरकार और यूनियन कार्बाइड कंपनी के बीच 1989 में हुआ एक समझौता है. इसके तहत कंपनी को दिसंबर 1984 की गैस त्रासदी से जुड़े सभी आपराधिक और नागरिक उत्तरदायित्वों से मुक्त कर दिया गया था. अदालत ने आठ में से सात दोषियों को दो-दो साल की सजा सुनाई है और प्रत्येक पर 1,01,750 रुपये का जुर्माना लगाया जबकि इस मामले में दोषी करार दी गई कंपनी यूनियन कार्बाइड इंडिया पर 5,01,750 रुपये का जुर्माना लगाया गया. त्रासदी के बाद के शुरुआती वर्षों में सरकार ने कंपनी और उसकी अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन पर आपराधिक मामले दर्ज करने की बजाए उसके साथ करार कर उसे हर तरह के उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया। ‘भोपाल गैस ट्रेजडी विक्टिम्स एसोसिएशन’ के अनुसार 14-15 फरवरी 1989 को हुए इस करार के तहत यूनियन कार्बाइड के भारत और विदेशी अधिकारियों को 47 करोड़ डॉलर की एवज में हर प्रकार के नागरिक और आपराधिक उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया गया. इस करार में कहा गया कि कंपनी के खिलाफ सभी आपराधिक मामले खत्म करने के साथ-साथ सरकार इस त्रासदी के कारण भविष्य में लगने वाले किसी भी आरोप से उसके अधिकारियों की हर प्रकार के नागरिक और कानूनी उत्तरदायित्व से हिफाजत भी करेगी। इसे सर्वोच्च न्यायालय ने अक्टूबर1991 में आंशिक रूप से खारिज कर दिया था.
    -केशव पटेल

  3. kabeer

    June 10, 2010 at 10:09 am

    ajeeb sanjog he ki ham log media ke is vilap pe charch kar hi rahe the ki bhadas4media.com par veh sari bate aagayi jin he lekar ham charcha kar rahe the.esa lag raha he jese lekhak ne hamare pas khade hokar hamari baten suni ho.lekin qa yah baat media valon ki samajh me nahi aati? 25 saal tak media kahan sota rha? or ab ges peediton ki durdasha par aansoo baharaha he.

  4. anand soni

    June 10, 2010 at 10:22 am

    आप एकदम सही कह रहे हैं। जिस समय यह हादसा हुआ तब भी मीडिया था और आज भी। पर आज तक कभी इसका रोना नहीं रोया कि अन्याय हुआ है। दरअसल मीडिया एक भेड़ चाल की तरह चलता है, जिधर को एक गई वहीं सारी चल पड़ती हैं। वैसे तो मीडिया अपने प्रभाव से बड़े से बड़े काम आसानी से करवा लेती है, पर आमजनों की भलाई वाला काम कभी नहीं करवाया जाता है। उदाहरण भोपाल से ही है, जहां एक झुग्गी बस्ती की कई एकड़ सरकारी जमीन को सिर्फ इसलिए खाली करवा लिया गया क्योंकि वो शहर के बीच में स्थित थी। उस बस्ती को शहर पर बदनुमा दाग बताया गया। महीनों तक अखबार स्याही से रंगे जाते रहे। नई आवासीय योजना तक बता डाली कि अगर वह जमीन खाली हो जाएगी तो वहां कॉलोनी बनाकर कितने लोगों की रहने की दिक्कत सुलझाई जा सकती है। लेकिन जो हुआ वो हैरान कर देने वाला था। जमीन खाली हुई और वहां एक बड़ी व्यावसायिक इमारत बन गई। यह इमारत एक अखबार की कंपनी की है। अब बताइए, इसमें जनहित है या जेबहित।

  5. अमित गर्ग. राजस्थान पत्रिका. बेंगलूरु

    June 10, 2010 at 12:05 pm

    मानवीयता जैसे शब्द हमारे लिए बेमतलब हो चुके हैं, जिसका परिणाम यह है कि अब हम किसी के दर्द को अपना दर्द नहीं समझते। और समझे भी क्यों, किसी के जख्मों से हमें क्या लेना-देना? भोपाल गैस त्रासदी में जो कुछ भी हुआ वह किसी भी नजरिए से अप्रत्याशित नहीं है। क्योंकि, जिन धाराओं में यह मामला विचाराधीन था, उनमें इससे अधिक सजा का प्रावधान है ही नहीं। इस त्रासदी के बहाने जो कुछ घटा है उसने हमारे प्रशासन तंत्र की स्थिति तो बयां की ही है न्यायपालिका का भी चेहरा उजागर कर दिया है। इन सबसे बढ़कर लोकतंत्र के चौथे पाये तथा आम आदमी के हथियार मीडिया की सच्चाई भी खुलकर सामने आ गई है। जितना समय हमने रोने-पीटने तथा अनर्गल आरोपों-प्रत्यारोपों में बर्बाद किया, अगर उसका आधा भी त्रासदी से प्रभावित लोगों से बात करने, मिलने में बिताते तो आज स्थिति कुछ और ही होती। मीडिया की कमजोरी का सबसे बड़ा कारण यहां कलमवीरों का भावनारहित होना रहा। शायद ये मीडिया की उस धारा के कलमवीर हैं जो अपने-आप को भगवान से कमतर नहीं आंकते। इनकी सोच के मुताबिक ये चाहें तो किसी का भाग्य संवार दें और यदि चाहें तो उसका जीवन बर्बाद कर दें। ये हम नहीं कह रहे हैं, ऐसा ये कलमवीर, जो आज की पत्रकारिता को चला रहे हैं, मानते हैं। हवेलियों-छतरियों के जरिए पुरा सम्पदा तथा वैभव को अपने-आप में आज तक आत्मसात किए हुए मध्यप्रदेश तथा उसके खूबसूरत शहर भोपाल में भी कमोबेश अन्य राज्यों की तरह भावनाएं मृतप्राय: हो चुकी हैं। खैर, इस त्रासदी में जिनके आंसू बहने थे उनके बह रहे हैं और पता नहीं कब तक बहेंगे? रही बात उन लोगों को न्याय दिलाने की तो ये तब तक संभव नहीं है जब तक हम उन्हें और उनके दर्द को अपना नहीं समझेंगे। अभी भी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा है। हम अब भी अपने लोगों का दर्द समझेंगे तो भी देर-सबेर न्याय दिलाने में सफल हो ही जाएंगे। खुदा के घर में देर जरूर है मगर अंधेर कतई नहीं।

  6. Shishupal Singh

    June 10, 2010 at 12:52 pm

    yeh baat bilkul sahi he ki 25 saal tak media sotaraha or aaj ensa lagraha he jense inse bada ham dard ges peediton ka dusra koi nahi he.sach baat to yeh he ki ab media men ek toosre se aage nikalne ki hod lagi hui he. sabhi akhbar or chenal apne astitv ki ladai lad rahe hen. akhbaar se adhik keemat dene ke baad bhi pathak inhen khareedne ko tayar naheen hen.bhopal men to patrkarita ke naam par dhndha ho raha he. tomar

  7. a n shibli

    June 10, 2010 at 1:12 pm

    bhopal gas kand ke peediton ko insaf nahin milne se ek baat phir sabit ho gayi hai agar qanoon ke haath lambe hote hain to qanoon andha bhi hota hai. jo faisla aaya hai us par jitna bhi afsos kiya jaye kam hai. ek baat ek bar phir saabit ho gayi ki paison ke bal par faislon ko apne paksh mein karna bharat mein sab se zyadah asan hai.

  8. Pawan

    June 10, 2010 at 1:13 pm

    Arshad Ji bilkul sahi Likha hai…………………Media Bhi biki hui hai us samay khabar dabane ke liye paisa Liya hoga or Ghadiyali aansu dikha kar jale per namak chidak rahi hai. Media ko choth Samvidhan ka istambh kaha jata hai per Aaj ke maximum reporter moka milne per Paisa khate or apni power ka dur-upyog kar shahan or prshashan ka apne liye bahut upyog kar rahae hai………………ye baat mai achhi tarha se janta hu konki mai bhi usi ka ek hissa hu………………Pawan

  9. Mohammed Tariq

    June 10, 2010 at 2:30 pm

    जिन लोगो ने १५००० लोगो को नींद में सुला देने वाले एन्डरसन भोपाल से फिर भारत से भगाने में मदद की उन सब को गिरफ्तार करा जाये क्योंकि भारतीय कानून के अनुसार अपराध में अपराधी का साथ देने वाला या अपराधी को छुपाना , उसे संरक्षण देना या उसे चोरी – छुपे मदद करना , शासकीय मिशनरी का अपराधी को भगाने में दूर उपयोग करने वाला , अपराधी को भागने में मदद करने वाला …. सभी अपराध की श्रेणी में आते हैं ..

  10. shalabh bhadoria

    June 10, 2010 at 3:11 pm

    arshad bhai me is baat ko bahut pehle likh chuka hon ki bhopal gas peediton ko lekar sarkar,sbi or niyayalay ka ravayya narm raha he.bahr haal aapne media ki bhumika ko lekar jo saval utay hen vo bilkul sahi hen.shalbh bhadoria

  11. papu

    June 11, 2010 at 4:31 am

    adalat ka fesla aane pehle bhi yadi media itna halla kar deta jitna ab karraha he to bhi adal fesla sunane se pehle kuch sochti.magar ab kakeer peetne se ziyada kuch nahi he.bapu

  12. prashant rajawat

    June 11, 2010 at 2:27 pm

    media ko dosi kahne walo apni gireban jhanka-kar dhekho.

  13. डॉ. पुरुषोत्तम मीणा राष्ट्रीय अध्यक्ष भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)

    June 20, 2010 at 11:22 am

    जिन्दा लोगों की तलाश!
    मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!

    काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
    =0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=

    सच में इस देश को जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।

    हमें ऐसे जिन्दा लोगों की तलाश हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।

    इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।

    अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।

    आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।

    शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-

    सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! अब हम स्वयं से पूछें कि-हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?

    जो भी व्यक्ति इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-

    (सीधे नहीं जुड़ सकने वाले मित्रजन भ्रष्टाचार एवं अत्याचार से बचाव तथा निवारण हेतु उपयोगी कानूनी जानकारी/सुझाव भेज कर सहयोग कर सकते हैं)

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
    राष्ट्रीय अध्यक्ष
    भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
    राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
    7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
    फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666

    E-mail : [email protected]

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