खुशवंत सिंह की पर्सनाल्टी जैसी भी रही है, एक पत्रकार एवं साहित्यकार के रूप में उनकी उपलब्धियों पर किसी को शक नहीं है। उत्साह में आकर किसी पर भी कीचड़ उछाल देना टीवी चैनल के लिए टीआरपी का मसाला है, इसके सिवाय और कुछ नहीं है। अखबारों के फीचर सेक्शन में आज जो छपता है, वो किसी से छुपा नहीं है। खुशवंत सिंह के लिए गलत शब्द का इस्तेमाल करने को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता।
–अमित त्यागी
सीनियर कापी एडिटर, द इकनामिक टाइम्स, दिल्ली
मैंने भड़ास4मीडिया पर खुशवंत सिंह, अतुल अग्रवाल दोनों के लेख पढ़े। खुशवंत सिंह का लेख हमेशा पढ़ता रहा हूं। उनकी बेबाक राय, टिप्पणी ही उनके लेखों की आत्मा है। पाठक भी उनकी बेबाकी को पसंद करते हैं, कई मुद्दों पर असहमति हो सकती है। वे जैसे हैं, वैसी ही बात उनके लेखन में होती है। वे दशकों से लिखते आ रहे हैं पर अतुल जी को इस ओर ध्यान अभी कैसे आया। लोगों में उत्तेजना फैलाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल, टीआरपी के चक्कर में पत्रकारिता का मूल उद्देश्य भूल जाना? क्या देश में विषय की कमी है? कभी दशानन के जीविति होने, स्वर्ग की सीढ़ी, एलियन का हमला आदि फालतू विषयों को उठाकर टीवी वाले क्या संदेश देना चाहते हैं। इसी कड़ी में नया नाम है- अतुल अग्रवाल का, जो फालतू के विषय को उठाकर दर्शकों की बाजारवाद के नाम पर बलि लेना चाहते हैं।
-पंकज कुमार
कार्टूनिस्ट
खुशवंत सिंह की कलम से जो कुछ अविवाहित स्त्रियों के लिए निकला है वह मात्र उन मान्य महिलाओ का ही नहीं, संपूर्ण स्त्री जाति का अपमान है। वैसे सिंह साहब की लेखनी से इस तरह की बातें निकलना आश्चर्य की बात नहीं है। वे ऐसा न लिखें तो लगेगा कहीं खुशवंत अस्वस्थ तो नहीं हो गये। उनका लिखा बहुत नहीं पढ़ा। पढ़ने का दिल ही नहीं किया। किसी पत्रिका (शायद इलस्ट्रेटेड वीकली) में उनकी एक कहानी पढ़ने की कोशिश कर रहा था लेकिन दो-तीन पंक्तियों के बाद ही उन्होंने अपने अधेड़ पुरुष पात्र को किसी युवती के साथ पतित होते दिखा दिया और वह भी पूरे ग्राफिक डिटेल के साथ तो लगा कि इस लेखक की लेखनी शायद परवर्जन से सराबोर है। सच कहूं, फिर उनका लिखा कुछ भी पढ़ने का दिल नहीं किया। हां, यह जरूर है कि जो आदमी जैसा है, वैसा ही लिखेगा, उस पर दोष मढना सही नहीं। उनकी तो यह आदत है। उन्होंने कभी अपने स्तंभ में खुलेआम लिखा था कि जब मैं किसी युवती के गाल थपथपा कर उसे आशीर्वाद दे रहा होता हूं तो वह भले ही इसे आशीष समझे मैं तो मन से आनंद ले रहा होता हूं। खुशवंत सिंह ऐसे ही हैं तो उनकी लेखनी से इससे अलग और कुछ निकल आये तो वह आश्चर्य की बात ही लगेगी। वैसे यह सारी स्त्री जाति का अपमान है और इसके लिए इन बुजुर्गवार को माफ नहीं किया जा सकता।
भारत की स्त्रियों का वह दर्जा है कि खुशवंत सिंह जैसे हजारों लोग उन पर कीचड़ उछालें तो भी उनका मान-सम्मान कलुषित या दागदार नहीं होगा। दागदार तो इनकी लेखनी हो गयी जिससे कमल खिलने चाहिए और वे उगल रही हैं कचड़ा। लेखन में तल्खी हो सकती है लेकिन इसमें नंगापन और भोंड़ापन कतई सराहनीय और सहनीय नहीं है। दरअसल हमारे कुछ तथाकथित प्रगतिशील (?) लेखकों को यह खुशफहमी है कि अगर वे धारा से विपरीत बहेंगे तो श्रेष्ठ और धाकड़ कहलायेंगे। ये बुरी आदतों तक को महिमामंडित करते हैं हालांकि लेखनी को उसके खिलाफ उठना चाहिए। खुशवंत सिंह को चाहिए कि अब वे अपनी लेखनी को विराम दें या जीवन के इस आखिरी सोपान में ऐसा कुछ देकर जायें जो उन्हें साहित्य की दुनिया में अमर कर दे। वैसे ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ के लेखक की यह परिणति दुखद और शोचनीय है। भारतीय महिलाओं की शान में उन्होंने जो गुस्ताखी की है वह उनके बौद्धिक दिवालियेपन की निशानी है। उनकी सोच का खजाना खाली हो गया है इसीलिए वे परवर्जन पर उतर आये हैं। उन्होंने जो शैली और शब्द व्यवहार किये हैं, वही उनकी मंशा, उनकी मनोवृत्ति और उनके मानस को उजागर करते हैं जो किसी भी तरह से स्वस्थ और संतुलित नहीं लगता। उन पर ज्यादा लिखना भी उन्हें शायद ज्यादा महत्व देना होगा इसलिए यही वाणी को विराम देता हूं और सुधी पत्रकारों, भारतवंशियों, वे जहां भी हैं, उनसे प्रार्थना करता हूं कि वे इस तरह के लेखन के विरोध में अपने-अपने स्तर पर खड़े हों और इसकी निंदा करें।
–राजेश त्रिपाठी
वरिष्ठ पत्रकार, सन्मार्ग, कोलकाता
भडास4मीडिया पर खुशवंत वाला प्रकरण पढ़ा तो सोचा मैं भी अपने विचार दूं। मैं अतुल अग्रवाल को तब से देख रहा हूं जब से वो चैनल सेवन में काम करते थे। सुनने में तो उनका अंदाज़ भाता है लेकिन फिर एक समस्या आ जाती है। अतुल अग्रवाल कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो जाते हैं। अपने सामने वाले को बोलने का मौका ही नहीं देते। कई बार बदतमीज़ी की रेखा तक पहुंच जाते हैं। भले ही लोगों को उनका ये स्टाइल पसंद आता हो लेकिन मै मानता हूं कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। जनता नेताओं की, पुलिस की धज्जियां उड़ता हुआ देखना चाहती हैं, इस काम को अतुल बखूबी करना जानते हैं, लेकिन हर चीज की एक सीमा होती है। अतुल अग्रवाल कुछ आत्ममुग्ध हैं। अतुल अग्रवाल खुद को चर्चा मे रखना चाहते हैं। भले ही उन्होंने खुशवंत वाला मुद्दा उठाया है लेकिन उनके शब्दों और भाषा के इस्तेमाल से मैं सहमत नहीं हूं। क्या फर्क रह जाता है खुशवंत और अतुल में? दोनों एक जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। और अतुल का दूसरा लेख पढ़ा। उसमें उन्होंने साबित करने की कोशिश की है कि उन्हीं के लेख को पढ़कर जैसे खुशवंत सिंह ने प्रतिक्रिया दी है। लेकिन क्या खुशवंत सिंह के पास इतना समय होगा कि वो अतुल का लिखा पढें। खुशवंत के कई आलोचक हैं, उन्हें आदत पड़ गई है। इसलिए उन्होंने अपने दूसरे लेख में सामान्य सी प्रतिक्रिता दी। लेकिन अतुल अग्रवाल जी तोड़ कोशिश करके ये साबित करने में जुटे हुए हैं कि खुशवंत ने उन्हीं का लेख पढकर प्रतिक्रिया दी है। ये आत्ममुग्धता और खुद को चर्चा में लाना नहीं तो और क्या है? दोनों को एक ही चीज़ चाहिए, नाम तो पहले से ही काफी है लेकिन चर्चा में बने रहना है।
–रामेश्वर शर्मा, लेखक
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
उपरोक्त विचार हिंदी टीवी जर्नलिस्ट, फतवेबाजी और खुशवंत सिंह शीर्षक से भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित पोस्ट पर है। इस मुद्दे पर जिन लोगों ने टिप्पणियां भेजीं, उन सभी का आभार। जिनकी टिप्पणियां प्रकाशित न हो सकीं, उनसे क्षमा चाहते हैं। यह प्रकरण यहीं खत्म किया जाता है।