तब भास्कर समूह प्रबंधन ने एक बात कही थी. वो यह कि अगर भविष्य में भी मुंबई छोड़ने का मन हो, तो अभी भास्कर मत छोड़ो. लेकिन १९ साल तक प्रिंट में रहने के बाद नए मीडिया को समझने की इच्छा के चलते उन्हें विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिया था. यह इनकार एक ऐसे शख्स को था जिसके साफ़ सुथरी पत्रकारिता करने और अखबार चलाने के कमिटमेंट को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता, यह शख्स कभी किसी नेता या अधिकारी के दरवाजे पर नहीं देखा गया. वह आज भी अपने पसंदीदा गायक जगजीत सिंह को टिकट खरीदकर लाइव सुनते हैं और और भास्कर या डीबी कोर्प के ५००० से ज्यादा कर्मचारियों को उनके नाम से जानते हैं.
हाल ही में भास्कर ने भोपाल गैस त्रासदी की २५वीं बरसी पर ६० पेज की एक पत्रिका ‘दस्तावेज़’ का प्रकाशन किया और उसके कंटेंट की जिम्मेदारी भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसवानी को सौंपी. केसवानीजी भास्कर समूह के संपादक-कर्मचारी नहीं हैं और उन्हें यह जिम्मेदारी घर से बुलवाकर सिर्फ इसलिए सौंपी गई थी क्योंकि भोपाल गैस त्रासदी को सबसे पहले उन्होंने उजागर किया था और भास्कर प्रबंधन को लग रहा था कि इस त्रासदी पर आज भी सबसे आथेंटिक लेखन वही कर सकते थे. भास्कर अखबार को साबुन की तरह बेचने का आरोप लगाने वालों के लिए एक बुरी खबर यह है कि ६० पेज की इस पत्रिका पर लाखों रुपये खर्च हुए हैं, इसकी क्वालिटी ‘टाइम’ मैगज़ीन की तरह है और सिर्फ तीन पेज के विज्ञापनों के साथ छपी है जिनसे इसके कवर का भी खर्च नहीं निकला होगा. और हाँ, भास्कर के पाठकों को भोपाल में यह मुफ्त बांटी गई. तो ये है, भास्कर प्रबंधन का अपने पाठकों के प्रति कमिटमेंट.
अब जरा बात हिंदी अखबारों, खासकर भास्कर और जागरण पर चुनावी ख़बरें बेचने के आरोप पर. अंग्रेजी का प्रतिष्ठित अखबार ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ सीना ठोककर ‘मीडियानेट’ के मार्फ़त पैसे लेकर और उसकी रसीद देकर न्यूज़ कवरेज को बेचने का धंधा करता आया है. और ख़बरों के लिए किसी से समझौता न करने के लिए मशहूर ‘मिड डे’ समूह की असलियत भी इस बार महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में सामने आ गई. जिस तरह से ‘मिड डे’ ने रोज पूरे पेज ‘पेड कवरेज’ से भरे, वह मेरे जैसे कई ‘मिड डे’ के पाठकों के लिए चौंकाने वाला था. सवाल यह है कि अंग्रेजी मीडिया से आये नैतिकता के लंबरदारों को सिर्फ भास्कर और जागरण ही क्यों दिखाई दिए? अंग्रेजी के बड़े अखबारों द्वारा किये जा रहे इस धंधे पर क्यों कोई अंगुली नहीं उठाता?
भाई आलोक तोमर ने ‘भड़ास ४ मीडिया’ में भास्कर में आये नैतिक बदलाव की बात कही है. सबसे पहली बात, मैं आज तक आलोकजी से मिला नहीं हूं लेकिन उनके लिखे का और उनका बहुत सम्मान करता हूं. यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि भाषा और रिपोर्टिंग किसे कहते हैं यह उन्हें ‘जनसत्ता’ में पढ़-पढ़कर ही सीखने की कोशिश की. आलोकजी के अपने अनुभव हो सकते हैं लेकिन इसी भास्कर प्रबंधन के साथ अनुभव के कुछ किस्से मेरे पास भी हैं. मुंबई संस्करण में कार्यकारी संपादक रहते हुए देर रात इंदौर के एक गुटका किंग की खबर आई थी. खबर यह थी कि गुटका किंग को एक मामले में जांचकर्ता पुलिस अधिकारी को रिश्वत देने कि कोशिश में रंगे हाथों गिरफ्तार किया गया था. खबर महत्वपूर्ण थी और इंदौर जैसी उस जगह से जुडी थी जो भास्कर का गढ़ है. एक पत्रकार और एक अखबार के लिहाज़ से इस खबर का प्रकाशित होना जरूरी लग रहा था लेकिन यही गुटका किंग भास्कर समूह को इंदौर में सबसे ज्यादा विज्ञापन देता था और हर साल उसके ५० लाख रुपयों के विज्ञापन भास्कर में छापते थे.
संपादक होने के लिहाज से प्रबंधन को इसकी सूचना देना भी मुझे जरूरी लगा लिहाजा देर रात भास्कर प्रबंधन को फ़ोन पर पूरा किस्सा बताया और कहा कि हालांकि ये सज्जन भास्कर के इंदौर में सबसे बड़े विज्ञापनदाता हैं लेकिन इंदौर के सबसे बड़े अखबार को इस खबर को प्रकाशित करना ही चाहिए. फ़ोन पर जिनसे बात हुई थी उन्हें भास्कर समूह और उससे बाहर भी ‘हार्ड कोर सेल्सपर्सन’ माना जाता है और हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी के मीडिया हाउस भी उनकी इस ‘निर्मम क्षमता’ का लोहा मानते हैं. यह जानते हुए भी कि भास्कर को इस एक खबर को छापने से आधे करोड़ का सालाना नुक्सान हो सकता है, उन्होंने कहा यदि आप लोगों को लगता है कि खबर छापनी चाहिए तो छापिये. और यह बात कहने में उन्होंने एक मिनट से भी कम समय लिया था. अगले दिन इंदौर भास्कर के पहले पेज पर यह खबर छपी और उसी दिन से भास्कर को उसके विज्ञापन मिलना बंद हो गए. वे शायद आज भी नहीं मिलते. लेकिन उस दिन भास्कर अकेला ऐसा अखबार था जिसने यह खबर छापी और पूरे शहर ने इस बात को सराहा.
किस्सा तो एक यह भी है कि १९८४ में जब भोपाल गैस त्रासदी के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय अर्जुनसिंह जी ने दैनिक भास्कर प्रबंधन को कहा था कि अपने संपादक को समझाइए. महेश श्रीवास्तव तब भोपाल में भास्कर के संपादक थे और भास्कर के तेवर से मुख्यमंत्री जी को खासी परेशानी हो रही थी. तब सरकार से मिलने वाले हर तरह के फायदों के बजाय भास्कर प्रबंधन ने पाठकों के हित में खड़े रहना ज्यादा मुनासिब समझा. इसका खामियाजा भी भास्कर को कई सालों तक सरकारी नाराज़गी झेलकर उठाना पड़ा था.
अब बात करें मीडिया घराने के किसी नैतिक धंधे में उतरने की? भास्कर समूह तेल, नमक और कपड़े का व्यवसाय कई सालों से कर रहा है. मेरी जानकारी में नहीं है कि भारत में ये धंधे नैतिक या कानूनी रूप से सही नहीं हैं. अगर किसी कि जानकारी में हो तो मेरा ज्ञानवर्धन कर सकते हैं. हाँ, नैतिक धंधे को लेकर एक और किस्सा मुझे पता है जिसकी गवाही देने वाले भी कई लोग मिल सकते हैं. कई सालों पहले भास्कर प्रबंधन को किसी ने कहा था कि शराब की एक डिस्टलरी बिक रही है, खरीद लीजिये. उन्हें उसके प्रोफिट का जो गणित समझाया गया था वह हकीकत में बहुत आकर्षक था. मध्य प्रदेश के राजनैतिक और सरकारी अमले ने भी उन्हें कहा था कि ले लीजिये, हम आपके साथ हैं. यह डील लगभग फायनल थी तभी किसी ने उन्हें बताया कि दरअसल यह धंधा २५ फीसदी व्हाइट और ७५ फीसदी ब्लैक का है लेकिन आप चिंता मत कीजिये. भास्कर प्रबंधन ने उसी समय यह डील तोड़ दी और इसका उन्हें आज भी कोई अफ़सोस नहीं है. यह अलग बात है कि यदि उन्होंने उस दिन वह डील कर ली होती तो डीबी कोर्प को कभी भी आईपीओ लाने की जरूरत नहीं पड़ती.
रही बात दैनिक भास्कर झाँसी के मालिक और संपादक महेश अग्रवाल की तो मैं यहां बताना चाहता हूँ. अपने लगभग डेढ़ दशक के भास्कर के कार्यकाल में मैंने कभी इनका नाम तक नहीं सुना. जिस तरह भास्कर के वर्तमान प्रबंधन ने अपने हिस्से के भास्कर को बढ़ाया, महेश जी को स्वीकार करना चाहिए कि उनके पास न तो वह सोच थी जिससे वे अपने संस्करण को आगे बढ़ाते न ही वो कमिटमेंट. उनका संस्करण आज भी झांसी से आगे नहीं बढ़ पाया है और उसकी क्या स्थिति है किसी से छुपी नहीं है. वर्तमान चेयरमैन और उनके १८ घंटे काम करने वाले बेटों की मेहनत को नकारने के बजाय यदि वे अपनी नेतृत्व क्षमता का बारम्बार आंकलन करते तो झाँसी संस्करण भी भास्कर के दूसरे संस्करणों की तरह जगमगा रहा होता.