भारत-पाक सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसी कोई सरकारी योजना रही होगी। मशहूर गायिका मलिका पुखराज का हिंदुस्तान आगमन हुआ। तब छत्तीसगढ़ राज्य बना नहीं था और सोवियत संघ टूटा नहीं था। भिलाई इस्पात संयत्र में सोवियत सहयोग के कारण भिलाई का रूतबा कुछ ज्यादा ही था और इसे छत्तीसगढ़ का सबसे मॉडर्न शहर माना जाता था।
लिहाजा मलिका साहिबा की मेजबानी की खुशकिस्मती भिलाई को हासिल हो गयी। उनकी गायी हुई हफीज जालंधरी की मशहूर नज्म ”अभी तो मैं जवान हूं” हमने सुन रखी थी। लेकिन मलिका अकेले नहीं आई थी, बेटी ताहिरा सैयद भी उनके साथ थीं। प्रोग्राम शुरू होने के बहुत पहले हमने सबसे सामने वाली बैंच में अड्डा मार लिया और तब विलासिता के एकमात्र साधन मूंगफली के कई ठोंगे खाली कर हम पर्याप्त व उचित मात्रा में कूड़ा एकत्र कर चुके थे।
मलिका आईं, साजिंदों व ताहिरा वगैरह का परिचय दिया और उनका गाना शुरू हुआ। एक-दो चीजें ही सुनाई होंगी कि ”अभी तो मैं जवान हूं” की फरमाईश शुरू हो गयी। यह तो उन्हें गाना ही था। मुकर्रर वगैरह हुआ और उन्हें गाना दोहराना पड़ा। मगर लोग फिर से इसी गाने को सुनने को आमादा थे। मलिका ने कहा कि अच्छा जरा ताहिरा को सुनिये। ताहिरा ने ”ये आलम शौक का देखा न जाये/ वो बुत है या खुदा देखा न जाये” गाना शुरू किया।
उनकी आवाज में एक अलग ताजगी थी और अंदाज भी ऐसा था कि लोग दाद पर दाद देने के लिये मजबूर हो गये। ”ये मेरे साथ कैसी रोशनी है/ कि मुझसे रास्ता देखा न जाये” जैसे शेरों के साथ ग ज ल का हुस्न परवान चढ ने लगा। फिर जब उन्होनें एक लोकगीत ” न चांदी जई, न सोने जई, मैं पीतल भरी परात” जैसा कुछ सुनाया तो लोग झूमने लगे। उनका गाना मुझे सम्मोहित कर रहा था। सम्मोहित मेरे एक मित्र भी हुए और वे कुछ ज्यादा ही दाद रहे थे पर दरअसल वे ताहिरा की खूबसूरती से ज्यादा प्रभावित थे।
दूसरे दिन उन्हें किसी क्लब या शायद भिलाई होटल में गाना था। मित्र ने कहा वे ताहिरा को दोबारा सुनना़ चाहते हैं। मैंने एक फालतू सवाल किया कि ”पास कहां से मिलेगा?” पास नहीं मिलता तो वे दीवार फांदकर जाते। अगले दिन का इंतजाम उन्होंने खुद किया। पर इसके बाद ताहिरा को सुनने की उनकी ललक और बढ गयी और उन्होंने कहा कि वे ताहिरा को जरा करीब से सुनना चाहते हैं।
लिहाजा हमने किसी तरह से मलिका साहिबा को घेरा। मैंने जरा साहस करके व अधिकार के साथ – जो बाद में समझ में आया कि सरासर बेअदबी थी- कहा कि केवल हिंदुस्तान में प्रोग्राम करने से सांस्कृतिक आदान प्रदान नहीं होगा। असल बात तो तब होगी जब आप हिंदी अदब की भी कुछ चीजों को अपनी सुरीली आवाज से नवाजें। लगे हाथ मैंने दुष्यंत कुमार के कुछ शेर और रमानाथ अवस्थी की ”सो न सका मैं याद तुम्हारी आई सारी रात/और पास ही कहीं पर बजी शहनाई सारी रात” जैसी पंक्तियां सुना दी। अब पता नहीं ये उन महान रचनाकारों की रचना का प्रभाव था या मलिका साहिबा को उस उम्र में हम बालकों के चेहरों पर तरस आ गया कि उन्होंने मिलने की हामी भर दी। मिलने के लिये उन्होंने सुबह पांच बजे का वक्त दिया।
”अलार्म घड़ी होगी?” मैने अपने मित्र से दूसरा बेमानी सवाल किया था। मुझे समझ जाना चाहिये था कि उन्हें रात में तारे गिनने के जरूरी काम को अंजाम देना है। सुबह जब भिलाई होटल में मलिका साहिबा के कमरे की ओर हम बढ़े तो स्वर लहरियां गूंज रही थीं। सुबह का कोई राग रहा होगा। मलिका साहिबा का रियाज चल रहा था और हममें इतना साहस नहीं था कि घंटी बजाकर उनकी इबादत में दखल दें।
कुछ देर हम दरवाजे पर ही खड़े रहे। किवाड़ दरअसल खुला ही था और ताहिरा ने होंठों पर उंगली रखकर हमे अंदर आने का संकेत दिया। रियाज अपने अंतिम चरण में पहुंच रहा था। हम मंत्रमुग्ध थे। सुर कुछ ऐसे बिखर रहे थे कि मित्रवर ताहिरा का दीदार भी भूल गये। सैकड़ों लाइव परफार्मेंस उस रियाज के आगे फीके थे। मलिका साहिबा ने बाद में बताया था कि रियाज भी दरअसल लाइव परफार्मेंस ही होता है, पर वो हम खुदा के लिये करते हैं। अंततः हारमोनियम रखकर जब उन्होंने दोनो हाथ उठाकर कुछ दुआ-सी मांगी तभी जैसे हम अपनी दुनिया में वापस लौटे।
इस घटना को कई बरस बीत चुके हैं। मित्र के जेहन से ताहिरा का अक्स धुंधला गया होगा, पर मलिका साहिबा की आवाज में मैं आज भी उस दिन के रियाज की तासीर व ताजगी को महसूस कर सकता हूं। आप भी सुनें।
-दिनेश चौधरी
ramesh singh
August 12, 2010 at 5:44 am
Wah saheb wah…Tahira ki kya bat hai…LO FIR BASANT AAYII suna hai…aur wo wala..SAMANDARON KAI UDHAR SAI KOI SADA AAYII…GHARON KAI BAND DAREECHAI KHULAI SABA AAYII…malika ji to khair ghazab hain hi..tahira ki awaz ki hanaq bhi kuch kam nahi hai boss…wah, kya yad dilayi hai bhai …maza aa gaya subeh subeh…tabiyat khush ho gayi…aaj mausam bhi achcha hai dilli main…office ki to ma…k…c.. ham chalai..aaj tahira ko hi sunengai…din bhar..