वह पहली मुलाकात – दृश्य याद है. चौबीस वर्ष पहले. तब 19-20 वर्ष का युवा था. जयप्रकाशनगर (गांव) में जेपी बैठे थे. कुल 15-20 लोग रहे होंगे. वह कुर्सी पर थे. शेष नीचे गद्दे पर. जेपी बिहार आंदोलन के चुनिंदा युवा नेताओं से बात कर रहे थे. यह आंदोलन का प्रशिक्षण शिविर था. चिंतन शिविर भी. जेपी के ठीक बगल में कृष्णनाथजी बैठे थे. गौर वर्ण, लंबा कद. दमदार आवाज. साफ़ सोच और खरी बातें. एक अद्भत तेज. बोलता, गूंजता व्यक्तित्व व चरित्र. जेपी के आमंत्रण पर वह युवा नेताओं से संवाद करने आये थे. विशिष्ट वक्ता के रूप में. मालूम हआ, वह काशी निवासी है. विद्यापीठ में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर. तब काशी में पढ़ता था. जाकर मिला. कुछ ही दिनों बाद काशी छूट गयी. मुंबई गया, नौकरी में.
तब से अब तक, कृष्णनाथजी हमेशा साथ हैं. स्मृति में. अपने लेखों – पुस्तकों के रूप में. स्नेह भरे पत्रों से. पहले प्राय मिलने का अवसर मिलता था. अब अंतराल है. पर मन-मस्तिष्क़ में वह हमेशा साथ हैं. कई बार लगता है, अगर वह नहीं मिले होते, तो जीवन अधूरा होता. कुछेक लोग ऐसे हैं, जिनसे मिलकर जीवन की ऊंचाई और मर्म की झलक मिलती है. व्यक्ति का चरित्र कितना खरा और प्रेरक हो सकता है, यह पता चलता है. कृष्णनाथजी वैसे ही हैं.
कौन हैं कृष्णनाथजी ? औपचारिक परिचय है कि वह जानेमाने विचारक हैं. लेखक, साधक और एकाकी यायावर. बीएचयू से अर्थशास्त्र में एमए किया. काशी विद्यापीठ में अर्थशास्त्र पढ़ाया. बचपन से ही समाजवादी आंदोलन से संबंद्ध रहे. सत्याग्रह, संघर्ष, अनेक जेल यात्राएं. विदेशी सहायता की राजनीति पर दृष्टिसंपन्न पुस्तक के लेखक. प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’, अंग्रेजी पत्रिका ‘मैनकाइंड’ का संपादन किया. ‘ओर्थकी’ नामक अर्थशास्त्रीय पत्रिका के प्रथम संपादक बने. पर साहित्य और संस्कृति से उनका गहरा लगाव रहा. उनकी रूचि बौद्ध दर्शन और साधना में अधिक गहन हई. बौद्ध दर्शन ने उन्हें विशेष रूप से खींचा. साथ-साथ उनका हिमालय यात्राओं का सिलसिला चलता रहा. ‘80 के दशक में विश्व प्रसिद्ध विचारक जे कृष्णमूर्ति के वह आत्मीय हए. कुछ वषाब से वे हर साल कुछ महीने बेंगलूर के पास स्थित कृष्णमूर्ति स्टडी सेंटर में एकांत प्रवास करते हैं. अगर वह दक्षिण भारत में नहीं हैं, तो वह हिमालय के किसी इलाके में भ्रमण करते हैं या काशी के सारनाथ में प्रवास. उनकी अनेक पुस्तकें हैं. हिमालय पर इतना समृद्ध यात्रा वृतांत, शायद ही किसी भाषा में हो. ‘स्पीति में बारिश’, ‘लद्दाख में राग-विराग’, ‘किन्नर धर्म लोक’, ‘अरूणाचल यात्रा’, ‘कुमाऊं यात्रा’, ‘किन्नौर यात्रा’, ‘हिमालय यात्रा’. उनकी पांच नयी किताबें आयीं हैं. एक साथ. उनके पच्चहत्तर वर्ष होने के अवसर पर. हाल ही में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में इन पुस्तकों का लोकार्पण हआ. नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी जैसे जानेमाने लोगों की मौजूदगी में. इन पांचों पुस्तकों को छापा है, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली ने. बौद्ध निबंधावली समाज एंव संस्कृति (कीमत है, 395 रूपये), पृथ्वी-परिक्रमा (कीमत है, 325 रूपये), रूपं शून्यं शून्यं रूपं (कीमत है, 395 रूपये), दत्त दिगम्बर माङो गुरू (कीमत है, 395 रूपये), नागार्जुनकोण्डा नागार्जुन कहां है (कीमत है, 295 रूपये). पुस्तकों की छपाई, आकार और कवर अत्यंत आकर्षक और सुंदर.
क्यों कृष्णनाथजी अनूठे हैं? अद्वितीय है? उनकी भाषा, चिंतन, चरित्र बांधते हैं. उनके गद्य में अद्भत कवित्व है. अंग्रेजी में कहें तो पोयटिक लैंगुवेज. काव्यमय गद्य. छोटे शब्द. धरती के शब्द. साफ़ चिंतन. उनका गद्य बार-बार पढ़ने को विवश करता है. मन में उतरता है. अंदर जाता है. ‘स्पीति में बारिश’ की महज एक बानगी.
सामने, बायें, दाहिने, सब दूर हिम शिखरों पर बर्फ़ है और नीले ग़ढ़े हैं. और इन पर चांदनी फ़िसल रही है. घाटी में यह चांदनी बरस रही है. सब ओर उजियार है. मैंने सागर तीरे शरद की जुन्हाई में स्नान किया है. लेकिन एक साथ इतनी शीतल और इतनी मोहक चांदनी मैंने नहीं भोगी. मैं चांदनी में नहाता हं. गंध ढ़ंढ़ता हं. आकाश को सुनता हं.
पागल हए हो. यह गंध विषयों में नहीं है, न इंद्रियों में है, न इन दोनों के बीच है! न इनके अलावा कहीं और है. तो फ़िर यह गंध कहां है?
यह गंध तो हिमगंध है. हिमगिरि और हिमवनों की गंध है. इस गंध का कोई विग्रह नहीं है, कोई मूरत, कोई शरीर नहीं है. गंध तो अशरीरी है. उसका शरीर कहां है? और अगर कहीं यह है, तो तुम्हारे अंदर है. और तुम इस ठंड में और इस चांदनी में भटक रहे हो. अंदर देखो, बिखरो मत. समेटना सीखो. फ़िर भले बिखेर दो. भागा तीरे आकर भी अभागा न रहो. गंध की काया नहीं, अपनी काया देखो. अपना चित्त देखो.
मैं अपनी ही काया कैसे देखूं? अपने ही कंधे पर चढ़ कर अपने को कैसे देखूं? अपने ही चित्त से अपना चित्र कैसे देखूं? मैं सोचता हं और भागा तीरे खड़ा हं. आकाश में और चित्र में पुण्यगंध बह रही है. मैं देख रहा हं.इस तरह उनका गद्य जादूमय है. उनकी पुस्तकें इस कारण भी विशिष्ट हैं कि वे जीवन में प्रयोगधर्मी रहे हैं. काशी के विश्वनाथ मंदिर में हरिजनों का पहला जत्था ले जानेवाले संघर्षशील युवा जिसे पुलिस ने लाठी से लगभग मार ही दिया था. पलामू के गरीब ओदवासियों के साथ रहे, लड़े, जेल गये. फ़िर बौद्ध दर्शन और जीवन ने खींचा, तो वहां रमे. गहराई में उतरे. कई दशकों से हिमालय आना जाना किया. हिमालय के अद्भत यात्रा वृतांत लिखे. वह दार्शनिक हैं. बौद्ध धर्म की गहराइयों में उतरे. जिद्दू कृष्णमूर्ति से संवाद किया. साथ रहे. उनकी नयी ये पांचों पुस्तकें विशिष्ट हैं. भाव में. भाषा में. चिंतन में. गहराई में. अशोक वाजपेयी ने ‘रूपं शून्यं शून्यं रूपं’ की भूमिका में लिखा है, कृष्णनाथ बहश्रुत यायावार और बौद्ध विद्वान के रूप में सुप्रतिष्ठित हैं. उनका सजल गद्य अपनी प्रवाहमयता और संवेदनशील सावधानी के लिए जाना जाता है.
रविवार और धर्मयुग में काम करते हए, अगर उनका लेख पहंचता, छपने के लिए के लिए, तो सब छोड़ पहले वही पढ़ता. एक पाठक के रूप में. आज भी उनकी कोई रचना मिलती है, तो सब छोड़, पढ़ता हं. ये पांचों पुस्तकें उसी क्रम में अनूठी लगीं.