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‘पेड न्यूज’ का अर्थशास्त्र

हाल में ‘पेड न्यूज’ की बुराइयों पर राज्यसभा और मीडिया संगठनों में व्यापक चर्चा हुई है। लोग इस मत के हैं कि निष्पक्ष चुनाव के लिए व देश में लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए ‘पेज न्यूज’ के दानव पर नियंत्रण पाना आवश्यक है। ‘पेड न्यूज’ की खबरें पहले भी आती रहती थीं परंतु गत लोकसभा-विधानसभा चुनाव के बाद इस प्रथा की जोरदार चर्चा हुई। पिछले दिनों राज्यसभा में भी पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ के सांसदों ने ‘पेड न्यूज’ की खतरनाक प्रवृत्ति पर चर्चा की।

<p align="justify">हाल में 'पेड न्यूज' की बुराइयों पर राज्यसभा और मीडिया संगठनों में व्यापक चर्चा हुई है। लोग इस मत के हैं कि निष्पक्ष चुनाव के लिए व देश में लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए 'पेज न्यूज' के दानव पर नियंत्रण पाना आवश्यक है। ‘पेड न्यूज’ की खबरें पहले भी आती रहती थीं परंतु गत लोकसभा-विधानसभा चुनाव के बाद इस प्रथा की जोरदार चर्चा हुई। पिछले दिनों राज्यसभा में भी पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ के सांसदों ने ‘पेड न्यूज’ की खतरनाक प्रवृत्ति पर चर्चा की। </p>

हाल में ‘पेड न्यूज’ की बुराइयों पर राज्यसभा और मीडिया संगठनों में व्यापक चर्चा हुई है। लोग इस मत के हैं कि निष्पक्ष चुनाव के लिए व देश में लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए ‘पेज न्यूज’ के दानव पर नियंत्रण पाना आवश्यक है। ‘पेड न्यूज’ की खबरें पहले भी आती रहती थीं परंतु गत लोकसभा-विधानसभा चुनाव के बाद इस प्रथा की जोरदार चर्चा हुई। पिछले दिनों राज्यसभा में भी पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ के सांसदों ने ‘पेड न्यूज’ की खतरनाक प्रवृत्ति पर चर्चा की।

इस चर्चा में सरकार से अनुरोध किया गया कि इस कुरीति पर शीघ्रातिशीघ्र नियंत्रण पाया जाए। पहले तो कहा जाता था कि चुनाव में वही जीतता है जिसमें पास ‘मनी पॉवर’ और ‘मसल पॉवर’ होती है। अब यह खुलेआम कहा जा रहा है कि ‘मनी पॉवर’ और ‘मसल पावर’ के अलावा ‘मीडिया पॉवर’ बहुत आवश्यक है, क्योंकि मीडिया जिसमें ‘प्रिंट मीडिया’ और ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया’ दोनों शामिल हैं, चुनाव में किसी खास उम्मीदवार के पक्ष में दिन रात झूठी-सच्ची खबरें छाप कर या टेलीकास्ट कर उसके चुनाव जीतने के आसार को मजबूत कर देता है और उसके खिलाफ में जो लोग खड़े होते हैं उनके खिलाफ मनगढ़ंत कहानियां छापकर उनका बंटाधार कर देता है। अत: निष्पक्ष चुनाव के लिए यह जरूरी है कि मीडिया निष्पक्ष हो और उसके लिए ‘पेड न्यूज’ के दानव पर नियंत्रण पाया जाए।

‘पेड न्यूज’ की प्रथा कोई नई नहीं है। हां, पहले यह लुक-छिप कर होता था। अब खुलेआम हो रहा है। ‘पेड न्यूज’ एक बहुरूपिया है जो समय-समय पर अपना रूप बदलता रहता है। भारत में राजनीति में अनेक बुराइयां कुछ हिन्दी भाषी राज्यों से शुरू हुईं।

उदाहरण के लिए ‘बूथ कैपचरिंग’ की बुराई इन्हीं राज्यों से शुरू हुई जो धीरे-धीरे सारे देश में फैल गई। उसी तरह ‘पेड न्यूज’ की प्रथा इन्हीं हिन्दी राज्यों से शुरू हुई जो तेजी से सारे भारत में फैल रही है। 80 के दशक में कुछ हिन्दी भाषी राज्य सरकारें अपने जनविरोधी और मीडिया विरोधी कार्यो के लिए अलोकप्रिय हो गई थीं।

पूरे देश की मीडिया ने इनका कसकर विरोध किया था। इन राज्यों के मंत्रियों ने एक नया उपाय खोज लिया। सभी प्रांतीय समाचारपत्रों को विज्ञापन की आवश्यकता होती है। इन प्रांतीय समाचारपत्रों ने दागी मंत्रियों के भाषण और विभिन्न राजनीतिक मुद्दों पर उनके विचारों को ‘विज्ञापन’ के रूप में छापना शुरू कर दिया।

जो समाचार विज्ञापन के रूप में छपते थे उनके या तो ‘टाइप फेस’ अन्य समाचारों से अलग होते थे या एक ही ‘टाइप फेस’ रहने पर नीचे अत्यंत ही सूक्ष्म अक्षरों में ‘विज्ञापन’ छपा रहता था। ऐसा अधिकतर भाषायी समाचारपत्रों में होता था। समाचारपत्र के प्रबंधक और दागी मंत्री दोनों इस प्रथा से लाभान्वित हो रहे थे। धीरे-धीरे कुछ समाचारपत्रों ने ‘विज्ञापन’ शब्द छापना भी बंद कर दिया और आम पाठकों को ऐसा लगने लगा मानो यह समाचार ही है।

हिन्दीभाषी राज्यों में शुरू से भाषायी समाचारपत्रों का महत्व बहुत अधिक रहा है। हाल में भी अनेक प्रमाणिक सर्वे हुए हैं जिससे यह पता चलता है कि गांव-देहात में एक समाचारपत्र 20-30 व्यक्ति एक या दो दिन में पढ़ जाते हैं। फिर उन समाचारपत्रों में प्रकाशित समाचारों पर चौपाल या अन्यत्र चर्चा भी होती है।

ऐसे में यदि कोई समचार ‘पेड न्यूज’ की तरह प्रकाशित हो जाए तो ग्रामीण क्षेत्र में आम जनता और आम पाठक सच्चाई जान ही नहीं पाएंगे। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन आने पर धीरे-धीरे ‘बूथ कैपचरिंग’ तो रुक गई, परंतु उस्ताद लोगों ने अपने पक्ष में वोट डलवाने के नए उपाय खोज लिए।

जिन गांवों में उन्हें यह डर होता था कि गांव के अधिकतर लोग उसे वोट नहीं देंगे, उन्होंने वहां बम फोड़कर वोटरों को बूथ पर जाने से ही रोकना शुरू कर दिया। इसलिए ‘पेड न्यूज’ पर नियंत्रण पाने का यदि कोई उपाय सरकार द्वारा किया भी जाए तो दागी राजनेता उससे बच निकलने का उपाय खोज लेंगे।

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ऐसे मामलों में सारा लेन देन गुप-चुप तरीके से होता है। अत: प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के खिलाफ सुबूत मिल ही नहीं सकता है। ‘पेड न्यूज’ के दावन पर नियंत्रण पाने के लिए चुनाव कानून में व्यापक संशोधन करना होगा और समाचारपत्र तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कंट्रोल करने के बजाय मीडिया को ही समझा-बुझाकर स्वयं पर नियंत्रण पाने के लिए सरकार उनसे आचार संहिता बनाने का आग्रह करे, परंतु यह एक ऐसा रोग है जो केवल सरकार के प्रयास से ही ठीक नहीं होगा, आम जनता को भी इस दिशा में सजग होना होगा।

लेखक पूर्व सांसद और पूर्व राजदूत हैं. उनका यह आलेख दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ है. वहीं से साभार लेकर इसे प्रकाशित किया गया है.

 

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0 Comments

  1. Suruchi

    April 17, 2010 at 5:24 am

    Paid News chhapne valon kee aslee antarkatha media ka apna IPL ghotala hai . Poochhiye ki Jo doshi paye gaye vehee akhbar aaj bhi subse adhik kaise bik rahe hain ?. Bade niveshak unhemein poonjee kyon laga rhe hain ? Shatir ptrkar unko hee join karne ko kyon itne utsuk hain ?
    Bhaiyon yeh tilism bhee tabhee tootega jab ek yahan ka koi Malik Modi ek kisee Rasikshiromani Tharoor se ( akhbaree nahin , apnee vajahon se) ja bhidega .

  2. jaatak

    April 17, 2010 at 8:34 am

    areyy Yashwant ji is he the same gauri shankar rajhans, Ex-envoy to Laos & Combodia, Ex- MP Congress married to niece of Lalit Narayan Mishra former Railway Minister of India……
    if its so……then its really ironical……;))

    He, his wife Hema Rajhans and son Puneet Rajhans all were charged under section 498A of IPC :D:D:D ….Dowry matter…GOd knows truth of the case….but if the poor lady and her father, who workd at that time for BBC were right, then surely no else but mr. gauri shankar rajhans understands better THE ECONOMICS OF PAID NEWS…..LMAO…

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