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साहित्य

एक नक्सली की डायरी (6)

: नक्सल आंदोलन और रामकथा : नक्सल आंदोलन और रामकथा। दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं जान पड़ता। लेकिन कुछ संयोग ऐसा बना कि समय के एक मोड़ पर दोनों चीजें एक साथ जुड़ गईं। क्रांति के प्रति अपनी आस्था और राजनीति में गहरी दिलचस्पी के बावजूद मेरा बुनियादी मिजाज पढ़ने-लिखने वाला ही है। आरा में इस लिहाज से मेरा एक छोर सुधीर के साथ और दूसरा सुनील के साथ जुड़ता था। सुधीर यानी सुधीर मिश्रा, जो तब हिंदुस्तान के लोकल रिपोर्टर थे और सुनील यानी सुनील सरीन, जो युवानीति के डाइरेक्टर और अच्छी किताबें पढ़ने वाले नौजवान थे।

: नक्सल आंदोलन और रामकथा : नक्सल आंदोलन और रामकथा। दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं जान पड़ता। लेकिन कुछ संयोग ऐसा बना कि समय के एक मोड़ पर दोनों चीजें एक साथ जुड़ गईं। क्रांति के प्रति अपनी आस्था और राजनीति में गहरी दिलचस्पी के बावजूद मेरा बुनियादी मिजाज पढ़ने-लिखने वाला ही है। आरा में इस लिहाज से मेरा एक छोर सुधीर के साथ और दूसरा सुनील के साथ जुड़ता था। सुधीर यानी सुधीर मिश्रा, जो तब हिंदुस्तान के लोकल रिपोर्टर थे और सुनील यानी सुनील सरीन, जो युवानीति के डाइरेक्टर और अच्छी किताबें पढ़ने वाले नौजवान थे।

सुधीर के जरिये मेरा जुड़ाव आरा के मीडिया सर्कल से बना रहता था। प्रेस क्लब में हर हफ्ते एकाध बार स्थानीय पत्रकारों के साथ बैठकी जम ही जाती थी जबकि सुनील के जरिए अक्सर कुछ न कुछ पढ़ने को मिल जाया करता था। प्रेस क्लब से नजदीकी का सबसे बड़ा फायदा यह था कि बाकी जगहों की तरह सीपीआई एमएल यहां कभी अलग-थलग नहीं पड़ने पाती थी। बरास्ते छात्र युवा संघर्ष वाहिनी बीजेपी और जनता दल तक पहुंचे कुछ ढंग के कार्यकर्ताओं और नेताओं से बातचीत का रास्ता भी इसी बहाने निकल आया था।

1992 में जब बीजेपी ने मंदिर वाला माहौल बनाना शुरू किया तो हम लोगों ने शहर के सांस्कृतिक माहौल में बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप करने का फैसला किया। इस दिशा में कुछ काम पहले ही शुरू हो चुका था। मार्च 1992 में होली के हुड़दंग में ही हमारे कुछ साथी कुछ पोलिटिकल जोगीड़ों के साथ सड़कों पर निकले थे। मुख्यमंत्री लालू यादव के बड़े घपले तब तक सामने नहीं आए थे, लेकिन जोगीड़ों के लिए उनसे काफी मसाला तब भी मिल गया था। इस बरसात में हम लोगों ने आरा के सफाईकर्मियों का एक बड़ा आंदोलन संचालित किया था। उस आंदोलन की कुछ बहुत ही सुखद स्मृतियां हैं, जिन्हें तीन साल पहले मई दिवस के मौके पर अपने ब्लॉग पहलू पर डाली गई अपनी एक पोस्ट में मैं दर्ज कर चुका हूं। इस आंदोलन ने आरा शहर में हमें घर-घर की पार्टी बना दिया था। इसी माहौल में एक दिन युवानीति की बैठक में मुझे बुलाया गया। ऊपर से देखने पर उसमें कोई ठहराव नहीं था, लेकिन सभी जानते थे कि ठहराव है। हम लोगों ने इसकी वजहों पर विचार करना शुरू किया। संगठन के अतीत के बारे में बात हुई। कैसे बनी, कैसे बढ़ी।

मैंने साथियों के सामने एक सवाल रखा कि एक स्वतंत्र सांस्कृतिक संस्था के रूप में शुरू हुई युवानीति अब क्या एक राजनीतिक दल की प्रचार इकाई बनकर रह गई है। इस पर कोई असहमति तो थी नहीं, लेकिन इसके अलावा किसी को कुछ करने को सूझ भी नहीं रहा था। नया क्या किया जाए, इस बारे में सोचते हुए लगा कि युवानीति के नुक्कड़ नाटक अब कुछ ज्यादा ही पुराने पड़ गए हैं। जिन शक्तियों से हमारा मुकाबला है, वे सांस्कृतिक रूप से ठप नहीं बल्कि संस्कृति की अपने ढंग से व्याख्या करते हुए काफी सक्रिय, बल्कि हमलावर हो चली हैं। ठोस रूप से कहें तो जन संस्कृति की इमारत हमें फिलहाल हवा में नहीं, आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बरक्स खड़ी करनी है। इस बैठक का एक ठोस नतीजा यह निकला कि एक छोटी सी स्किट राम जी की चड्ढी तैयार हुई, जिसका मूल तत्व यह था कि राम जी का मंदिर, उनकी खड़ाऊं, उनका मुकुट, उनके कपड़े, हर चीज का राजनीतिक इस्तेमाल करते हुए लोगबाग अब उनकी चड्ढी उतारने की हद तक पहुंच गए हैं। यह स्किट कई जगह खेली गई। इसे खूब लोकप्रियता भी हासिल हुई, लेकिन नैनीताल के एक आयोजन में इसके खिलाफ कुछ लोगों ने हमला बोल दिया। मामला एकतरफा नहीं था। भगाने आए लोग आखिरकार कायदे से पीट-पाट कर भगा दिए गए। लेकिन आरा लौटकर मित्रों ने इस घटना के बारे में बताया तो इससे हमारे कुछ दिव्यचक्षु भी खुले।

युवानीति में ही नहीं, प्रोग्रेसिव मिजाज के सारी संगीत-नाटक इकाइयों में एक बहस निरंतर चलती रहती है कि उन्हें बीच-बीच में स्टेज पर खेले जाने वाले नाटक (प्रोसीनियम) भी करने चाहिए या अपनी पूरी ताकत नुक्कड़ नाटकों में ही लगानी चाहिए। जब आंदोलनों का दौर रहता है तब तो नुक्कड़ नाटकों को लोग हाथोंहाथ लेते हैं लेकिन शांतिकाल आते ही ये मदारी का खेल बनकर रह जाते हैं। तब अभिनेताओं में करैक्टर में ज्यादा गहराई से उतरने की इच्छा, जीवन के गहरे सवालों से जूझने की रचनात्मक प्यास जोर मारने लगती है। डाइरेक्टर के हाथ भी कुछ बड़ा काम करने को चुलबुलाने लगते हैं। इस तड़प की अनदेखी कभी-कभी टीम के बिखराव के रूप में भी जाहिर होती है। मैंने इलाहाबाद में ऐसा दस्ता के साथ होते देखा था, हालांकि उससे मेरा सीधे तौर पर कोई जुड़ाव नहीं था। युवानीति की पिछली बैठक में एक प्रोसीनियम करने की बात भी उठी थी, लेकिन इसके लिए किसी पुराने नाटक पर सहमति नहीं बन पाई थी। नैनीताल से युवानीति की वापसी के बाद की एक शाम सुनील के साथ बात करते हुए एक आइडिया उभरा कि राम कोई आरएसएस की बपौती थोड़े ही हैं। बारिश बीतने वाली है, क्यों न हम लोग खुद एक रामलीला की तैयारी करें।

हमारे आधार के लोग भी रामलीला देखने जाते हैं, उन्हें हम होली में नए तरह का जोगीड़ा सुना सकते हैं तो दशहरे में एक नए तरह की रामलीला क्यों नहीं दिखा सकते। यह एक जोखिम भरा और विवादास्पद विचार था। पार्टी के भीतर स्थानीय और राज्य स्तर पर इसका प्रबल विरोध हुआ। लेकिन पार्टी सेक्रेटरी कुणाल जी से मैंने इस मामले में विस्तार से बात कर रखी थी और वे पार्टी बैठकों में रामलीला खेलने के पक्ष में डटे रहे। उनके सामने सवाल खड़ा किया गया कि यह तो आरएसएस की बांसुरी पर नाचने जैसा होगा। उन्होंने कहा, पहले देखा तो जाए कि ये लोग कर क्या रहे हैं- चंद्रभूषण खुद इसमें लगे हैं तो शक से शुरू करने की जरूरत क्या है। ऐसी बहसों से हमारे ऊपर दबाव बढ़ गया। रामलीला को लेकर हमारी मूल प्रेरणाएं दो थीं। एक, कुछ ऐसा जो मुख्यतः राम को लेकर खेली जा रही हमलावर राजनीति को चैलेंज करे और जहां तक संभव हो उनकी पारंपरिक छवि को भी बदले। और दो, कुछ ऐसा जो युवानीति की क्रिएटिव क्वेस्ट के अनुरूप हो। जिसमें सारे पात्र करैक्टर्स को कुछ नए तरीके से एक्सप्लोर कर सकें। इन दो सवालों के इर्दगिर्द पढ़ाई-लिखाई और बहसों का सिलसिला शुरू हो।

: रामकथा की सत्यकथा से भय : रामलीला को लेकर हमारी मूल प्रेरणाएं दो थीं। एक, कुछ ऐसा जो मुख्यतः राम को लेकर खेली जा रही हमलावर राजनीति को चैलेंज करे और जहां तक संभव हो उनकी पारंपरिक छवि को भी बदले। और दो, कुछ ऐसा जो युवानीति की क्रिएटिव क्वेस्ट के अनुरूप हो। जिसमें सारे पात्र करैक्टर्स को कुछ नए तरीके से एक्सप्लोर कर सकें। इन दो सवालों के इर्दगिर्द पढ़ाई-लिखाई और बहसों का सिलसिला शुरू हुआ। एक राय थी कि नरेंद्र कोहली की सीरीज को इस रामलीला का आधार बनाया जाए, लेकिन इसे खंडित करने वाली दूसरी राय इसके राम – लक्ष्मण – सीता को कुछ ज्यादा ही एनजीओ टाइप मान रही थी। युवानीति और जसम के दायरे से बाहर जाते हुए आरा के तमाम वामपंथी बौद्धिकों-रंगकर्मियों की बैठक बुलाकर उनके सामने समस्या रखी गई तो वहां भी कोई साफ रास्ता नहीं निकला। अलबत्ता इस बैठक की एक उपलब्धि यह रही कि कवि निलय उपाध्याय ने अपनी तरफ से इस नई रामलीला के लिए गीत लिखने की हामी भर ली। बाकी लोगों ने भी कहा कि पहले स्क्रिप्ट लेकर आइए, फिर हर तरह की मदद की जाएगी।

उपन्यासकार मधुकर सिंह धनुष यज्ञ तक के पहले खंड के लिए एक स्क्रिप्ट लिखकर लाए, जो हमें बिल्कुल पसंद नहीं आई। सिर्फ एक गीत उसमें काम का लगा। फिर हार कर सुनील, मैं और थोड़ा-बहुत धनंजय स्क्रिप्टिंग के काम में जुटे। सीन परसीव करने में सुनील की अच्छी महारत है। दिन भर में हम दोनों मिल कर एक सीन निकाल ही देते थे। इस तरह आठ-दस दिन में मोटे तौर पर एक ढांचा खड़ा हो गया। मौके-बेमौके नूरुद्दीन की छनछनाती टिप्पणियों ने चरित्रों का तीखापन बनाए रखने में मदद की। हम लोगों ने तय किया कि इस खंड के धुरी पात्र और सबसे छनकाह करैक्टर विश्वामित्र का रोल नूरुद्दीन को ही दिया जाएगा। सीता के लिए अनुपमा तब बिल्कुल फिट थी। राम के रोल के लिए हमें अपने मन लायक ऐक्टर नहीं मिल पाया लेकिन लक्ष्मण के रोल में इश्तियाक अपने आप जम गया।

एक भोजपुरी सोहर- छापक पेड़ छिहुलिया त पतबन गहबर हो, ललना ताही तर ठाढ़ी हिरिनियां मनइ मन अनमन हो- पहले खंड की पटकथा का नोडल पॉइंट था। रामकथा की शुरुआत एक हिरन के वध से, जिसकी खाल से बनी खझड़ी से ही राम खेलेंगे। हरेंद्र की भानजी (नाम अब याद नहीं) के जरिए सुनील ने न सिर्फ इस गीत को मंच पर जिंदा कर दिया, बल्कि देश के सबसे लोकप्रिय मिथक के उतने ही लोकप्रिय डिकंस्ट्रक्शन का आधार भी तैयार कर दिया। मैं दंग था कि कैसे एकदम नए लड़के-लड़कियों को उन्होंने मात्र दस-पंद्रह दिनों में ही इस अनकंवेंशनल थीम के लिए तैयार कर लिया था। लोएस्ट कॉमन डिनॉमिनेटर को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई स्क्रिप्ट को कुछ मायनों में नरेंद्र कोहली के करीब माना जा सकता था लेकिन महिलाओं के बीच गाए जाने वाले जिन तकलीफदेह भोजपुरी लोकगीतों के खंभों पर यह खड़ी थी, वे इसे एक अलग रंग दे रहे थे। निलय के लिखे एक गीत- अइसन बसंत बन छोड़ि के सीता जइबू कहां- में आधुनिक और पारंपरिक का मेल था और मंच पर चढ़ने के बाद यह लोगों की जुबान पर चढ़ने मे भी कामयाब रहा था।

इन्हीं दिनों मैंने वाल्मीकि रामायण पढ़ना शुरू किया और उसके असर में न सिर्फ कोहली की रचनाएं बल्कि तुलसीदास भी मुझे बिल्कुल मरियल- दूसरे शब्दों में कहें तो ड्रामा किलर- लगने लगे। लेकिन इस पढ़ाई का कोई असर मैंने पहले खंड पर पड़ने नहीं दिया। सीरीज का नाम रामकथा और पहले खंड का पदचाप रखा गया। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर नक्सल आंदोलन तक लगातार सक्रिय समाजचेता कवि रमाकांत द्विवेदी रमता ने अपने वक्तव्य से और मशाल जलाकर नाटक का सूत्रपात किया। इसके टिकट खूब बिके थे और लगातार चार रातें भारी भीड़ के बीच इसका मंचन हुआ था। आरा शहर का यह ऐसा अकेला नाटक बना, जिसे सारे खर्चे निकाल देने के बाद ठीकठाक मुनाफा हुआ।

बीजेपी के लोग भी बड़ी संख्या में नाटक देखने आए, इस इरादे के साथ कि नाटक में कोई धर्मविरोधी बात हुई तो बीच में ही हंगामा कर देंगे। एहतियात के लिए मधुकर सिंह जिला कलेक्टर को भी नाटक देखने का न्यौता दे आए थे। लेकिन ऐसी कोई नौबत नहीं आई। नाटक देखने के बाद बीजेपी के लोग हॉल से बाहर कुछ सोचते हुए से निकले। आरएसएस के एक पुराने कार्यकर्ता और मिजाज से वामपंथ विरोधी पवन जी उसी नाटक के बाद से काफी दिनों तक मेरे कटु-तिक्त मित्र बने रहे। आरा शहर को इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि नाटक के कोई डेढ़ महीने बाद जब बाबरी मस्जिद  गिरी तो शहर में बने जबर्दस्त तनाव के बावजूद दोनों पक्षों के बीच बातचीत होती रही। मुसलमानों की भारी भीड़ लेकर हम लोगों ने इस घटना के विरोध में पूरे आरा शहर को दिन भर बंद रखा। इसके बावजूद कहीं हिंसा की नौबत नहीं आई।

इस नाटक के साथ मेरी दो बहुत गहरी तकलीफें भी जुड़ी हैं। सबसे बड़ी यह कि सुनील की यह आरा में अंतिम प्रस्तुति सिद्ध हुई। इसके कुछ ही समय बाद गुजरात में उनकी नौकरी लग गई और अनुपमा समेत वह आरा छोड़ कर चले गए। हमें निरंतर उत्साहित करने वाले रचनाकार सिरिल मैथ्यू बैंक में काम करते थे, उनका तबादला आरा से करीब तीन सौ किलोमीटर दूर रक्सौल हो गया। इस तरह युवानीति से स्वीप ऑफ इमैजिनेशन गायब हो गया और वह दोबारा नुक्कड़ नाटकों और गीतों की प्रचार टीम बनकर रह गई। रामकथा को लेकर शुरू हुई अपनी पढ़ाई-लिखाई को पांच खंडों में बांध कर एक नई रामलीला रचने का हमारा विचार बस विचार ही रह गया। अलबत्ता इसके दूसरे खंड की स्क्रिप्ट हम लोगों ने लगभग तैयार कर ली थी और वह शायद कहीं सुनील के घर में ही चूहों और झींगुरों के पेट में चली गई हो।

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दूसरी तकलीफ मेरी यह मान्यता है कि रामायण (सबसे बहुश्रुत और बोरिंग चीज बन जाने के बावजूद) भारत की सबसे ज्यादा ड्रामेटिक रचना है। यह बात मैं कालिदास की रचनाओं और महाभारत की सीमित समझ को भी ध्यान में रखते हुए कह रहा हूं। आश्चर्य है कि अभी तक किसी का ध्यान इस तरफ क्यों नहीं गया कि रामकथा में छिपे ड्रामे को खोजकर बाहर निकाले। हर कोई इसमें मौजूद ड्रामे से मुंह छिपाकर भागने में ही अपनी बहादुरी क्यों समझता है। तुलसी और नरेंद्र कोहली की बात ही छोड़ दें, जगह-जगह खुद वाल्मीकि भी अपनी कहानी में मौजूद नाटकीय टकरावों से डरते नजर आते हैं। लोक में ही इतनी हिम्मत है जो अपने गीतों में इसका सामना करता है, लेकिन उसका ट्रीटमेंट टुकड़ों-टुकड़ों में सीमित होने को बाध्य हुआ करता है।

अपनी रामकहानी का यह हिस्सा इस उम्मीद में कि कहीं से इस कथा में मौजूद असली ड्रामा पर बात शुरू हो। अपने नाटक के दूसरे खंड में हम लोगों ने एक चिनगारी सुलगाई थी। इरादा था कि पूरी नाटक श्रृंखला पूरे पांच खंडों में लिखी जाएगी, जिनके धुरी पात्र क्रमशः विश्वामित्र, कैकेयी, हनुमान, रावण और सीता होंगे। राम इसमें लगातार बैकड्रॉप के रूप में मौजूद होंगे, लेकिन उनके जरिए परिवार, समाज और सत्ता के गुंथे हुए रिश्तों को सुलझाने का प्रयास किया जाएगा। जंगल बनाम शहर, आजादी बनाम जिम्मेदारी, व्यक्तिगत नैतिकता बनाम सार्वजनिक जवाबदेही जैसे सवाल भी इस क्रम में छुए जाएंगे। क्या इस काम को अपने जीवन में कभी हम आगे बढ़ा पाएंगे, पूरा कर पाएंगे, या यह हमारी गदहपचीसी, डॉन क्विक्जोटनुमा एक हवाई कल्पना ही बनकर रह जाएगा।

: कामरेड, रमजान और रोजा : रमजान शुरू हो चुका है। अब से अठारह साल पहले वाले रमजान के महीने में एक दिन मैं हाफिज भाई के साथ आरा की एक खानकाह में बैठकर कुरान शरीफ पढ़ने की कोशिश कर रहा था। इसके लिए मैंने एक दिन का रोजा भी रखा था। रात में अबरपुल मोहल्ले में ही मास्टर साहब के यहां सोया था। सुबह फज्र की अजान सुनकर उठा और सहरी के टाइम में बाकी दोस्तों के साथ एक-एक बन खाकर चाय पी। इलाके में रमजान भर का रोजा रखने वाले लोग कम ही थे। मेहनत-मजूरी करने वालों का मोहल्ला था। उपवास रखकर मजूरी तो नहीं की जा सकती थी। अलबत्ता चढ़ता-उतरता रोजा लगभग सारे ही लोग रख लेते थे। हाफिज भाई को मेरी आस्था को लेकर कोई गलतफहमी नहीं थी। दो साल पहले अबरपुल की मस्जिद में हुई अपनी पहली ही मीटिंग में मैंने साफ कह दिया था कि मैं नास्तिक हूं। मानता हूं कि यह दुनिया किसी और के नहीं, अपने ही चलाए चलती है। लेकिन हर आस्था, हर धर्म का सम्मान करता हूं और अगर कोई आपके धर्म के नाम पर आपको मारने आएगा तो आपसे पहले उसको मुझे मारना पड़ेगा। इसमें आखिरी वाली बात मुझसे पहले हजार और लोगों ने भी कही होगी और मेरे बाद भी दसियों हजार लोग कहेंगे, लेकिन व्यवहार में इसे साबित करने वाले उनमें कुछ गिने-चुने ही होंगे।

मेरे एक नजदीकी मुस्लिम साथी एक दिन रौ में मेरे सामने ही कह गए थे (और कहकर अचकचा गए थे) कि अगर कोई कहता है अल्लाह नहीं है, या अल्लाह के अलावा कोई और चीज इस दुनिया को चला रही है, तो हुक्म है कि उसकी जुबान काट ली जाए। मैंने यह निषिद्ध बात मस्जिद में ऐन नमाज की जगह पर खड़े होकर सौ लोगों के बीच में कही थी, फिर भी मुझे यकीन था कि यहां मेरी जुबान काटने कोई नहीं आएगा। खानकाह में कुरान पढ़ने की कोशिश काफी अच्छी रही। किताब के हिंदी अनुवाद के कुल दो अध्याय मैं पहले दिन पढ़ पाया। हाफिज भाई ने इस दौरान आयतों की मूल ध्वनियों से मेरा परिचय कराया और पूछने पर एक-दो जगह व्याख्या भी की। समस्या एक ही थी कि शरीर की शुद्धता को लेकर वे कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे। चार घंटे के पाठ में दो बार मुझे पेशाब जाना पड़ा। हाफिज भाई का सख्त निर्देश था कि पेशाब बैठकर करें, उसका एक भी छींटा कपड़ों पर न पड़ने पाए। टोंटी वाला लोटा हर बार साथ लेकर जाना था और पेशाब के जो भी अवशेष शरीर में रह गए हों, उन्हें अच्छी तरह साफ करके ही कपड़ा ऊपर चढ़ाना था। ग्रंथ पढ़ने में यह चीज बहुत बड़ी बाधा थी और इतनी डॉमिनेंस स्वीकार करना मेरे स्वभाव में भी नहीं था, लिहाजा कुरान का पारायण पहले दिन से आगे नहीं बढ़ पाया।

अबरपुल, मिल्की मोहल्ला, कसाबटोला, रौजा और बेगमपुर का एक हिस्सा मिलाकर आरा शहर का मुख्य मुस्लिम इलाका बनता था। शहर के एक तरफ घेरा सा बना रही गांगी नदी के पार सिंगही और उसके आसपास के गांव पुराने मुस्लिम जमींदारों के थे, जिनकी गिरोहबाज किस्म की दबंगई का असर कभी-कभी शहर में भी दिखाई पड़ता था। यहां हमारा सामाजिक प्रभाव गरीब-मेहनतकश मुसलमानों तक सिमटा हुआ था और राजनीतिक प्रभाव ऊपरी लहर के मुताबिक चढ़ता-उतरता रहता था। यहां हमारे सबसे मजबूत लोग वे थे जो कभी बक्सा मजदूर या दर्जी रह चुके थे, लेकिन मिलिटैंट यूनियनिज्म के असर से उनकी रोजी-रोटी का पुराना जरिया खत्म हो गया था। परिवार चलाने के लिए अब उनमें से कोई अंडा बेचता था, कोई बीड़ी बनाता था तो किसी ने खोखा डालकर चाय की दुकान खोल ली थी। इलाके का उच्च वर्ग हमें संदेह से देखता था और मध्यवर्ग को चुनावी दौर को छोड़कर बाकी समयों में भी हमारे करीब रहने की कोई वजह समझ में नहीं आती थी। निचले वर्ग में भी कसाई बिरादरी हमसे जरा दूर ही रहती थी। इलाके के सबसे ज्यादा बदमाश उन्हीं के बीच से आते थे और चुनाव के वक्त वे किसी न किसी पार्टी से पैसा पकड़ लेते थे।

पता नहीं कौन सी केमिस्ट्री ऐसी बन गई थी कि अबरपुल के लोगों से शुरू में ही मेरी बहुत ज्यादा नजदीकी बन गई। शायद इसकी वजह शिब्ली कॉलेज की मेरी पढ़ाई से हासिल हुआ उर्दू के करीब का मेरा डिक्शन था। बातचीत में अनायास ही उर्दू शब्द आ जाने से मुस्लिम मध्यवर्ग में भी कुछ गति बन गई थी। घूमते-घामते शाम की चाय नेताजी की दुकान पर पीना इस नजदीकी को बढ़ाने में मददगार साबित हुआ। निजामुद्दीन उर्फ नेताजी हमारे बहुत पुराने साथी थे। पहले बक्सा बनाते थे। खूब रस लेकर बतियाने का शौक था। बेरोजगार हो गए तो पुल के पास जरा सी जगह घेरकर दुकान खोल ली। नेताजी नाम उन्हें युवानीति के एक नाटक में खच्चड़ नेता का रोल करने से मिला था। कुल नौ तो उनके बच्चे थे, जिनमें चार-पांच दुकान पर ही गिलास वगैरह धोने के काम में लगे रहते थे। उनकी दुकान के सामने ही अजरू भाई एक स्टोव रखकर उसपर करछुल में अंडा पोच पकाते थे और उसे पत्ते पर रखकर ग्राहक को बेचते थे । सौ रुपये की पूंजी और पचीस-तीस रुपये की रनिंग कैपिटल में परिवार चल जाता था। बड़ा लड़का शुरू में एक दर्जी की दुकान पर काम करता था, बाद में बदमाश हो गया। उनकी एक लड़की को ससुराल वालों ने जला डाला था और हमारे महिला संगठन ने उसकी लड़ाई काफी दूर तक लड़ी थी।

सड़क से थोड़ा हटकर जैनुल माट्साब का घर था। जैनुल माट्साब दरअसल असली वाले नहीं, कपड़ा सिलने वाले माट्साब थे। जनमत निकलना शुरू हुआ था तो आरा शहर में उसे बेचने की जिम्मेदारी उन्होंने ही ली थी। उसके कमीशन से घर का खर्च चलाने में उन्हें थोड़ी मदद मिल जाती थी। फिर जनमत साप्ताहिक रूप में निकलना बंद हो गया तो उनका आमदनी का एकमात्र जरिया भी चला गया। एक ईद से पहले हम लोगों ने सोचा कि जैनुल माट्साब के लिए कैसे क्या किया जाए। हुआ कि अबरपुल से दूर पड़ने वाले इलाकों में खाते-पीते मुस्लिम परिवारों से चलकर जकात वसूली जाए। उन्हें बताया जाए कि यह पैसा आपने किसी जरूरतमंद को देने या किसी अच्छे काम में खर्च करने के लिए ही जुटा रखा है। अपना जीवन ही लोगों की भलाई में लगाने वाले एक व्यक्ति की मदद करने से अच्छा इस्तेमाल इस पैसे का भला और क्या हो सकता है। इस क्रम में कुछ पैसा और कपड़े हम लोगों ने जुटाए और जैनुल माट्साब के यहां देने गए तो पता नहीं कैसे उन्हें इसका पता चल गया था। उन्होंने मदद लेने से मना कर दिया और नाराज भी हुए- जकात के पैसे से ईद मनाएं, अभी इतने गिरे दिन भी नहीं आए हैं। पार्टी को कुछ देना है दे, लेकिन ऐसा दानखाते वाला काम तो न करे।

यहां हमारे सबसे मजबूत कैडर सुफियान थे। वे जुझारू आदमी थे। किसी भी लड़ाई-झगड़े में उनपर भरोसा किया जा सकता था। दर्जी का काम छूटने के बाद कुछ दिन उन्होंने छोटे-मोटे काम किए, फिर किराए पर एक जगह लेकर सैलून खोल लिया। उनके सैलून का फीता काटकर उद्घाटन मैंने ही किया था, फिर वहां सबसे पहली हजामत भी मेरी ही बनी थी। सुफियान के जरिए ही मुख्तार से संपर्क हुआ था। इलाके के वे एकमात्र पढ़े-लिखे नौजवान थे। बेरोजगार थे और 1991-92 के हर्षद मेहता वाले चढ़ाव में शेयर ब्रोकर का काम करके अपना गुजारा करते थे। शेयर तब मेरे लिए सिर्फ किताब या अखबार में पढ़ा हुआ एक शब्द था। आरा जैसे छोटे शहर में तब इतने शेयर खरीदने वाले रहे होंगे कि मुख्तार जैसे बिना किसी पूंजी वाले ब्रोकरों का भी गुजारा इस पेशे में हो जाता रहा होगा, यह बात मुझे कभी समझ में नहीं आई। बहरहाल, मुख्तार का घर मेरे लिए नाश्ते या दोपहर के खाने की सुविधाजनक जगह था और उनका पढ़ा-लिखा होना मेरे लिए मुस्लिम मध्यवर्ग में पैठ बनाने का एक रास्ता भी बना। यह काम कुछ वजहों से तब ज्यादा ही मुश्किल हो गया था।

1990 के विधानसभा चुनाव में इसी इलाके के डॉक्टर यासीन ने पार्टी से टिकट मांगा था लेकिन टिकट पार्टी के स्थानीय नेता सुदामा प्रसाद को मिला था। इससे उनकी नाराजगी संगठन विरोध तक गई थी। उन्होंने पूरे इलाके में प्रचार किया कि यह पार्टी सिर्फ मुसलमानों के समर्थन का फायदा उठाएगी, उन्हें कुछ देगी नहीं। इसके लिए उन्होंने सुदामा प्रसाद के बनिया बिरादरी से आने को भी इश्यू बना दिया। सांप्रदायिक तनावों में वहां मुस्लिम बनाम बनिया का टकराव ही ज्यादा बनता था। डॉक्टर साहब की भरपाई कैसे हो, इसका कोई रास्ता शुरू में समझ में नहीं आया। लेकिन बाद में उनका एक मध्यवर्गीय विकल्प मास्टर साहब के रूप में सामने आया। इलाके के बच्चों के लिए वे एक अंग्रेजी मीडियम का मिडल स्कूल चलाते थे। हमारे साथी अनवर आलम जब पटना से आरा आए तो मास्टर साहब के मकान में ही उन्होंने एक कमरा किराये पर ले लिया। धीरे-धीरे अनवर भाई के जरिए मास्टर साहब हमारे करीब आते गए। 1995 में अपनी शादी के बाद जब मैं इंदु को लिवाकर अबरपुल गया तो मास्टर साहब की पत्नी ने आह्लाद में आकर उनको जर्दे वाला पान खिला दिया। अबरपुल के बारे में इंदु की यादें वह पान खाने के बाद घंटों उल्टियां करते रहने से जुड़ी है।

चलते-चलते सुफियान को एक बार फिर याद करना चाहता हूं। जो लोग इस गलतफहमी में रहते हैं कि मुसलमानों में धर्म ही सबकुछ है, जाति कुछ नहीं है, उनके लिए एक सूचना कि मेरी जानकारी में सिर्फ अबरपुल मोहल्ले में मुसलमानों की कुल 32 जातियां मौजूद थीं। बीड़ी बनाने वाले अपने एक साथी नन्हक जी की बेटी से हम लोगों ने सुफियान की शादी कराने की कोशिश की थी तो इलाके की दर्जी बिरादरी से आक्रोश के स्वर उभरने लगे- अब दर्जियों के दिन इतने खराब हो गए कि साईं-फकीर की लड़की ब्याह के घर में लाएंगे। इसके कुछ महीने बाद अबरपुल की मस्जिद में सुफियान का निकाह पढ़ाया गया- दोनों तरफ से कबूल है, कबूल है के जैसा कोई फिल्मी मामला नहीं था। दुल्हन घर में ही रही और उसकी तरफ से उसका इकरारनामा उसके बाप ने दिया। इसके अगले साल सुफियान कुछ दिनों तक मेरे साथ जेल में रहे। उनके साथ मेरा अंतिम और परोक्ष संवाद 1995 का है, जब जनमत में लिखे एक जेल संस्मरण पर उन्होंने चिट्ठी भेजकर अपना तीखा एतराज जताया था। मैंने लिखा था कि जेलर ने एक आंदोलन के दौरान सुफियान को घुटना मार दिया था, जिसे पढ़कर इलाके में शायद उनका कुछ मजाक बन गया था। उनका कहना था कि कोई घुटना-वुटना नहीं मारा था, मैंने खामखा अपनी बहादुरी जताने के लिए यह सब लिखा है। चार-पांच साल पहले सुफियान अबरपुल इलाके से म्युनिसपाल्टी कॉरपोरेटर का चुनाव लड़े और जीत गए, लेकिन अभी तीन साल पहले, जब मैं सहारा अखबार में था, एक दिन एसएमएस के जरिए खबर मिली कि उनके सैलून के सामने ही किसी गैंग के लोगों ने दिनदहाड़े ग्यारह गोलियां मारकर उनकी हत्या कर दी।

: एक अहिंसक जीत : अबरपुल के बारे में मेरी तरफ से कही गई कोई बात वहां चले एक अर्ध धार्मिक स्वरूप के आंदोलन का जिक्र किए बगैर पूरी नहीं होगी। बात 1993 के फरवरी-मार्च की है। एक दिन वहां के कुछ साथियों ने बताया कि शहर के दो माफिया मिलकर अबरपुल मस्जिद के लगभग बगल में दारू का ठेका खोलने जा रहे हैं। इसे लेकर इलाके में लोग बहुत नाराज हैं लेकिन माहौल को देखते हुए किसी की कुछ बोलने की हिम्मत भी नहीं पड़ रही है। ध्यान रहे, इस समय तक 6 दिसंबर 1992 का अयोध्या कांड ही नहीं, जनवरी 1993 का मुंबई ब्लास्ट कांड भी संपन्न हो चुका था और देश में हर जगह बारूद की गंध भरी हुई थी। धीरे-धीरे यह बात भी सामने आई कि ठेका बनाने जा रहे दोनों माफिया में से एक राधाचरन साह हैं, जो हमारी पार्टी के एक बड़े नेता और आरा शहर विधानसभा क्षेत्र से पिछले चुनाव में उम्मीदवार रहे सुदामा प्रसाद के सगे बहनोई हैं। लोगों में शक था कि पता नहीं सीपीआई-एमएल राधाचरन साह के खिलाफ जाना पसंद करेगी या नहीं।

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उसी शाम मैं अबरपुल पहुंचा और नेताजी की चाय की दुकान पर बैठा ही था कि तीन-चार गाड़ियां वहां आकर रुकीं और दो-तीन सफेदपोश रिवाल्वरधारियों के अलावा आठ-दस मुस्टंडे राइफलधारी भी वहां नमूदार हुए। वे पुल के पास एक खाली जगह की ओर इशारा कर रहे थे, यानी भट्ठी यहीं लगने वाली थी। यह जगह डॉक्टर यासीन के क्लिनिक के ठीक सामने पड़ती थी और सबसे ज्यादा दहशत भी उन्हीं के यहां नजर आ रही थी। मैं बता चुका हूं कि डॉक्टर यासीन पहले हमारी पार्टी में ही थे और विधानसभा टिकट की उम्मीद रखते थे। लेकिन टिकट सुदामा प्रसाद को मिल जाने से नाराज होकर उन्होंने न सिर्फ पार्टी छोड़ दी थी बल्कि शहर के मुस्लिम मध्यवर्ग में पार्टी की जड़ें खोद कर रख दी थीं। सामान्य स्थिति में डॉक्टर यासीन से फटेहाल निजामुद्दीन नेताजी की दुकान पर आने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी, लेकिन उस दिन कुछ ऐसा दिखाते हुए, जैसे यूं ही टहलते हुए उधर निकल आए हों, वे आए और दुकान पर बैठ गए। मैंने नमस्कार किया, हाल-चाल पूछा तो बिल्कुल लहालोट हो गए।

मुझे लगा कि रिश्ते सुधारने का सही मौका यही है। राजनीति अगर इन्सान के व्यक्तित्व को किसी मूलभूत स्तर पर प्रभावित कर सकती है तो इसका असर मुझ पर इसी अकेले सद्गुण के रूप में पड़ा है। मूल स्वभाव फ्रंटफुट पर खेलने वाला, झगड़ने और हमला करने का कोई मौका न चूकने वाला होने के बावजूद आरा के दिनों ने मुझे पीछे हटना सिखा दिया। राजनीतिक कौशल के रूप में इसका जो महत्व है सो है, लेकिन सर्वाइवल स्किल के रूप में भी इससे अच्छी और इससे बड़ी चीज कोई और नहीं हो सकती। पीछे हटने का मतलब है दोस्ती के लिए गुंजाइश बनाना, यानी बिना लड़े ही लड़ाई जीत लेना…. और लड़ाई अगर इसके बाद भी चलती रहे तो कहीं बेहतर समझ, कहीं ज्यादा ताकत के साथ हमला करने का मौका बना लेना। बहरहाल, उस दिन न सिर्फ मैं डॉ. यासीन के यहां जाकर बैठा, बल्कि पार्टी के सारे कार्यकर्ताओं को वहीं बुलाकर छोटी सी आम सभा की शक्ल में एक मीटिंग भी कर डाली। राधाचरन साह और उनके आदमी इलाके से जा चुके थे लेकिन उनके कुछ कारकुन अभी इलाके में टहलते नजर आ रहे थे। उनके लिए यह पहला संदेश था।

अगले दिन इलाके के लोगों को लेकर डीएम से मिलने का कार्यक्रम रखा गया। डीएम शशिशेखर ने कहा, आप तो मस्जिद के पास ठेका खुलने से ऐसे भड़क रहे हैं जैसे मुसलमान शराब ही नहीं पीते हों। जो लोग आपके साथ यहां आए हैं, आप कहें तो उन्हीं में से कुछ के बारे में पता करके घंटे भर में बता दूं कि उनका दिन भर का कोटा कितने का है। मैंने कहा, उनका वे जानें, मैं तो कानून की बात जानता हूं कि स्कूल और धार्मिक स्थलों से पचास मीटर से कम दूरी पर किसी शराब की दुकान के लिए लाइसेंस नहीं दिया जाना चाहिए, हालांकि आरा में कोई और कानून चलता हो तो उसके बारे में मैं नहीं जानता। डीएम ने कहा, ठेके की जगह बिल्कुल बगल में तो नहीं ही है, आपको एतराज हो तो नाप कर दूरी इक्यावन मीटर कर दी जाएगी। शशिशेखर जेएनयू के पढ़े थे, बात करना जानते थे, लेकिन उनके काम हमेशा शातिर डीएम वाले ही होते थे। हमें खबर मिली थी कि इस ठेके के लिए उन्हें तीन लाख रुपये की घूस दी जा चुकी है, हालांकि इसके कन्फर्मेशन करने का कोई जरिया नहीं था।

डीएम का नजरिया पता चल गया और बात टूट गई। इलाके में वापस पहुंचकर अगले दिन जिला प्रशासन का पुतला जलाने का फैसला लिया गया लेकिन उसके अगले दिन अबरपुल पहुंचने पर पता चला कि दिन भर पुलिस वाले वहां गश्त लगाते रहे लिहाजा किसी की हिम्मत पुतला जलाने की नहीं पड़ी। मुझे बहुत गुस्सा आया लेकिन मन ही मन इस पर अड़ा रहा कि पहल यहीं के लोगों को करनी होगी, खुद आगे बढ़कर कुछ नहीं करूंगा। मुझे उस रात शहर के पड़ोस के एक गांव सिंगही में मीटिंग करनी थी, जहां तांगा चलाने वाले अपने एक समर्थक के साथ गांव के कुछ दबंगों ने मारपीट कर दी थी। पहलकदमी का जिम्मा अनवर जी को दिया जा सकता था, लेकिन वह भी उस रात और अगले दिन मेरे साथ सिंगही में ही रहने वाले थे। मैंने कहा, पुलिस नहीं, फौज आ जाए तो भी कल शाम यहां पुतला जलेगा और इलाके में कोई भी घर से बाहर नहीं निकला तो भी सुफियान, मुख्तार और अमुक-अमुक पांच लोग पुतला बनाकर इसी चौराहे पर फूंक देंगे। अगली की अगली सुबह जब हम लोग सिंगही से अबरपुल लौटे तो पता चला कि पुतला निकलने के बाद पहले बहुत सारे  बच्चे फिर सैकड़ों की संख्या में सयाने लोग भी घरों से निकले और पुतला जलाने के अलावा एक पुलिस की गाड़ी को भी कूंच-कांच दिया।

बस, यहीं मामले को ठंडा कर देना है, उग्र नहीं होने देना है। एक पर्चा निकाल कर विधिवत आंदोलन का कार्यक्रम घोषित किया गया। इसमें प्रभातफेरी और नुक्कड़ मीटिंगों के बाद ठेके वाली जगह पर धरने का और अंत में ठेका रद्द होने तक या फिर मरने तक अनशन का कार्यक्रम रखा गया। अगले दिन राधाचरन साह ने सुदामा जी के जरिए खबर भिजवाई कि बात करना चाहते हैं। मैंने कहा, मैं क्या बात करूंगा, साथ ही सुदामा जी से यह भी कहा कि यह मेरी नहीं, पार्टी की प्रतिष्ठा का सवाल है। सुधीर मिश्रा ने बताया कि इसी रात राधाचरन ने रमना मैदान में शहर के सारे शराब ठेकेदारों और कुछ बड़े अपराधियों की एक मीटिंग बुलाई और कुछ करने का फैसला किया। जवाब में अबरपुल में भी मीटिंग हुई। लोगों से मैंने कहा कि पार्टी सरकार से लड़ सकती है, छोटे-मोटे अपराधियों को पीट-पाट सकती है, लेकिन आरा शहर में हथियारबंद माफिया से लड़ने के लिए गांवों से अपने दस्ते नहीं बुला सकती। लोगों में थोड़ी खुसफुस दिखाई पड़ी, फिर किसी ने कहा कि हमारी मुश्किल सिर्फ इतने ही की है, इतना ही कीजिए, बाकी की चिंता छोड़ दीजिए।

बाद में पता चला कि 6 दिसंबर के बाद आत्मरक्षा के लिए यहां काफी तैयारी पहले से है और राधाचरन के लोग बगैर सरकारी समर्थन के यहां चढ़ गए तो बच कर नहीं जाएंगे। इसके अगले दिन अनवर साहब ने ठेके की जगह पर एक ब्लैकबोर्ड रख दिया और बच्चों को एबीसीडी सिखाने लगे। बाकी लोग टेंट गाड़ कर धरने पर बैठ गए। आमरण अनशन की नौबत नहीं आई। थोड़े ही देर में डीवाईएसपी की गाड़ी आई। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि यह सब टेंट वगैरह हटवा दीजिए, ठेका कैंसल कर दिया गया है। रौब मारने के लिए कुछ सिपाही डंडे वगैरह पटक रहे थे। मैंने कहा, कैंसल हो गया, अच्छी बात है, यहां भी आगे कुछ नहीं होगा, लेकिन आप के लोग यह सब माहौल बनाएंगे तो कुछ न कुछ जरूर हो जाएगा। आरा शहर के कई आंदोलनों में हमें जीत हासिल हुई थी, लेकिन यह ऐसी जीत थी, जिसके सामने किसी और को खड़ा नहीं किया जा सकता। डॉक्टर यासीन की प्रतिक्रिया थी कि मुझे टिकट नहीं मिला, कोई बात नहीं लेकिन मैं चाहूंगा कि अगली बार आप यहां से या कहीं से भी चुनाव लड़ें और जहां से भी लड़ें, मैं वहां आपका प्रचार एजेंट बनूं। मैंने कहा, डॉक्टर साहब, आंदोलन हर किसी को बदल देता है और अब आपको भी इतना तो बदल ही जाना चाहिए कि व्यक्तियों को पार्टी से ज्यादा तरजीह न दें।

: दिल्ली में डेरे की शुरुआत : छोटे शहर के बड़े आदमी से अचानक बड़े शहर का छोटा आदमी बन जाना कितनी रेतने वाली घटना होती है, इसका एहसास इसका केंद्रीय पहलू है। यह वह मोड़ है, जहां सामूहिकता का भरोसा छिन जाता है और अकेली जिंदगी की मुश्किलों की अपरेंटिसशिप शुरू होती है। आरा के चर्चित फील्ड एक्टिविस्ट से दिल्ली में एक अनजानी पत्रिका का अनजाना पत्रकार बनना एक ऐसा संक्रमण है, जिसे फिलहाल मैं दो अलग-अलग ढांचों में ही रख कर देख सकता हूं। अगस्त 1993 में एक खतरनाक केस में गिरफ्तार हुआ था। चर्चा थी कि टाडा लगेगा और शायद कई साल भीतर ही रहना पड़े। लेकिन संयोग कुछ ऐसा बना कि अक्टूबर में ही जमानत मिल गई। जेल जीवन के अनुभवों पर मैं वापस लौटना चाहूंगा, लेकिन अगले हफ्ते, या शायद कभी बाद में। कुल पंद्रह लोगों की बिहार स्टेट कमिटी में से दो स्टेट कमिटी मेंबर अकेले भोजपुर जिले में नहीं रखे जा सकते थे, लिहाजा वहां से मुझे कहीं और भेजने की बात पहले से ही चल रही थी। मुंगेर और लोहरदगा जिलों के प्रस्ताव स्टेट कमिटी की पिछली मीटिंग में मेरे सामने रखे गए थे। मुझे दोनों प्रस्ताव समान रूप से स्वीकार्य थे, हालांकि दोनों ही जगह तब तक मैंने न तो पहले कभी कदम रखा था, न ही उनके बारे में कुछ जानता था। जेल जाने के बाद स्थिति तेजी से बदली। रिहाई मिलते ही पार्टी के जिला सचिव कुणाल जी ने मुझे बताया कि पटना में पार्टी को एलआईयू (लोकल इंटेलीजेंस यूनिट) के कुछ लोगों से सूचना प्राप्त हुई है कि आरा में सुदामा जी के बाद अब मुझे मेन टारगेट मान कर चला जा रहा है। मेन टारगेट यानी हत्या का मुख्य निशाना।

मेरे देखते-देखते इस जिले में मेरे न जाने कितने साथी मारे गए थे। कोई हफ्ता नहीं गुजरता था जब इलाज या पोस्ट मॉर्टम के लिए किसी न किसी को लेकर जिला अस्पताल का चक्कर न लगाना पड़े। ऐसे में अब तक मेरा मेन टारगेट न होना ही आश्चर्य की बात थी। लेकिन इस बार की सूचना में कोई इतनी ठंडी बात थी कि पार्टी अब आरा में मुझको एक दिन भी रखने के लिए तैयार नहीं थी। मैंने कुणाल जी से कहा कि जब जाना ही है तो इस ठीहे का एक सदुपयोग यह कर लूं कि एक बार दिल्ली जाकर भैया से मिलता आऊं। अपने माता-पिता की कुल चार जवान हुई संतानों में हम दो ही बचे थे। मेरा घर जाना दो-तीन साल में कभी एकाध बार ही हो पाता था और भाई से मिले तो कई साल हो गए थे।

कुणाल जी ने कहा कि अभी तो आपका दिल्ली जाना और भी अच्छा रहेगा क्योंकि जनमत वाली आपकी टीम फिलहाल दिल्ली में ही है और पत्रिका को वहीं से एक नए रूप में निकालने की तैयारी कर रही है। दिल्ली पहुंचकर मैं सीधा भाई के पास गया, जो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से बहुत दूर रिज वाले इलाके में दसघरा गांव में रहते थे। दो-तीन दिन उनके साथ रह लेने के बाद जनमत की टीम की खोजबीन शुरू की। इस शहर में स्थायी पते के नाम पर मुझे सिर्फ 40, मीनाबाग की जानकारी थी। संयोगवश, यह जगह अब भी पार्टी के पास बची हुई थी। रामेश्वर जी पार्टी के सांसद मात्र एक साल चार महीने रहे थे, लेकिन 1991 में उनके चुनाव हारने के बाद असम से पार्टी के साथी जयंत रोंगपी एमपी चुन कर आ गए थे और वह फ्लैट उनके नाम एलॉट हो गया था। यहां रामजी भाई, इरफान और पार्टी महासचिव विनोद मिश्र (वीएम), सबसे एक साथ मुलाकात हो गई।

वहां वीएम ने छूटते ही मुझसे कहा कि आप अब बिहार वापस मत जाइए, यहीं रहकर जनमत निकालिए। अगर भोजपुर और दिल्ली में चुनना होता तो बिना झिझक मैं भोजपुर के लिए अड़ जाता। लेकिन मेरे मन में दिल्ली के विकल्प के रूप में अब मुंगेर और लोहरदगा के नाम आ रहे थे। फिर भी मैंने वीएम से कहा कि मैं बिहार स्टेट कमिटी का बाकायदा सम्मेलन के जरिए चुना हुआ सदस्य हूं। मुझे वहां बात करनी होगी कि उनकी मेरे बारे में क्या योजना है। वीएम एक हंसमुख, व्यवस्थित और अकाट्य संकल्प वाले व्यक्ति थे और पार्टी में उनकी बात का वजन नीचे से ऊपर तक समूची पार्टी के सामूहिक फैसले जितना ही हुआ करता था।

उन्होंने कहा, स्टेट कमिटी से मैं बात कर लूंगा, जनमत का काम बहुत बड़ा है, आप इसी में जुटिए मेरे लिए यह बहुत ही अकेलेपन और निरीहता से भरा हुआ समय था। पिछले तीन सालों में मेरी भाषा, मेरा जीवन व्यवहार, मेरी कार्यशैली, सब कुछ बदल चुका था। शिक्षा से वंचित मेहनतकश जनता और थोड़ी-बहुत पढ़ाई करके निकले स्थानीय कार्यकर्ताओं से ही मिलकर इस दौर में मेरी दुनिया बनी थी। दिन में दस किलोमीटर से कम जिस दिन चलता था, उस दिन लगता था कि खाना नहीं पचेगा, लेकिन दिल्ली में जिंदगी एक छोटे दायरे में सिमटने जा रही थी। सबसे बड़ी बात यह कि आरा की गली-गली में मेरे जानने वाले थे, मेरा नाम सुनकर लड़ने-मरने के लिए निकल पड़ने वाले थे, लेकिन दिल्ली एक ऐसा शहर था, जहां कोई सड़क पर मर रहे आदमी को हाथ भी नहीं लगाने जाता।

एक दिन जेएनयू से मैं और रामजी भाई आ रहे थे। बस में ली मेरिडियन होटल से जरा पहले एक शराबी ने मंगोलॉइड शक्ल वाली दो लड़कियों से बदतमीजी शुरू कर दी। पता नहीं वे नॉर्थ-ईस्ट की थीं या कहीं थाईलैंड वगैरह की। मैंने उसे डांटा तो वह तेरे की-मेरे की पर उतारू हो गया। इससे ज्यादा जुबान पर भरोसा करना मुझे ठीक नहीं लगा। वहीं बस में उसे मैंने उठाकर पटक दिया और दिए दो-चार हाथ। ली मेरिडियन पर बस रुकी तो उतरते वक्त वह देख लेने जैसा कुछ बोला। मैं मामला वहीं आर या पार कर देने के लिए उसके पीछे उतरने लगा तो रामजी भाई ने हाथ पकड़ लिया। बोले, संयत रहिए, भोजपुर को भूल जाइए, यह दिल्ली है- यहां सामने रेप हो जाएगा और कोई सीट से भी नहीं हिलेगा।

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यह मेरे लिए एक लंबे डिप्रेशन की शुरुआत थी। संसार में सिर्फ एक बिंदु, एक व्यक्ति था, जो इससे निकलने में मेरी मदद कर सकता था। मैंने इंदु को लिखा, तुम किसी तरह दिल्ली आ जाओ। पीछे किसी पोस्ट में मैं इंदु के बारे में बता चुका हूं। वह संयोगवश मेरे परिचय में आई थीं, फिर काफी समय तक कोई मुलाकात नहीं रही। बाद में धीरे-धीरे मित्र बनीं और मेरी कविताओं की एकमात्र पाठक, जो लगभग सारी की सारी कच्ची कॉपी के तौर पर पहले मेरी डायरी में और फिर पक्की कॉपी के रूप में उन्हें भेजे जाने वाले पत्रों में लिखी जाती थीं। दो साल पहले एक बार लखनऊ में मैंने उनसे विवाह करने की इच्छा भी जताई थी, लेकिन मेरे सवाल का कोई जवाब उन्होंने नहीं दिया था- बस टाल दिया था, सोचेंगे कह कर।

लखनऊ युनिवर्सिटी में उनका एमए पूरा हो गया था। डॉक्टरेट और एलएल. बी. दोनों में एक साथ दाखिला ले रखा था, लेकिन घर में आर्थिक मुश्किलें शुरू हो गई थीं, लिहाजा ट्यूशन वगैरह के जरिए अपने खर्चे निकालने की कोशिश भी कर रही थीं। मैंने उन्हें लिखा कि एक बार दिल्ली आकर कुछ महिला पत्रिकाओं वगैरह से भी बात कर लें। जाहिर है, इसके पीछे मेरा असल मकसद अपने रूमानी रिश्ते का वजन आंकना था। तीसवां साल मुझे लग चुका था। जिंदगी किधर जा रही है, कुछ अंदाजा नहीं था। एक जगह जड़ जमाने की कोशिश की तो अब वह भी छूट गई थी। ऐसे में एक शाम मयूर विहार फेज-1, पॉकेट-5 की सड़क पर कोई बारात देखकर पता नहीं क्यों मन में हुड़क सी उठी कि जिंदगी का बिल्कुल नया अध्याय शुरू करने वाली ऐसी कोई घटना मेरे साथ शायद कभी न हो।

: अंधेरी जिंदगी की दास्तान : इतनी डेस्परेट किस्म की तनहाई पहले कभी महसूस नहीं हुई थी। महानगर का अकेलापन और उमर के एक खास पड़ाव के अलावा इसकी एक बड़ी वजह जेल की जिंदगी भी थी। डेढ़-दो महीनों में ही ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे जैसे एक पूरा युग पार हो गया था। जेल में आपके हर काम की एक धीमी, सुस्त, एकरस लय बनती जाती है, जिसमें जरा भी व्यतिक्रम, छोटी सी भी झल्लाहट आपको भयंकर संकटों में डाल देती है। ऐसे ही किसी असावधान क्षण में वहां मेरा एक डकैत से भयंकर झगड़ा हो गया था। उसी की जाति का उसका एक सहायक गला टीप कर मार देने वाला खांटी हत्यारा था और झगड़े के दौरान वह मेरे बहुत करीब पहुंच गया था।

वह तो ऐन मौके पर गोपाल जी बैरक के बंद गेट से अपने करख्त लहजे में बोले और समय रहते सरगना को ध्यान आ गया कि मैं कौन हूं। बेवजह का झगड़ा। आज तक समझ में नहीं आया कि मैं क्यों उससे उलझ पड़ा था। आम तौर पर वह मेरा बहुत सम्मान करता था लेकिन एक अन्य नक्सली ग्रुप के नेता के साथ उठने-बैठने के चलते, जो संयोगवश भूमिहार जाति से आते थे, वह मुझे पराये खेमे का मानने लगा था और बिना कुछ कहे-सुने थोड़ी खटास बननी शुरू हो गई थी। उस दिन अपनी किसी डकैती का किस्सा सुनाते हुए वह बोल बैठा कि हर किसी की अपने-अपने इलाके में ही चलती है। जैसे अगर मैं बाहर होऊं और रात में सोन नदी के किनारे अकेले में आपसे ही मेरा सामना हो जाए तो जो करना होगा मैं ही करूंगा, आप वहां मेरा क्या कर लेंगे। चुपचाप हुंकारा भरते रहने के बजाय पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकला- पटक के छतिया पे चढ़ जाऊंगा। गरदन झुकाकर हकीकतबयानी की तरह वह बोला- कुछ नहीं कर पाएंगे, और दूर से उसका सहायक फुंफकारते हुए बढ़ा- तैं कइसन टेंटियात हए।

मामला जैसे-तैसे शांत हुआ तो अगले दिन मैंने गोपाल जी से पूछा कि मेरी तो किसी से जोर से बात करने की आदत भी नहीं है, यह मुझे क्या हो गया था। फिर गोपाल जी ने मुझे जेल में रहने का पूरा शास्त्र समझाया। बताया कि किस तरह यहां अकारथ जाती जिंदगी की जबर्दस्ती बनाई हुई लय आपकी आत्मा का खून चूस जाती है। आप सोचते हैं कि हर किसी से उसके स्तर पर बात करके, हैंडपंप पर चार लोगों के साथ नहाके या बिना दरवाजे के लैट्रिन में निपटान करके आप इन्हीं में एक हो चुके हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। यहां हर समय आपको ऊपर से ही नहीं, भीतर से भी सहज रहने की कोशिश करनी होती है। कोई गाली दे, या लगने वाली बात कहे तो भी खुद को कमजोर मानकर नहीं, यह सोचकर गम खा जाना होता है कि वह नहीं, उसकी हताशा यह बात बोल रही है। ऐसे कितने सारे सबक जेल में सीखने को मिले, जिनका मतलब बाहर आकर कुछ नहीं रह जाता।

आपको बता दूं कि यह गोपाल जी वह नहीं थे, जिनका परिचय मैं किन्हीं पिछली किस्तों में आपसे रिक्शा यूनियन के अध्यक्ष के रूप में करा चुका हूं। ये हमारी पार्टी के बहुत पुराने योद्धा और एक इलाके के संगठक भी थे। न जाने कब दर्ज हुए एक भूले-बिसरे केस में दो साल पहले उन्हें यहां ला पटका गया था। बिल्कुल सांवले गोपाल जी की एक आंख समेत उनका आधा चेहरा बहुत पहले हुए एक बम विस्फोट में उड़ गया था। उस साइड से देखने पर वे किसी को भयानक लग सकते थे, बल्कि बहुत लोगों को लगते भी थे। लेकिन उनमें भीतर-बाहर एक योद्धा की विचित्र दीप्ति थी। किसी बरसाती दोपहर में जब वे जेल में मिली टीन की थाली या आटा मांड़ने की परात बजाकर गाते हुए बीच-बीच में टेक की तरह हंसते थे तो जैसे बहार आ जाती थी- मजदूर-किसान के बड़की फउजिया झुमत आवे, जइसे ललकी किरिनियां हंसत आवे।

जेल में मुझे राजबलम यादव उर्फ तिवारी जी भी मिले, जिनकी ख्याति हमारी पार्टी में किसी पुराण पुरुष जैसी थी। भोजपुर के नक्सली आंदोलन की स्थापना में जिन तीन लोगों ने केंद्रीय भूमिका निभाई थी, उनमें राम ईश्वर यादव उर्फ साधूजी की गिनती कॉमरेड राम नरेश राम और मास्टर जगदीश महतो के साथ एक त्रयी के रूप में होती थी। राम ईश्वर यादव डकैत से क्रांतिकारी बने थे और 1976 में गोलियों से घायल होने और दोनों हाथों में हथकड़ियां पड़ी होने के बावजूद पुलिस से बाजुओं की लड़ाई लड़ते हुए मारे गए थे। तिवारी जी उनके छोटे भाई और कम्युनिस्ट क्रांति के लिए समर्पित एक सीधे-सादे किसान थे। जेल में अपनी पहली ही रात में अचानक मेरी नींद टूटी तो लगा कि कोई धीरे-धीरे मेरा सिर दबा रहा है। आंख खुली तो देखा तिवारी जी थे। मैंने कहा, साथी आप यह क्या कर रहे हैं तो तिवारी जी सिर्फ इतना बोले कि सो जाइए, कल बात होगी। जेल में जब भी राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर या क्रांतिकारी रणनीति पर बात होती थी, तिवारी जी कभी कुछ बोलते नहीं थे। सिर्फ ध्यान से सुनते रहते थे। आंदोलन की पुरानी घटनाओं के बारे में खोद-खोद कर पूछने पर बताते थे, लेकिन बिना किसी महिमामंडन के, बिल्कुल प्लेन ढंग से, ताकि पहले जो कुछ हो चुका है, उसके अच्छे-बुरे का फैसला सुनने वाला उनके कहे मुताबिक नहीं, बल्कि अपने ढंग से कर सके।

वहां बुरे लोग भी खूब मिले, लेकिन जेल में जिस तरह अच्छे लोगों की अच्छाई धुलती है, उसी तरह बुरे लोगों की बुराई भी धुल जाती है। जेबकतरों के उस्ताद चौबेजी के बारे में मैं दो-तीन साल पहले अपने ब्लॉग पहलू पर अथ पॉकेटमार उवाच करके डाली गई एक पोस्ट में बता चुका हूं और उस किस्से को यहां दोहराने का मेरा मन नहीं है। एक झपटमार, जिसका नाम अब मुझे याद नहीं आता, हमारी सांस्कृतिक इकाई युवानीति के डाइरेक्टर सुनील के मौसेरे भाई का उस्ताद हुआ करता था। सुनील का मौसेरा भाई भी तब जेल में ही था, लेकिन जुवेनाइल वार्ड में, जिसके बंदियों को समलैंगिकता के डर से आम बंदियों के साथ घुलने-मिलने नहीं दिया जाता। इस झपटमार ने हमें अपने टॉर्चर के किस्से काफी रस लेकर सुनाए थे। सेंध फोड़ने में माहिर समझा जाने वाला तीस-बत्तीस साल का एक चोर पता नहीं कैसे जेल में आकर अचानक अंधा हो गया था और सूखी दुपहरियों में पीपल के नीचे बैठकर चिलम पी लेने के बाद थालियों के ताल पर लौंडा नाच नाचते हुए बाकी लोगों के अलावा खुद भी अपने अंधेपन के मजे लेता था।

जेल में हम बाईस लोग आए थे लेकिन बीस दिन बाद दो ही बचे रह गए थे- मैं और धनंजय। पता नहीं क्यों मेरे साथ धनंजय को भी अदालत ने जमानत देने से मना कर दिया था। वह पूरी तरह सांस्कृतिक लड़का था- ढोलक, नाल वगैरह ताल वाद्यों का रसिया। हिंसक तो क्या अहिंसक राजनीति से भी उसका कोई लेना-देना नहीं था। जब तक बाकी लोग थे, तब तक जल्दी रिहाई की उम्मीद भी थी। जेल के लिए ये दिन घटनाओं भरे थे- आंदोलन, अनशन, प्रदर्शन। लेकिन उनके जाने के बाद मेरे और धनंजय के पास जेल की जीवन-लय में ढलने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। बाहर से आए संदेशों से पता चलता था कि हम दोनों के ऊपर टाडा या तो लगा दिया गया है, या लगाया जाने वाला है। ऐसे ही संदेशों के बीच किसी दिन वह झगड़ा हुआ था। आगे ऐसी कोई स्थिति न बने, इसके लिए गोपाल जी की शिक्षा के अलावा जेल की लाइब्रेरी में मौजूद किताबों का सहारा लेना सबसे ज्यादा मुफीद लगा। गॉडफादर और ड्रैक्युला और चौरंगी। आधी रात के बाद शुरू होने वाली अंधेरी जिंदगियों की अनूठी दास्तानें, जो अन्यथा मेरी जिंदगी में शायद कभी नहीं आतीं।

: 3/4 एक्सप्लोसिव का केस : जेल मैं कोई पहली बार नहीं आया था। आंदोलन से जुड़े राजनीतिक जीवन में जेल आना-जाना लगा रहता है। लेकिन इस बार की दास्तान कुछ अलग थी। यह मेरे किसी सोचे-समझे काम का नतीजा नहीं, बिहार की राजनीति में आ रहे एक खतरनाक बदलाव और कुछ हद तक अपनी हठधर्मिता का परिणाम था। 1990 के विधानसभा चुनाव में पूरे राज्य से छह और भोजपुर जिले से आईपीएफ के दो विधायक चुने गए थे। इनमें हमारे एक विधायक श्रीभगवान सिंह के दलबदल करके लालू यादव के साथ चले जाने की सुनगुन हवा में थी। उन्हें इस बारे में सफाई देने के लिए बुलाया गया तो मेरे, कुणाल जी और मास्टर साहब के सामने उन्होंने कसम उठा ली कि मैं मर जाऊंगा, सड़ जाऊंगा, लेकिन पार्टी छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा। लेकिन इसके एक-दो महीने बाद ही किसी सुहानी सुबह श्रीभगवान सिंह और नालंदा से हमारे विधायक कृष्णदेव यादव (जूनियर) लालू की पार्टी में चले गए।

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हमारे जनाधार में इसके खिलाफ गुस्सा था। भोजपुर में इस तरह की यह पहली घटना थी और लोग इसे गद्दारी की गतिविधि की तरह ले रहे थे। आरा शहर में हम लोग किसी और आंदोलन में जुटे हुए थे, कि एक दिन सबेरे करीब दस बजे पार्टी के राज्य नेतृत्व की ओर से हमें सूचना मिली कि शहर के ही एक स्कूल में श्रीभगवान सिंह अपनी कोइरी बिरादरी के कुछ ठेकेदार टाइप लोगों को बुलाकर पार्टी के खिलाफ एक बैठक करने जा रहे हैं। इसका विरोध होना चाहिए। आनन-फानन में कुछ लोगों को जुटाकर हम कतिरा स्कूल पहुंचे तो पता चला कि वहां श्रीभगवान के साथ कुछ बंदूकधारी भी हैं। कानोंकान इसकी गूंज अबरपुल पहुंची तो वहां से कुछ हमारे लोग भी देसी हथियारों के साथ वहां आ पहुंचे। माहौल गरम होना शुरू हुआ तो मेरे सामने दोहरे फंसाव जैसी स्थिति पैदा हो गई। विरोध उग्र होने का मतलब था इधर-उधर से कुछ लोगों का घायल होना या मारा जाना। इसमें पलड़ा हमारा भारी होता तो भी नुकसान हमें ही होना था क्योंकि हमारे ऊपर एक बिरादरी के सम्मेलन पर हमला करने का आरोप लगता। लेकिन सामना हो जाने के बाद चुपचाप पीछे हट जाने का मतलब और बुरा होता क्योंकि इसका संदेश यह जाता कि सीपीआई-एमएल ने लालू की रणनीति और उनकी सरकारी ताकत के सामने घुटने टेक दिए। बीच का रास्ता मुझे यही लगा कि वहीं खड़े-खड़े झटपट एक उग्र सभा कर दी जाए, ताकि अड़ान बनी रहे, लोगों का गुस्सा निकल जाए और खूनखराबे की आशंका भी खत्म हो जाए।

मजे की बात यह कि ठीक इसी समय शहर महज दो किलोमीटर दूर पार्टी की तरफ से किसानों का एक जिला स्तरीय सम्मेलन चल रहा था, जिसमें जिला स्तर के ही नहीं, राज्य स्तर के नेता भी मौजूद थे। मैंने फटाफट वहां संदेश भिजवाया कि यहां हम कुछ देर अड़े रहेंगे, आप लोग जल्द से जल्द यहां पहुंचने का प्रयास करें ताकि हम दुम दबाकर नहीं, इज्जत के साथ सभा संपन्न करके वहां से हटें। लेकिन जलते जहाज पर कैसाब्लांका की तरह हम घंटों वहां डटे रहे और सम्मेलन से हमारा एक भी साथी घटनास्थल पर नहीं आया। शुरू में राइफल चमकाने के बाद श्रीभगवान सिंह और उनके लोग स्कूल में चले गए थे तो हमने गेट के सामने सभा शुरू कर दी थी। थोड़ी देर में वहां पुलिस जमा होने लगी, लेकिन हमने इसे bihar jailकोई तवज्जो नहीं दी। फिर एक बार कुछ दौड़-भाग सी मची और हमने देखा कि बीसियों सिपाहियों से लदी एक बड़ी वैन समेत पुलिस की कई गाड़ियां हमें चारो तरफ से घेर रही है। जैसा हमेशा हुआ करता था, ठंडे दिमाग से काम करने वाले पार्टी के भरोसेमंद लोगों ने मेरे चारो तरफ घेरा डाल दिया।

फिर पता चला कि पुलिस के इरादे कुछ और ही थे। मैंने सुफियान से हथियार वाले साथियों को वहां से निकल लेने का संदेश भिजवाया। फिर थोड़ी देर में मुझे लगने लगा कि खामखा हमारे साथी पिट जाएंगे, और घेरे के बाहर गए हथियारबंद लोगों में किसी का माथा घूम गया तो दो-चार पुलिस वाले भी गिरेंगे। मैजिस्ट्रेट की मौजूदगी में डीवाईएसपी ने तुरंत तितर-बितर हो जाने की घोषणा की तो मैंने कहा कि आप हमें अरेस्ट करके ले जाना चाहते हैं तो ले जाएं लेकिन हम यहां से कहीं नहीं हिलने वाले। इस डीवाईएसपी को हम लोगों ने अबरपुल से बैरंग लौटाया था, लिहाजा हमसे खार तो वह खाए ही हुए था। फिर मैं अपने से ही चलकर पुलिस की एक गाड़ी में बैठने लगा तो डीवाईएसपी के प्रति कुछ ज्यादा ही स्वामिभक्ति दिखाने की कोशिश में लगे स्थानीय दारोगा से मेरी कुछ हाथापाई भी हो गई। पुलिस की गाड़ियों में हम कुल बाइस कार्यकर्ता सवार थे। वे घंटों हमें पता नहीं कहां-कहां घुमाती रहीं और फिर अंत में चारो तरफ से घिरी हुई पुलिस लाइन में ले आईं। वहां मुझसे बिना जाने-बूझे एक कागज पर दस्तखत कर देने की एक ऐसी गलती हुई, जो किसी राजनीतिक कार्यकर्ता को कभी नहीं करनी चाहिए।

वही स्थानीय दारोगा, जिसका नाम कोई पांडे था, मेरे सामने एक कागज लेकर आया और कहा कि सर इस पर दस्तखत बना दीजिए। नारेबाजी के बीच मैंने पूछा, यह क्या है तो उसने उसको ऐसे ही एक फार्मलिटी बताया। उस मुड़े हुए रजिस्टर के दूसरी तरफ पुलिसिया जुबान में एक हलफिया बयान दर्ज था कि हम लोग श्रीभगवान सिंह को मारने के इरादे से वहां पहुंचे थे और पुलिस ने हमारे पास से कई सारे जिंदा बम बरामद किए। इस किस्से की जानकारी मुझे काफी बाद में हासिल हुई, लेकिन गलती जो होनी थी वह हो चुकी थी। मेरे बाकी साथियों पर पुलिस ने बलवा और आगजनी का केस लगाया था, जबकि मुझ पर और पता नहीं क्यों बेचारे धनंजय पर तीन बटे चार एक्सप्लोसिव का ऐडिशनल केस लगा दिया था। यह एक ऐसी धारा थी, जिसका इस्तेमाल उन दिनों राज्य सरकारें किसी को भी आतंकवादी बताकर उसपर टाडा थोपने में कर रही थीं। टाडा, यानी जमानत का कहीं कोई मौका ही नहीं। पलामू और औरंगाबाद जिलों में हमारे आंदोलन से जुड़े कई लोगों को इसका शिकार बनाया गया था और लालू यादव के लिए श्रीभगवान की स्ट्रैटजिक जरूरत को देखते हुए तीन बटे चार की बिना पर हमारे खिलाफ भी टाडा लगाए जाने की चर्चा जोरों पर थी।

: अपना-अपना नोस्टेल्जिया : बहरहाल, जेल से रिहा होने के बाद वही पांडे दारोगा एक दिन इतने अटपटे ढंग से मुझे मिला कि मैं उसे पहचान भी नहीं सका। किसी मामले में आरा जिला अस्पताल के पास मौजूद मुर्दाघर के इर्दगिर्द टहल रहा था, कि तभी पुलिसिया वर्दी में आए एक आदमी ने मुझे नमस्कार किया, मेरा हाथ खींचकर हाथ मिलाया और टपाटप चलता चला गया। मुझे समझ में नहीं आया कि यह कौन है। थोड़ी देर बाद हमारे साथी राजू ने बताया कि यह जो अभी आप से हाथ मिलाकर भागा है, वही पंडइया दरोगवा है। मैंने कहा, बढ़के देखो साला कहां तक पहुंचा है, लेकिन वह दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आया। फिर एक-दो दिन में ही पता चला कि उसने अपना ट्रांसफर किसी और जिले में करा लिया था।

आरा से दिल्ली आने के ठीक पहले मुझे खुद को मिली जमानत का राज भी पता चल गया। अदालत में जब हमारे बाकी साथियों को जमानत मिली थी तब तो हमारी अर्जी खारिज हो गई थी, लेकिन दूसरी बार जज ने दारोगा से पूछ लिया कि आपने अभियुक्तों से जो बम बरामद किए हैं, क्या उनकी जांच बैलिस्टिक एक्सपर्ट से करा ली है। दारोगा के पास इसका कोई जवाब नहीं था, क्योंकि एक्सप्लोसिव के केस में ऐसे सवाल ही नहीं पूछे जाते। अदालत की तरफ से यह पूछा ही इसलिए गया क्योंकि संबंधित जज का बेटा हमारे छात्र संगठन आइसा का सदस्य या समर्थक था और उसे मेरे बारे में पूरी जानकारी थी। जब उसे पता चला कि मेरे केस की सुनवाई उसके पिता कर रहे हैं तो उसने उन्हें बताया कि वह तो पढ़ने-लिखने वाले आदमी हैं, पुलिस लालू यादव को खुश करने के लिए जबर्दस्ती उन्हें साल-दो साल जेल में बंद करके रखना चाहती है। यह बात हमारे छात्र नेता कयामुद्दीन ने हमें बताई थी, लेकिन अफसोस कि उस लड़के के बारे में मैं न तब तक कुछ जानता था और न बाद में जान पाया।

1984 से 1996 तक का, उम्र के लिहाज से कहूं तो 20वें साल से 32वें साल तक का मेरा राजनीतिक जीवन इसके बाद के कामकाजी जीवन से इतना अलग है कि इन दोनों को एक सीध में रखकर देखने पर मैं दोनों के साथ अन्याय कर जाऊंगा। निरंतरता जैसा कुछ पहले भी नहीं था, लेकिन 20 की उम्र में आप दिमागी रूप से बिल्कुल अलग ट्रैक पर जाने को तैयार होते हैं। बाद के वर्षों में यह सुविधा आपसे छिनती चली जाती है और आपको इसका पता भी नहीं चलता। समय गुजर जाने के बाद खुद को एक राजनीतिक व्यक्तित्व की तरह देखने पर आप जिन चीजों पर गर्व कर सकते हैं, उन्हें ही सुरिक्षत जिंदगी जी रहे एक नौकरीपेशा इन्सान की नजर से देखने पर आपको रोना आता है। एक ठीहे खड़े होकर देखने पर जो चीज वक्त की बर्बादी लगती है, वही दूसरी जगह खड़े होकर देखने पर जीवन का सबसे अच्छा इस्तेमाल नजर आने लगती है।

कुछ समय पहले अपने एक साथी को ब्लॉग की दुनिया में ही अपने राजनीतिक जीवन को सिरे से खारिज करते और उस समय को लेकर पश्चाताप करते देखकर मुझे दिली कोफ्त हुई थी। कहीं भूले-भटके वैसा कोई सिलसिला यहां भी न शुरू हो जाए, इस डर से इस किस्से को फिलहाल मैं यहीं खत्म कर देना चाहता हूं। बतौर कार्यकर्ता सबसे ज्यादा समय मेरा समकालीन जनमत में ही गया था। पहले तीन और फिर कुछ सालों के वक्फे के बाद दो, यानी कुल पांच साल। लेकिन आगे-पीछे फील्ड ऐक्टिविज्म के दौरों से घिरा होने के चलते जनमत में बिताए गए अपने समय की कोई अलग पहचान मेरे दिमाग में नहीं बन पाई है। यह पढ़ने, लिखने, जानने, समझने और बहस करने का समय था। जब-तब इस दौर की बातें चमक कर याद आती हैं। महेश्वर की हंसी, रामजी राय की कहावतें, इरफान की वनलाइनर टिप्पणियां- लेकिन कुल मिलाकर यह तनहाई की जिंदगी ही थी।

एक बार आरा में रहते हुए अपने एक सीनियर साथी यमुना जी से मैंने कहा था कि जनमत में रहते हुए जिंदगी मुझे अक्षर जैसी दिखाई देती है। अमूर्त और नीरस, लेकिन शीशे की तरह साफ। मैं जीवन को उसके समूचे झाड़-झंखाड़ के साथ, उसकी जटिलता में जीना चाहता था- उसी के बीच गति और परिवर्तन की गुंजाइश बनाता हुआ। जनमत में यह नहीं था, लेकिन हकीकत में कम्यून की जिंदगी यही थी। बिल्कुल अलग-अलग पृष्ठभूमि और रुझानों वाले पांच-छह लोगों का हर दुख-सुख साझा करते हुए एक साथ रहना। कभी विचारधारा के नाम पर तो कभी सिर्फ बोरियत खत्म करने के लिए एक-दूसरे को कोंचना, और इस दौरान कभी-कभी संवेदनहीनता की हद तक चले जाना। इसका अपना नोस्टैल्जिया है तो इसमें मौजूद तुच्छताओं की यादें भी अब तक- लगभग 15 साल गुजर जाने के बावजूद- काफी गहरी हैं। शायद इस समय को समझने के लिए मुझे किसी और ही जीवन दृष्टि की जरूरत पड़े।

….जारी…

Chandu Bhayiचंद्रभूषण को उनके जानने वाले चंदू या चंदू भाई के नाम से पुकारते हैं. चंदू भाई हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार हैं. इलाहाबाद, पटना और आरा में काम किया. कई जनांदोलनों में शिरकत की. नक्सली कार्यकर्ता भी रहे. ब्लाग जगत में इनका ठिकाना ”पहलू” के नाम से जाना जाता है. सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बहुआयामी सरोकारों के साथ प्रखरता और स्पष्टता से अपनी बात कहते हैं. इन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स से जुड़े हैं. चंदू भाई से यह डायरी लिखवाने का श्रेय वरिष्ठ पत्रकार और ब्लागर अजित वडनेरकर को जाता है. अजित जी के ब्लाग ”शब्दों का सफर” से साभार लेकर इस डायरी को यहां प्रकाशित कराया गया है.

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0 Comments

  1. madan kumar tiwary

    January 30, 2011 at 9:40 am

    चंदू भाई अपने ब्लाग के माध्यम से खुद को हिरो साबित करना , सबसे आसान तरीका है । प्रयास अच्छा है । लेकिन पता तो चल हीं जाता है , सत्य के साथ मिलावट कितनी है । लगे हाथ आपने एक मजिस्ट्रेट को भी पक्षपाती बना दिया । डीयर चंदू एक्सप्लोसिव के केस में फ़ोरेंसिक रिपोर्ट हीं आधार होता है । आप लोगों की पार्टी कैसे –कैसे गदहों को अपना वकिल रखती है यह भी जानता हूं। मजिस्ट्रेट ने अपने बेटे के कहने पर नही , बल्कि अपने विवेक से फ़ोरेंसिक जांच के बारे में पुछा । आपके कारण नही पुछा , इसलिये पुछा की किसी और एक्सप्लोसिव के केस में बिना फ़ोरेंसिक रिपोर्ट के अगर जमानत खारिज करते तो मामला उपर तक जा सकता था । एक और बात बता देता हूं। आर्म्स एक्ट में अगर पांच आदमी पकडाते हैं तो जमानत उसी को नही मिलेगी जिसके पास रिवाल्वर था । उसमें भी एक्सपर्ट की रिपोर्ट आती है , जिससे पता चलता है की आर्म्स कारगर है या नही । ्रही बात आपके माले की तो श्रीमान बंदा आपकी पार्टी की गुंडागर्दी का शिकार है । लाश लेकर जूलुस निकालकर किसी को भी अपराधी बना देती है आपकी पार्टी । अधिकांश कार्यालय विवादास्पद जमीनो पर खुले हैं , आपके । चलो लगे रहो जब तक भावनाओं का दोहन कर सकते हो करो ।

  2. Indian Citizen

    February 1, 2011 at 4:25 pm

    जब मैं पढ़ने चला तो अच्छा लगा, लेकिन जैसे जैसे नीचे की तरफ आया, भ्रम दूर हो गय… कभी मुसलमानों के लिये भी कोई ऐसा ही नाटक रच कर देखो… निरपेक्ष भाव से.. मैं अवश्य देखने आऊंगा..

  3. Pankaj Sangwan

    October 31, 2011 at 2:37 pm

    sacha kaha Indian Citizen , madan bhai and chandu bhai pehle mai bhi naxals se sahanubhuti rakhta tha mere kai nationalist dost bolte the ki yeh log pro china and anti hindu hain magar mai anahi manta tha,magar chandu bhai kio padhne ke baad yeh saaf sabit ho jata hai ki yeh log anti hindu hain inko muslim bhaiyon ka dard dikhta hai magar jehadi nahi, ram ji pe itna ashlil aur vulgar natak play batate hain kabhi muslim bhai ke kisi devta pe bana ke dekho to jane,really yeh maoist naxal communist anti hindu anti india and pro jehadi bhi hain yeh log jehadi logon ka sahar le ke bahu sankhyak bhariyon pe raaj karna chahte hain,yeh really desh ki ekta aur akhandta ke liye khatra hain.Jai Hind Jai Bharat

  4. Pankaj Sangwan

    November 1, 2011 at 5:45 pm

    चन्दु जी यॆ जॊ आपनॆ अपनॆ पुरानॆ मित्र अमरॆश मिश्र का जिक्र किया है क्या यॆ वही शक्श है जिननॆ 26/11 मुम्बइ आतन्कवादी हमले कॊ हिन्दू आतन्क्वाद ऎवम RSS की करतूत बताया था क्रिपया अपनॆ विचार बतायॆन http://teeth.com.pk/blog/2008/12/01/amaresh-misra-mumbai-tragedy

    अगर माऒवादियॊ कॆ विचार अमरॆश मिश्र जैसॆ है तो फिर यॆ भी दॆश के गद्दार और दुश्मन है जिनकॊ जहान मिलॆ वही मार कॆ फॆन्क दॆना चाहियॆ

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