भारत के चुनिंदा अखबारी घरानों के लिए संभवत: यह एक बुरा दौर है जब वे एक तरफ तेजी से गिरती प्रसार संख्या को थामे रखने के लिए अत्याधुनिक खर्चीली तकनीकी प्रणाली का इस्तेमाल कर रहे हैं और रोजाना नए-नए संस्करणों की रूपरेखा बना रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ इन घरानों के अब तक दबे-ढंके पारिवारिक विग्रह सुर्खियों में आने लगे हैं। ताजा प्रकरण दैनिक भास्कर समूह का है। जो लोग भास्कर समूह के उत्थान को जानते हैं उनके लिए इस समूह के एक भागीदार श्री महेश चंद्र अग्रवाल की प्रतिक्रिया अत्यंत चौंकाने वाली और उतनी ही पीड़ादायी भी है। श्री महेश चंद्र अग्रवाल ने ‘दैनिक भास्कर’ टाइटल पर सवाल खडे़ किए हैं। नाम में क्या रखा है। केवल टाइटल से क्या होता है?
अगर टाइटल में ही कोई चमत्कार होता तो महेश चंद्र अग्रवाल भी श्री रमेश चंद्र अग्रवाल की तरह चमत्कारी पुरुष बन चुके होते क्योंकि उनके पास देश के एक बडे़ राज्य से अखबार प्रकाशित करने के अधिकार सुरक्षित हैं। दरअसल, दैनिक भास्कर समूह किसी एक व्यक्ति के श्रम की परिणति नहीं है। सन् 56 में जब नया मप्र बनने को था तब सेठ द्वारका प्रसाद अग्रवाल यहां ‘प्रकाश’ निकालने झांसी से आए थे। क्या अजब संयोग है कि, हिन्दी अखबारों के क्षेत्र में परचम लहराने वाले लगभग सभी घराने झांसी से ही अलग-अलग दिशाओं में निकले और कामयाबी की मंजिलें चूमने में कामयाब रहे। सेठ द्वारका प्रसाद अग्रवाल को ‘भास्कर’ टाइटल पं शंभुनाथ शुक्ल से मिला था जो विंध्यप्रदेश के थे। वे राजनीतिज्ञ थे और टाइटल का इस्तेमाल करने में स्वयं को समर्थ नहीं पा रहे थे सो यह टाइटल उन्होंने सेठ द्वारका प्रसाद अग्रवाल को दे दिया था। हम कह सकते हैं कि टाइटल चमत्कारी होता तो शुक्ल परिवार भी आज उसी की खा और गा रहा होता।
दैनिक भास्कर के शुरुआती दौर के लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि भोपाल के कोतवाली रोड पर एक छोटी सी इमारत में अग्रवाल परिवार रहता भी था और यहीं से अखबार भी छपा करता था। तब सेठ द्वारका प्रसाद अग्रवाल के साथ उनके अनुज सेठ विश्वंभर दयाल अग्रवाल और स्वयं महेश चंद्र अग्रवाल ने अखबारों के बंडल बांधे भी थे और उन्हें समय-समय पर स्टाल तक पहुंचाया भी था।
लेकिन सन् 1956 के बाद अस्सी के दशक तक टाइटल ने कोई करिश्मा नहीं दिखाया। भोपाल में करिश्मे की शुरुआत गैस त्रासदी के बाद हुई। लगभग इसी समय इंदौर से भी अखबार जमाने की कोशिशें हो रही थीं। इस काम में जुटे थे सेठ विश्वंभर दयाल अग्रवाल के ज्येष्ठ पुत्र मनमोहन अग्रवाल और रमेश जी के बडे़ पुत्र श्री सुधीर अग्रवाल। चाचा-भतीजे की यह जोड़ी तब अखबार जगत के फंडे सीख रही थी और उधर रमेश जी भावी अखबारी घराने को गढ़ने की राह पर थे।
सच कहें तो असली चमत्कार श्री रमेश चंद्र अग्रवाल की सूझ-बूझ, दिलेरी, दरियादिली ने ही दिखाया। गैस त्रासदी, जिसकी बेबाक खबरों ने भोपाल संस्करण को सितारा बना दिया, रमेश जी की दिलेरी का गवाह है कि किस तरह उन्होंने सरकार से बैर लेकर अखबार की धार बरकरार रखी थी। अभी भी भोपाल में ऐसे लोग मिल जायेंगे जो शारदा भाभी (रमेश जी की धर्मपत्नी श्रीमती शारदा देवी) को पुरनम आंखों से याद करते मिल जायेंगे कि किस तरह वे प्रेस में काम करने वालों को लजीज चीजें खिलाने का लाड़ दिखाती थीं और ईद तथा दीवाली पर कैसे याद से सबको बढ़िया कपडे़ वे बुलाकर उपहार स्वरूप दिया करती थीं। उन दिनों में अखबार के लिए रमेश जी को अक्सर रुपये उधार लेने पड़ते थे।
वस्तुत: उस दौर में दैनिक भास्कर का भीतरी वातावरण बहुत हद तक पारिवारिक था। पुराने लोगों को आज के भास्कर प्रबंधन से शिकायत होती है कि उसके कारपोरेट स्वरूप में वह पुरानी पारिवारिकता कहीं गुम होकर रह गयी है फिर भी भास्कर समूह में ऐसे लोग मिल जायेंगे जो आज के मीडिया ‘टाइकून’ श्री सुधीर अग्रवाल को ‘गुडूडू भैया’ और श्री गिरीश अग्रवाल को ‘पिंकी भैया’ कहने से गुरेज नहीं करते। यह पूरा परिवार पूरे देश के लिए अलग हो सकता है पर भोपाल के लिए उनका वही चेहरा आज भी चिर-परिचित है जो चौक बाजार की कचौड़ियों का प्रेमी था या जिस तक किसी भी भोपालवासी का पहुंच जाना साधारण बात थी। रमेश जी जिनका अधिकांश समय अब चैरिटी के कामों में बीतता है, शायद ही कभी ऐसा होता होगा जब किसी सामाजिक संगठन के बुलावे पर न पहुंचते हों। व्यक्तिगत स्तर पर लोगों के सुख-दुख में साथ देना उनका पुराना शगल रहा है। कई बार उनकी इस उदारता का लोग मिसयूज भी करते थे।
कहने का आशय यह है कि, टाइटल से ज्यादा श्री रमेश अग्रवाल और उनके तीनों पुत्र सर्वश्री सुधीर, गिरीश, पवन अग्रवाल की मेहनत और काबलियत रंग लायी। इस महाअभियान में सेठ विश्वंभर दयाल अग्रवाल के पुत्र मनमोहन अग्रवाल, श्री कैलाश अग्रवाल, श्री अजय अग्रवाल, श्री प्रकाश अग्रवाल और श्री राकेश अग्रवाल ने भी रमेश जी का साथ दिया। मप्र के कुछ जिलों से तीन संस्करणों के अलावा श्री मनमोहन अग्रवाल, कैलाश अग्रवाल और उनके अनुज महाराष्ट्र से तीन संस्करणों का प्रकाशन कर रहे हैं। उनकी योजना भविष्य में मप्र और महाराष्ट्र में कुछ अन्य शहरों से भी दैनिक भास्कर के संस्करणों के प्रकाशन की है। एक समय ऐसा भी था जब इस परिवार से भी रमेश जी के परिवार के रिश्ते अल्प समय के लिए तनावभरे दौर से गुजरे लेकिन इन परिवारों को आंतरिक रूप से जानने वाले कह सकते हैं कि रमेश जी के अलावा उनके पुत्र सुधीर-गिरीश और पवन अग्रवाल श्री मनमोहन अग्रवाल और श्री कैलाश अग्रवाल सहित उनके भाईयों का खयाल ही नहीं रखते बल्कि हर तरह से उनके व्यावसायिक हितों की भरपूर चिंता भी करते हैं।
श्री मनमोहन अग्रवाल तो हर छोटी-बड़ी सलाह, हर छोटा-बड़ा काम रमेश जी से परामर्श किए बगैर नहीं करते। उनके आपस के व्यावसायिक और पारिवारिक रिश्ते इतने सघन हैं कि श्री मनमोहन अग्रवाल के द्वारा प्रकाशित किए जाने वाले संस्करणों में रमेश जी के संस्करणों से आए व्यक्ति को तब तक नौकरी पर नहीं रखा जाता जब तक कि उसकी स्वीकृति रमेश जी की ओर से न मिल जाए। मनमोहन जी नए संस्करणों के लोकार्पण या इसी तरह के बडे़ आयोजन तब तक नहीं करते जब तक कि रमेश जी उसकी स्वीकृति न दे-दें।
कहना न होगा कि दैनिक भास्कर समूह की भागीदारी को विस्तार देने में श्री मनमोहन अग्रवाल और कैलाश अग्रवाल के परिवार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन इसके विपरीत श्री महेश चंद्र अग्रवाल झांसी सहित उत्तर प्रदेश का मैदान खाली होने के बावजूद, भास्कर समूह के देश व्यापी नेटवर्क और उसकी ब्रांड वेल्यू को यदि भुना नहीं पाये तो यह उनकी कमजोरी हो सकती है, इसके लिए श्री रमेश चंद्र अग्रवाल कैसे जिम्मेदार हो सकते हैं। भास्कर समूह से जरा भी सरोकार रखने वाले जानते हैं कि महेशचंद्र जी ने झांसी से दैनिक भास्कर के प्रकाशन को कितनी गंभीरता से लिया। रमेशजी, मीडिया टाइकून होने के अलावा सामाजिक जीवन में रच-बस कर इतनी ऊंचाई ग्रहण कर चुके हैं कि पारिवारिक कलह को हवा देकर अपने संपूर्ण जीवन की पुण्याह पर कालिख फेरने की कल्पना भी उन्हें भयभीत कर देती है।
रमेशजी से परिचित लगभग हर व्यक्ति उनकी उदारता, सहदयता और सदाशयता का कायल रहा है। रही बात उनके पुत्रों की तो सुधीरजी, गिरीशजी और पवनजी को अपनी व्यावसायिक व्यस्तताओं से इतनी फुरसत नहीं मिलती कि वे पारिवारिक विग्रहों में समय गवां सकें। सभी को पता है कि महेश जी के एक सुपुत्र हाल के दिनों तक नोएडा में भास्कर की प्रिंटिंग इकाई में रमेशजी की वजह से ही काम पर थे। दैनिक भास्कर के झांसी संस्करण को जीवित रखने के लिए रमेश जी ने अपने तह जो प्रयास किए उससे भी समूह को जानने वाले भली-भांति वाकिफ हैं। ऐसे में टाइटल को लेकर महेश जी का बयान एक प्रकार का अरण्यरोदन ही है।
लेखक सोमदत्त शास्त्री कई वर्षों से मध्य प्रदेश – छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता में सक्रिय हैं. वे 25 वर्षों से भोपाल में दैनिक समाचार पत्रों में जिम्मेदार पदों पर रहने के अतिरिक्त दैनिक भास्कर के भोपाल संस्करण में न्यूज कोआर्डिनेटर, सिटी एडीटर के रूप में काम कर चुके हैं. वे अब भी भास्कर समूह से जुडे़ हैं.