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इंटरव्यू

श्वान रूप संसार है भूकन दे झकमार

[caption id="attachment_17701" align="alignleft" width="184"]अरविंद और अरुण कमलअरविंद और अरुण कमल[/caption]: साहित्य में शोषितों की आवाज मद्धिम पड़ी : अब कोई पक्ष लेने और कहने से परहेज करता है : अंधड़-तूफान के बाद भी जो लौ बची रहेगी वह पंक्ति में स्थान पा लेगी : समाज को ऐसा बनाया जा रहा है कि वह सभी विकल्पों, प्रतिरोध करने वाली शक्तियों से कट जाए :

अरविंद और अरुण कमल

अरविंद और अरुण कमल

अरविंद और अरुण कमल

: साहित्य में शोषितों की आवाज मद्धिम पड़ी : अब कोई पक्ष लेने और कहने से परहेज करता है : अंधड़-तूफान के बाद भी जो लौ बची रहेगी वह पंक्ति में स्थान पा लेगी : समाज को ऐसा बनाया जा रहा है कि वह सभी विकल्पों, प्रतिरोध करने वाली शक्तियों से कट जाए :

…वरिष्ठ कवि अरुण कमल से अरविन्द श्रीवास्तव की विभिन्न मुद्दों पर बातचीत. पेश है कुछ अंश….


-भूमंडलीकरण और बाजारवाद में आप युवा कवियों से क्या-क्या अपेक्षाएं रखते हैं?

–मुझे कभी किसी कवि से कोई अपेक्षा नहीं होती। कवि जो भी कहता है, मैं उसे सुनता हूँ। अगर उसकी धुन मेरी धुन से, मेरे दिल की धड़कन से, मिल गयी तो उसे बार-बार पढ़ता हूँ। दूसरी बात यह कि युवा कवि कहने से आजकल प्रायः किसी ‘कमतर’ या ‘विकासशील’ कवि का बोध होता है जो गलत है। दुनिया के अनेक महान कवियों ने अपनी श्रेष्ठतम रचनाएँ तब रचीं जब वे युवा थे। इसलिए हिन्दी के युवा कवि जो लिख रहे हैं मैं उसे हृदयंगम करने की योग्यता पा सकूँ, मेरा प्रयत्न यही होगा। अपेक्षा कवि से नहीं, पाठक से है।

-आप युवा कवियों के प्रेरणास्रोत रहे हैं। अपने लेखन के आरम्भिक दिनों आपने किनसे और कहाँ से प्रेरणा ग्रहण की?

–मैं कभी किसी का प्रेरणास्रोत नहीं रहा। अपने पहले के कवियों एवं बाद के कवियों- दोनों तरफ से मैंने प्रायः प्रहार झेले हैं, जिसका मुझे कोई गम नहीं है। मेरे प्रेरणास्रोत शुरू में धूमिल भी थे, फिर नागार्जुन-त्रिलोचन और निराला। मैं विस्तार से इस बारे में पहले कह चुका हूँ जो मेरी पुस्तक – ‘कथोपकथन’ में संकलित हैं। अभी मेरे प्रिय कवि निराला तो है हीं तुलसी, कबीर, गालिब, नजीर और शेक्सपीयर हैं। और सबसे प्रिय ग्रंथ ‘महाभारत’।

-‘अपनी केवल धार’ सहित आपके चारों कविता संग्रह में आपका सर्वोत्तम काव्य कर्म किसे माना जाएगा?

–मैंने जो कुछ लिखा, वो उत्तम भी नहीं है। अधिक से अधिक वह अधम कोटि का है। मैं अच्छा लिखना चाहता हूँ लेकिन वह मेरे वश में नहीं है। देखें, क्या होता है।

-इधर के पन्द्रह-बीस वर्षों में विशेषकर सोवियत संघ के विघटन के पश्चात समकालीन कविता लेखन में अगर कुछ विचारधारात्मक बदलाव आया है, तो उसे आप किस रूप में लेते हैं?

–आज कविता, साहित्य मात्र तथा कला और यहाँ तक कि राजनीति में भी राजनीति कम हुई है। मार्क्स के अनुसार राजनीति का अर्थ है वर्ग संघर्ष और सत्ता पर अधिकार के लिए दो वर्गों के बीच का संघर्ष। वर्ग-संघर्ष का स्थान अब जाति, क्षेत्र, लिंग, सम्प्रदाय आदि ने ले लिया है जो पूँजीवाद प्रेरित उत्तर आधुनिक दर्शन तथा व्यवहार का केन्द्र है। समाज में अनेक अन्तर्विरोध या अंतःसंघर्ष होते हैं, किसी को झुठलाया नहीं जा सकता।  लेकिन एक मुख्य अंतर्विरोध होता है जो मेरी समझ से आर्थिक है और इसलिए वर्ग-आधारित। आज के साहित्य में शोषितों यानी गरीबों की आवाज मद्धिम पड़ी है। मनुष्य को नष्ट करने वाले पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद का विरोध कम पड़ा है। इसका असर यह भी हुआ है कि किसी भी सामाजिक-आर्थिक प्रश्न पर यहां तक कि शुद्ध कलागत प्रश्नों पर भी, अब कोई पक्ष लेने और कहने से परहेज करता है। अगर आप सर्वेक्षण करके आज के लेखकों से पूछें कि उन्हें कौन से कवि पसंद हैं तो वे प्रायः खामोश रहेंगे। आप पिटते रहें पर वे तमाशा देखते रहेंगे। मुझे ब्रेख्त की कविता याद आती है जिसमें भाषण के अंत में वह आदमी मजमें में एक पुर्जा घुमाता है कि आप दस्तखत कर दो, लेकिन भीड़ छँट जाती है, कोई दस्तखत नहीं करता। पुर्जे पर लिखा था: ‘दो जोड़ दो बराबर चार’। आज बहुत कम लोग ऐसे हैं जो निडर होकर यह भी कह सकें कि उन्हें उड़हुल का फूल सुंदर लगता है।

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-समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में कविता समाज से कटती जा रही है. आलोचकों ने ‘कविता के बुरे दिन’ की घोषणा कर दी है, जब कि बड़ी आबादी कविता से उम्मीद लगाये हुई है? इस कसौटी पर नये कवि कहां खड़े दिख रहे हैं?

–मैं नहीं समझता कि कविता कटती जा रही है। बल्कि समाज ही कविता से कटता जा रहा है। समाज को ऐसा बनाया जा रहा है, बनाया गया है कि वह सभी विकल्पों, प्रतिरोध करने वाली शक्तियों से कट कर केवल ‘आईपीएल’ की शरण में चला जाए। जो भी रचना या शक्ति मुनाफे का विरोध करेगी, उसे बाहर कर दिया जाएगा। अगर करोड़ों लोग भूखे सो रहे हैं तो यह मत कहिए कि अन्न उनसे कट गया है, कहिए कि पूँजीवादी सरकार और व्यवस्था ने उनसे अन्न छीन लिया है। यही बात कविता और कला और विज्ञान के साथ भी है।

-साहित्यिक जगत खेमेबाजियों से ग्रसित होते जा रहे हैं। क्या इससे ‘नवलेखन’ प्रभावित होते नहीं दिख रहा?

–मुझे सबसे ज्यादा कोफ्त ऐसी ही बातों से होती है। साहित्य में, जैसे कि दर्शन और विज्ञान में, मूल्यों के बीच संघर्ष होता है। यह गुटबाजी नहीं है। यह खेमेबाजी नहीं है। मान लीजिए मुझे निराला प्रिय हैं। रामविलास शर्मा को भी। नामवर सिंह को। विश्वनाथ त्रिपाठी, नंद किशोर नवल, खगेन्द्र ठाकुर जी एवं परमानन्द जी को भी। शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन को भी। तो क्या इसे गुटबाजी कहेंगे? दूसरी तरफ आप लाख माथा पटकेंगे, फिर भी न तो मैं फलाँ जी को न अमुक जी को अच्छा कवि मानूँगा। आप कहेंगे यह तो जातिवाद है, यह तो विचार धारावाद है, यह तो गुटबाजी है। कहते रहिए लेकिन ”तजिए ताहि कोटि बैरी सम…….जाके प्रिय न राम बैदेहि।” साहित्य में खेमेबाजी नहीं होती। एक जैसा सोचने, पसंद करने, विश्वास करने वाले लोग एक साथ होते हैं, फिर भी लड़ते झगड़ते रहते हैं – यही होता।

-अभी युवा कवियों की भावधारा से आप कितना आशान्वित हैं? कौन से युवा कवि आपको आकर्षित कर रहे हैं?

–मैं शुरू में इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ। आपका पहला प्रश्न इस बारे में ही तो है। जब तक मैं किसी कविता को बार-बार न पढूँ तब तक प्रभावित नहीं होता। बहुत से प्रतिभाशाली कवि हैं उन्हें ‘काँटों की बाड़ी’ में अपना रास्ता ढूंढने दीजिए जो सबसे ज्यादा लहूलुहान होकर आएगा वही मेरा प्रिय होगा। जो ‘कागद की पुड़िया’ भर होगा वह गल जाएगा।

-इधर नई कविताओं में नये-नये प्रयोग हो रहे हैं, इसे रंगमंच पर खेला जा रहा है, पेंटिंग, पाठ और संगीत के माध्यम से आमजन तक पहुंचाया जा रहा है इसे आप किस रूप में लेते हैं? क्या इससे मूल कविता की गरिमा का अवमूल्यन तो नहीं हो रहा है?

–मूल कविता अपनी जगह अक्षत होती है। बाकी उसके अनेक पाठ या रूपांतर होते हैं; जितने पाठक उतने पाठ – ठीक ही तो है फिर भी वह मूल पात्र ज्यों का त्यों दूध से भरा होता है, सबके छकने के बाद भी।

-आज युवा कवियों द्वारा कविताएँ लिखी जा रही है उसे ‘उत्कृष्ठता की विश्व मानक कसौटी’ पर कितना खड़ा पाते हैं? हिन्दी कविताओं का अनुवाद विश्व की अन्य भाषाओं मे हो, इस दिशा में हो रहे कार्य से आप कितना संतुष्ट दिखते हैं?

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–अभी तक तो निराला के भी अनुवाद नहीं हुए। मुझको नहीं मालूम कि प्रसाद, पंत, महादेवी या मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर का ही कितना अंग्रेजी में भी अनुदित है, दूसरी भाषाओं को यदि छोड़ भी दें। हिन्दी क्षेत्र के अंग्रेजी विभागों का पहला काम यही होना चाहिए तथा अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को भी हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहिए। हर महान कविता पहले अपनी भाषा में महान होती है।

-पुरस्कार पाने की ललक नये कवियों में दिखने लगी है, इससे उसकी रचनाधर्मिता प्रभावित होती है, वे शार्ट-कार्ट रास्ता अपनाने लगे हैं। किसी कवि की कविता का उचित मूल्यांकन हो इस दिशा में किस पहल की जरूरत है?

— पुरस्कार – पद – सम्मान, या निरन्तर विरोध, या उपेक्षा – ये सब इस कविता के भव के भाग हैं। जो सच्चा कवि है उसके लिए पुरस्कार और प्रहार दोनों बराबर है। जो पिटा नहीं, जो लगातार पिटा नहीं वह कवि कैसा?, जिसका अर्थी – जुलूस जितना ज्यादा निकले उसकी आयु उतनी ही ज्यादा होगी। कोई मूल्यांकन अंतिम नहीं होता।

-गांव-कस्बे एवं छोटे शहरो के कवियों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने के लिए राजधानियों के चक्कर लगाने पड़ते हैं? वे राष्ट्रीय क्षितिज पर उपेक्षित महसूसते हैं?

–जो पहचान बनाने के लिए व्यग्र हैं वह कवि नहीं हैं। जो कवि होगा वो केवल कविता रचेगा।

-युवा कवियों की कविताएँ ब्लॉग पर आ रही हैं। डा. नामवर सिंह और विभूतिनारायण राय आदि ने ब्लॉग को सहित्य का हिस्सा माना है। युवा ब्लॉगरों से आपकी अपेक्षाएँ?

–मैं साधारण आदमी हूँ और कम्प्यूटर का ज्ञान मुझको नहीं है, दुनिया का सबसे सस्ता माध्यम लेखन है यानी कागज और कलम। मेरी दुनिया कागज कलम तक ही सीमित है।

-केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी आदि की परम्परा में आगे आप किन युवा कवियों को देखते हैं?

–आपने जिन कवियों की सूची देकर परम्परा बनाने का प्रयत्न किया है उनमें से कम से कम एक मेरा नाम हटा दें। मैं उस पंक्ति का, उस पद का अधिकारी नहीं हूँ। इसे विनम्रता नहीं वास्तविकता माना जाए। दूसरी बात यह कि ये सारे कवि अभी भी सौभाग्य से सक्रिय हैं। परम्परा पीछे से बनती है। जो लोग बाद में लिख रहे हैं उन्हें अभी थोड़ा लिखने दीजिए। अंधड़-तूफान के बाद भी जो लौ बची रहेगी वह पंक्ति में स्थान पा लेगी।

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-आपने साहित्य में कई मुकाम हासिल किये, कुछ ऐसा लगता है जो आप करना चाहते थे वह नहीं कर पाए?

–हाँ, जैसा मैंने अभी कहा, मैं अभी भी बस लिखने की कोशिश में हूँ। जो चाहा वह नहीं हुआ।

-गत दिनों विष्णु खरे साहब ने कुछ कवियों की कविताओं पर प्रश्न चिन्ह लगाया था, सवाल खड़े किये थे…

–एक पंक्ति है मीर की- ‘कुफ्र कुछ चाहिए इस्लाम की रौनक के लिए’। और कबीर की पंक्ति है- ‘श्वान रूप संसार है भूकन दे झकमार’। मुझे ‘मीर’ और ‘कबीर’ प्रिय हैं मैं उन्ही की आवाज के पर्दे में अपना काम करता हूँ.


इंटरव्यू करने वाले अरविंद श्रीवास्तव के बारे में ज्यादा जानकारी उनके ब्लाग जनशब्द से पा सकते हैं.

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0 Comments

  1. LouiseDejesus31

    February 2, 2011 at 2:27 am

    That is well known that money can make people autonomous. But how to act when someone doesn’t have cash? The one way only is to try to get the personal loans or consolidation loan.

  2. VondaMaddox

    April 21, 2011 at 10:44 am

    Don’t you recognize that it’s correct time to receive the loans, which will make your dreams come true.

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