सेवा में, आदरणीय यशवंत जी, आपको मैं काफी दिनों बाद कोई पत्र लिख रहा हूं। पहले तो मैं सिर्फ एक पाठक ही बना रहना चाहता था पर पिछले दिनों नक्सली नेता को बंगाल में गिरफ्तार करने को लेकर जिस तरह पुलिस ने पत्रकारिता की आड़ ली और उसके बाद जो मुद्दा बनाया गया, वो मुझे काफी खटक रहा है। सवाल उठता है कि क्या अब ऐसे मामले में कोई नक्सली, अपराधी, आतंकवादी, या कोई भी इंसान पत्रकार पर भरोसा करेगा? सवाल बड़ा है। रात के 12 बज चुके हैं। आपको पत्र लिख रहा हूं। इस खातिर कि पत्रकारिता पर आंच का यह कोई पहला मुद्दा नहीं है। चंबल घाटी के क्षेत्र में कभी खूंखार डकैतों का साम्राज्य था। यहां के रिपोर्टर जब डकैतों के इंटरव्यू करते थे तो डकैत भी अपने खजाने का मुंह उनकी खातिर खोल देते थे। कई पत्रकारों ने डकैतों के साथ के अपने अनुभव मुझे सुनाए। आज बीहड़ में डकैत नहीं के बराबर हैं पर यह बात दुनिया जानती है कि दरअसल पत्रकारों ने भी बीहड़ के डकैतों के सूत्र पुलिस को सौंपे तो कभी सर्विलांस का भी हिस्सा बने। क्या पत्रकारों ने उन डकैतों के साथ गद्दारी नहीं की? सवाल बड़ा है। हम पुलिस को उनकी हरकतों के लिए लताड़ लगा रहे हैं।
पर यह नहीं सोच रहे हैं कि अपराध और अपराधी पकडे़ जाएं। कभी चंबल से यह आवाज नहीं उठी कि पत्रकारों ने डकैतों को मरवाया। आज बीहड़ में अगर खुशहाली है और बीहड़ के वाशिंदे चैन सुकून महसूस कर रहे हैं तो पुलिस और पत्रकार दोनों ही बधाई के पात्र हैं। आज एक अपराधी किस्म का नक्सली पकड़ा गया तो हंगामा मच गया। अगर वो पुलिस की पकड़ से बाहर होता तो कितनी लाशें गिराता वो गरीबों की और पुलिस की। हम पुलिस को तो दोष दे रहे हैं। एक बात सत्य यह भी है कि मीडिया के निशाने पर पुलिस ही रहती है। पर क्या ये अच्छा नहीं होता कि नक्सली की गिरफ्तारी पर पुलिस की सराहना की जाती, बजाय उसकी बेवजह आलोचना के।
–अभिषेक शर्मा
ईटीवी न्यूज कांट्रीब्यूटर, औरैया
उत्तर प्रदेश
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