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हरिवंश[/caption]”नेहरूजी के जमाने में जितने बड़े संपादक थे, क्या वो नहीं जानते थे कि हमारे समाज में अंधविश्वास है? क्या वो नहीं जानते थे कि हमारे समाज में सनसनीखेज चीजे, चरित्र हनन की चीजों को लोग ज्यादा पढ़ते हैं? वो लोग सब जानते थे. पर जर्नलिज्म के हमारे लीडर ऐसे थे जिन्होंने समाज के लिए सोचा. कहा कि अंधेरे में पड़े हुए समाज को उजाले में ले जाना है. इसलिए उन्होंने वो अंधेरे वाले पक्ष को उठाना छोड़ कर, चेतना की ओर ले जाने का काम किया. आज हम लोग क्या कर रहे हैं? इतना आगे पहुंचकर भी लोगों को अंधेरे में डाल रहे हैं? ये कितना बड़ा फर्क है. आप देखिए, तब चलपति राव जैसे व्यक्ति थे. राम राव थे, विक्रम राव के पिता. आजादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों के आपरेशन में ये लोग देश और जनता के लिए जेल में रहे. परेशान हुए. जब आजादी मिली तो इमरजेंसी के दौरान चलपति राव जी जैसे आदमी मामूली चाय की दुकान पर चाय पीते हुए मर गए. उनको आठ घंटे बाद देश ने जाना कि वो मर गए. उनके कलम से पंडित नेहरू जैसे लोग प्रेरित होते थे. ऐसे लोग थे हमारे रहनुमा. ऐसे लोगों ने हमारी भारत की पत्रकारिता की नींव डाली. आज हम कहां पहुंच गए हैं? आज कोई राम राव को याद करता है? चलपति राव के नाम पर कोई पुरस्कार है? इसी तरह हिंदी में ऐसे-ऐसे अखबार हुए जिन्होंने चुना कि हमें काले पानी की सजा ही लेनी है. स्वराज अखबार इलहाबाद से निकला. उसके छह संपादक हुए. उनकी कलम से डरे अंग्रेजों ने सभी को एक-एक कर काले पानी की सजा दी. इस अखबार में निकलता था कि जो काले पानी की सजा के लिए तैयार हैं, वहीं उस अखबार का संपादक बनने के लिए आवेदन करें. और, तब भी लोगों की लाइन लगी रहती थी. क्यों तब इस देश में पत्रकारिता के मोरल लीडर्स थे, इनटेलेक्चुवल लीडर्स थे. आज तो जो लोग अपराध की दुनिया से नजदीकी संबंध रखते हैं, अपराधियों से सांठगांठ रखते हैं, उन्हें इसी गुण के कारण संपादक बना दिया जाता है. मालिकों को यह समझना बंद करना चाहिए कि उनका अखबार या टीवी चैनल लूटने के लिए है.”