Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

हिंदी टीवी जर्नलिस्ट, फतवेबाजी व खुशवंत सिंह

अतुल अग्रवाल टीवी जर्नलिस्ट हैं। इन दिनों वायस आफ इंडिया में हैं। कई प्रदेशों के हेड होने के साथ-साथ एंकर भी हैं। जोरदार तरीके से लिखते और बोलते हैं। उनकी लेखनी और वाणी कई बार उत्तेजक और आक्रामक हो जाती है। उत्तेजना और आक्रामकता तो ठीक है पर जब यह किसी अपढ़ या धार्मिक उग्रवादी या फासिस्ट या उग्र राष्ट्रवादी के सोचने-समझने के तौर-तरीकों की तर्ज पर उत्प्रेरित-संचालित होने लगती है तो फिर लोच, समन्वय, संयम, सदभाव, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, विभिन्नता, अनेकता जैसे भारतीय दर्शन के मूल और मौलिक सिद्धांतों का खात्मा कर देती है। बात यहां किसी एक अतुल अग्रवाल की नहीं बल्कि हिंदी टीवी न्यूज जर्नलिज्म में कायम फतवेबाजी के ट्रेंड की हो रही है। टीवी की बाडी लैंग्वेज और वायस लैंग्वेज को जूनियर टीवी जर्नलिस्ट अपने सीनियरों से ही देखते-सीखते हैं। इस लैंग्वेज का एक फंडा है।

<p align="justify">अतुल अग्रवाल टीवी जर्नलिस्ट हैं। इन दिनों वायस आफ इंडिया में हैं। कई प्रदेशों के हेड होने के साथ-साथ एंकर भी हैं। जोरदार तरीके से लिखते और बोलते हैं। उनकी लेखनी और वाणी कई बार उत्तेजक और आक्रामक हो जाती है। उत्तेजना और आक्रामकता तो ठीक है पर जब यह किसी अपढ़ या धार्मिक उग्रवादी या फासिस्ट या उग्र राष्ट्रवादी के सोचने-समझने के तौर-तरीकों की तर्ज पर उत्प्रेरित-संचालित होने लगती है तो फिर लोच, समन्वय, संयम, सदभाव, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, विभिन्नता, अनेकता जैसे भारतीय दर्शन के मूल और मौलिक सिद्धांतों का खात्मा कर देती है। बात यहां किसी एक अतुल अग्रवाल की नहीं बल्कि हिंदी टीवी न्यूज जर्नलिज्म में कायम फतवेबाजी के ट्रेंड की हो रही है। टीवी की बाडी लैंग्वेज और वायस लैंग्वेज को जूनियर टीवी जर्नलिस्ट अपने सीनियरों से ही देखते-सीखते हैं। इस लैंग्वेज का एक फंडा है। </p>

अतुल अग्रवाल टीवी जर्नलिस्ट हैं। इन दिनों वायस आफ इंडिया में हैं। कई प्रदेशों के हेड होने के साथ-साथ एंकर भी हैं। जोरदार तरीके से लिखते और बोलते हैं। उनकी लेखनी और वाणी कई बार उत्तेजक और आक्रामक हो जाती है। उत्तेजना और आक्रामकता तो ठीक है पर जब यह किसी अपढ़ या धार्मिक उग्रवादी या फासिस्ट या उग्र राष्ट्रवादी के सोचने-समझने के तौर-तरीकों की तर्ज पर उत्प्रेरित-संचालित होने लगती है तो फिर लोच, समन्वय, संयम, सदभाव, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, विभिन्नता, अनेकता जैसे भारतीय दर्शन के मूल और मौलिक सिद्धांतों का खात्मा कर देती है। बात यहां किसी एक अतुल अग्रवाल की नहीं बल्कि हिंदी टीवी न्यूज जर्नलिज्म में कायम फतवेबाजी के ट्रेंड की हो रही है। टीवी की बाडी लैंग्वेज और वायस लैंग्वेज को जूनियर टीवी जर्नलिस्ट अपने सीनियरों से ही देखते-सीखते हैं। इस लैंग्वेज का एक फंडा है।

फंडा यह है कि हर चीज में टीआरपी ढूंढो और टीआरपी लायक चीज मिलते ही उस पर खेल जाओ। उस खेलने से देश, समाज, संस्कृति के नफे-नुकसान की परवाह बिलकुल मत करो। ये फतवेबाजी अतीत में कई चैनलों पर कई मुद्दों को लेकर देखने को मिली। आरुषि हत्याकांड और उमा खुराना प्रकरण गवाह हैं कि किस तरह टीवी जर्नलिस्टों ने फतवे जारी कर नानसेंस क्रिएट किया। अतुल ने आजकल एक जोरदार मुद्दा तलाशा हुआ है। वो मुद्दा हैं खुशवंत सिंह। खुशवंत सिंह पर जोरदार तरीके से हमलावर होकर अतुल न सिर्फ अपने टीवी चैनल को खेलने लायक एक खबर दे चुके हैं बल्कि खुद एक अच्छे खिलाड़ी की भांति मुंह और कलम दोनों से टीवी और वेब मीडिया माध्यमों के जरिए जोरदार बैटिंग करते हुए आलराउंडर प्लेयर बनने की ओर बढ़ चले हैं। खुशवंत सिंह को भारतीय समाज, संस्कृति, सभ्यता का सबसे बड़ा खलनायक साबित करने की जिद में अतुल अग्रवाल टीवी जर्नलिज्म के दायरे, सोच व संवेदना की सीमा को भी जाहिर करते हैं। अतुल ने वही काम किया है जो एक ”पापुलिस्ट फंडामेंटलिस्ट पोलिटिकल पार्टी” करती है, जो अफगानिस्तान या पाकिस्तान या भारत में चरमपंथी धार्मिक संगठन करते हैं। खुशवंत सिंह के कहे को, जो एक निजी विचार है, एक सीरियस बहस की शुरुआत है, अतुल अग्रवाल ने यूं लपका और शुरू कर दी दनादन बैटिंग।

अब जब बैटिंग शुरू कर ही दी तो फिर पीछे हटने का सवाल कहां। अतुल ने खुशवंत के लिखे को इस बार भी पकड़ लिया और उन्हें लगे लतियाने, शब्दों और कलम के जरिए। मतलब, इस मामले को ब्रेक करने, बढ़ाने और लीड लेने का श्रेय सिर्फ अतुल अग्रवाल और उनके चैनल वीओआई को दिया जा सकता है। लेकिन रोना तो इसी बात का है कि ज्यादातर टीवी जर्नलिस्ट अपने चैनल और खुद की टीआरपी के अलावा कुछ भी सोचना, पढ़ना, लिखना, बूझना नहीं चाहते। आखिर क्या मजबूरी है कि अतुल अग्रवाल को प्रख्यात पत्रकार, साहित्यकार, स्तंभकार और चिंतक खुशवंत सिंह के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ा- ”सेक्सुअल टेररिस्ट”, ”ठरकी”, ”पापी”, ”लंपट”, ”धूर्त इंसान”। सिर्फ इसलिए ताकि अतुल और उनके चैनल की टीआरपी बेहतर बन सके? खुशवंत सिंह को अतुल अग्रवाल और उनका टीवी न्यूज चैनल भले ही ‘बूढ़ा, लाचार और रिएक्ट न करने वाला’ समझकर मुंह और कलम के जरिए पीट-पीट कर बेदम करते हुए अलगाव में डाल दे लेकिन इतना जान लीजिए, खुशवंत सिंह बौद्धिकता, अनुभव और चिंतन के संगम से समझ की जिस ऊंचाई पर आज हैं, वहां कोई संत ही पहुंच सकता है।

संत का मतलब सिर्फ यही नहीं होता कि वह मुंह से राम-राम या फिर अल्ला हो अकबर निकाले। संत का मतलब वह विद्वता होती है जो समकालीन समाज के उन अदृश्य कोनों की पड़ताल करने की समझ रखती है जिस पर आमतौर पर हम सभी प्रकृतिवादी या ईश्वरवादी या यथास्थितिवादी होकर हाथ जोड़ लेते हैं। कभी रजनीश ने जब सेक्स को पूजा, मंदिर और ध्यान से जोड़ा था तो उसको लेकर यथास्थितिवादियों ने कितना बवाल किया था। सेक्स को लेकर फ्रायड के जो विश्लेषण हैं, सेक्स को लेकर हमारे देश में जो कामशास्त्र है, उस पर बहस चलाने की किसी में हिम्मत है? अगर खुशवंत सिंह जो सोचते हैं, उसे लिखने का साहस करते हैं तो बजाय उस चिंतक की बातों को समझने की कोशिश करने के, हम मीडिया के लोग तुरंत फतवा जारी करते हुए उसे कुंठित, फ्रस्टेट और न जाने क्या क्या कहने लगते हैं।

खासकर हिंदी मीडिया के जर्नलिस्टों की जो बौद्धिक दिक्कत है, उससे यह समस्या और विकट रूप लेने लगती है। खुशवंत सिंह अगर कहते हैं कि उन्हें कोई कितनी भी गंदी गाली दे दे, उन पर असर नहीं होता तो यह वाकई चरम सिद्धत्व की अवस्था है जो अपने यहां भी अतीत के ग्रंथों में देखने को मिल जाती है। अगर शरीर और आत्मा के फर्क को ध्यान से महसूस कर लें, मनुष्य और मनुष्यता के गहन गूढ़ रहस्यों को समझ लें तो आप वाकई उस स्थिति में पहुंच जाते हैं जहां दूसरों के कुछ बोलने का आप पर असर नहीं पड़ सकता। ध्वनियां और क्रियाएं उन पर असर करती हैं जो ध्वनियों और क्रियाओं के भरोसे जीते हैं। ध्यवनियां और क्रियाएं साध्य नहीं हैं। ये साधन हैं। इस बारीक फर्क को समझना बहुत मुश्किल होता है। चिंतन की उस चरम अवस्था में जब कोई क्रिया-प्रतिक्रिया आपके आंतरिक सुख, दर्शन और सोच को प्रभावित न कर पाए, उसी को तो हम मोक्ष कहते हैं।

वो किस्सा है ना- संत गुरु नानक अपने शिष्यों के साथ एक गांव में पहुंचे। उस गांव के लोगों ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया और उन्हें परेशान किया। संत गुरु नानक वहां से जब निकलने लगे तो गांववालों को आर्शीवाद दिया कि तुम लोग यहीं बने रहो। अगले गांव में वे पहुंचे तो उस गांव के लोग काफी सुलझे हुए और वैचारिक लोग थे। इन गांववालों के धर्म, दर्शन, अध्यात्म, जिंदगी आदि को लेकर ढेर सारी जिज्ञासाएं प्रकट की और उस पर बहस किया। इस गांव में संत गुरु नानक और उनके शिष्यों की खूब आवभगत हुई। यहां से जब संत गुरु नानक अपने शिष्यों के साथ निकलने लगे तो गांव वालों को आशीर्वाद दिया कि तुम लोग खूब फलो-फूलो और चारों तरफ फैल जाओ। दो गांवो में दो अलग-अलग आशीर्वाद देने पर शिष्यों ने संत गुरु नानक से अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो संत ने कहा कि जिस गांव में बुरे विचार हैं, उसे उसी गांव तक सीमित रहना चाहिए, इसलिए वहां मैंने कहा कि तुम लोग यहीं बने रहो। जिस गांव में अच्छे विचार हैं, उन विचारों को सारे जहां में फैलना चाहिए इसलिए वहां कहा कि खूब फलो-फूलो और चारो ओर फैल जाओ। इस कहानी का सार यही है कि जो संत होता है वो अच्छी चीजों और अच्छे विचार की तरफ ही ध्यान देता है, किसी के कहने और करने पर रिएक्ट नहीं होता।

संभव है, खुशवंत सिंह ने जो कहा है वह बहुत लोगों को पसंद नहीं आए लेकिन उन्होंने अपनी बात कहते हुए शुरू में ही स्पष्ट कर दिया है कि यह उनकी थ्योरी है जिससे लोग सहमत न हों। खुशवंत ने अपने पहले स्तंभ में जो लिखा है और जिस पर विवाद शुरू हुआ है, वो लाइनें इस तरह हैं- ” इस तरह के बर्ताव के लिए शायद कोई मेरी थ्योरी न माने। मेरा मानना है कि ये सब सेक्स से जुड़ा है। उसे लेकर जो कुंठाएं होती हैं, उससे सब बदल जाता है। अगर इन देवियों ने सहज जिंदगी जी होती, तो उनका जहर कहीं और से निकल गया होता। अपनी कुंठाओं से निकलने में सेक्स से बेहतर कुछ नहीं है”। इन पंक्तियों में लेखक ने साफ-साफ लिखा है कि ये उनके निजी विचार हैं। उनका मानना है कि अपनी कुंठाओं से निकलने में सेक्स से बेहतर कुछ नहीं है। अगर खुशवंत ऐसा मानते हैं तो इसके पीछे उनकी अपनी जिंदगी का अनुभव, पढ़ाई-लिखाई और चिंतन है। हर कोई जो कुछ मानता है वह उसके अपने हालात, चिंतन, अध्ययन का नतीजा होता है।

जरूरी नहीं कि आप जो मानें उसे हम भी सही मानें। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमारे आपके विचार नहीं मिलते तो हम उग्रता का झंडा उठाकर दूसरे को ढेर सारी गालियों और उपाधियों से नवाज दें। खुशवंत का कहा हुआ विवादित हो सकता है और उसका जवाब उनकी बात को बहस के जरिए, शोध के जरिए ही दिया जाना चाहिए लेकिन हम जब किसी की बात को सिरे से खारिज कर देते हैं तो हम कहीं न कहीं वैज्ञानिक व तार्किक चिंतन पद्धति को नकारने लगते हैं जिसके बल पर आज देश व दुनिया का विकास यहां तक पहुंचा है।

इस पूरे मामले को जानने के लिए आपको इन लिंक पर क्लिक करना पड़ेगा-

Advertisement. Scroll to continue reading.

खुशवंत का स्तंभ (एक)

अतुल की प्रतिक्रिया (एक)

खुशवंत का स्तंभ (दो)

अतुल की प्रतिक्रिया (दो)


अगर इस मुद्दे पर आप कुछ कहना चाहते हैं तो आपके विचार को प्रकाशित किया जाएगा। अपनी तस्वीर और परिचय के साथ अपने विचार को [email protected] पर मेल कर दें।


Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement