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साहित्य

अयोध्या विवाद : एक पत्रकार की डायरी (1)

[caption id="attachment_17142" align="alignleft"]अरविंदअरविंद[/caption]अयोध्या से बहुत करीब ही बस्ती जिले की सीमा में मेरा गांव पड़ता है। गांव के पड़ोस में ही सरयू नदी बहती है और कई बार वहां से अयोध्या की झलक भी साफ-साफ दिख जाती है। दूसरी तरफ मनोरमा और रामरेखा नदी हैं। ये दोनों छोटी पर ऐतिहासिक महत्व की नदियां हैं। हमारे गांव से ही कभी-कभी हिमालय के दर्शन भी हो जाते हैं। बचपन में अयोध्या के मेले में मैं कई बार गया।

अरविंद

अरविंदअयोध्या से बहुत करीब ही बस्ती जिले की सीमा में मेरा गांव पड़ता है। गांव के पड़ोस में ही सरयू नदी बहती है और कई बार वहां से अयोध्या की झलक भी साफ-साफ दिख जाती है। दूसरी तरफ मनोरमा और रामरेखा नदी हैं। ये दोनों छोटी पर ऐतिहासिक महत्व की नदियां हैं। हमारे गांव से ही कभी-कभी हिमालय के दर्शन भी हो जाते हैं। बचपन में अयोध्या के मेले में मैं कई बार गया।

उस दौरान की अयोध्या की रौनक की यादें आज भी दिलो-दिमाग में ताजा हैं। अयोध्या के मेले में एक बार खो भी गया था। पर वे दिन और थे और तब अयोध्या दुनिया भर में उतनी विख्यात नहीं थी जितनी राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के गरमाने के बाद हुई। अब तो बहुत से लोगों को राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद ही अयोध्या का पर्याय ही लगता है लेकिन सच्चाई यह नहीं है। एक दौर वह भी था जब देश के तमाम हिस्सों से हजारों लोग शांति की तलाश में अयोध्या पहुंचते थे और महीनों रुकते भी थे। पर खास तौर पर 1989-90 के बाद खास मौकों पर अयोध्या किसी सैनिक छावनी जैसी लगती है। अयोध्या की कई ऐतिहासिक इमारतों पर उग रहे झाड़-झंखाड़ की फिक्र भले ही किसी को न हो पर यहां  सुरक्षा तामझाम पर करोड़ो रूपए खर्च हो रहे हैं। बीते तीन दशकों के अयोध्या के बदलाव का मैं साक्षी रहा हूं।

जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहा था तभी 1983-84 में इलाहाबाद में जनसत्ता का संवाददाता नियुक्त हो गया। कुछ समय बाद फैजाबाद मंडल का काम भी  मेरे पास आ गया। उसके बाद दिल्ली में चौथी दुनिया, अमर उजाला और जनसत्ता एक्सप्रेस में रहने के दौरान भी मैं अयोध्या विवाद से जुड़े विभिन्न आयोजनों को कवर करता रहा और अयोध्या के साथ विभिन्न धर्म नगरियों का भ्रमण भी करता रहा। अमर उजाला में तो एक दशक से अधिक के मेरे कार्यकाल का काफी हिस्सा अयोध्या विवाद को कवर करते हुए ही बीता था। शिलान्यास से लेकर तमाम मंदिरों के ध्वंश और अंततोगत्वा बाबरी मस्जिद ध्वंश से लेकर बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाओं और अयोध्या के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने उतार-चढ़ाव का भी मैं साक्षी रहा हूं।

अयोध्या विवाद: एक पत्रकार की डायरी वस्तुत: आंखो देखी घटनाओं का ब्यौरा है। इनका अपना ऐतिहासिक महत्व है क्योंंकि पुस्तक में विभिन्न कालखंडों और परिस्थितियों का तिथिवार ब्यौरा दिया गया है। वैसे तो अयोध्या पर पुस्तक लिखने के लिए बीते कई वर्षों से मेरे मुझे जोर देते रहे हैं। उनका कहना था कि अयोध्या और उसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आपने इतना काम किया है तो आपको किताब लिखनी चाहिए। इतिहास और पुरातत्व का विद्यार्थी रहने के नाते मैने इसके विभिन्न पक्षों पर बारीकी से देखने का प्रयास भी लगतार किया था। अपने पूर्व संपादक श्री संतोष भारतीय और श्री संजय सलिल के सुझाव पर 1993-94 के दौरान विश्व हिंदू परिषद की पड़ताल करते हुए  एक किताब लिखने की शुरूआत भी मैने की थी पर अतिशय व्यस्तता के नाते, काम आगे बढऩे के बावजूद  किताब अधूरी रही। कुछ माह पूर्व मेरे मित्र और विख्यात रचनाकार श्री पंकज चतुर्वेदी और श्री ललित शर्मा ने दबाव बनाया कि आपने इस विषय पर इतना काम किया है तो उसे संकलित कर तिथिवार संपादन के साथ किताब लिखनी चाहिए। यह इस विषय पर अनुसंधान करने वालों के साथ ही मीडिया के छात्रों और आम पाठकों सबके लिए उपयोगी होगी। इस बीच में मेरे साथी श्री त्रिलोकीनाथ उपाध्याय ने कुछ विशेष रिपोर्टो को लिखवा कर पुस्तक की भूमिका तैयार करने में मेरी मदद की।

मुझे पहले लगता था कि जब पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्री पी.वी. नरसिंहराव से लेकर फैजाबाद के पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक स्व. डी. बी. राय तक की किताबें इस विषय पर आ चुकी हैं तो एक और किताब का औचित्य क्या है? पर इन किताबों को पढऩे के बाद मैंने पाया कि इनमें जमीनी हकीकत के बजाय अपने को सही साबित करने का प्रयास अधिक था। मैंने तो जो घटनाएं अपनी आंखों से देखी हैं, वे सभी बिना नमक-मिर्च लगा कर प्रस्तुत की हैं। कुछ माह पूर्व लिब्रहान आयोग ने 17 साल की अपनी जांच के बाद भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। उस रिपोर्ट पर हंगामा भी मचा। मैने लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट और संसद की बहस को पढऩे के बाद पाया कि अयोध्या का सच वही नहीं है जो कहा जा रहा है। बहुत सी बातों को और उसकी पृष्ठभूमि तक न तो लिब्रहान आयोग गया न ही संसद। मुझे लगा कि यही किताब के लिए सही समय है। आंखों देखी घटनाएं लखनऊ और दिल्ली में बैठ कर तैयार किसी भी जांच आयोग की रिपोर्ट से कहीं अधिक और दस्तावेजी महत्व की होती हैं।

एक छोटी सी धर्मनगरी में एक इमारत को कैसे तिल का ताड़ बनाया गया और कैसे उसका अंतर्राष्ट्रीयकरण किया गया, किस तरह से लोगों में घृणा फैलायी गयी, कौन-कौन से प्रयास चले इन सबका ब्यौरा इस पुस्तक में एक साथ मिल जाता है। बाबरी मस्जिद का ध्वंश तो बहुत से पत्रकारों की आंखों देखी थी लेकिन मैने इस दौरान इससे जुड़ी कई खबरें ब्रेक भी की हैं। इस किताब के पहले खंड में दिसंबर 1992 में घटित घटनाओं का ब्यौरा है, जबकि दूसरे खंड बाबरी विध्वंश: पूर्व भूमिका में दिसंबर से पूर्व की वर्ष 1992 की सभी प्रमुख घटनाओं का विवरण दिया गया है। तीसरे खंड कैसे गरमाया अयोध्या आंदोलन में 1989 से 1991 तक की प्रमुख घटनाओं पर रोशनी डाली गयी है। चौथे खंड में जनवरी 1993 से जुलाई 2005 के दौरान के राजनीतिक दांव-पेंच का वर्णन है।

इनमें से कुछ रिपोर्टें ऐसी भी शामिल हैं, जिनमें मेरे अन्य साथियों ने भी मुझे मदद की थी। मैं उन सबके प्रति ह्रदय से आभारी हूं। मैं इस बात को स्वीकारता हूं कि खास तौर पर अयोध्या विवाद के संदर्भ में 1989-92 के दौरान हिंदी पत्रकारिता के एक बड़े वर्ग ने  विध्वसंक भूमिका निभायी थी। हमारे कुछ पत्रकार साथी तो जयश्रीराम ब्रांड की पत्रकारिता में संलग्न हो गए थे, जबकि कई अखबारों ने सांप्रदायिक विषवमन को अपनी नीति का हिस्सा मान लिया था। विवाद इतना तूल पकड़ गया था कि विश्व हिंदू परिषद या बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के छोटे से आयोजन को कवर करने सैकड़ों देशी-विदेशी पत्रकार पहुंच जाते थे। खुद विहिप ने भी पत्रकारों को दो श्रेणियां बना दी थी-रामभक्त और रामद्रोही या बाबरी समर्थक पत्रकार। मुझे नहीं पता कि मैं उनकी किस श्रेणी में था। पर मैं इस बात का गवाह हूं कि बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय सबसे ज्यादा वही पत्रकार पीटे गए थे जो आंखों देखी लिखने में यकीन रखते थे।

मैं अपने पत्रकारिता के शुरुआती काल से ही अयोध्या के विभिन्न पक्षों पर लिखता रहा हूं। इसके बाद 1986 में दिल्ली में चौथी दुनिया का संवाददाता बनने के बाद साधु-संतों तथा अल्पसंख्यक संगठनों की बीट मेरे पास ही रही। अमर उजाला में 1990 से 2001 के दौरान के मेरे कार्यकाल में अयोध्या विवाद लगातार मेरी बीट का हिस्सा रहा। हिंदी के विभिन्न अखबारों की तुलना में अमर उजाला की स्थिति अलग थी। वहां महत्वपूर्ण मौकों पर अयोध्या में पूरी टीम भेजी जाती थी और बिना किसी बयार में बहे आंखों-देखी खबरों को उसी साहस के साथ प्रकाशित भी किया जाता था। हालांकि अयोध्या कांड ने उस समय पश्चिमी उ.प्र. में सबसे ताकतवर अखबार होने के बावजूद अमर उजाला का प्रसार डगमगा दिया था। वहीं अतिरंजित कवरेज वाले आज जैसे अखबार तेजी से इस इलाके में अपना प्रसार बढ़ा रहे थे।

1990 के अंत में अमर उजाला की गिरती प्रसार संख्या को रोकने की रणनीति के तहत आगरा में एक उच्चस्तरीय बैठक हुई। हम सबकी राय जानने के बाद अमर उजाला के अध्यक्ष और प्रधान संपादक श्री अशोक अग्रवाल ने बहुत साहसिक फैसला लिया और कहा कि प्रसार संख्या गिरे या बढ़े, अमर विहिप की तरफ से पत्रकारों को जारी किए गए प्रेस कार्डउजाला में वही छपेगा जो सच होगा। अखबार होने के नाते समाज के प्रति हमारा सबसे ज्यादा दायित्व बनता है और दंगा भडक़ाने वाली पत्रकारिता हम किसी कीमत पर नहीं करेंगे। इसी बैठक में संवाद संकलन के लिए खुले दिल से पैसा खर्च करने का फैसला भी लिया गया और नेटवर्क को और मजबूत बनाया गया। शायद इसी साहसिक नीतिगत फैसले के नाते मैं बहुत कुछ बेबाकी से लिख पाया और वह उसी तरह से छपा भी।

अयोध्या विवाद से जुड़े देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले महत्वपूर्ण आयोजनों को तो मैं कवर करता ही था, अयोध्या के प्रमुख आयोजनों को भी मेरे नेतृत्व में अलग-अलग संस्करणों से पहुंची एक बड़ी और व्यवस्थित टीम पूरी तन्मयता से कवर करती थी।  इस नाते मैं इस किताब का वास्तविक प्रेरक अमर उजाला के प्रधान संपादक श्री अशोक अग्रवाल को मानता हूं और उनके प्रति विशेष आदर और आभार प्रकट करता हूं। इसी के साथ जनसत्ता के पूर्व संपादक स्व. श्री प्रभाष जोशी, चौथी भारतीय, श्री प्रबाल मैत्र, श्री रामशरण जोशी, श्री कमर वहीद नकवी, श्री रामकृपाल और श्री जोसेफ गाथिया  के प्रति विशेष आभारी हूं। अमर उजाला के हमारे साथी रहे सर्वश्री आशीष अग्रवाल, अजीत अंजुम, अनिल सिन्हा, अतुल सिन्हा, श्याम लाल यादव, दिलीप मंडल, आलोक भदौरिया, अखिलेश सिंह, भानुप्रताप सिंह, सुनील छइयां, असद और  सुभाष गुप्ता के प्रति भी मैं आभारी हूं।  इसी के साथ ही भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य और जनमोर्चा के संपादक श्री शीतला सिंह, त्रियुग नारायण तिवारी, श्री वी.एन.दास, सुश्री सुमन गुप्ता आदि से मुझे अयोध्या में काफी सहयोग मिला। मेरे करीबी मित्र सुभाष चंद्र सिंह (दैनिक जागरण), कृपाशंकर चौबे, अन्नू आनंद, पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ, जयप्रकाश पांडेय, विख्यात छायाकार जगदीश यादव, श्री अरुण खरे और हिमांशु द्विवेदी (हरिभूमि), के सहयोग के प्रति भी विशेष आभार प्रकट करना जरूरी समझता हूं। लेकिन इस रचना को साकार करने में मेरे अनुज तुल्य रवींद्र मिश्र, संजय त्यागी, श्री मनोज कुमार, श्री जयप्रकाश त्रिपाठी और श्री मृणाल पौश्यायन का विशेष योगदान रहा है।

साथ ही मैं विशेष आभारी हूं विख्यात लेखक श्री प्रेमपाल शर्मा और प्रतिष्ठित कवि श्री तहसीन मुनव्वर का, जो अपने अंदाज में लगातार पूछते रहे कि कितना काम आगे बढ़ा? इस नाते कोई शिथिलता नहीं आने पायी। पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर मैं अपनी पुत्रियों गरिमा सिंह तथा निवेदिता कुमारी अयोध्या विवाद पर अरविंद कुमार सिंह की किताब का कवर पेजसिंह के श्रम को भला कैसे भुला सकता हूं जिनके प्रयासों से ही मेरा लेखन संरक्षित रह सका है। इसी तरह भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ अधिकारी डा.पी.के.शुक्ला और डा.शबी अहमद ने अयोध्या के इतिहास से जुड़े विविध पक्षों पर बार-बार मेरा मार्गदर्शन किया। मैं अपने से जुड़े सभी मित्रों और परिजनों को इस रचना में मददगार मानते हुए उनके योगदान की सराहना करता हूं। श्री ललित शर्मा (शिल्पायन प्रकाशन) के प्रति खास तौर पर मैं आभार व्यक्त करता हूं, जिन्होंने विशेष रुचि लेकर इस पुस्तक को प्रकाशित किया है। लेकिन कोई भी रचना स्वयं में पूर्ण नहीं होती है। उसमें कुछ कमियां रह जाती हैं और कुछ न कुछ सुधार की गुंजाइश भी होती है। अपने इस प्रयास में मैं कितना सफल-विफल रहा, यह फैसला मैं पाठकों पर ही छोड़ता हूं।  

वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह की नई किताब ‘अयोध्या विवाद : एक पत्रकार की डायरी’ के आमुख का यहां प्रकाशन किया गया है. इस किताब में मीडिया से जुड़े अंशों का प्रकाशन भड़ास4मीडिया पर किया जाएगा. अरविंद से संपर्क 09810082873 के जरिए किया जा सकता है.

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  1. k

    March 21, 2010 at 6:05 am

    अरविंद जी की यह बहुप्रतीक्षित किताब आखिरकार देखने को मिली। कुछ अंश भी प्रकाशित करें, तो मेहरबानी हो। अरविंद भाई उन पत्रकारों में हैं ‘जो उन’ में दिनों वार फ्रंट पर थे। बिना शक ये सच्चे पत्रकार का सच्चा ब्योरा होगा।

  2. gulshan saifi

    March 21, 2010 at 7:32 am

    filhal ye samajh me nahi aa raha ki aap kyo itni baate bhadas4media par likh rahe hai.dusri baat ek bhi koi aisa tikha pahlu nahi lag raha ki aapne jis se lage ki aap sawtantra hokar likh rahe hai .patarkaro ko bhi shabdo ko chasni me gholne ki aadat si pad chuki hai .aur itni mahtav puran baat ko itne lambe samay tak aapne apni kalam me kaid rakha ye samajh nahi aata.
    agar koi baat buri lagi ho to gair samajh kar maaf kar dena.
    babri masjid kand me kya hua ye baat baccha baccha janta hai.aur kitne gunahgaro ko saja mili ye baat batane ki aavsyakta nahi hai .doshi gruh mantri aur vice pm ke pad tak ja pahuche.aur patarkar dekhte rah gaye .antah aapse virnam nivedan hai mudde ki ahmiyat ko samjhe.
    na hindu bura hai
    na musalman bura hai
    agar aajao burai par to insaan bura hai
    aapka apna sathi
    gulshan saifi

  3. chandan srivastava

    March 21, 2010 at 9:19 am

    मुझे नहीं पता कि ये कितना सच्चा ब्यौरा होगा क्यूंकि इसकी शुरुआत ही संदेह में डाल रही है… मैं भी यहीं पैदा हुआ हूँ फैजाबाद-अयोध्या के आस पास के जिलों का शायद चप्पा चप्पा देखा है पर मुझे नहीं लगता कि अयोध्या के आस पास सौ किलोमीटर की परिधि से हिमालय के दर्शन कभी भी किसी भी मौसम में होते हैं (सौ किलोमीटर भी कम बता रहा हूँ. हिमालय अयोध्या के नजदीक कम से कम उतरौला से धुंधले अक्स में दिख सकता है पर वहां से अयोध्या देखने के लिए तो संजय की ही दृष्टि चाहिए) . वो भी बस्ती जिले की सीमा पर पड़ने वाले ऐसे किसी गाँव से जहाँ से अयोध्या भी नजर आ जाती हो. न जाने लेखक ने इस लाईन को क्यूँ यूज किया पर हिमालय के दर्शन अयोध्या से कई किलोमीटर दूर से भी नहीं हो सकते.

  4. deep

    March 21, 2010 at 6:12 pm

    arey chandan ji shayad ye ek kavyatmak abhivyakti (vyanjyarth) ho lekhak ki, kyonki main to ayodhya me hi paida hua aur basti mera nanihal hai lekin ye ab pata chala ki basti se himalay aur ayodhya dono dikhayi dete hain…

  5. arvind kumar singh

    March 22, 2010 at 7:19 am

    chandanji aur deepji ke liye jankaari de raha hoon.aap kisi baat ko sire se kharij karne ke bajai pahle padtal to kar len. phir comment karen.mane apne bachpan me jo dakha hai vahi likha hai.mane yah nahi likha hai ki wahan se himalaya sthai bhaw se dikhata hai.kabhi-kabhi likha hai.behtar hoga aap dono log mere gaon jakar tahkeekat karen.basti jile me chaaoni ke pas mera gaon gonda kuwnar padta hi.jile ke sabse vikhyat gaon me hai yah.mere gaon tak faizabad ke vikhayat patrkaar sri sheetla singh aur sri triyug narayan tiwari aur sri v.n.daas ji bhi jaa chuke hain.is naate unse rasta bhi pooch sakte hain.isse aap dona ki jankaari durust ho jayegi. par asli sawal ayodhya hai.us par aap logon ki kya soch hai is par bhi apni rai likhiye.aap ayodhya me paida huye hain to is vivad me apki kaun si bhoomika aur drishti rahi hai,yah janne me meri dilchaspi hai.

  6. chandan srivastava

    March 22, 2010 at 9:58 am

    अरविन्द जी सादर प्रणाम… सबसे पहले आपका तहेदिल से धन्यवाद कि आपने छोटे भाइयों द्वारा उठाये गए सवालों पर ध्यान दिया. आपको ठेस पहुँचाने की कोई मंशा नहीं थी और ना ही आपसे आर्गुमेंट करने लायक अभी ज्ञान हासिल कर पाया हूँ. पर गुंडा कुंवर जाने के लिए मुझे किसी से रास्ता पूछने की जरुरत नहीं. आपके गाँव के बगल बभनगांवा बहुत बार आया गया हूँ. कई रात दिन अशोक इंटर कालेज और छावनी बाजार में दोस्तों के साथ बिताई है. यही नहीं आपके परिवार के एक-दो सदस्यों से भी बखूबी परिचय है. मैंने त्रियुगी जी के ही शिष्य परंपरा में पत्रकारिता की शुरुआत की थी. पूरे आदर के साथ आपसे यह कहना चाहता हूँ कि हिमालय देखे जाने की बात जहाँ तक छिड़ी है इस बारे में मैंने पता किया. और यह नतीजा निकलता है कि वर्षों पहले लोगों को ये भ्रम था कि वहां से हिमालय दिखता है जबकि ये मात्र भ्रम था जिसे अब आपके गाँव के ही लोग कत्तई नहीं मानते. ऐसे गंभीर मुद्दे वाली किताब में किसी अनावश्यक भ्रम का सहारा लेना कितना उचित है आप ज्यादा जानते होंगे. आपके इस बड़प्पन का मै कायल हूँ कि आपने मेरी दृष्टि और भूमिका के बारे में पूछा है. कृपया इस लिंक को देखें. http://vichar.bhadas4media.com/index.php?option=com_content&view=article&id=211:chandan-shrivastava&catid=37:my-view&Itemid=81 अपनी बात को समाप्त करते हुए उम्मीद करता हूँ कि आपकी किताब से हम सभी उस सच से भी रूबरू होंगे जिसके बारे में अभी तक हम नहीं जानते.

  7. JP Gupta

    March 22, 2010 at 10:16 am

    It was not surprising at all for me. Arvindji was very serious on the issue. In fact he helped me crack stories for M P Chronicle. I was always carried by Arvind ji on his scooter to all press briefings on Ayodhya related issues from INS building. As a new reporter in Delhi working with Chronicle’s Delhi bureau I had the opportunity to get my story carried by all the seven editions of our sister concern Navbharat in Hindi apart from MP Chronicles regular editions of Bhopal and raipur. In fact he made me Hero in the INS within a short span of time.
    Congrats Arvind ji!

    J P Gupta
    Resident Editor
    http://www.igovernment.in
    9Dot 9 Media

  8. JP Gupta

    March 22, 2010 at 10:24 am

    Congrats Arvind ji,

    I am really delighted to know about your book on Ayodhya.However it is nor surprising for me as I have been witness to your zeal and work on the issue. In fact you took me several times in the press briefings concerned with the Ayodhya issue and helped me crack stories for MP Chronicle and NAvvarat in all editions . For a journalist who was yet to read between the lines in Delhi’s reporters’ world,your inputs and guidance pushed me on top within a short span of time. I remember my days at Delhi bureau of M P Chronicle which saw me make strides fast in the circle with some really cracking stories on Ayodhya issue.

  9. arvind kumar singh

    March 22, 2010 at 10:58 am

    bhai chandan ji
    apne bhram ki baat tak sweekar kar li hai.mujhe apni ankhon par koi bhram nahin hai.jo ankhen dekhti hain vahi likhta hoon.
    agar aap triyugi ji ki shishya parampara se aate hain to vo hi aap ko bata sakte hain ki hamne kya kiya hai aur kya likha hai.mera sujav hai ki koi baat likhne ke pahle uski padtal kar len.patrkarita ka bhi takaja yahi hai.apko jo nahi dikha vahi antim satya na menen.

  10. chandan srivastava

    March 22, 2010 at 2:44 pm

    आदरणीय अरविन्द जी आपका सुझाव सिर माथे पर. आपने कहा कि कुछ भी पूरी पड़ताल के बाद लिखना चाहिए. हर व्यक्ति आपके इस सुझाव से सहमत होगा. रही बात आपके गाँव से हिमालय दिखने की. आपके गाँव के कुछ किलोमीटर दूरी पर स्थित हर्रैया बाजार से जरवा (बलरामपुर) नाम के स्थान का एयर डिस्टेंस लगभग 80-88 किलोमीटर है. (पूरी पड़ताल के बाद ये कह रहा हूँ, आप खुद भी कर सकते हैं). जरवा वो स्थान है जिसके लगभग 10 किलोमीटर आगे से जरवा और खंगरा नाका की बीच की प्रथम पहाड़ियां शुरू होती हैं और यही इलाका हिमालय की श्रृंखलाओं के मामले में आपके गाँव से सबसे नजदीक है. अगर पहाड़ों की चोटियाँ देखनी है तो 88 किलोमीटर दूर से इसकी खड़ी ऊँचाई लगभग 800 मीटर होनी चाहिए. (जैसा कि अभी हाल ही में दुबई में बने बुर्ज खलीफा के बारे में कहा गया है कि यह ईमारत 100 किलोमीटर दूर से देखी जा सकती है अब ये बात इस ईमारत के प्रचार के लिए अपनाया गया प्रोपेगैंडा है या सच ये मैं नहीं जानता पर इसे आपकी सुविधा के लिए सही मान लेता हूँ. बहरहाल इसकी ऊँचाई 828 मीटर यानि 2,717 फिट है). जरवा से भी अगर पहाड़ियों की शुरुआत मान ली जाय तो 828 मीटर की सीधी ऊँचाई पाने के लिए वहां से कई किलोमीटर की और अन्दर चढ़ाई करनी होगी. इस हिसाब से 828 मीटर की ऊँचाई आपके गाँव से और भी दूर हो जाती है. हिमालय की सबसे नीची चोटी है ama dablam. जो नेपाल के खुम्बू नाम की जगह पर है. अगर इसकी पहाड़ियां आपके गाँव से दिखाई देती हैं तभी आपके गाँव से नेपाल के दर्शन हो सकते हैं. आपने लिखा है कि “हमारे गांव से ही कभी-कभी हिमालय के दर्शन भी हो जाते हैं”. यानि आज भी हो जाते हैं. आपने यह नहीं लिखा है कि पचास साल पहले होते थे जब इन्वायरमेंट अपेक्षाकृत ज्यादा साफ़ सुथरा था.
    आपने क्या किया है और क्या लिखा है इस पर मैंने कोई ऊँगली नहीं उठाई है. मैंने पहले ही कहा आपसे आर्गुमेंट करने लायक अभी नहीं हूँ मैं. बस एक बात जो नहीं समझ मे आई उस पर मैंने टिप्पड़ी कर दी. पुनः मैं अपनी बात को दोहराता हूँ कि आपकी किताब से कई बातें जानने व समझने को मिलेंगी. मैं इस बात के लिए पूरी तरह आश्वस्त हूँ.

    सादर प्रणाम

  11. Syed Mazhar Husain

    March 22, 2010 at 3:48 pm

    Adarniya
    Chandanji ..main bhi Basti zile ka hi rahne wala hoon..main Arvind ji ki baat se ittefaak rakhta hoon wah isliye nahi ki Arvind ji Basti ke hain.balki isliye ki yah ek sachchayi hai. comment dene se pahle to aapko Basti ke Gunda kunwar akar dekhna chahiye ki haqeeqat kya hai. Arvind ji ne jo kuch kiya hai wah kisi se chhipa nahi hai aap bhale Ayodhya me paida huye lekin aapki jaankari abhi adhuri hai aap bhi agar yaha ajaye to aapko bhi zaroor kabhi na kabhi Himalay ke darshan ho jayenge

  12. Dr. Vineet Singh

    March 22, 2010 at 8:01 pm

    सबसे पहले आदरणीय चाचा जी को हार्दिक बधाई । बधाई सिर्फ एक पुस्तक के लेखन के लिए नहीं बल्कि बधाई एक ऐसे विषय पर लेखन के लिए जिसके बारे में हकीकत जानने की लालसा हर भारतीय को है… एक ऐसी हकीकत जो सत्ता और शक्ति प्रतिष्ठानों की गुलाम न हो… उनसे प्रभावित न हो या फिर उनकी वन्दना में न लिखी गयी हो… इसके बाद सैफी जी से निवेदन करूंगा कि वो इंसान को बुरा न समझें… इंसान बुरा नहीं है… इंसान का लालच उसे बुरा बना देता है… और रही बात अयोध्या से जुड़े हुए पहलुओं को चासनी में घोल कर परोसने की तो आपको आपको बताना चाहूंगा… कि जिस अरविंद सिंह पर आप शक कर रहे हैं… वो अरविंद सिंह चाहते तो न जाने कब के सांसद या मंत्री बन गये होते वो भी अपनी शर्तों पर…. उत्तरांचल का हर छोटा और बड़ा नेता जो उसके गठन के लिए आन्दोलन में शामिल था… वो दिल्ली वाले अरविंद सिंह को न सिर्फ जानता था.. बल्कि अपना नेता मानता था… क्योंकि उस आन्दोलन से जुड़ी तमाम सच्चाईयों और जरूरतों को दिल्ली में यदि किसी ने मंच दिया तो वो अरविंद सिंह ही थे… चाहे भाजपा हो या कांग्रेस न जाने कितने दिग्गज नेताओं के मुंह से में खुद उनके साथ हुए व्यक्तिगत वार्तालाप में सुन चुका हूं कि अरविंद से न जाने कितनी बार मनुहार की लेकिन वो माने नहीं यदि मान गये होते तो संसद में उत्तरांचल का निर्विरोध और निर्दलीय प्रतिनिधित्व कर रहे होते…. शायद चाचा जी के लिए उत्तरांचल से बड़ा देश है… वो देश का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं … उसके किसी एक हिस्से का नहीं…. अगली बात ये कि अयोध्या से जुड़े मुद्दों को देर से लोगों के बीच में लाने की ….मुझे लगता है अब तक देश में वो माहौल नहीं बना था जिसमें हम निष्पक्ष होकर अयोध्या मथुरा या काशी जैसे मुद्दों पर चर्चा कर सकें… इसकी वजह आम आदमी की धर्म के प्रति आस्था ही थी…आस्था और भावनाओं के साथ खेलने का ये खेल अयोध्या प्रकरण में ही नहीं हुआ .. बल्कि इस खेल की नींव तो देश की आजादी से पहले ही पड़ चुकी थी… हां 90 के दौर में दुकानें परवान जरूर चढ़ने लगी थी… आप लोगों को एक जानकारी और दे दूं… अरविंद जी जहां भी काम करते हैं पूरे पूरी लगन से करते हैं… जिसकी वजह से उनके पास निजी समय की कमी हो जाती है… और दूसरा जो निजी समय बचता है… उसका एक बड़ा हिस्सा हम जैसे नौसिखियों को रास्ता बताने में उनकी मदद करने या सीधे सीधे कहूं तो उन्हें स्थापित करने में खर्च कर देते हैं… यही शायद वो वजह है जो अयोध्या जैसा गंभीर मुद्दा इतने दिनों तक उनकी कलम में कैद रह गया… सिर्फ यही मुद्दा क्यों, चम्बल के डकैतों… वहां की धरोहरों… जैसे गंभीर मुद्दों पर उनके लेखन का मैं पिछले दस साल से इन्तजार कर रहा हूं… जब भी मिलता हूं.. यही पूछता कि आखिर कब पढ़ने को मिलेगा… शायद आप मजबूरी समझ गये होंगे गुलशन जी… और उम्मीद है… बिना चासनी की तीखी मिर्च खाने के यानि पुस्तक को पढ़ने का मन बना लेना चाहिए…. अब बात चंदन श्रीवास्तव जी की नजरों की …. चंदन जी ने लिखा है कि अयोध्या के कई किलोमीटर से भी हिमालय के दर्शन नहीं हो सकते,,, जैसे वो अरविंद जी की यह बात मानने को तैयार नहीं है कि उनके गांव से कभी कभार हिमालय दिख जाता था… तो मैं क्या कोई भी व्यक्ति यह मानने को तैयार नहीं होगा कि अयोध्या के कई किलोमीटर दूर से भी हिमालय के दर्शन नहीं हो सकते …कल के आश्चर्य आज की हकीकत हैं… लेकिन गुजरे दौर की हकीकत आज एक कल्पना ही लगती है… जैसे कि दिल्ली में कोई बुजुर्ग कहे कि उसने कोसों दूर से कुतुम मीनार देखी थी… तो हम मानने को तैयार नहीं होंगे क्योंकि वो आज चार किलोमीटर दूर से भी नहीं दिख पड़ती और कहीं कहीं तो ये दूरी घट कर पांच सौ मीटर तक हो जाती है…. और रही बात पुस्तक में कितना सच्चा ब्यौरा होगा… तो उनके शक को दूर करने के लिए मैं पहले ही बता चुका हूं कि पुस्तक के लेखक ने किसी लालच में यह पुस्तक नहीं लिखी…. क्योंकि जो प्रलोभन एक लेखक को दिये जा सकते हैं या फिर दिये जाते रहे हैं… जिनकी वजह से आज हम अपना ही असली इतिहास भूल चुके हैं … उनसे अरविंद सिंह कई हजार गुना ऊपर उठ चुके हैं….
    और जहां तक आपने अपनी पहचान के लिए भड़ास का लिंक दिया है… शायद उसकी जरूरत नहीं क्योंकि मैं जनमत का दौर अभी भूला नहीं हूं… आप भले ही भूल गये होंगे सर जी…. की बोर्ड को यहीं विराम देते हुए … पुनः चाचा जी को एक हार्दिक बधाई….

  13. chandan srivastava

    March 23, 2010 at 7:38 am

    डा विनीत साहब सबसे पहले अरविन्द जी की शख्सियत और उनके राजनीतिक क्षेत्र में रसूख के बारे में बताने के लिए धन्यवाद. डाक्टर साहब आपसे इल्तजा है कि कृपया अरविन्द जी की किताब का जो आमुख यहाँ प्रकाशित हुआ है उसका पहला पैरा ध्यान से पढ़ें. फिर मेरी टिप्पड़ियों पर भी ध्यान दें. चलिए आपके कुतुबमीनार वाले उदाहरण पर मैं अपनी पिछली टिप्पड़ी का ये अंश खुद ही आपके सामने पेश कर देता हूँ… (आपने लिखा है कि “हमारे गांव से ही कभी-कभी हिमालय के दर्शन भी हो जाते हैं”. यानि आज भी हो जाते हैं. आपने यह नहीं लिखा है कि पचास साल पहले होते थे जब इन्वायरमेंट अपेक्षाकृत ज्यादा साफ़ सुथरा था.) आपने शायद इस लाईन पर ध्यान नहीं दिया. कोई बात नहीं ये मानवीय भूल हो सकती है. दूसरी बात मैंने अपनी पहचान के लिए भड़ास का लिंक नहीं दिया.पहचान छिपा कर लिखने वालों से तो पहले से यशवंत भईया परेशान हैं मैं उनकी परेशानी बढाने के बारे में सोच भी नहीं सकता. आपने पुनः मानवीय भूल के नाते अरविन्द जी द्वारा दी गयी पहली टिप्पड़ी की ये लाईन मिस कर दी…( par asli sawal ayodhya hai.us par aap logon ki kya soch hai is par bhi apni rai likhiye.aap ayodhya me paida huye hain to is vivad me apki kaun si bhoomika aur drishti rahi hai,yah janne me meri dilchaspi hai.)…इसी लाईन के बाबत मैंने उक्त लिंक दिया. कृपया पुनः ध्यान दें. आखिरी बात डाक्टर साहब आप जनमत का कौन सा दौर याद दिलाना चाहते हैं. कृपया स्पष्ट करें. साथ ही यह भी बताएं तो बड़ी कृपा होगी कि उस दौर का अरविन्द जी के गाँव से हिमालय के दिखने अथवा न दिखने का क्या रिश्ता है?

  14. ANIS KHAN SHAHAN

    March 23, 2010 at 1:43 pm

    Shabash Arvind Ji bebak sach likhney key liye.
    BABRI MASJID ki shahadat sey aaj tak India har din shaheed ho raha hai, aaj jahan bhi dahshat / baghawat hai usska kahien naa kahien rishta iss sharmnak aur barbar hadsey sey juda hai…

  15. Mazhar Azad

    March 24, 2010 at 12:42 pm

    Chandan ji
    Abhiwadan
    Pustak ke Baare me kuch rachnatmak parantu Muhawre jaisi Tippadi kuch vyangyatmak disha leti ja rahi hai. jabki pustak ka vishay aur uski disha evam tathya ashpasht ke saath hi satya nisth hain arvind ji ka gaon ya us se aage Ayodhya ka Laxman teela athwa Faizabad dhara road aise tamaam asthaan hain jaha se jarwa.kapilvastu.athwa pashchim se poorab uttar ki disha me jo bhi pahaar surya ki laalima me parayah Partibimbit hote hai usay Nepal aur Himalaya ki srinkhla se krambadh kaha jata hai. Bhale hi Paryawaran ka Sankarman badha hai par saanketik partibimb Himalay ki kalpna ko taza rakkhe huye hai. sahitya mein sahitykaar apne kathan ko saanketik partibimbit karta hai.waha tak jab samany pathak sudoor baitha pustak ke sahare dekh sake.Telecast karne mein doori srinkhla, Partibimb,sanket nahi Himalay par jakar Darsha karaya ja sakta hai. kripya…Pustak ke us wakya ki prastuti ka chitra aur behtar kaise kheencha ja sakta hai yeh eai bhi zaroori hai. meri samajh se uqt pankti waastvikta aur bhaav puri tarah darsha rahi hai.

  16. anil singh

    March 27, 2010 at 6:06 pm

    Arvind bhai, congrats for this new book. samaj ke samne sach ana hi chahiye.allahabad engineering college ke ghar par baithiki ke yad taza ho gaye. likhna jari rakhiye. karmane vadhikaraste ma fhaleshu kadachan:

  17. ashish mishra

    November 25, 2010 at 4:07 pm

    सादर प्रणाम
    आपकी इस बहु प्रतिक्षित पुस्तक के लिये बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें।
    मैं व्यक्तिगत रूप भी अत्यंत गौर्वान्वित एवं सौभाग्यशाली महसूस कर रहा हूं।
    आशा है भावी पत्रकार पीढ़ी भी आपकी बेबाकी और पत्रकारीय निष्ठा से प्रेरणा
    प्राप्त करेगी। ………

    शुभकामनायें।

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