१९७१ के बाद से भाई मंसूर पाकिस्तान चले गए थे और वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद, क़ाज़ी हुसैन अहमद और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए – हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं, उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य की बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था.
जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी. खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया. जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया. मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे, मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था कि आखिरी दिल्ली वाला चला गया, उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.
भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. उन्होंने दिल्ली के जामिया स्कूल और एंग्लो-अरबिक स्कूल में शुरुआती तालीम पायी, दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज और दिल्ली कॉलेज से बीए और एमए किया. कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े. उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया, जो बहुत बार खेला गया. अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार-बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं. लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे, Yes, Sean Connery tries to look like me.
वे सन १९७१ में अपनी दोस्त आबिदा हाशमी से मिलने पकिस्तान गए और शादी करके वहीं बस गए. आबिदा के पिता अनीस हाशमी कराची में रहते थे और पाकिस्तान में जम्हूरियत की बहाली के बड़े पैरोकार थे. वे रावलपिंडी साज़िश केस में फैज़ के साथ जेल में रह चुके थे और पाकिस्तान सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे. १९७१ के युद्ध के कारण मंसूर सईद का भारत वापस आना संभव नहीं हो पाया. बाद में बंगलादेश बन जाने के बाद दोनों मुल्कों के बीच तनाव बढ़ गया और भाई मंसूर को मजबूरन वहीं रहना पड़ा. मंसूर सईद ने वहां की कम्युनिस्ट तहरीक का हिस्सा बनने का फैसला कर लिया. अपनी मृत्यु के समय वे पकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का हिस्सा थे.
पाकिस्तान जाने के पहले भाई मंसूर दिल्ली में नौजवानों की एक पूरी पीढी के हीरो थे. दिल्ली में जब साठ के दशक में छात्रों में वामपंथी राजनीति की समझ का सिलसिला शुरू हुआ तो भाई मंसूर उन प्रगतिशील छात्रों की अगली कतार में थे. उनके दो भाई सुहेल हाशमी और सफ़दर हाशमी बाद के वामपंथी आन्दोलन में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं. सफ़दर की तो कुछ राजनीतिक बदमाशों ने हत्या कर दी थी और सुहेल आज भी वैज्ञानिक सोच और दिल्ली की विरासत के बड़े जानकार माने जाते हैं. मंसूर की चचेरी बहन शबनम हाशमी ने पूरे देश में शोषित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई छेड़ रखी है और धर्म निरपेक्षता के आन्दोलन की बड़ी नेता हैं. भाई मंसूर की कमी दिल्ली में बहुत से परिवारों में महसूस की जायेगी. उनका जाना हमारी पीढी के लोगों के लिए निजी नुकसान है, सरहद के इस पार भी और उस पार भी.
लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं.
Comments on “भाई मंसूर नहीं रहे”
shukriya shesh narayan ji ka jinhone mansoor bhai ki shakhsiyat se ru-ba-ru karaya.mansoor bhai ko rabbul-almin jannat naseeb kare. aameen.
thank you shesh narain ji….achchi jankariya di hai….hamare jaisai anpadh patrakaro kai liye ye sab janana zaroori bhi hai…mansoor bhai sai karachi mai aik conference mai mulakat hui thi …mulakat kya bas dekha bhar tha…par pata nahi tha ki wo safdar aur suhail hashmi kai bhai hain…ye bhi nahi pata tha ki wo pakistani communist party kai neta thai..by d way india mai wo SFI mai thai ya AISF mai?