: मध्य प्रदेश सरकार की असंवेदनशीलता के बारे में राज एक्सप्रेस में रिपोर्ट प्रकाशित : जबलपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक राज एक्सप्रेस में इसके संपादक रवीन्द्र जैन की एक बाईलाइन खबर प्रकाशित हुई है. इसमें बताया गया है कि मध्य प्रदेश सरकार ने आलोक तोमर की बीमारी के लिये मुख्यमंत्री सहायता कोष से जो दो लाख रुपये की सहायता मंजूर की थी, वह राशि स्व. आलोक तोमर की पत्नी तक उस वक्त पहुंची जब आलोक इस दुनिया से ही विदा हो चुके थे.
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कौन बचायेगा पत्रकारिता को?
‘‘भड़ास’’ में ही दिल्ली जर्नलिस्ट यूनियन की एक खबर देखी, उसने मीडियाकर्मियों से आह्वान किया है कि वे 16 नवंवर को ‘‘पत्रकारिता बचाओ दिवस’’ मनायें दिल्ली जर्नलिस्ट यूनियन का यह आह्वान काबिले तारीफ है, पर सवाल ये है कि पत्रकारिता को कौन बचायेगा? अखबारों में काम करने वाले पत्रकार, अखबारों के धन्ना सेठ मालिक, अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिये मीडिया का उपयोग करने वाले राजनेता या फिर अखबारों के पाठक और न्यूज चैनल देखने वाले दर्शक.
इस खबर ने मुझे अंदर तक हिला दिया
प्रिय भाई यशवंत जी, सादर नमस्कार, आपकी पूज्य माताजी चाची जी और उनकी बहू के साथ गाजीपुर पुलिस द्वारा की गई बदतमीजी की खबर ने अंदर तक हिला दिया. आप जैसे पत्रकार की माताजी के साथ यदि ऐसा हो सकता है तो उत्तर प्रदेश में आम आदमी के साथ पुलिस क्या कुछ नहीं कर सकती, यह कहना मुश्किल नहीं है.
अखबार के साथ ब्रा – पैंटी फ्री!
: लगता है कि अब अंडरगारमेन्ट ही शेष रह गए हैं : ज्यादा वक्त नहीं बीता है उस जमाने को गुजरे जब अखबारों की पहचान उसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री से हुआ करती थी. अच्छे से अच्छी सामग्री देने के लिये अखबारों में प्रतिस्पर्धा हुआ करती थी. किसी अखबार का यदि कोई फटा हुआ पन्ना भी किसी को मिल जाता था तो उसमें प्रकाशित सामग्री को देखकर वह बतला सकता था कि यह पन्ना अमुक अमुक अखबार का है.
असली नायक तो हमेशा उपेक्षित रहता है
दिल्ली में हुये टीवी संपादको और मालिकों को दिये जाने वाले पुरस्कारों पर आपकी टिप्पणी कई बातों की ओर इंगित करती है. आपका यह प्रश्न कि असली नायक तो उपेक्षित ही रह गये, बेहद प्रासंगिक है. पर यह कोई नई बात इसलिये नहीं है क्योंकि न केवल मीडिया बल्कि हर उस क्षेत्र में वे ही लोग पुरस्कार के हकदार हो जाते हैं जो या तो मालिक हों, संस्था के प्रमुख हों या फिर प्रभावशाली हों. दिल्ली में बैठे इलेक्टानिक चैनलों के मालिकान या संपादक क्या जानें कि छोटे-छोटे शहरों या कस्बों में काम कर रहे उनके संवाददाता या स्टिंगर किन कठिनाइयों के बीच कितने कम पैसों में काम कर रहे हैं.