और, इतनी बात कहने के बाद एनडीटीवी इंडिया वाले मीटिंग के एजेंड-मुद्दे पर आ गए, जैसे दिबांग कभी साथ रहे ही न हों। एक लाइन में दिबांग की कहानी खत्म। पता चला है कि ‘मुकाबला’ देखने के लिए एनडीटीवी में आदमी देखा जा रहा है। ठीक आदमी मिला तो ठीक, वरना दिबांग की तरह ‘मुकाबला’ भी एनडीटीवी इंडिया से आउट। फिलहाल तो एनडीटीवी इंडिया वाले दिबांग के छिलके निचोड़ रहे हैं। मतलब, उनके ‘मुकाबला’ प्रोग्राम के साल भर के निचोड़ को निकालकर दर्शकों को दिखा रहे हैं।
यह तो सबको पता ही है कि कभी एनडीटीवी इंडिया के माई-बाप हुआ करते थे दिबांग। जो वचन उनके मुंह से निकले वह ब्रह्मा का वाक्य हुआ करता था। जो कह दें, वो आदेश। जो कर दें, वो सर्वोत्तम। ढाई साल पहले जब उनसे एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर के अधिकार छीन कर सिर्फ एक प्रोग्राम का एंकर व प्रोड्यूसर बना दिया गया था तो हिंदी के कई ब्लागों पर खुशी के पोस्ट प्रकाशित किए गए थे। कुछ पोस्टों को यहां इसलिए प्रकाशित किया जा रहा है ताकि दिबांग के बारे में पत्रकार और ब्लागर समुदाय की राय जानने के साथ-साथ कई चैनलों-अखबारों में खुद को भगवान का दूसरा रूप समझने वाले आकाओं को बताया जा सके कि रावणों, तेरे भी जब फिरे हुए दिन गिरेंगे तो ये ब्लगरवे ऐसे ही खुशियां मनाएंगे…..
अनिल रघुराज ने अपने ब्लाग ‘एक हिंदुस्तानी की डायरी’ में लिखा था-
भाया, दिबांग तो गयो…
एनडीटीवी इंडिया में भारी फेरबदल : आधिकारिक खबरों के मुताबिक एनडीटीवी इंडिया की संपादकीय ज़िम्मेदारियों में भारी फेरबदल किया गया है। मैनेजिंग एडिटर दिबांग को सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया है। उन्हें कंसल्टेंट भी नहीं बनाया गया है, क्योंकि विनोद दुआ तो पहले से ही कंसल्टेंट हैं और चैनल में दो कंसल्टेंट नहीं हो सकते। एनडीटीवी समूह से लंबे अरसे से जुड़े संजय अहिरवाल को अब हिंदी चैनल का एग्जीक्यूटिव एडिटर बना दिया गया है। साथ ही पहले पटना और अब मुंबई ब्यूरो के इनचार्ज मनीष कुमार को भी एग्जीक्यूटिव एडिटर की ज़िम्मेदारी दी गई है। संजय अहिरवाल अपनी गंभीरता और राजनीतिक साफगोई के लिए जाने जाते हैं, जबकि मनीष कुमार की छवि एक बेहद डायनेमिक पत्रकार की रही है। इसके अलावा दमदार और अनुभवी रिपोर्टर मनोरंजन भारती को चैनल का राजनीतिक संपादक बना दिया गया है। इन तब्दीलियों से एनडीटीवी इंडिया में नई ऊर्जा डालने की कोशिश की गई है। नहीं तो चार-साढ़े चार सालों से दिबांग की अगुआई में शानदार ब्रांड इमेज के बावजूद ये प्राइम न्यूज़ चैनल लगातार अपनी ऊर्जा खोता जा रहा था। टीआरपी में यह आखिरी पायदान पर पहुंच चुका है। लेकिन इससे भी बड़ी बात ये है कि इसका न्यूज-सेंस भी इन दिनों दूरदर्शनी होता जा रहा था। ज़ाहिर है दिबांग की दबंगई खत्म होने से एनडीटीवी इंडिया में ही नहीं, पूरे हिंदी टेलिविजन न्यूज़ की दुनिया में नई उमंग और तरंग आने की उम्मीद की जा सकती है।
संशोधन : दिबांग ने एनडीटीवी इंडिया से इस्तीफा अभी तक नहीं दिया है। क्यों नहीं दिया है, ये उनकी गैरत पर बड़ा सवाल है। असल में उनको बड़ी शालीनता से फील्ड रिपोर्टिंग में डालने का फैसला किया गया है और रोजमर्रा के सभी कामों से मुक्त कर दिया गया है। इससे ज्यादा साफ संकेत किसी को इस्तीफा देने के लिए कोई और हो नहीं सकता। नोट : ये सूचना मीडिया पर मेरी सोच की अगली कड़ी का हिस्सा नहीं है।’
‘वर्चस्व’ ब्लाग में लिखा गया था-
दिबांग के वर्चस्व का खात्मा!!
पता चला कि है कि एनडीटीवी के प्रबन्ध संपादक, दिबांग की छुट्टी की तैय्यारी लगभग पूरी हो गई है। वो किन कारणों से हुई इसके बारे में तो पता चलना अभी बाकी है लेकिन समस्त मीडिया जगत में आज इसी मुद्दे को लेकर गप शप हुई और चाय की चुस्कियां तथा सिगरेट के कश लिये गये। जानकारों की माने तो काफ़ी समय से उनके व्यवहार को लेकर चर्चायें आम रही हैं। परन्तु उनके विशालकाय कद के सामने कोई कुछ बोल नही पाया। आज उनकी छुट्टी की खबर ने कई लोगों को इस विषय पर बात करने का मौका दे दिया है। कुछ लोगों के हिसाब से वो अक्खड़ मिजाज़ रखते थे, तो कई लोगों से उनके द्वारा एनडीटीवी में महिला कर्मचारियों से अभद्रता पूर्ण व्यवहार के किस्से भी सुने गये थे। अब सच्चाई या तो दिबांग जाने या फ़िर राम। राजदीप सारदेसाई के जाने के बाद उन्हे काफ़ी ज़िम्मेदारी भरा पद दिया गया था, जिसे उन्होने कुछ हद तक निभाया भी। खैर फ़िल्हाल जो लेटेस्ट खबर है उसके अनुसार संजय अहिरवाल का प्रमोशन करा जा चुका है और वे अब एनडीटीवी हिन्दी के एग्ज़ीक्यूटिव ऐडिटर हो गये हैं, वहीं दूसरी ओर मनोरंजन भारती को राजनैतिक मामलों का संपादक बना दिया गया है। विनोद दुआ अपनी जगह पर वाह्य सलाहकार की ज़िम्मेदारी बखूबी संभाले हुए हैं। अब देखना ये है कि दिबांग खुद अपने पद से त्याग पत्र देते हैं या फ़िर उन्हे बाहर का रास्ता दिखाया जाना अभी बाकी है….. कुल मिलाकर एनडीटीवी से उनका “वर्चस्व” समाप्त हो चुका है।
‘बतंगड़’ ब्लाग में हर्षवर्धन ने लिखा था-
अच्छा हुआ एनडीटीवी में दिबांग की हैसियत कम हो गई
कुछ महीने पहले जब ये खबर आई थी कि एनडीटीवी में दिबांग की पहले जैसी हैसियत नहीं रह गई। मेरे एक मित्र ने दिल्ली से मुझे फोन करके बताया कि किन्हीं कारणों से दिबांग से मैनेजिंग एडिटर के सारे अधिकार छीन लिए गए। जैसा मुझे पता चला कि एनडीटीवी में एक मेल के जरिए स्टाफ को बताया गया कि दिबांग अब संपादकीय फैसले नहीं लेंगे। ये फैसला लेने का अधिकार मनीष कुमार और संजय अहिरवाल को दे दिया गया है। पता नहीं ये बात कितनी सच है।
इसके बाद इसे एनडीटीवी में दिबांग युग के अंत बताया गया। कुछ लोगों ने तो दिबांग कौन से चैनल में जा रहे हैं या फिर दिबांग खुद नया चैनल लेकर आ रहे हैं जैसी खबरें भी बाजार में उड़ा दीं। दिबांग को लेकर मेरी भी व्यक्तिगत राय बहुत अच्छी नहीं थी। जितना लोगों से सुना था मेरे दिमाग में था कि दिबांग संपादकी कम तानाशाही ज्यादा चलाते थे। मेरी भी दिबांग के बारे में अच्छी राय नहीं थी। और, ये राय मैंने अपने बेहद निजी स्वार्थ में बनाई थी। एक बार काफी पहले नौकरी के लिए मैंने नंबर जुटाकर दिबांग को फोन किया लेकिन, दिबांग के खराब रिस्पांस के बाद मैं भी इस बात का जाने-अनजाने समर्थक हो गया कि दिबांग खड़ूस किस्म के संपादक हैं। इसीलिए मुझे भी लगा कि चलो ठीक ही हुआ।
मेरे एक मित्र ने मुझे बताया कि दिबांग त्रिवेणी के हेड होकर जा रहे हैं तो, दूसरे किसी ने बताया कि जी न्यूज के एडिटर के तौर पर दिबांग का नाम पूरी तरह से फाइनल हो गया है। लेकिन, हर बार जब मैं टीवी खोलता था तो, दिबांग के मुकाबला का प्रोमो एनडीटीवी इंडिया पर दिख ही जाता था। कहा ये गया कि दिबांग को निकाला नहीं गया है। उनसे एनडीटीवी के मैनेजमेंट ने कहा है कि वो अपना शो मुकाबला करें और जो, चाहें वो कर सकते हैं लेकिन, संपादकीय फैसलों में दखल न दें।
किसी संपादक को संपादकीय फैसलों से बाहर निकालकर ये कहा जाना कि आप अपना शो देखिए और जो चाहें वो रिपोर्टिंग कर सकते हैं। इसे संपादक की छुट्टी के संकेत के तौर पर देखा जा सकता है। पता नहीं हो सकता है कि वो दिबांग की मजबूरी ही रही हो कि वो कहीं और छोड़कर नहीं गए। लेकिन, इसी वजह से वो बात हुई जिससे मैं प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता। दिबांग ने इस मौके का भी पूरा फायदा उठाया और अपने को उस तरह से साबित किया जैसे कोई भी रिपोर्टर नई जगह पर अपने को साबित करता है।
दिबांग के मुकाबला शो की अपनी अलग तरह की पहचान है। जैसे संपादकों के शो होते है, वैसा ही बड़ा शो है। इसलिए इस बारे में कुछ भी कहने का बहुत मतलब नहीं है। लेकिन, दिबांग ने विदर्भ और बुंदेलखंड पर जो, खास खबरों की खबर किया वो, ये बताने के लिए काफी है कि दिबांग अपने संपादक रहते एनडीटीवी के रिपोर्टर्स से जो उम्मीद रखते थे वो, बेवजह नहीं थी। और, अगर कोई संपादक खुद इस स्तर की रिपोर्टिंग कर सकता है तो, उसे पूरा हक है कि वो अपने रिपोर्टर्स से उसी तरह के काम की उम्मीद करे। अच्छा है कि इसी बहाने दिबांग से देश भर से ऐसी रिपोर्ट बना रहे हैं जो, नए-पुराने पत्रकारों के लिए सबक हो सकती है।
दिबांग जिस तरह से रिपोर्टिंग कर रहे हैं उससे मुझे लगता है कि अच्छा हुआ एनडीटीवी में दिबांग की हैसियत कम हो गई। इससे नए पत्रकारों को कम से कम इस बात का अहसास तो होगा कि कोई भी व्यक्ति कितनी काबिलियत के बाद ही संपादक की कुर्सी तक पहुंचता है। वरना तो होता ये है कि कितना भी लायक संपादक हो उसके नीचे या उसके साथ काम करने वालों को कुछ ही दिन में ये लगने लगता है कि इतने लायक तो वो भी हैं। संपादक तो बेवजह कुर्सी पर बैठा ज्ञान पेलता रहता है।
ये बाजार है बाबू, न मैं बचा, न तुम
कल दिन में खबर मिली, वाया एसएमएस। विनोद कापड़ी स्टार न्यूज से निकाल दिए गए। एसएमएस में साफ-साफ यही लिखा था। मैं उस वक्त मलयाला मनोरमा द्वारा होटल इंपीरियल में आयोजित ‘फ्रीडम आफ प्रेस एट एज आफ वायलेंस’ विषय पर लेक्चर सुन रहा था। एसएमएस इगनोर किया। आफिस पहुंचा। काम निपटाया। शाम को जब घर के लिए चला तो ढेर सारे एसएमएस आए। कई फोन भी। कुछ मुझसे ही पूछ रहे थे, कुछ मुझे बता रहे थे। घर पहुंचकर कुछ लोगों से मैंने भी फोन कर पूछा। सबने कहा- हां भई, खबर सच है। क्यों, कैसे, किसलिए….। ये सारे ढेर सवाल हर पत्रकार के निकाले और रखे जाने के दौरान सुने-सुनाए जाते हैं लेकिन जब कोई निकाला जाता है तो उस समय ये बातें ज्यादा ही फैलती हैं। मुझे इस खबर से बस ऐसा लगा….. इतनी जल्दी कपड़िया गयो कापड़ी… मुझे सचमुच विश्वास नहीं हो रहा।
विनोद कापड़ी से मैं मिला नहीं हूं लेकिन मिलने के लिए टाइम लेने की कोशिश के दौरान उनसे दो-चार बातें हो गईं और उन्होंने अपने तेज दिमाग और खोजी पत्रकार वाले स्टाइल में सब कुछ सनसनी टाइप स्टिंग जैसा कर दिया और जैसा कि हर स्टिंग के बाद होता है, दोषी चाहे जो हो लेकिन कैमरे या रिकार्डर में जो फंसा है, गाज उसी पर गिरती है। नशे में गालीगलौज करने का आरोप और इसके प्रमाण में कापड़ी जी द्वारा किया हुआ स्टिंग।
हालांकि मैं अब भी अपनी ही गलती मानता हूं क्योंकि बड़े और सीनियर लोगों के लिए प्रोफेशन की किताब में बदतमीजी करना, हड़काना, कड़क बोलना.. उनके जन्मसिद्ध अधिकार की तरह दर्ज और निहित होता है। अगर मैंने उनसे मिलने की कोशिश के तहत फोन कर दिया और उन्होने डांट दिया या आड टाइम होने की बात कह दी तो मुझे तुंरत सारी बोलकर फोन बंद कर लेना चाहिए था लेकिन मैंने जवाब दे दिया, भई…प्यार से बोल लो, इतनी हेकड़ी भी ठीक नहीं। बात बढ़ती चली गई।
बाद में मैंने अपनी गलती के लिए कापड़ी जी से एसएमएस के जरिए माफी मांगी, अपने संस्थान से लिखित माफी मांगी। इसके पीछे मकसद नौकरी बचाने की कोशिश करना तो था ही, ऐसी अनचाही स्थितियों के भविष्य में न आने का बल पैदा करना भी था। इस बेहद प्रोफेशनल और कारपोरेट दौर में अराजकता की गुंजाइश बिलकुल नहीं है। ऐसा मैं मानता था और मानता भी हूं।
तो मैं कह रहा था कि विनोद कापड़ी से मेरी मिलने की तमन्ना के पीछे और कुछ नहीं बल्कि उनका अमर उजाला बरेली से शुरू हुआ करियर, अपने सीनियर साथी और पत्रकार स्वरगीय हरेराम पांडेय द्वारा विनोद कापड़ी आदि के आगे बढ़ने की कहानियों से उपजी उत्सुकता थी। मन में दूसरी बात भी थी, दिल्ली आये हो तो लोगों से मिलते जुलते रहो, तेल मक्खन लगाते रहो, न जाने कब कौन काम आ जाएगा। लेकिन यहां तो उलटा ही पड़ गया, तेल लगाने की कोशिश में वही तेल खौलने लगा और मेरे पर ही पलट गया।
मेरी दिली इच्छा है कि वे कापड़ी जी जल्द ही फिर कहीं बास बन जाएं। मैं कतई नहीं चाहता कोई पत्रकार या संपादक कभी बेरोजगार या बेकार रहे। हालांकि अब वो दौर भी नहीं रहा कि कोई बेरोजगार रहे क्योंकि हर रोज एक नया प्रोजेक्ट और वेंचर मार्केट में हाजिर है और उसके लिए लायक लोग नहीं मिल रहे। इसलिए कापड़ी जी कल को फिर किसी जगह सुपरबास की भूमिका में होंगे ही, ये मैं मानकर चल रहा हूं लेकिन एक अनुरोध है, छोटों को हमेशा प्यार दीजिए, वे आपके लिए जान देंगे। अगर बड़े पद पर जाकर विनम्रता बरकरार न रखी जा सके तो इसका मतलब जो अंदर का मनुष्य है वो बहुत छोटा है।
खैर, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय।
देवांग की एनडीटीवी से बेदखली को उस समय इसी रूप में लिया गया था कि वे मनुष्येतर हो चुके थे और सीधे मुंह बात करना उनकी शान के खिलाफ हो चुका था। मतलब आम आदमी और आम पत्रकार से फोन और आफिस में बदमतीजी से पेश आना उनकी शगल में शामिल था, ऐसा बताया गया। मेरा निजी अनुभव भी कुछ ऐसा ही था।
अभी पता नहीं चला कि देबांग आखिर हैं कहां और क्या कर रहे हैं।
स्टार न्यूज के कई साथियों ने खबर दी कि विनोद कापड़ी के स्टार से हटाए जाने का मेल सारे इंप्लाइज के पास आ चुका है। 15 नवंबर उनका लास्ट वर्किंग डे था। मेल में कापड़ी जी के बारे में ढेर सारी और भी बातें कही गई हैं जिनका उल्लेख यहां करना उचित न होगा।
आगे क्या…. अब कोई कह रहा है कि वे बैग ज्वाइन करने जा रहे हैं तो कोई एनडीटीवी में जाने की बात कह रहा है। अच्छा है, जहां भी जाएं, फूले-फलें लेकिन सहजता और सरलता के साथ। अपन की और सारे भड़ासियों की दुवायें-शुभकामनाएं उनके साथ है।
चलिए, कापड़ी जी… आप भी जल्द ही मेरी तरह कुछ दिनों की बेकारी के बाद कहीं नई नौकरी करते दिखिए।
निष्कर्ष साफ है…. मार्केट उर्फ बाजार में अगर कोई बडे़ पद पर है तो वो पद शाश्वत नहीं है। कुछ क्षण का तमाशा है सब। अगर वो पद पीछे से हट जाए, खिसक जाए, खिसका दिया जाए तो क्या बचता है… बस वही हाड़ मांस का पुतला। शाश्वत है तो सिर्फ मनुष्यता, सहजता और सरलता। यही वो बेसिक चीजें हैं जो ऊंचे पद से नीचे गिरने के बाद भी आपको लोगों के नजरों से गिरने नहीं देती है।
श्रद्धांजलि…. : सहारनपुर में आईबीएन के पत्रकार नीरज चौधरी के निधन की दुखद सूचना से मर्माहत हूं। नीरज से दो-तीन अच्छी मुलाकातें थीं। एक बार सहारनपुर में होटल में रात में देर तक बैठे थे। एक बार नीरज दिल्ली आए थे, रियाज के साथ तो काफी देर तक बतियाते गपियाते और पीते खाते रहे। संभावनाओं से भरा चेहरा और चमकती आंखें अब भी याद हैं। छोटे जिले से होने के बावजूद जो पत्रकारीय चपलता और तेवर उनमें थे, वे ढेर सारे दिल्ली वालों में देखने को नहीं मिलते। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और परिजनों को इस दुखद घड़ी में खुद को संभालने का संबल। भड़ासियों से अनुरोध है कि वे इस आकस्मिक मौत की घड़ी में अपनी संवेदना व्यक्त करें।
एक प्रस्ताव है, अगर हम सभी उस परिवार की कुछ आर्थिक मदद कर सकें तो ज्यादा अच्छा है। इसके लिए क्या किया जाना चाहिए…हम सब सोचें। भविष्य में भी ऐसी दुखद स्थितियों के कारण परिवार पर आने वाली विपदा को कम करने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है, इस बारे में हम सभी पत्रकारों को सोचना चाहिए। आज जो व्यक्तिवाद और पैसे का दौर है उसमें हम दूसरों के दुख और पीड़ा से खुद को बस केवल कुछ क्षण तक ही जोड़ पाते हैं और फिर लग जाते हैं अपने काम में। मेरा मानना है कि हम सभी पत्रकार भाइयों को एक सामूहिकता विकसित करनी चाहिए ताकि सुख में न सही, दुख में तो काम आवें…..
manmohan singh
January 25, 2010 at 2:45 pm
yashwantji, kam se kam aapne harivansh ki chamchagiri se alag to kuchh sochha?