वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण ने कहा कि हम इतिहास के रास्ते से ही इतिहास में नहीं जा सकते, बल्कि साहित्य तमाम फाटक हैं जो हमें इतिहास में ले जाते हैं। यह बात उन्होंने दिल्ली में साहित्य अकादेमी सभागार में वरिष्ठ आलोचक निर्मला जैन की पुस्तक ‘दिल्ली शहर दर शहर’ का लोकार्पण करने के बाद कही। कुंवर नारायण ने पुस्तक में पुरानी दिल्ली के कटरों और गलियों के उल्लेख का हवाला देते हुए कहा कि इस पुस्तक को पढ़ कर मुझे लगा कि गलियां इबारत हैं और उनके बारे में बात करना जिंदगी के अंतरंग प्रसंगों से साक्षात्कार करना है। उन्होंने कहा कि कई बार गलियों के माध्यम से जो इतिहास बोलता है वह बड़ी-बड़ी सड़कों के माध्यम से नहीं बोलता। इतिहास, जो मरा नहीं है, उसे अपनी भाषा में बयान करना जीवन का विस्तार है।
कार्यक्रम की शुरुआत में वरिष्ठ कथाकार कृष्णा सोबती ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि यह बहुत बड़ा शिल्प है जिसमें आप एक शहर के मिजाज को अंकित करते हैं और उसमें आप यह विचार नहीं करते कि आप अपने शहर को देख रहें हैं। उन्होंने कहा कि रचनात्मकता के स्तर पर निर्मला जैन में समाजशास्त्रीय एहसास और उसे देखने की नजर है। विभाजन के बाद दिल्ली आए विस्थापितों की स्थिति को उन्होंने जिस तरह से प्रस्तुत किया है वह एक विवेकशील व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। समाजशास्त्री कृष्ण कुमार ने कहा कि जिस दौर में लेखक को कायर बनाने के लिए एक पूरा जगत मौजूद है, ऐसे समय में यह सहजतापूर्वक लिखी गई गद्य रचना है, जबकि गद्य जो एक संस्कृति है, उसे आज कई चोटें बर्दाश्त करनी पड़ रही हैं। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक हमारे सामने शैली का भी एक प्रतिमान रचती है।
आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लेखक के कूचों-कटरों में लौटने का उल्लेख करते हुए कहा कि यह पुस्तक अपनी स्मृतियों में वापस जाने का केवल रूपक नहीं बल्कि एक उपक्रम है। उन्होंने कहा कि सारी शिष्टता के बावजूद पुस्कत में डा. नगेंद्र और नामवर सिंह के चित्रण में कोई समझौता नहीं है। उन्होंने कहा कि दिल्ली शहर का आकार तो तेजी से बढ़ रहा है पर उसका कद छोटा होता जा रहा है। उसके आकार का बढ़ना और कद का छोटा होना जिन कारणों से हो रहा है उनकी गहरी पड़ताल इस पुस्तक में की गई है। रंगकर्मी देवेंद्र राज अंकुर ने पुस्तक में उर्दू के शब्दों के प्रकाशन में गलती की तरफ संकेत करते हुए और खास तौर पर नुक्तों की गलती का जिक्र कर कहा कि इस पुस्तक के जरिए पुरानी दिल्ली की गलियों में जाना मेरे लिए जीवंत अनुभव है। उन्होंने लेखिका से सवाल किया कि इतनी बेबाकी से लिखी पुस्तक में जहां आपने आपातकाल के दौरान पूरे साहित्य जगत के नाम गिनाए पर, उस पर (आपातकाल पर) अपना रुख क्या था यह स्पष्ट नहीं किया। साभार : जनसत्ता
अभिषेक रंजन सिंह
January 18, 2010 at 10:55 am
शहरी पत्थर पर नाम लिखा है तेरा मेरा….फिर भी दुनिया पूछ रही है क्या रिश्ता है तेरा मेरा…….निर्मला जैन की नवीनतम पुस्तक दिल्ली शहर दर शहर …दिल्ली के अतीत और अदब की जानकारी चाहने वाले एक बड़े पाठक वर्ग की जरूरते पूरी करेंगीं। हर शहर की अफनी रिवायतें होती हैं….दिल्ली ने बहुत कुछ देखा है…….कई बादशाहों की रौनकें भी देखी हैं…लोगों को उजड़ते भी देखा है….मुल्क के बंटवारे को भी देखा है….और आज की नईदिल्ली रूपी सौतन भी देख रही है। इस दिल्ली से न चाहते हुए…लाखों लोगों को आंखों में आंसू लिए बंटवारे के वक्त अपनी जमीं से हमेशा के लिए जाते हुए भी देखा है….शहर-ए-दिल्ली ने बेहतरीन सियासत के नजारे भी देखे हैं और गंदी राजनीति को करीब से भी देखा है। बेशक आज दिल्ली काफी बदल चुकी है….उसके माजी को भुलाने की कोशिश की जा रही है….लेकिन फिर भी कुछ बात है दिल्ली की जो नई होकर भी पुरानी है……..सैकड़ों ऐसे जगह हैं इस दिल्ली के अंदर जहां लोग आकर अतीत में खो जाते हैं उन्हें जो सुकून मिलता है उन्हें वो शायद नई दिल्ली में नई……हसीन दिल्ली, सूफियाना दिल्ली और जिंदा दिल दिल्ली…….एहतराम करता हूं इस शहर को…