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और मैं असफल हो गया!

[caption id="attachment_15379" align="alignleft"]आशीष जैनआशीष जैन[/caption]आशीष जैन प्रतिभाशाली-संवेदनशील युवा पत्रकार और ब्लागर हैं। आशीष पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद देश के तेज चैनलों में से एक में इंटर्न बने। वहां उन्होंने जो कुछ सीखा और भोगा, उसे उन्होंने शब्दों का रूप दिया है। अपनी भावनाओं को उन्होंने भड़ास4मीडिया के पास लिख भेजा है। उनके लिखे को, उनकी सोच को हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इस संस्मरण नुमा आलेख में आशीष ने चैनलों के भीतर के असली सच को बयान किया है। चैनलों के स्थापित जर्नलिस्ट किस तरह से नए लोगों के साथ व्यवहार करते हैं, किस तरह बड़े मीडिया हाउसों द्वारा नए लोगों का इस्तेमाल किया जाता है, किस तरह किसी को नौकरी दी जाती है और किस तरह किसी को अच्छा काम करने के बावजूद बाय-बाय बोल दिया जाता है, यह सब आशीष ने अपने इस संस्मरण में लिखा है। आशीष की आंख के आंसू दरअसल पत्रकारिता की उस नई पीढ़ी के आंसू हैं जो आदर्शवादी नजरिए के आधार पर मीडिया में कदम रखती है पर मीडिया के भयानक बाजारीकरण से उसके आदर्श और सपनों के कई खंड हो जाते हैं। पेश है आशीष की आपबीती, आशीष के ही शब्दों में –

आशीष जैन

आशीष जैनआशीष जैन प्रतिभाशाली-संवेदनशील युवा पत्रकार और ब्लागर हैं। आशीष पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद देश के तेज चैनलों में से एक में इंटर्न बने। वहां उन्होंने जो कुछ सीखा और भोगा, उसे उन्होंने शब्दों का रूप दिया है। अपनी भावनाओं को उन्होंने भड़ास4मीडिया के पास लिख भेजा है। उनके लिखे को, उनकी सोच को हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इस संस्मरण नुमा आलेख में आशीष ने चैनलों के भीतर के असली सच को बयान किया है। चैनलों के स्थापित जर्नलिस्ट किस तरह से नए लोगों के साथ व्यवहार करते हैं, किस तरह बड़े मीडिया हाउसों द्वारा नए लोगों का इस्तेमाल किया जाता है, किस तरह किसी को नौकरी दी जाती है और किस तरह किसी को अच्छा काम करने के बावजूद बाय-बाय बोल दिया जाता है, यह सब आशीष ने अपने इस संस्मरण में लिखा है। आशीष की आंख के आंसू दरअसल पत्रकारिता की उस नई पीढ़ी के आंसू हैं जो आदर्शवादी नजरिए के आधार पर मीडिया में कदम रखती है पर मीडिया के भयानक बाजारीकरण से उसके आदर्श और सपनों के कई खंड हो जाते हैं। पेश है आशीष की आपबीती, आशीष के ही शब्दों में –

 सपने चकनाचूर होते देख आंखों में पानी भर आया

जब आठवीं क्लास में था, उस वक्त सोचा बड़ा होऊंगा तो मैं भी कुछ कर दिखाऊंगा। आज बड़ा हो गया हूं। मेरा शरीर तो बड़ा हुआ लेकिन सच यही है कि मैं आज तक बड़ा नहीं हो पाया। जिंदगी में जो कुछ चल रहा है, वह सब शानदार तो कदापि नहीं। आज अपने आफिस में बैठा हुआ था। अचानक एक एंकर मेरे पास आया। न जाने क्यों, बस ऐसे ही बड़ी ही संजीदगी से हाथ मिलाते हुए उसने कहा कि कैसे हो। मैंने अपने आप को ऊपर से लेकर नीचे तक देखा। सोचा क्या बात है भाई? शायद बड़ा हो गया हूं, पर दूसरे ही पल यह समझ में आया कि साथ में मेरी दोस्त बैठी हुई थी, इस वजह से मुझे इतना सम्मान मिल रहा है। जिस एंकर ने मेरे से अभी हाथ मिलाया था, मेरी कुर्सी की बगल में अपनी कुर्सी लगाकर बैठ गया और शुरू हो गया…..और क्या चल रहा है? मेरा मन बस इसी उधेड़-बुन में लगा हुआ था कि यह बदलाव कैसा? आखिर यह हो क्या रहा है? जनाब मेरी मित्र से बात करने लगे। तरह तरह की बातें। मैं थोडी देर के लिए उठ कर चला गया। जब वापस आया तो देखा कि उनका बेतहाशा वार्तालाप अब भी जारी है। पास गया तो बॉय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड की बातें कर रहे एंकर जी बड़ी ही संजीदगी से उससे पूछ रहे थे कि ‘कोई बॉय फ्रंड है आपका?’.

मुझे मेरे सवालों का जवाब मिलने लगा। लोग कहते हैं कि यह कारपोरेट जगत है। यहां मैंने कइयों को अपना बनाना चाहा, लेकिन यहां भावनाओं की कोई कद्र नहीं होती। न्यूज चैनल में बदलते लोग, बदलती सूरत और बदलते स्वभाव का मतलब क्या होता है, मैं समझ नहीं पाया। मेरा मकसद कुछ और था पर आज जिस तर्ज पर और जहां मैं खडा हूं, वहां से एक सुखद एहसास बिलकुल नहीं होता। जिन्दगी को एक नई सोच के साथ हर सुबह जीने की कोशिश करता हूं, पर हर शाम को हार ही मेरे हाथ लगती है। मुझे मालूम है कि ये नाजुक संतुलन, ये खूबसूरत लचीलापन, ये शानदार काया और यह मेहनत, एक बड़े कारोबार के लिए है। यह बाजार है। पत्रकारिता का कोई अर्थ यहां नहीं रह जाता। प्रभाष जोशी के नए आक्रामक लेख मुझे उतेजित कर रहे हैं। मैं उनके साथ खड़ा हूं, लेकिन सच यही है कि मैं निर्दोष नहीं हूं। कीचड़ में पड़े किसी पत्ते की तरह मैं पानी के डालने पर साफ नहीं हो सकता। मैं अपने हाथ-पांवों को छटपटाने की कोशिश कर रहा हूं। मैंने भी लोकतंत्र के नए स्तंभ में सेंध लगाई है। मैंने भी खबरों को बेचने में अपनी भूमिका निभाई है। मैं निर्दोष बिल्कुल नहीं।

मैंने पत्रकारिता की शुरुआत में एक प्रतिष्ठित अखबार में इन्टर्नशिप की। उसके बाद सबसे तेज यानी फ्री टाइम्स न्यूज चैनल (काल्पनिक नाम) गया। खुद को सौभाग्यशाली मानने लगा। फ्री टाइम्स में इन्टर्न था। वहां कई बार ऐसा हुआ कि कोई गेस्ट आया है तो उसका ब्रीफकेश लेकर बाथरूम के बाहर खड़ा रहा, क्योंकि इसे हमारा फर्ज बताया गया था। मेहमानों की खातिरदारी मैंने इन्टर्न के दौरान ही सीखी। मुझे याद है,  जिसे आप बेहतर पत्रकार, बेहतर एंकर मानते हैं, उसने मेरे दोस्त से चीख कर कहा था- ऐ लड़के यहां आओ। मुझे विश्वास नहीं हुआ। जिन्हें अपना आदर्श मानता हूं, उनका यह कौन-सा रूप है? उस पत्रकार ने मेरे दोस्त से कहा कि यह लो पांच रूपये और मेरे लिए कचौड़ी ले आओ। मैं सवालों में डूब चला कि यह सब क्या हो रहा है? फ्री टाइम्स न्यूज चैनल में 45 दिनों तक ही इन्टर्न मिलती है, पर मुझे छह महीने की इन्टर्न मिली। खुश था कि जिन्दगी में जिन्हें कभी अपना आदर्श माना था, वह मेरी आंखों के सामने हैं। कई बार दिल ने कहा कि कही यह आंख का धोखा तो नहीं है!

अपने आप को किसी जानवर की तरह नोच कर न जाने क्यों इतराता रहा कि यह जो चल रहा है,  सब हकीकत है। फ्री टाइम्स में मैंने बहुत कुछ सीखा, लेकिन हकीकत यही है कि कोई कभी नहीं सिखाता। जिन लोगों के साथ मैं सीख रहा था, मैं जानता था कि वो हिन्दुस्तान के बड़े लोग हैं, जिनका नाम मीडिया में अदब के साथ लिया जाता है। मैं अपने लेख में नहीं चाहता कि उनका नाम उजागर करूं। खैर, कहानी को आगे बढाते हैं। फ्री टाइम्स में जिस दौर में था, मैं अपनी भूमिका को जानता था। एक ऐसी भूमिका, जहां आपको कोई काम नहीं देगा। आपको पीछे बैठकर सीखना है। अगर कोई डांट दे तो आप सिर्फ सुबक सकते हैं। अगर आफिस नहीं आते तो कोई बात नहीं, कोई पूछने वाला नहीं, लेकिन मुझे भी मौका मिला। मैं फ्री टाइम्स में पहले टिकर और स्ल्ग्स की गलतियों को देखता था। मुझे लगने लगा था कि यहां शायद जॉब का भी चांस मिल जाए। हमने सोचा, मेहनत से काम करेंगे, खूब मन लगाकर काम करेंगे, इतना करेंगे कि लोग हमको नोटिस करने लगें। बस कुछ ही दिनों में मोटी सी फाइल बनाकर हमने अपने हेड को फॉरवर्ड कर दी। सोचा, बॉस खुश तो शायद कुछ बात बन जाए। दो महीने तक यही सिलसिला चलता रहा।

हमें बताया गया कि अब रात में आना है। सोचा, फ्री टाइम्स में रात को इन्टर्न नहीं आ सकते, लेकिन हमें परमिशन दी गई, यह संकेत मेरी जॉब को लेकर भी हो सकता है। उस रात मैं सो नहीं पाया। मैं रात की शिफ्ट में आने लगा। उस दिन मैंने सभी दोस्तों को फोन किया। सबको बता दिया कि तेरा भाई अब नौकरी पाने वाला है। मां और पापा को अपने बेटे पर नाज होने लगा- शायद बेटा बड़ा हो गया है। वक्त बीत रहा था। मुझे दो महीने से ज्यादा हो गए थे। हमें साफ तौर कहा गया कि आप सिर्फ राजू श्रीवास्तव के विजुअल्स ही निकालेंगे। मैं जानता था कि पत्रकारिता बदल रही है। राजू उन दिनों बहुत बिक रहा था। वक्त की यह नई पत्रकारिता मुझे भटका रही थी। कभी हमारे सर कहा करते थे कि जो बाजार के साथ नहीं चलता, बाजार उसे बर्बाद कर देता है। शायद यह बात मेरे चैनल वाले भी जानते हैं। यही सोच कर मैं चला आया। मुझे आये हुए चार महीने हुए थे। मेरे लिए हालात अब बदल रहे थे, क्योंकि फ्री टाइम्स के मीडिया इंस्टीच्यूट के स्टूडेंट आने वाले थे। जब पहली बार वे फ्री टाइम्स में आये तो कई चीजों के बारे में नहीं जानते थे। काफी कुछ उन्हें मैंने बताया।

मैं उनकी मदद करना चाहता था। मैंने उन्हें वह सब सिखाया, जो फ्री टाइम्स में बड़ी मुश्किल से सीखा था।  दूसरी ओर, मेरी मेहनत भी जारी थी। अब वक्त को करवट बदलना था। मुझसे कहा गया कि आप अपने हेड से मिल लें। मैं दिन में पहुंचा मिलने। उन्होंने कहा कि आप का काम अच्छा है। मैं मन ही मन खुश होने लगा। अचानक दूसरे ही पल उन्होंने कहा- ”ठीक है, अब आपकी इन्टर्न खत्म हो रही है। मैं एचआर में फोन कर देता हूं। कल आकर अपना लेटर ले जाना।”

मैं सन्न रह गया। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। जैसे कोई फिल्म फ्लैश बैक में जाती है, लगभग वैसे ही। मुझे अपनी सर्दियों की रातें याद आने लगीं। मुझे वो बातें याद आने लगीं जो मुझे बड़ा करती थीं। अचानक सर ने पूछा- अरे आप का नाम क्या है? तभी न जाने क्यों, वो इज्जत जो मैं उन लोगों की करता था, पानी में चली गई। जिन लोगों के लिए मैं रात भर मेहनत करता रहा, उनको मेरा नाम तक याद नहीं।

मैंने कहा- ”सर नौकरी का कोई चांस नहीं?”

उन्होंने कहा- ”नहीं यार, यहां कहां। पॉसिबल नहीं। हमारा मीडिया संस्थान है। वहां देख लो।”

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मैं जानता था कि जिन लोगों के साथ मैं काम कर रहा था, वे बहुत बड़े हैं, लेकिन वे इतने बड़े हैं, मैं नहीं जानता था। मैं घर जाकर क्या जवाब दूंगा, पापा के सपनों को किस तरीके से चकनाचूर होते हुए देखूंगा? बस आंखों में पानी भर आया और इन सब बातों ने कब आंसुओं का आकार ले लिया …कुछ पता ही नहीं चला। मैं असफल इनसान बन चुका था। वो इंसान, जो हार रहा था इस बाजार से …और अपने आप से। सोचा, मैं घर क्या चेहरा लेकर जाऊंगा? अब बस यही सवाल था। घर गया। मन विचलित था। मम्मी ने कहा- क्या हुआ? मैं उसके आंचल में सिमटने लगा। मां को यह समझने देर न लगी कि ऑफिस में कुछ गलत हुआ है। मां को बताया। मां तो मां है, बेटे के गाल सहलाते हुए बोली- कोई बात नहीं बेटा।

अब पत्रकारिता का भूत उतरने लगा है। उस दिन मैं जल्दी सो गया। अगले दिन जल्दी उठना था। आफिस जाना था, काम पर नहीं, अपना लेटर लेने। लेटर लेकर जब लिफ्ट से उतर रहा था तो खुशी से सराबोर एक ग्रुप सातवीं मंजिल से नीचे आ रहा था। मैंने अचानक थमकर सिर उठाया, अरे तुम? ये लोग उस चैनल से थे। उन्होंने पूछा- सर जॉब मिल गई? मैंने कहा- क्या बात है? उन्होंने दूसरा सवाल पूछा- आपका क्या हुआ? मैंने अपने हाथ का लेटर उनके हाथ में थमा दिया और आंखें नीचे झुका कर कहा- मेरी इन्टर्न खत्म हो गई है। उस बात को अब वक्त बीत गया है। अब, जब उस चैनल को देखता हूं तो वे लोग एंकर, रिपोर्टर, विश्लेषक बन गए हैं, जिन्हें अपने हाथों से समझाया था कि यह फ्रेम होता है, यह सेकेंड होता है और यह…

और यह घंटा होता है।

वे अब बड़े हो गए हैं, लेकिन मैं? 

मंजिल पर जो पहुंच गए, उनको तो नहीं है नाज़ ऐ सफ़र,

जो दो कदम भी चले नहीं, वे रफ्तार की बातें करते हैं!


आशीष जैन से संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं.

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0 Comments

  1. kush

    July 9, 2010 at 7:13 am

    hiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii

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