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”देश भर की जनता के आक्रोश का प्रतीक है जूता”

जरनैल सिंह को ले जाते पुलिसकर्मीदैनिक जागरण के नेशनल ब्यूरो में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा भारत के केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम पर जूता फेंकने की घटना की मीडिया जगत में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। ज्यादातर लोग विरोध प्रदर्शित करने के इस तरीके की निंदा कर रहे हैं तो कई लोग इस घटना को नेताओं और सिस्टम के खिलाफ संवेदनशील लोगों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया बता रहे हैं। त्वरित टिप्पणी के रूप में दिल्ली, जबलपुर, श्रीगंगानगर से आई हुई चार प्रतिक्रियाओं को यहां प्रकाशित किया जा रहा है।

जरनैल सिंह को ले जाते पुलिसकर्मी

जरनैल सिंह को ले जाते पुलिसकर्मीदैनिक जागरण के नेशनल ब्यूरो में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा भारत के केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम पर जूता फेंकने की घटना की मीडिया जगत में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। ज्यादातर लोग विरोध प्रदर्शित करने के इस तरीके की निंदा कर रहे हैं तो कई लोग इस घटना को नेताओं और सिस्टम के खिलाफ संवेदनशील लोगों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया बता रहे हैं। त्वरित टिप्पणी के रूप में दिल्ली, जबलपुर, श्रीगंगानगर से आई हुई चार प्रतिक्रियाओं को यहां प्रकाशित किया जा रहा है।

पत्रकारिता हुई शर्मसार

दैनिक जागरण के जरनैल सिंह नामक पत्रकार को आज सारी दुनिया जान गई। उनका समाज उनको मान गया होगा। इन सबके बीच पत्रकारिता पर ऐसा दाग लग गया जो कभी नही मिट सकता। पत्रकारिता कोई आसान और गैरजिम्मेदारी वाला पेशा नहीं है। ये तो वो काम है जिसके दम पर इतिहास बने और बनाये गये हैं। देश में यही वो स्तम्भ है जिस पर आम जनता आज भी विश्वास करती है। जिसकी कहीं सुनवाई नहीं होती वह मीडिया के पास आता है। वह इसलिए कि उसको विश्वास है कि मीडिया निष्पक्ष,संयमी और गरिमा युक्त होता है। मगर जरनैल सिंह ने इन सब बातों को झूठा साबित करने की शुरुआत कर दी। वह पत्रकारिता से ख़ुद विश्वास खो बैठा। पत्रकार की बजाए एक ऐसा आदमी बन गया जिसके अन्दर किसी बदले की आग लगी हुई थी। इस घटना से वह पत्रकारिता तो शर्मसार हो गई जिसके कारण जरनैल सिंह को पी चिदंबरम के पत्रकार सम्मलेन में जाने का मौका मिला।

हाँ, जरनैल सिंह अपने समाज का नया लीडर जरुर बन गया। पत्रकार के रूप में जो वह नहीं पा सका होगा सम्भव है वह अब लीडर बन कर पा ले। हो सकता है कोई पार्टी उसको विधानसभा या लोकसभा के चुनाव में टिकट दे दे। ऐसे लोग पत्रकारिता के काबिल भी नहीं हो सकते जो इस प्रकार का आचरण करते हों। इस प्रकार का आचरण तो नेता करते हैं। शायद अब यही जरनैल सिंह किया करेंगें। जरनैल सिंह ने पत्रकारिता के साथ साथ “जागरण” ग्रुप की भी साख पर बट्टा लगाया है जिसका वह प्रेस कांफ्रेंस में प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

जरनैल सिंह को “हीरो” बनने पर बधाई और उनके आचरण पर शेम शेम।

गोविंद गोयल, गंगानगर, [email protected]


कौन कहता है पत्रकारिता शर्मसार हुई?

जागरण के पत्रकार जरनैल सिंह ने जो किया उसमें उनका आक्रोश निकला। वही आक्रोश जो देश भर की जनता के मन में दबा पड़ा है। मामला सिर्फ सिख दंगों का ही नहीं है। आज तक का इतिहास निकाल कर देख लीजिए। बताइए कि किस सामूहिक नरसंहार के मामले में आज तक कोई हल निकला है। 25 साल पहले हज़ारों आदमियों को कत्ल कर दिया जाता है और उनका दोषी कोई भी नहीं। आयोग पर आयोग बैठते हैं, रिपोर्ट्स पर रिपोर्ट्स आती हैं लेकिन हल कोई नहीं। जांच आयोग और एजेंसिया सरकार के इशारों पर नाचती रहती है। पार्टी कोई भी हो लेकिन इन मामलों पर साफ रिपोर्ट इसलिए नहीं निकालती कि कहीं वोट बैंक पर असर न पड़े। जांच एजेंसिया 25 साल से क्या झक्क मारती रही? पच्चीस साल तक मामले को रगड़ने के बाद कोर्ट में कहा जाता है कि हमारे पास कोई साक्ष्य नहीं है इसलिए मामले को बंद कर दिया जाए। अरे दूसरों की नहीं तो कम से कम अपने दिल की तो आवाज़ सुनो…। सीबीआई की स्थिति आज क्या है, बच्चा-बच्चा जानता है।

आरुषि हत्याकांड में हर रोज़ सीबीआई ने अपनी नई कहानी सुनाई। अब वो केश इतना उलझ गया है कि खुद भगवान भी चाहे तो असल दोषियों को नहीं ढूंढ सकता। लोग कहते हैं सीबीआई माने करप्ट ब्यूरो ऑफ इंडिया। आप क्या सोचते हैं कि सिर्फ पुलिस भ्रष्ट है? नहीं भाई, पुलिस वाले तो इस तालाब की छोटी मछलियां हैं, सीबीआई तो मगरमच्छ है जो बड़े मामलों पर हाथ साफ करती है। सत्ता के हाथ की कठपुतली बनी सीबीआई ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उससे कोई उम्मीद रखना बेमानी है। जो मामला सीबीआई के हाथ में चला जाए उसमें न्याय की उम्मीद करना सही नहीं है। आज तक जितने भी बड़े मामले सीबीआई के हाथ में गए उनका कुछ अता-पता नहीं चला।

जरनैल सिंह जी ने विरोधस्वरूप जूता उछाला भर था। उनका असल निशाना चिदंबरम नहीं बल्कि समस्त नेताओं की मानसिकता थी। वही मानसिकता जो जनता को बेवकूफ समझकर हर बार उसका फायदा उठाना चाहती है। इस मामले को जॉर्ज बुश वाले प्रकरण से जोड़ना भी सही नहीं। जरनैल सिंह एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्हें कोई ज़रूरत नहीं थी इस तरह की हरकत करने की। उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का भली-भांति बोध है। उन्होंने जो कदम उठाया वो देश की जनता के मन में दबे गुस्से का ही प्रतीक है। मुझे पता है जरनैल सिंह के इस कदम पर विरोध के स्वर ज्यादा उठेंगे। कई लोग पत्रकार होने की मर्यादा और नैतिकता को बोध कराने की कोशिश करेंगे। हम भारतीय नैतिकता और सामजिकता के छद्म चोले को ओढ़कर ही सब सोचते रहते हैं। लेकिन इस मामले को हमें दूसरे तरीके से सोचना होगा।

जरनैल सिंह एक बेहतर पत्रकार हैं और एक भावनात्मक इंसान भी। उनके दिल में भी वही दर्द है जो जनता के दिल में है। वरन् आज के पत्रकार और भावना में कोई सम्बन्ध ही नही दिखाई देता। पत्रकारिता पूर्णत: व्यवसाय बन गई है जहां इमोशन्स और आदर्शों के लिए कोई जगह नहीं है। हां, नैतिकता का भाषण झाड़ने और जनसरोकर की बातों पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले पत्रकारों की भी कमी नहीं है। लेकिन ये वही लोग हैं जो कंपनी पॉलिसीज़ का हवाला देखर खबरों को गला घोंट दिया करते हैं लेकिन बाद में पत्रकारिता के मूल्यों पर बड़ा सा लेख छाप देते हैं। हकीकत ये है पत्रकारिता क्लर्क वाला पेशा हो गया है। कम ही लोग हैं जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं को समझ पाते हैं। देखा जाए तो नेता और पत्रकार एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हो गए हैं। नेताओं को जनता से वोट चाहिए और पत्रकारों को नोट। जनता पत्रकारों के लिए सिर्फ और सिर्फ ग्राहक बन कर रह गई है। नेता और पत्रकार दोनों मिलकर जनता का इस्तेमाल कर रहे हैं। फिर जनता का दर्द समझेगा कौन। रोज़ की रुटीन में बंधकर हरकोई पत्थर दिल हो गया है। और वैसे भी इस प्रकरण को पत्रकारिता से जोड़ना उचित नहीं है। ये नहीं भूलना चाहिए पत्रकार जरनैल एक इंसान हैं। पत्रकार इंसान नहीं होता क्या? पता नहीं क्यों आज के पत्रकार खुद के विशिष्ट होने का भ्रम पाले गुए हैं। वो दौर गया जब पत्रकार का एक रसूख हुआ करता था। और उस रसूख को मिटाने के लिए जरनैल सिंह जैसे लोग नहीं बल्कि वो लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने खुद के विशिष्ट होने का भ्रम पाल रखा है।

आज हर कोई आज नेताओं को जूतियाने और लतियाने की बात करता है। ज्यादातर लोग नेताओं को गाली बकते नज़र आते हैं लेकिन कोई ऐसा नहीं जो नेताओं के सामने जाकर अपने विचारों को मूर्त रूप दे सके। ऐसे में जरनैल सिंह जी के इस काम से नेताओं में एक डर ज़रूर पैदा होगा कि अगर वो कुछ गलत करेंगे तो जनता जूता खोलकर मारने दौड़ेगी।  नेताओं को नारेबाज़ी, धरने, विरोध, आत्मदाह आदि से कोई फर्क नहीं पड़ता। वजह ये कि इन सभी तरीकों में उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है तो सिर्फ आम जनता को। मैं तो जरनैल सिंह के इस कदम को एक नए युग का सूत्रपात मानता हूं। ये लाल चड्डियां भेजने वाले अश्लील तरीके और नक्सलवादी हिंसा से तो बेहतर और कारगर तरीका है। एक क्रांतिकारी तरीका जो भारत को एक नई दिशा दे सकता है। हां, चिदंबरम एक अच्छे नेता हैं, उनके साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था। मैं जानता हूं कि ज्यादातर लोग मेरे इन विचारों को बेवकूफाना और अपरिपक्वता करार देंगे, लेकिन उनसे मेरी विनती है कि नैतिकता के लबादे से बाहर आकर सोचकर देखें।

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आदर्श राठौर, नई दिल्ली, 9953537943, [email protected]


उफ़… ये जूता…

जॉर्ज बुश पर फेंके गए जूते के बाद अब भारत में भी केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिंदम्बरम के ऊपर प्रेस कांफ्रेंस में जूता फेंका गया. वजह थी ८४ के दंगों में टाइटलर की भूमिका को मिली क्लीन चिट. बुश पर जूता फेंकने वाले ने भी सहानुभूति अर्जित कर ली थी. बहुत संभव है कि भारत के इस पत्रकार को भी सिख समुदाय के एक वर्ग की सहानुभूति मिल जाए. ये चलन लेकिन बेहद शर्मनाक है. पत्रकारों को इस बात को समझना होगा कि वो किसी धर्म, जाति, वर्ग और निजी  शुभ-लाभ से ऊपर हैं. अक्सर ये कहा जाता है कि पत्रकारों को किसी भी खबर को लेकर पार्टी नहीं बनना चाहिए. मामले में क्या जबाब आ रहा है, ये सही है या गलत है, इसे मापने के पैमाने दुसरे हैं. सवाल न पूछने कि इजाज़त मिलना क्या आपको ये हक देती है कि आप देश के सबसे बड़े दूसरे पद पर बैठे व्यक्ति के ऊपर जूता फेंक दो. ये पुरे लोकतंत्र पर हमला है.आप ऐसा करके सिर्फ एक व्यक्ति को निशाना नहीं बना रहे होते हैं बल्कि दुनिया के सामने अपने ही देश कि आबरू नोच रहे होते हो. यदि ऐसा ही हो तो पुलिस और सेना के लोग निजी शुभ लाभ और जातिवाद में उलझ जाएँ तो देश ही नहीं बचेगा.देश की इज्ज़त को तार-तार करने वाले इस सिरफिरे पत्रकार के समर्थन में कुछ आवाजें बेशक उठा सकती है लेकिन ये घटना बेहद आपत्तिजनक है.

अब होगा ये कि किसी भी प्रेस कांफ्रेस में पत्रकारों के बीच सादी वर्दी में पुलिस वाले तैनात होंगे जो इस बात पर नज़र रखेंगे कि कोई पत्रकार सवाल पूछने के दौरान कही नीचे कि झुक तो नहीं रहा है.जूते पर हाथ फेरने वाला व्यक्ति भी दबोच लिया जायेगा. भारत में इस चलन को छोटे शहरों में भी यदि अपना लिया गया तो क्या हालत होंगे? पत्रकारों के पास विरोध दर्ज करने के मंच हैं. उनके पास कलम है, कैमरा है, वो उसे खबर के ज़रिये प्रकट कर सकते हैं लेकिन आज पत्रकारिता के दायित्यों को शर्मशार करने वाले जनरैल सिंग नाम के पत्रकार को दंगा पीडितों की सहानुभूति भले ही मिल जाए लेकिन चलन खराब है. एक कहावत भी है कि “दुःख ये नहीं है कि बुढ़िया मर गई डर तो ये है कि मौत ने घर का पता तलाश लिया” अब इस पर चुनाव के दौरान कई तरह की लडाइयां होंगी, बयानबाजियां होंगी. वो दिन दूर नहीं जब प्रेस कांफ्रेंस में जाने पर बोर्ड लगा हुआ दिखेगा.” क्रप्या अपने जूते चप्पल बाहर उतार कर जाएँ”  

प्रवीण दुबे, [email protected]


शब्दों के साथ ज़हर उगलना तालिबानी कल्चर है

जुबान से निकलता ज़हर, सुलगते शहर…!!, तुम श्रृष्टि के नियंता, बनाने की होड़ में, आम आदमीं, पिसता घुड़ दौड़ में …!!

आपको को ये जान लेना ज़रूरी है कि देश आपकी गंदी जुबां से निकले गलीच और भदेस शब्दों को कदापि नहीं स्वीकारेगा। आप जो भी हों, जिस रंग, वर्ण, धर्म, समूह के हों, जिन्दगी के लिए वफादार रहिये, वतन के लिए वफ़ादार रहिये। आपके कथन से यदि देश में आग लगे तो आप “कसाब” से कम नहीं। यह अब स्वीकार्य योग्य कदापि नहीं कि “इश्क और जंग (जिसे हम चुनाव और आप जंग समझतें हैं) में सब जायज़ होता है”। आप किसी को “……….” प्रतिक्रियास्वरूप आप कहें :-………… चलवा देता, कितनी ओछी बात है। भारत के गृह मंत्री के रूप में नहीं, एक अपराधी के रूप में आप कुछ भी चलवाएं किन्तु मित्र मेरे / हमारे देश को हमारा देश रहने दें, अपनी मिलकियत न मानें। संविधान का आदर करना सीखे। एक आम भारतीय की हैसियत से हमारा आग्रह है, निवेदन है, निर्देश भी।

जय भारती : जय जन-तंत्र।

-गिरीश बिल्लोरे मुकुल, जबलपुर, [email protected]

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