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हलचल

‘अयोध्या कांड’ की खबरों में ये सावधानी बरतें

‘साम्प्रदायिकता का खबर बनना उतना खतरनाक नहीं है, जितना खतरनाक खबरों का साम्प्रदायिक होना है।’ बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में 17 को कोर्ट का फैसला संभावित है। ऐसे में फिर मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है।

<p style="text-align: justify;">‘साम्प्रदायिकता का खबर बनना उतना खतरनाक नहीं है, जितना खतरनाक खबरों का साम्प्रदायिक होना है।’ बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में 17 को कोर्ट का फैसला संभावित है। ऐसे में फिर मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है।</p>

‘साम्प्रदायिकता का खबर बनना उतना खतरनाक नहीं है, जितना खतरनाक खबरों का साम्प्रदायिक होना है।’ बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में 17 को कोर्ट का फैसला संभावित है। ऐसे में फिर मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है।

हालांकि यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका हमेशा ही महत्वपूर्ण होती है, लेकिन 1992 में अय़ोध्या कांड के बाद व अन्य कई साम्प्रदायिक दंगों के समय भारतीय मीडिया की भूमिका को देखते हुए हमें कुछ बातें याद दिलानी जरूरी लगती हैं, ताकि पत्रकारिता के इतिहास में कोई और काला अध्याय नहीं जुड़े। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की ’92 में संघ व हिंदुत्ववादी संगठनों के नेतृत्व में जो नृशंस इतिहास रचा गया उसमें मीडिया का भी अहम रोल था। जब बाबरी विध्वंस पर कोर्ट का फैसला संभावित है, मीडिया का वही पुराना चेहरा दिखने लगा है। खासकर उत्तर प्रदेश में अखबारों ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज कर दिया है। धर्म विशेष के नेताओं के भड़काउ बयान अखबारों की मुख्य खबरें बन रही हैं। इन खबरों का दीर्घकालीन प्रभाव साम्प्रदायिकता के रूप में देखने को मिलेगा।

ऐसे में देश के तमाम प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, वेब और अन्य समाचार माध्यमों के पत्रकारों/ प्रकाशकों/संचालकों से विनम्र अपील है कि वो साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने का माध्यम न बने। आपकी थोड़ी सी सावधानी साम्प्रदायिक शक्तिओं को समाज में पीछे धकेल सकती है, और असावधानी सामाजिक ताने-बाने को नष्ट कर सकती है। ऐसे में यह आपको तय करना है कि आप किसके साथ खड़े हैं। संभावित फैसले के मद्देनजर अपने समाचार माध्यम में प्रकाशित होने वाली खबरों में निम्न सावधानियां बरतें –

1. अपने प्रिंट/ इलेक्ट्रॉनिक/ वेब समाचार माध्यम को यथा संभव संविधान की मूल भावना के अनुरूप धर्मनिरपेक्ष बनाए रखें। किसी भी तरह की धार्मिक कट्टरता का खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। आपको यह समझना होगा कि मंदिर-मस्जिद से कहीं बड़ा इस देश का सामाजिक ताना-बाना है। राजनीतिक स्तर पर लोकतांत्रिक ढांचा है। एक जिम्मेदार पत्रकार व नागरिक होने का कर्तव्य निभाते हुए आप इन्हें मजबूत करने में अपना योगदान दें।

2. बतौर मीडिया हमारी सबसे बड़ी ताकत आम जनता की विश्वसनीयता है। देश का नागरिक ही हमारा पाठक वर्ग/ दर्शक/श्रोता भी है। उसके हित में ही आपका हित है। अभी तक के इतिहास से यह साफ हो चुका है कि आम नागरिकों का हित कम से कम दंगों में नहीं है। अतः आप शुद्ध रूप से व्यावसायिक होकर भी सोचे तो हमारा पाठक वर्ग तभी बचेगा जब यह देश बचेगा। और देश को बचाने के लिए उसे धर्मोन्माद और दंगों की तरफ धकेलने वाले हर कोशिश को नाकाम करना होगा। मीडिया की आजादी भी तभी तक है, जब तक कि लोकतंत्र सुरक्षित है। इसलिए आपका कर्तव्य है कि लोकतांत्रिक ढांचे को नष्ट करने वाले किसी भी राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक या सरकारी प्रयासों का विरोध करें और लोकतंत्र के पक्ष में जनमत निर्माण करें।

3. आपको यह नहीं भूलना चाहिए की हमारी छोटी सी चूक हजारों लोगों की जान ले सकती है। (दुर्भाग्यवश हर दंगे से पहले मीडिया यह भूल ही जाती है) अतः खबरों के प्रकाशन से पहले उसके तथ्यों की जांच जरूर कर लें। आधारहीन, अपुष्ट व अज्ञात सूत्रों के हवाले से आने वाली खबरों को स्थान न दें।

4. कई अखबारों व समाचार चैनलों में यह देखा गया है कि झूठी व अफवाह फैलाने वाली खबरें खुफिया एजेंसियों के हवाले से कही जाती हैं। लेकिन किस खुफिया एजेंसी ने यह बात कही है इसका उल्लेख नहीं किया जाता। किसी भी गुप्त सूत्र के हवाले से खबरें छापना गलत नहीं है। हम पत्रकारों के स्रोतों की गोपनीयता का भी पूरा सम्मान करते हुए भी यह कहना चाहेंगे कि अज्ञात खुफिया सूत्रों के हवाले से छपने वाली खबरें अक्सर फर्जी और मनगढंत होती है। दरअसल यह खबरें खुफिया एजेंसियां ही प्लांट करवाती हैं, जिसका फायदा वह अपने आगामी अभियानों के दौरान उठाती हैं। बाबरी विध्वंस के संभावित फैसले के मद्देनजर उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से खुफिया एजेंसियों ने आईएसआई और नेपाली माओवादियों के गड़बड़ी फैलाने की आशंका वाली खबरें प्लांट करना शुरू कर दिया है। पिछले कुछ दिनों में दैनिक जागरण सहित कई अखबारों में ऐसी खबरें देखी गई। लेकिन सही मायनों में उत्तर प्रदेश की जनता आईएसआई/माओवादियों के कथित खतरनाक मंसूबों से ज्यादा संघियों/बजरंगियों/हुड़दंगियों के खतरनाक मंसूबों से डर रही है। इसलिए खबर लिखने से पहले जनता की नब्ज टटोलें, न कि खुफिया एजेंसियों की।

5. अपने प्रिंट/इलेक्टॉनिक/वेब समाचार माध्यम में धार्मिक-सामाजिक संगठनों व राजनैतिक दलों के नेताओं या धर्मावलम्बियों चाहें वो किसी भी धर्म का हो की उत्तेजक व साम्प्रदायिक बातों को स्थान न दें। फैसले के मद्देनजर ऐसे नेता व धर्मावलंबी अपना हित साधने के लिए अपनी बंदूक की गोली की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। सर्तक रहें।

6. ऐसे धार्मिक राजनीतिक सामाजिक संगठनों की प्रेस कॉन्फ्रेंस/विज्ञप्ति/सूचनाओं का बहिष्कार करें जो “सड़कों पर होगा फैसला” टाइप की उत्तेजक घोषणाएं कर रहे हैं। इन संगठनों की मंशा को समझे और उन्हें नाकाम करें। ऐसे लोगों की सबसे बड़ी ताकत मीडिया ही होती है। अगर उनके नाम व फोटो समाचार माध्यमों में दिख जाते हैं तो वह अपने मंसूबों को और तेज कर देते हैं। वह सस्ती लोकप्रियता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। किसी को जला सकते हैं मार सकते हैं। ऐसे लोगों को बढ़ावा न दें।

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7. खबरों की भाषा पर भी विशेष ध्यान देना होगा। हिंदी पत्रकारिता का मतलब हिंदू पत्रकारिता व उर्दू पत्रकारिता का मतलब मुस्लिम पत्रकारिता नहीं है। ये भाषाएं हमारी साझा सांस्कृतिक की अभिव्यक्ति का माध्यम रही हैं। हिंदी मीडिया में अक्सर उर्दू शब्दों का प्रयोग मुस्लिम धर्म व लोगों की तरफ संकेत देने के लिए किया जाता है। मसलन की हिंदी मीडिया के लिए ‘जेहादी’ होना आतंकी होने के समान है और धार्मिक होना सामान्य बात है। जबकि दोनों के अर्थ एक समान हैं। इससे बचना होगा।दरअसल किसी भाषा के शब्दों के जरिये मीडिया ने साम्प्रदायिक खेल खेलने का ही एक रास्ता निकाला है। कोई अगर यह कहता है कि “सड़कों पर होगा फैसला” तो आपको इसके मायने समझने होंगे। 1992 में अयोध्या सहित पूरे देश और 2002 में गुजरात में ‘सड़कों पर हुए फैसलों’ की विभीषिका को याद रखना होगा।

8. भारतीय संविधान में लोगों को किसी भी धर्म में आस्था रखने और किसी धर्म को छोड़ने की स्वतंत्रता मिली है। किसी मीडिया संस्थान में काम करते हुए भी आपको किसी धर्म में आस्था रखने का पूरा अधिकार है। लेकिन हमारी आस्था तब खतरनाक हो जाती है, जब यह पूर्वाग्रह पूर्ण हमारी खबरों में प्रदर्शित होने लगती है। पत्रकार कट्टर धार्मिक होकर सोचने, समझने और लिखने लगता है। अपने यहां काम करने वाले ऐसे लोगों की शिनाख्त करने की मीडिया संस्थानों की जिम्मेदारी है। उन्हें ऐसी खबरों या बीटों से अलग रखा जाए जिसमें वह व्यक्तिगत आस्था के चलते बहुसंख्यक आम जन की आस्था को चोट पहुंचाते हों या ऐसे संगठनों को बढ़ावा देता हो जो साम्प्रदायिक हैं।

जेयूसीएस द्वारा जारी

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0 Comments

  1. Trikon

    September 2, 2010 at 2:14 pm

    अरे लिखने वाले भाई साब… ज़रा पूरी जानकारी तो कर लिया करो…. फ़ैसला मस्जिद गिराने के मामले का नहीं बल्कि सिविल सूट के मुकदमे का आने वाला है.

  2. Pankaj Jha

    September 2, 2010 at 4:09 pm

    भारत की पत्रकारिता काफी परिपक्व है और इसे ऐसे किसी संगठन के आदेशनुमा नसीहत की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है. अगर अपनी यादाश्त सही है तो यही वह कथित संगठन है जो मीडिया को नक्सल रिपोर्टिंग सीखाने की जिद्द में राष्ट्रद्रोही तत्वों को प्रश्रय देता लगा था.इस आलेख में जिस लहजे में सलाह का प्रस्तुतिकरण है उससे साफ़ लग रहा है कि समाचार माध्यमों में बैठे तमाम लोग सरोकार विहीन हैं और सारे ज्ञान एवं उत्तरदायित्व का ठेका इन गिरोहों ने ही ले लिया हो. नहीं साहब,बिल्कुल नहीं…… मामला चाहे अयोध्या का हो या कोई और ..आपसे रिपोर्टिंग सीखने की ज़रूरत हमें नहीं है. जो अपना विवेक गवाही देगा या पेशे की जैसी मांग होगी उसी अनुसार अपन काम करेंगे. आपके किसी भी पात्रकार को आपके गाइडलाइन की कोई ज़रूरत नहीं है.

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