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साहित्य

एक नक्सली की डायरी (अंतिम)

चंदू भाई: कुछ और हैं ज़िंदगी के मायने : अब से करीब पचीस साल पहले जून के बीतते दिनों में नैनीताल जिले के खटीमा कस्बे के पास लोहियाहेड नाम के पॉवरहाउस की कॉलोनी में अपनी जीजी के आंगन में खड़े होकर मैंने पड़ोस से आती बहुत सुंदर सी एक आवाज सुनी। रेशमा का गाना… लंबी जुदा…ई…। इसी आवाज के जरिए इंदिरा राठौर उर्फ इंदु से मेरी पहली मुलाकात हुई। अपने जीवन में प्रेम करने का सचेत प्रयास मैंने उन्हीं से किया….

चंदू भाई

चंदू भाई: कुछ और हैं ज़िंदगी के मायने : अब से करीब पचीस साल पहले जून के बीतते दिनों में नैनीताल जिले के खटीमा कस्बे के पास लोहियाहेड नाम के पॉवरहाउस की कॉलोनी में अपनी जीजी के आंगन में खड़े होकर मैंने पड़ोस से आती बहुत सुंदर सी एक आवाज सुनी। रेशमा का गाना… लंबी जुदा…ई…। इसी आवाज के जरिए इंदिरा राठौर उर्फ इंदु से मेरी पहली मुलाकात हुई। अपने जीवन में प्रेम करने का सचेत प्रयास मैंने उन्हीं से किया….

मतलब एकाध और लोगों से किया लेकिन इस प्रयास में कुछ अलग बात थी, जिसे खोजने-तराशने और सहेजने के लिए एक उम्र नाकाफी है। दो-तीन किस्त पहले मैं बता चुका हूं कि बहुत टूटन की हालत में मैंने 1993 के अंत में उन्हें दिल्ली बुलाया था। वे आईं और बाद में अपने परिवार की ओर से इसका कठोर दंड उन्हें भुगतना पड़ा। पहले उनकी पढ़ाई छूटी और फिर हॉस्टल छूट गया। इन बातों की हतक हमें अबतक महसूस होती है- इंदु को उन सारी संभावनाओं के रूप में जो साकार हो सकती थीं, और मुझे उनकी नाकामियों का जरिया बनने के पछतावे के रूप में।

बारह साल तक एक झोले में अपना घर लिए कहीं सुबह कहीं शाम करते हुए हर वक्त इंदु के अपने साथ होने का एहसास ही वह अकेली चीज थी जो जबर्दस्ती की उम्मीद की तरह हमेशा मेरे साथ बनी रही। सिर्फ 1992-93 में एक बार लगा था कि यह मेरा भ्रम है… और फिर शादी के बाद कभी एक किलो आटे तो कभी दो किलो गैस के सिलिंडर के लिए भटकते हुए…ऐसा दौर, जो किसी भी रिश्ते को बेमानी बना सकता था। शुक्र है कि हम उससे निकलआए। जाति, क्षेत्र, वर्ग और ऐंबिशन, किसी भी दृष्टि से इस रिश्ते में कामयाब होने लायक कुछ भी नहीं था। शायद यही बात इसके कामयाबी के मुकाम तक पहुंचने की वजह बनी। 8 मार्च 1995 को लखनऊ की एक अदालत में हम दोनों ने शादी की- इस दबाव में कि अगर अभी यह हौसला नहीं कर पाए तो आगे शायद कभी एक-दूसरे को देखने का मौका भी नहीं मिल पाएगा। इस समय मैं जनमत में ही था, जो खुद धीरे-धीरे बंद होने के मुकाम पर पहुंच रहा था।

दो बेरोजगार लोगों का दिल्ली में परिवार बनाना, घर बसाना कठिन काम है। शुरू में मेरी सोच यह थी कि मैं होलटाइमर बना रहूंगा और इंदु नौकरी-चाकरी के रास्ते पर जाएंगी। इस समझ को लेकर हर तरफ से ताने-मेहने सुनने पड़े लेकिन इसमें बदलाव किसी बात या बहस के जरिए नहीं, रोजमर्रे के दबावों के चलते आया। जनमत डेरे में रहना मुश्किल हुआ तो एक कमरा किराये पर लेना पड़ा। शुरू के चार महीने पार्टी ने 1200 रुपये किराए के लिए दिए, लेकिन यह कब तक चलने वाला था। इससे आगे मैंने मेहनत-मजदूरी करने का मन बनाया, शुभचिंतकों से पान की दुकान खोलने की सलाह प्राप्त की, अनुवाद किए, प्रूफ पढ़े और लेख लिखे।

उधर इंदु ने ट्यूशन पढ़ाए, कुछ दिन अपनी मां के साथ गोंद बीन कर गुजारा कर लेने के सपने देखे और दो छोटी-मोटी नौकरियां कीं। 20 अप्रैल 1996 को हमारा बेटा हुआ जो अभी नवीं क्लास में पढ़ रहा है। लेकिन इस बीच सबसे बड़ी बात यह हुई कि उसके होने भर की चिंता ने ठेलठाल कर मुझे व्यवस्थित और नियमित जीविका की राह पर डाल दिया। 32 साल की उम्र में नौकरी मुझे मिलना ही मुश्किल था और उसे कर पाना तो पहाड़ तोड़ने जैसा था। बहुत कठिनाई से कोई नौकरी मिलती और दो-चार महीने में ही छूट जाती। मुझे लगा कि अपने पिता जैसा ही हाल मेरा भी होने वाला है। बेरोजगारी के लंबे-लंबे वक्फों के साथ चार नौकरियां छूटीं और फिर पांचवीं से मेरा काम में कुछ-कुछ मन लगने लगा। उसके बाद चार नौकरियां मैंने अपनी मर्जी से बदलीं और अभी यह मेरी नवीं नौकरी है। इंदु ने भी शुरू के डिजास्ट्रस तजुर्बों और दो बार डेढ़-दो साल की फाकामस्ती के बाद एक जगह टिके रहने का जुगाड़ बनाया और पिछले छह साल से एक ही ठीहे पर नियमित नौकरी में हैं।

पिछले दस वर्षों से मुझे बेरोजगारी नहीं झेलनी पड़ी है लिहाजा कह सकता हूं कि नौकरी करना अब मुझे आ गया है। इस बीच दो नए काम स्कूटर और कंप्यूटर चलाना भी मैंने सीख लिया है जो खुद में बहुत अच्छे सर्वाइवल स्किल हैं। कार चलाना मुझे अभी ठीक से नहीं आता और इसकी कोई इच्छाशक्ति भी भीतर से नहीं बन पा रही है। बाजार घूमने और सामान खरीदने में पहले भी मेरी जान सूखती थी और आज भी हाल वैसा ही है। बैंक में अपना पहला खाता मैंने 33 साल की उम्र में खोला था और एटीएम से पैसे आज भी नहीं निकाल पाता, लेकिन आर्थिक सुरक्षा की चिंता (मित्रों की राय में कुछ ज्यादा ही) हो गई है। इधर के कुल तेरह-चौदह सालों में दायरा बहुत सिमट गया है। ज्यादातर अखबारों में काम करने वालों से ही मिलना-जुलना होता है। बाहर से यह सर्कल बहुत जूसी लगता है, लेकिन भीतर से इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है।

ज्यादातर लोगों के पास सुनी-सुनाई जानकारियां होती हैं और उन्हें भी धारण करने का माद्दा उनके पास नहीं होता। इस दायरे के करैक्टर्स बहुत खुले हुए दिखते हैं लेकिन अक्सर वे ऐसे होते नहीं। लोगों को देखने-परखने के जो उपकरण अभी तक मैंने अपने भीतर विकसित किए हैं वे शायद इन्हें देख पाने में नाकाफी हैं। जो डिटैचमेंट एक तरह के जीवन को देखने के लिए जरूरी होता है, वह भी अबतक बन नहीं पाया है, लिहाजा यहां इस बारे में कुछ कहने से मैं बचना चाहता हूं। अपने भावनात्मक शून्य की भरपाई मैं खेलकूद के जरिए करने का प्रयास करता हूं। एक फोकटफंड का वॉलीबॉल क्लब है, जहां हर हफ्ते थोड़ी बहुत धमाचौकड़ी और ढेर सारी गालीगलौज हो जाया करती है।

असल सवाल यह है कि इस सबके बाद क्या। बीस साल की उम्र में तीन महीने के अंदर बहन और भाई की मौत देखने के बाद समझ में नहीं आता था कि आगे कौन सा मकसद लेकर जिंदा रहूंगा। फिर क्रांति को जीवन का मकसद बनाया तो वह भी छूटते-छूटते छूट ही गया। इतनी घटनाएं, इतनी बातें, इतनी बहसें अपने पीछे थीं कि कई साल यह समझने में ही निकल गए कि जिंदगी जी जा चुकी है या अभी इसमें कुछ और कहानियां बाकी हैं। फिर धीरे-धीरे करके एक अंकगणितीय विस्तार सामने खुला, जो अन्यथा शायद बीस साल पहले ही खुल गया होता। घर-परिवार, नौकरी, मकान, गाड़ी… और बड़ी नौकरी, और बड़ा मकान, और बड़ी गाड़ी….। यह सब चल रहा है, लेकिन समस्या यह है कि एक तरह का डिटैचमेंट इसकी जड़ से ही जुड़ा हुआ है। ड्राइंग रूम में लेट कर शास्त्रीय संगीत सुनना मुझमें वैसा सबलाइम सेंस नहीं पैदा करता, जैसा मेरे कई मित्रों में करता है। वे भले लोग हैं और उथले भी नहीं हैं। लेकिन मेरे लिए जिंदगी के मायने शायद कुछ और हैं, मैं इसका क्या करूं।

… समाप्त …

इसके पहले के छह पार्ट पढ़ने के लिए नीचे कमेंट बाक्स के ठीक बाद आ रहे शीर्षकों पर एक-एक कर क्लिक करते जाएं.

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0 Comments

  1. Pankaj Sangwan

    October 31, 2011 at 2:43 pm

    bahut acha kiya chandu bhai ko wapis mainstream me aa gaye.yeh maoist log normal netaon se koi alag nahi hote ,hafta paisa rangdari vasool ke bhrasth corrupt logon ko dhandha karne me help karte hain,kabhi suna hai kya ki inhone apne prabhav chetra / area me business kar rahi mining companies ko kaam karne se roka hai kya attack kiya hai, nahi suna hoga ,kyonki yeh un ke saath hain,kabhi inhone jehadiyon ISI ,terrorist ki burai ki hai nahi kyonki yeh unse mil ke kaam karte hain jisse arms and weapons asani se mil sake.Jai Hind Jai Bharat

  2. arun sandhu

    December 31, 2011 at 6:27 pm

    dil ki gehraiyon se apne jeevan ke safer ko beyan kerne ke liye aapka sukriya . kisi wampanthi sangthen ki sankritik ikai se 4 sal juda rehne ke bad or mahino holtimer rehne ke bad jeb gher lota to jindgi badi ajeeb si lagi….! Sebse jeyada muskil hui aam semaj ke logon ke sewarth bhare riston se… fir nokri ki mara-mari. aapki dayri ko padhker lega jase khud ke bare me hi padh reha hun. gavn ke logon ke chehre aakhon ke aage ghumne lagte hain…. verson bad lega ki koi apna hi kuch kah reha hai.
    jindgi se do-do hath kerne ki mansik urja or dherye hamesa aapke sath rahe.

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