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पापा, न्यूड डांस क्या होता है?

[caption id="attachment_17288" align="alignleft" width="71"]धीरजधीरज[/caption]श्वेत और पीत के बीच हमारी पत्रकारिता : एक दिन अचानक दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने मुझसे सवाल किया, “पापा यह न्यूड डांस क्या होता है?” उस वक्त मेरे साथ कुछ मेहमान भी आए हुए थे। यह सवाल सुनकर सभी अवाक रह गए। हमने फौरन उससे जानना चाहा कि उसने इस अजीबोगरीब शब्द की खोज कहां से की।

धीरज

धीरज

धीरज

श्वेत और पीत के बीच हमारी पत्रकारिता : एक दिन अचानक दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने मुझसे सवाल किया, “पापा यह न्यूड डांस क्या होता है?” उस वक्त मेरे साथ कुछ मेहमान भी आए हुए थे। यह सवाल सुनकर सभी अवाक रह गए। हमने फौरन उससे जानना चाहा कि उसने इस अजीबोगरीब शब्द की खोज कहां से की।

उसने बड़ी ही मासूमियत से टेबल पर रखा अखबार दिखा दिया। दरअसल सुपर स्टार शाहरुख खान ने आईपीएल के एक मैच में कहा था कि अगर उसकी टीम जीत जाती है तो वह न्यूड डांस करेंगे। अखबार वाले बंधुओं ने भी इस बेहूदा बयान को अपनी पूरी बेहूदगी के साथ छाप डाला। खैर, उस दिन न तो कोलकाता नाइट राइडर्स मैच जीत पाई और न शाहरुख को नग्न होकर अपनी नृत्य कला प्रदर्शित करने का मौका मिला।

स्कूल के दिनों में हमारे अध्यापक और अभिभावक रीडिंग डाल कर हिंदी या अंग्रेजी बोलने की प्रैक्टिस करवाते थे। इससे न सिर्फ बोलचाल की झिझक खत्म होती थी, बल्कि शब्दों के उच्चारण में भी स्पष्टता आती थी। आजकल के अध्यापक रीडिंग यानि जोर-जोर से पढ़ने पर अधिक समय नहीं देते। मैने सोचा कि बिटिया को अंग्रेजी अखबार की रीडिंग डलवाई जाए। उसे एक अखबार थमाते हुए मैने रीडिंग डालने को कहा तो सबसे पहले उसका सवाल आया, “पापा, यह ब्लड बाथ क्या होता है?” मैंने सकपका कर उसे आगे के पन्ने पर नजर डालने को कहा तो उसने जोर-जोर से पढ़ना शुरू किया, “आएशा हैड फिजिकल इंटीमेसी विद मलिक…”

मैंने हड़बड़ा कर अखबार उसके हाथों से ले लिया और कहा, “अब तुम पार्क में जाकर खेलो”। यहां इन बातों का जिक्र करने का तात्पर्य यह सवाल उठाना है कि आखिर क्या छप रहा है आजकल मसालेदार खबरों के नाम पर? क्या साफ-सुथरी पत्रकारिता भारत के लिए बीते जमाने की बात हो गई? जितनी गलती एक नामी-गिरामी अभिनेता ने भौंडा बयान देकर की उससे भी बड़ी गलती हमारे पत्रकार बंधुओं ने उस बयान को अहमियत देकर की है। खबरों को मसालेदार बनाने की भूख ने क्या हमारे सोचने समझने की ताकत को खत्म कर दिया है? क्या इसे शब्दों को चुनने में लापरवाही कहा जाए या फिर यह कोई सोची समझी साजिश है? क्या किसी को यह फिक्र नहीं है कि उनकी भाषा का उनके अपने घर में रहने वाले सदस्यों पर क्या असर पड़ेगा?

हाल के दिनों में सानिया प्रकरण में मीडिया का अनोखा ही रूप देखने को मिला। क्या प्रिंट, क्या इलैक्ट्रॉनिक सभी मीडिया वालों का मानो एक ही ध्येय बन गया था… किसी तरह शोएब सानिया की शादी टल जाए या रुक जाए। जब आएशा प्रकरण किसी तरह दोनों परिवारों की सहमति से निबट गया तो शोएब को झूठा करार देने की होड़ मच गई। इतना ही नहीं, इस पाकिस्तानी क्रिकेटर की पुरानी नितांत निजी तस्वीरों का सहारा लेकर उस पर जम कर कीचड़ भी उछाला गया। वो तो भला हो सानिया और शोएब का जिन्होंने टीवी या अखबार की बजाए एक दूसरे पर भरोसा किया, वरना उनका घर बसने से पहले ही उजड़ जाता। इस प्रकरण को देख कर मुझे डायना की मौत के समय ब्रिटिश मीडिया की भूमिका और फिर उनकी शर्मिंदगी की याद आ गई। भारतीय मीडिया को एक आत्ममंथन की आवश्यकता जरूर है। हमारी पत्रकारिता बेशक यूरोपीय और अमेरिकी देशों की पत्रकारिता की तरह घिनौनी और पीली नहीं हुई है, लेकिन इसे सफेद तो कतई नहीं कहा जा सकता।

लेखक धीरज जर्नलिस्ट हैं और इन दिनों जर्नलिस्टों के वेलफेयर के लिए संगठित रूप से काम कर रहे हैं.

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0 Comments

  1. vinod mahajan

    April 14, 2010 at 12:48 pm

    dhiraj ji yai to kuch bhi nahi hai , tab kitani dikat hoti hai jab khabar dikhaie jati hai ya likhi jati hai ki baap nai baiti ka raip kiya. kya hota hai jab baap baiti ek sath baith kar news daikh rahai hotai hai, laikin is baat sai fhark kisko padta hai……..Reg- vinod mahajan.

  2. rajesh

    April 14, 2010 at 1:13 pm

    dheeraj jee, BIDAS BOL ke bare me bhi to kuchh kaho.

  3. anil pande

    April 14, 2010 at 1:20 pm

    आप जैसी सोच वाले हज़ारों हैं हिन्दी पत्रकारिता में.
    अकेले मत समझिए खुद को.

    ऐसे “बेहूदा अखबार” घर मे तो बिल्कुल नही लाएँ.

    बिटिया रानी को हिन्दी अखबारों मे छपे
    “ताकत और लंबाई बढ़ाने वाले ” विग्यापन तो भूल से भी पढ़ने मत देना. उसे स्याही से पोत देना.

    अखबार के आपत्तिजनक शब्दों को भी मार्कर से काले कर दें, और उसके बदले मे आदर्श शब्द लिख दें. फिर परिवार के “सुधि पाठकों” को पढ़ने की अनुमति दें.

    घर मे रामायण, महाभारत, गीता प्रेस वाली सामग्री परिवारवालों को पढ़ने दें.

    धार्मिक चॅनेल ही देखें.
    बाक़ी कटवा दें.

    ओम शांति..शांति !

  4. गौरव कुमार प्रजापति

    April 14, 2010 at 1:30 pm

    सर नमस्कार…
    ये सच है कि आजकल पेपर्स और चैनल्स में बहुत कुछ ऐसा लिखा और दिखाया जा रहा है जो परिवार के बीच बैठकर वास्तव में नहीं पढ़ा औप देखा जा सकता है। सवाल ये उठता है कि पाठक संख्या और टीआरपी बढ़ाने के लिए क्या अश्लील चित्र और शब्द ही एकमात्र विकल्प रह गये हैं। अगर हां तो हम पत्रकार खुद को कलम का सिपाही और पत्रकारिता को एक मिशन कैसे कह सकते हैं। ये सच है कि अगर इस पर अभी गंभीर चिंतन नहीं किया गया तो आने वाला समय वास्तव में बहुत बुरा हो सकता है।

  5. Animesh

    April 14, 2010 at 3:10 pm

    Ghar Par The Hindu mangvayen aur apni bitiya ko padhne ko den. Badi hokar IAS officer zaroor banengi.

  6. ash

    April 14, 2010 at 4:31 pm

    धीरज जी, सवाल यह नहीं कि बच्चे ने देखा तो हमें याद आया, सवाल यह है कि आन्दोलन को मूर्त रूप देने वाली कलम आजकल कैसी आड़ी तिरछी लकीरें खींच रही कि समाज कि सरंचना ही ग्राह्य नहीं हो पा रही है…आप स्वयं एक पत्रकार हैं और इस बात का अनुभव आपने कितने बार किया होगा कि जो आप लिख रहें हैं उसका किसी के ऊपर क्या प्रभाव पड़ेगा….?मुझे लगता है कि दिल पर हाथ रखवा कर पूछा जाये तो ऐसे पत्रकार मिलना मुश्किल हो जायेगा कि वोह इतना सोचता हो…..आज शाहरुख़ कि हिम्मत मीडिया के सामने न्यूड डांस का वादा करने कि हुयी है तो इसके पीछे कहीं ना कहीं से हम ही ज़िम्मेदार हैं….पहले अपनी बिरादरी को संभाला जाये तो अच्छा वरना विधवा विलाप के सिवा कुछ बचेगा नहीं…..

  7. सूर्योदय

    April 14, 2010 at 6:52 pm

    इन अनिल पांडे जैसे लोगों की वजह से ही सस्ती भाषा लिखने वाले पत्रकारों को बढ़ावा मिलता है। कभी अपनी बहन बेटियों के सामने ऐसी भाषा का प्रयोग कर के देखिए अनिल जी फिर पता चलेगा। लगता है कभी परिवार में रहे ही नहीं आप।

  8. अजय

    April 14, 2010 at 9:13 pm

    धीरज सर,जो आपने बात लिखी है,इसके लिए जिम्मेवार कौन है? भोली भाली जनता या आप और मेरे जैसे चौथे खम्भा के दंभ भरनेवाले….ये क्या सच नहीं है कि प्रिंट में काम करनेवाला हो या इलेक्टॉनिक मीडिया में….सारे के सारे नंगे हैं..नंगा का मतलब ये कि जब इस टाइप के खबर छपता है या दिखाया जाता है…तो बॉस ये नहीं पूछता कि ऐसी ख़बर को क्यों अहमियत दिया…लेकिन ये जरुर कहेगा कि तुम बहुत आगे जाओगे …तुमने तो ये खबर से फलां अखबार या फलां चैनल की ऐसी कि तैसी कर दी…. इस स्थिति में मेर जैसे नौसिखुया पत्रकार क्या सोचेगा…..यहीं न कि ऐसी खबर से तरक्की मिलेगी….तो हालात को किसने पैदा किया है….बाजारवाद को मीडिया को दबाना चाहिए…लेकिन मीडिया उसके पीछे चल रहा है….एक आमजन भी इस बात को जान गया है कि मीडियावाले क्या करते हैं….मुझे याद है कि जब मैं पांचवी कक्षा में था….तो एक कहानी पढा था अखबार में नाम…एक लड़का अखबार में नाम छपवाने के लिए ट्रक से कुचलवाने के लिए तैयार है…वो जमाना था मीडिया का….लेकिन आज क्या है..ये किसी से छूपा नहीं है….इसलिए ज्ञान बघारने के बजाए उसे अमल में लाना होगा….नहीं तो ओ दिन दूर नहीं जब पत्रकार के नाम पर लोग थूकेंगे….

  9. ankit mathur

    April 15, 2010 at 6:36 am

    चूतिया बना के रखा है अखबारों ने, संपादक पता नही कैसा संपादन करते हैं।

  10. vishal

    April 15, 2010 at 7:39 am

    You are embarrased only on the discription, probably you don’t subscribe to Times of India which invariably prints women in two piece in its Supplements on daily basis.There may be readers who enjoy these photographs but a father or mother with small or teenaged kids certainly cannot appreciate this kind of infotainment.

  11. aman

    April 15, 2010 at 8:09 am

    Mitron Aage aage dekhiye Nichta aur Khulepan ki TRP ke khel ka asar kis had tak sanskar, mulya aur parampara ko todta hai.
    Jaanka sanskaro ki ahmiyat beete jamane ki baat mani jane lagi hai.
    Badalte jamane ke akhbar, Sabse Tez chnl, Jo hum dikhaye whi sach jaisi punch line kya siddh karengi samay batayega.
    Der raat dikhayi jane wali filmo ke prasaaran se bahut pahle avaysk bachhon, kishoro ko sula diya jata tha. Par akhbaar aur news chnls yadi aisi samgri parosenge to Aankhe kab tak band karvayenge.

  12. laloo

    April 15, 2010 at 9:21 am

    yups…. this is going wired… and newspapers can print anything to increase their readership…

  13. anil pande

    April 15, 2010 at 11:26 am

    सूर्योदय जी,
    अब आप जैसे चिंटू-पिंटू भी भाषा तय करने लगे.

  14. Anshul Srivastava

    April 17, 2010 at 4:48 pm

    Dheeraj Ji Namskar aaj k reporter likhte samay ye bhul jate hai ki wo kya likh rhe hai wo sirf us samay ye sochte hai ki mai aisa kya likhu ki mai un sab paper se sabse jyada highlight ho saku wo bhul jate hai ki isse unke pariwar walo pr kya farq padega


    Best Regards,

    Anshul Srivastava
    Chief Managing Director
    Akela Timesvision

    mobile: +91-9919956730
    Office: +91-522-2473080
    Fax: +91-522-4048812
    E-mail: [email protected]
    web site: http://www.akela.tv

  15. shryeas

    April 19, 2010 at 4:16 am

    isme koi chintu-mintu ya pintu nahi hota. ye poori patrakar biradari ke sochne ki baat hai ki aise shabd ya bhasha istemal ki jaroorat kyo pad rahi hai.shabdo ke khiladiyo ko koi ek dusre ki kami nikalne ki bajaye sharthak bahas ke liye samme aana chahiye. yadi nude dance ya bloodbath shabd thik nahi hai to, iska vikalp bata kar unki ankhe kholen jinhone wo shabd likhe hai.

  16. DEEPAK KALRA

    April 19, 2010 at 10:04 am

    KUL MILAKAR…..PATRKAR B NAHIN RAHE AUR PATRKARI B………..DEPTTS. MAIN BLACK-SHEEPS KO DHOONDTE-DHOONDTE PATRKAR BHAI B BLACKMAILERS KI LIST MAIN AA GAYE HAIN…AB JAB LIKHNE KO KUCH NAHIN TO BEHUDA LIKH KAR HI APNA ULLU SIDHA KAR RAHE HAIN……AUR PATRKAR BHAIYON SE BHI ADHIK ULLU NEWSPAPERS KE SAMPADAK MAHODAYA SIDHA KAR RAHEN HAIN………..BHAGAWAN SABKO SADBUDHI DE

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