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कहिन

महाशय चिरकुट जी

महाशय चिरकुट शब्द पढऩे में आपको जरूर कुछ अटपटा लग रहा होगा। वैसे तो चिरकुट शब्द लगभग सभी लोगों ने सुना  होगा पर ‘महाशय चिरकुट’ शायद पहली बार सुन रहे होंगे। हमारा यह नायक ऐसा ही है। उसको ऐसे कहना मेरी मजबूरी है। शायद इसके अलावा मेरे पास कोई और शब्द नहीं हैं जिससे इस ‘महान’ आदमी को नवाज सकूं। महाशय के महान कार्यों को कागजों पर उकेर रहा हूं तो ऐसा मत समझ लीजिएगा कि यह कार्य खुशी-खुशी करने जा रहा हूं। यह भी मेरी मजबूरी है।

<p style="text-align: justify;">महाशय चिरकुट शब्द पढऩे में आपको जरूर कुछ अटपटा लग रहा होगा। वैसे तो चिरकुट शब्द लगभग सभी लोगों ने सुना  होगा पर 'महाशय चिरकुट' शायद पहली बार सुन रहे होंगे। हमारा यह नायक ऐसा ही है। उसको ऐसे कहना मेरी मजबूरी है। शायद इसके अलावा मेरे पास कोई और शब्द नहीं हैं जिससे इस 'महान' आदमी को नवाज सकूं। महाशय के महान कार्यों को कागजों पर उकेर रहा हूं तो ऐसा मत समझ लीजिएगा कि यह कार्य खुशी-खुशी करने जा रहा हूं। यह भी मेरी मजबूरी है।</p>

महाशय चिरकुट शब्द पढऩे में आपको जरूर कुछ अटपटा लग रहा होगा। वैसे तो चिरकुट शब्द लगभग सभी लोगों ने सुना  होगा पर ‘महाशय चिरकुट’ शायद पहली बार सुन रहे होंगे। हमारा यह नायक ऐसा ही है। उसको ऐसे कहना मेरी मजबूरी है। शायद इसके अलावा मेरे पास कोई और शब्द नहीं हैं जिससे इस ‘महान’ आदमी को नवाज सकूं। महाशय के महान कार्यों को कागजों पर उकेर रहा हूं तो ऐसा मत समझ लीजिएगा कि यह कार्य खुशी-खुशी करने जा रहा हूं। यह भी मेरी मजबूरी है।

महाशय चिरकुट जी बहुत दिनों से मेरे दिमाग में ब्रेन ट्यूमर की तरह अंदर-अंदर मवाद बना रहे थे, जिसे बाहर निकालना ही था। बात उन दिनों की है जब मैं एक अखबार में नौकरी करता था। हमारे महाशय जी वहां के सीईओ थे। वे जब चलते थे या किसी से बात करते थे तो ऐसे मालूम होता था जैसे डांडिया कर रहे हों। वह पचास वर्ष से कम नहीं थे लेकिन इसके बावजूद वह अपने आपको बीस वर्ष का नौजवान ही समझते थे। शायद इसी वजह से उनका हाव-भाव डांडिया के मुद्रा में था।

वे ठिगने कद के लगभग पांच फुटा व्यक्ति थे। सिर भी उनका उजड़ा चमन हो चुका था। उनकी मूंछें भी थीं जो नत्थूराम जैसी नहीं थीं। मूछें और सिर में बचे-खुचे बाल चांदी हो गये थे। लेकिन नौजवान दिखने के लिए हर वक्त बालों को कलर किए रहते थे। गोलाई लिए हुए चेहरे से मिचमिचाती हुई दो आंखें उनके चिरकुट होने की संकेत दे रही थीं। किसी से बात करते समय वह नजरें नीचे की तरफ गड़ाकर डांडिया के मुद्रा में हो जाते थे। ध्यान से देखने पर चिरकुट तो कम लेकिन चोर ज्यादा मालूम पड़ते थे। उन्हें कफन खसोट कहा जाए तो भी कम है। क्योंकि पैसे को वह दांत से पकड़ कर खींचते थे।

महाशय चिरकुट जी पैसे के प्रेमी इस कदर थे कि उसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहते थे। चिरकुट जी अपने मातहत कर्मचारियों का वेतन काटने में महारत हासिल किए हुए थे जो उनकी सबसे बड़ी महानता थी। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे जिस काम के लिए रखे गए थे उसके बारे में उन्हे रत्ती भर की जानकारी नहीं थी। फिर भी वे उस काम को बड़ी ही निष्ठा पूर्वक निभाते थे। उनके अंदर मालिक की चाटुकारी इस कदर कूट-कूट कर भरी हुई थी कि जैसे कोई कुत्ता अपने स्वामी का चू-चू शब्द सुनने के बाद उसके पैरों को चाटना शुरू कर देता हो। वह कला के शौकीन थे क्योंकि संस्थान में जिस काम को
आगे बढ़ाने के लिए उन्हें रखा गया था, उस काम को किनारे रख कर उसकी सुंदरता पर विशेष ध्यान रखते थे।

वे अपने किसी भी कर्मचारी से काम की अपेक्षा नहीं करते थे बल्कि वेतन काटने में मशगूल रहते थे। वे हमेशा इस ताक मे रहते थे कि कर्मचारी किसी तरह छुट्टी पर जाए और उसका वेतन काट लें। क्योंकि वह काम कराने में नहीं बल्कि पैसा काटने में महिर थे। कुछ मामलों में तो महाशय जी को कौवा भी कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। क्योंकि जिस तरह से सुबह-सुबह कौव्वे की निगाह गंदा खोदने पर लगी रहती थी ठीक उसी तरह चिरकुट जी की निगाह सोते-जागते कर्मचारियों के वेतन काटने पर रहती थी।

महाशय चिरकुट जी की पूरी एक चौकड़ी थी जो संस्थान को आगे बढऩे से रोकने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। इस चौकड़ी में एचआर डिपार्टमेंट का जो हेड था उसकी मूंछें व दाढ़ी बिल्कुल सफाचट थीं। वह गोरा चिकना, गोलाई लिए हुए चेहरे पर मदमत्त हुई दो आंखें जी मैन होने की पूरी-पूरी संकेत दे रही थीं। हमारे महाशय चिरकुट जी भी कुछ इसी कदर दिखाई देते थे। यही कारण था कि दोनों लोगों में अकेले में खूब छनती थी। ऐसा मैने इसलिए अनुमान लगा लिया क्योंकि कुछ दिनों पहले नोएड के स्टेडियम में रात के समय ऐसे कई जी मैनों से मेरी मुलाकात हो चुकी थी। जहां से कई बार अपनी इज्जत बचाकर भागना पड़ा था।

महाशय चिरकुट जी का एक छोटा सा परिवार था। इस परिवार के होते हुए भी उन्हें अकेले रहना पड़ता था। यही कारण था कि वह हर वक्त आफिस में ही पड़े रहते थे। छुट्टी भी उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। इनकी इस स्थिति को देख कर मेरा मन भी काफी दुखी हो जाता। इनको देखने पर ऐसा मालूम होता था कि बीबी से छत्तीस का आंकड़ा हो। कभी-कभार बीबी से पिटते हों, इसमे कोई शक नहीं। अगर ऐसा हो तो यह बड़े दुख की बात है। इनके कार्य करने की स्टाइल पुराने बाबूजी – बाबूजी का जुर्माना- जैसी थी। फर्क सिर्फ इतना था कि बाबूजी अपने कर्मचारियों की गलतियों को निकालकर जुर्माना लगाते थे और उस पैसे को धार्मिक व सामाजिक जैसे महान कार्यों में दान करते थे।

कर्मचारियों के एक-एक बूंद खून को निचोड़ कर धार्मिक कार्य में लगाकर अपने आपको धन्य समझते थे, जो उनकी महानता थी। जो कर्मचारी जितना ज्यादा जुर्माना देता था उसे उतनी ही पीस बर्फी अधिक मिलती थी और बाबूजी कहते थे कि यह तो हमारे दुधारू गाय हैं, जिनका दो लात भी बरदाश्त किया जा सकता है। इतना सबकुछ होने के बावजूद वे दया के मूर्ति थे।

उधर, हमारे चिरकुट जी महाराज के काम करने का तरीका कुछ अलग ही किश्म का था। वे खुद अपने नहीं बल्कि अपनी चौकड़ी के साथ मिलकर कर्मचारियों का वेतन काटकर मालिक को खुश करने में जुटे थे। उनका एक ही लड़का था जिसका उन्होंने एक विदेशी लड़की से शादी करवा दी थी, जो इनके पास न रहकर लड़की के घर पर ही रहता था। महाशय चिरकुट जी ने ऐसा क्यों किया, इसमे अधिक दिमाग दौड़ाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि अब आप इतना समझ ही गए होंगे कि महाशय
जी पैसे के लिए कितना नीचे उतर जाएंगे बताने की जरूरत नहीं है।

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उस विदेशी लड़की के पास काफी धन-दौलत थी जिसे महाशय जी हथियाने में लगे हुए थे। बाद में वही हुआ, चाहे बीबी-बच्चों का सुख भोगें या धन-दौलत की। आप पूछेंगे कि महाशय चिरकुट जी आखिर कौन थे? तो भाई, मैं इतनी आसानी से बताने वाला नहीं हूं। और हां इतनी जल्दी आप लोगों को छोड़ुंगा भी नहीं। क्योंकि यह नायक कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। इसे चिरकुट शब्द से नवाजा तो जरूर हूं लेकिन इसको चिकुट कहना चिरकुट शब्द की बेइज्जती भी है। शायद इसीलिए महाशय चिरकुट शब्द से नवाजा गया है।

खैर सीधे-सीधे तो नहीं बताउंगा कि वह कौन थे? लेकिन कुछ उदाहरणों द्वारा इंगित जरूर करूंगा जिसको समझने में आप को परेशानी न हो। महाशय चिरकुट जी की महानता को देखकर हमे महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी की एक रचना का नायक याद आ गया। वह जब सीढिय़ों पर चढ़ता था तो ऐसे मालूम होता था जैसे कह रहा हो कि सीढ़ी जी महाराज मुझे माफ करना मैं आपके ऊपर चढ़ रहा हूं। उनके दरवाजे के सामने हमेशा गंदा पानी भरा रहता था। इसमें वह खुद घुटनों तक धोती को माड़ कर गंदे पानी से चलते हुए निकल जाया करते थे। लोग कई-कई बार उससे यह कहकर थक गये थे कि इसमें मिट्टी डाल दो, तो उसका जवाब था कि जब सभी लोग इसी में से आ-जा रहे हैं तो मुझे जाने में क्या दिक्कत है जी, लेकिन उसने मिट्टी नहीं डाली। इसी बीच एक केंचुआ उनके पैर पर चढऩे लगा और उन्होंन पैर को जोर से झटका और कहा कि वह केंचुआ था….।

अब तो शायद आप को बतान जरूरी नहीं होगा कि हमरे महाशय चिरकुट जी कुछ इसी में से थे जिसके बारे में और बयान करने में कलम का साथ नहीं मिल रहा है क्योंकि कलम ने भी और अधिक अपमान झेलने से इनकार कर दिया है।

लेखक जय प्रताप सिंह पत्रकार हैं. उनका कहना है कि वे इस सीईओ से इतने परेशान थे कि अपनी भड़ास कागज पर उतारने से न रोक सके. जय प्रताप की इच्छा है कि उनकी यह भड़ास प्रकाशित हो ताकि उनके दिल का बोझ कुछ कम हो सके.

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0 Comments

  1. neeshoo

    July 17, 2010 at 5:16 pm

    bahut khub saandaar likha chirkut par aapne …………..

  2. abc

    July 17, 2010 at 7:24 pm

    bahut badiya bhai mahashay…………….ji k baare me aapne jo bhi likha hai wo bilkul sahi hai…….lekin aapko kuch aur logo ka bhi jikr karna chahiye………..

  3. jagmohan sharma

    July 18, 2010 at 5:43 pm

    bahut hi accha bhai…..kese jhelta tha is chirkut ko

  4. dinesh

    July 20, 2010 at 7:14 pm

    Newspaper ka naam bhi dete yaar, waise to bahut achhi tasweer khichi kalam ki nok se………………

  5. AJAY KUMAR TIWARI

    July 23, 2010 at 9:26 pm

    JAI PRATP YOU ARE BRAVE. I AM FEEL YOUR AND TEAM CURCUMSTANSES. THIS MAN IS REALY UGLY MAN. HE MAKE A BAD NON ACADICE TEAM

  6. cba

    August 13, 2010 at 6:57 am

    yah sub apki ochi mansikta tang soch aur apke pariwarik sanskaron ko prilakshit karta hai . apne pita ki age aur kisi sabhya saleen vyakti ke bare mai is tarah ke comments ki ummeed ap jaise labale wale vyaktiyo se hi ki ja sakti hai .

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