छह सौ साल पहले जब संत कबीर साधु की जात पूछने से इनकार करते हुए ज्ञान पर जोर दे रहे थे, तब की खुरदुरी जमीन और आज की चकाचौंध के बीच मानव सभ्यता के दो विश्व युद्ध, सैकड़ों छिटपुट जंग और बदलाव की कई मायनीखेज कहानियां अटी पड़ी हैं। इस बहुत ज्यादा बदले समाज में इस बीच जाति आयी और जाने का नाम नहीं ले रही।
समूह की पहचान के तौर पर छठवीं शताब्दी में उपजी व्यवस्था के बीच आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक के साथ राजनीतिक पहचानें भी जाति केंद्रित होती गईं और आज हम सभ्यता के जिस मुहाने पर खड़े हैं वहां जाति गालियों में इस्तेमाल एक सटीक हथियार है। दो प्रजातियों में मतभेद के ज्यादातर विवादों का एक सिरा जाति होती है और हकीकतन दुनियाभर में भारत के अलावा किसी भी देश में जातिवाद नहीं है। ऐसे में भारत सरकार गिनना चाहती है कि किस जाति के कितने लोग हैं देश में, क्योंकि हमारी राजनीतिक व्यवस्था से लेकर सामाजिक समरसता तक को जाति प्रभावित कर रही है। बदल रही है।
ऐसे में जातिबल की ठीक-ठीक पहचान जरूरी हो जाती है। जाति का खात्मा या जाति का उत्थान? उद्देश्य जो भी हो, संख्या को गिनना जरूरी है। इसके विरोध और पक्ष दोनों ही स्वरों में एक किस्म का विलगाव दिखाई देता है। जाति व्यवस्था की निचली पायदान पर खड़े दलित उत्थान और सिंहासन पर बैठे ब्राह्मणवाद के ढह चुके किले का टकराव जो घर्षण पैदा कर रहा है वह सोची समझी साजिश तो नहीं? क्या जाति की गणना से दलितों को फायदा होगा? या ब्राह्मणवाद के कड़ाहे में उबाल आयेगा?
अब तक हुई जाति संबंधी बहसों का केंद्र दिल्ली रहा है। क्या दिल्ली कोई जाति है? जो सारे देश के हकों पर काबिज होती है? ऐसे ही कई सवालों से दो-चार होंगे गाजियाबाद में। 18 जुलाई को। दिल्ली के बाहर इस बहस को ले जाने की शुरुआत में साझा करें अपनी राय। इस बहस में हिस्सेदारी कर अपना पक्ष रखें।
दिनांक- 18 जुलाई 2010
समय- सुबह 11 बजे
स्थान- वसुंधरा प्लाजा, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाजियाबाद
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें- हिमानी -9650752745 या 0120-4110744
Dr Matsyendra Prabhakar
July 13, 2010 at 4:03 pm
Ek badhiya shuruaat ki gayi hai. Iss mudde par RASHTRIYA BAHAS honi hi chahiye.