यशवंत जी, हिंदुस्तान के प्रधान संपादक शशि शेखर पर केंद्रित आपका लेख पढ़ा। आपसे एक सवाल है कि बदलाव के प्रति इतनी पूर्वाग्रह से ग्रसित सोच क्यों? दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है। इसका प्रभाव हर क्षेत्र में दिख रहा है। आप भी लिट्टी-चोखा की बात करते रहते हैं पर क्या आप लैपटाप से परहेज करते हैं? क्या ऐसे बदलाव के प्रति पीठ किए रहना सबसे श्रेष्ठ काम है? आपने भी तो पुरानी बातों को नहीं ढोया। आपने पत्रकारिता की मुख्यधारा को इनकार कर दिया और भड़ास के संस्थापक संपादक बने। भड़ास की लोकप्रियता का कारण क्या है? बदलाव ही न। कुछ नया किया गया, कुछ नए तरीके से किया गया। खबर बनाने वालों की खबरें बनाई गईं और आप हिट हो गए।
खुद आप भी तो परंपरा की पोटली नहीं ढोते रहे न? अगर पत्रकारिता में होते कहीं चीफ सब या डीएनई ही तो होते। आप अलग दिखे तो बाजार में आपकी पहचान बनी। यह होता है बदलाव- कुछ नया करना, नए रंग-ढंग में करना। आपने रिटायरमेंट की उम्र को लेकर भी कुछ बात की है। 58 में सेवानिवृत्ति में इतना हंगामा नहीं होना चाहिए क्योंकि जब पुराने पत्ते झड़ेंगे तभी तो नया जन्म लेना न। नए के पल्लवित-पुष्पित होने के लिए कुछ पुराने को तो जाना ही होगा। कल हम भी जाएंगे और नई ऊर्जावान पीढ़ी हमारी जगह आएगी और इस रथ को आगे बढ़ाएगी- बढ़ाती रही है। यह कहीं से गलत नहीं है।
बदलाव का यही संस्कार होता है कि जो लोग भी नई जगह पर जाते हैं, अपने साथ कुछ नया लेकर जाते हैं। मेरा मानना है कि संस्थान उनसे कुछ नए प्रयोग की अपेक्षा भी रखता है। यह बात अमर उजाला या हिंदुस्तान की नहीं है। जो लोग किसी और अखबार से हिंदुस्तान आए हैं, वे एक बदलाव लेकर आए हैं और जो लोग हिंदुस्तान से अमर उजाला या कहीं और जा रहे हैं वे भी एक बदलाव लेकर जाएंगे। हर प्रोफेशनल से यह अपेक्षा की जाती है। हर संस्थान अपने साथ जुड़ने वाले व्यक्ति से यह अपेक्षा रखता है कि उसके कदम का प्रभाव कामकाज में दिखे। यह अपेक्षा कहीं से आपत्तिजनक नहीं है। हम हर बात को तानाशाही और सत्ता जैसी बातों से आखिर क्यों जोड़कर देखने लग जाते हैं? क्या हमारा चीजों को देखने-समझने का यह तौर-तरीका सही होता है?
दुनिया में पहले राजा-महाराजा हुआ करते थे। उनकी निर्धारित व्यवस्था ही चला करती थी। जरा आज के दौर में उस व्यवस्था की प्रासंगिकता सोचकर देखिए। क्या लोकतंत्र को किनारे कर राजतंत्र लाया जाए? क्या आप पुरानी बातों को पकड़े रहने के नाम पर इन बातों के पक्ष में खड़े होंगे? क्या परंपरा के नाम पर इस जनसंघर्ष की अगुवाई आप करेंगे, करना चाहेंगे?
जवानी का जिक्र करते हुए आपने बड़ी महान बात कही है। यह सच है। हम सब रोज देखते हैं कि लोग दुनिया से विदा होते हैं पर हम सोचते हैं कि हम हैं और शायद हमेशा रहेंगे। तो क्या दुनिया को जीना छोड़ दें? आज से बस मातम मनाने में लग जाएं? दुनिया में बदलती चीजों को किनारे कर आत्ममुग्ध रहें, क्या करें? क्या करना चाहिए? मेरे विचार से जो दुनिया की गति के साथ नहीं चलता, स्वतः किनारे हो जाता है। उसे किनारे करना नहीं पड़ता। इस बदलाव के साथ दौड़ते हुए बदलते रहना ही समय की जरूरत है। जीवन को इसी दर्शन के साथ जीना चाहिए। जीवन जीने के लिए और एक प्रोफेशनल के रूप में बाजार में बने रहने के लिए यह जरूरी है।
लेखक अवधेश पांडेय हिंदुस्तान, पटना में वरिष्ठ उपसंपादक हैं.