दिल्ली में हुये टीवी संपादको और मालिकों को दिये जाने वाले पुरस्कारों पर आपकी टिप्पणी कई बातों की ओर इंगित करती है. आपका यह प्रश्न कि असली नायक तो उपेक्षित ही रह गये, बेहद प्रासंगिक है. पर यह कोई नई बात इसलिये नहीं है क्योंकि न केवल मीडिया बल्कि हर उस क्षेत्र में वे ही लोग पुरस्कार के हकदार हो जाते हैं जो या तो मालिक हों, संस्था के प्रमुख हों या फिर प्रभावशाली हों. दिल्ली में बैठे इलेक्टानिक चैनलों के मालिकान या संपादक क्या जानें कि छोटे-छोटे शहरों या कस्बों में काम कर रहे उनके संवाददाता या स्टिंगर किन कठिनाइयों के बीच कितने कम पैसों में काम कर रहे हैं.
एक स्टोरी के लिये इन स्टिंगरों को पांच सौ रुपये से लेकर डेढ़ हजार रूपयों का भुगतान किया जाता है. बमुश्किल एक महीने में इनकी तीन या चार स्टोरीज टीवी स्क्रीन पर चल पाती है. ऐसी परिस्थिति में ये संवाददाता या स्टिंगर कैसे अपना और अपने परिवार का पेट पालते होंगे, इस बात से इन मालिकों या महान संपादकों को कोई वास्ता नहीं है. वैसे भी इलेक्टानिक चैनलों को राजनीति, सेक्स, भूत, प्रेत, बलात्कार की खबरों में कुछ ज्यादा ही रस आता है और ये खबरें ही इनके लिये पैसों, विज्ञापनों यानी टीआरपी का जुगाड़ करती है. किसी दूरदराज के कस्बे की समस्याओं, गरीब किसानों और परेशानियों से जूझते लोगों की स्टोरी इनके लिये बेकार होती है क्योंकि ये स्टोरीज इनकी टीआरपी में इजाफा नही कर पाती. ऐसा नही है कि केवल मीडिया में ही असली नायकों को उपेक्षित किया जा रहा है. किसी भी क्षेत्र में मिलने वाली सफलता का हकदार वही होता है जो उस क्षेत्र का महारथी हो. उद्योग रत्न हो या फिर किसी व्यवसाय की सफलता के लिये दिया जाने वाला सम्मान, ये हमेशा मालिकों की झोली में ही गिरता है जबकि उस उद्योग की सफलता में सबसे बड़ा योगदान वहां के श्रमिकों का ही होता है.
अपना खून पसीना वे बहाते हैं और पुरस्कार के हकदार उद्योगपति होते हैं. जबकि ये एक सचाई है कि बिना श्रमिकों की मेहनत के कोई भी उद्योग न तो पनप सकता है और न ही सफल हो सकता है. रात-दिन की पालियों में काम करने वाले व असुरक्षित जीवन जीने वाले गरीब मजदूरों को न तो उनके श्रम का वास्तविक मूल्य ही मिलता है और न ही कोई पुरस्कार. न केवल उद्योगों में ऐसा होता है बल्कि फिल्मों में भी जो लोग बड़े बड़े सम्मान और पुरूस्कार पाते हैं उनमें वे ही लोग शामिल होते हैं जो या तो फिल्म के निदेशक हों या नायक. एक फिल्म के निर्माण में सैकडों लोगों की मेहनत लगती है पर उन मेहनतकशों को हमेशा परदे के पीछे ही रहना पड़ता है. दादा साहब फाल्के जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार आज तक किसी भी तकनीकी स्टाफ को नही दिया गया और न ही लाइफ टाइम अचीवमेन्ट पुरस्कार किसी उस व्यक्ति को मिला जो परदे के पीछे रहकर बरसों से काम कर रहा है.
अखबारों में भी यदि अखबार सफल है तो उसका श्रेय संपादक को जाता है और असफलता के लिये कई दूसरे कारण ढूंढ लिये जाते हैं. चाहे सरकार हो या सेना निजी संस्थान हो या कोई अन्य संस्था, इतिहास तो यही कहता है कि पुरस्कार और सम्मान उसे ही मिलता है जो ताकतवर है या फिर प्रभावशाली. इसके साथ-साथ यह भी सच्चाई है कि पुरस्कारों के हकदार हमेशा से ही राजधानी या बड़े शहरों के ही लोग होते हैं क्योकि पुरस्कार या सम्मान देने वाली संस्थायें उन्हीं बड़े शहरों की होती हैं और उनसे जुगाड़ लगा लेना इनके लिये काफी आसान होता है. सवाल ये नहीं है कि जिन्हें सम्मान मिला है वे सम्मान के योग्य है या नहीं पर कभी इन लोगों ने खुद अपने इस पुरस्कार या सम्मान को यह कह कर किसी दूसरे साधारण संवाददाता को देने की बात कही कि इस पुरस्कार के असली हकदार वे नहीं, बल्कि उनके चैनल का यह संवाददाता या कर्मचारी है, कभी नहीं.
यह सिलसिला चलता ही रहेगा और असली नायक हमेशा उपेक्षित ही रहेगें यह उनकी नियति है और इसी के साथ उन्हें अपना जीवन जीना होगा.
लेखक चैतन्य भट्ट वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों पीपुल्स समाचार, जबलपुर के संपादक हैं। उनसे 09424959520 या फिर [email protected] के जरिए संपर्क कर सकते हैं।