यशवंत भाई! आप सही कहते हैं अति कहीं भी हो बिल्कुल गलत होता है। हमारे शस्त्रों में भी अति और दुर्भावना से बचने को कहा गया है। यही नहीं, यह भी बताया गया है कि अगर आपके पास राजदंड हो तो क्षमा और मजबूरी को पहले परखना चाहिए। यशवंत जी, यह बात तब की है जब आप लखनऊ जागरण नहीं आये थे। मैं जब 1994 में दैनिक जागरण, लखनऊ में उप संपादक के तौर पर काम करने पहुंचा था तो दिनेश सिटी रिपोर्टर हुआ करते थे। नगर निगम और रेलवे उनकी बीट थी। मैं डेस्क पर था, कभी कॉपी जांचते वक्त उनसे कुछ कह देता तो वे वरिष्ठ होने के बाद भी बड़ी शलीनता से जवाब देते थे। जब मैं क्राइम रिपोर्टर बना तो कई मौकों पर हमने साथ काम किया। उनके जैसे नियमों के पालन के प्रति सजग शालीन व्यक्ति कम मिलते हैं। मैंने चुनाव की रिपोर्टिंग करने का तरीका उनसे ही सीखा था, तब न्यूज चैनलों का वक्त नहीं था। हमें खुद ही सूचनाएं एकत्र करनी होती थीं और चुनाव आयोग से सूचनाएं भी इतनी आसानी से नहीं मिलती थीं।
लोकसभा चुनाव में जब पहली बार अटल जी लखनऊ से जीतकर 13 दिनों के प्रधानमंत्री बनें तब मैंने दिनेश जी के साथ काम किया। उसके बाद नगर निगम के चुनाव में मैं और दिनेश जी एक साथ चुनाव की कवरेज के लिए निकले थे। वेतन बहुत नहीं मिलता था, न दिनेश जी को और न ही मुझे। बावजूद दिनेश जी ने मेरा पूरा ख्याल रखा था। एक पोलिंग बूथ पर नियमों का हवाला देकर रिटर्निंग अफसर ने रोका तो उन्होंने यही कहा था हमारी मजाबूरी खबर जुटाना है तो यहां आये हैं। आप अंदर नहीं जाने देना चाहते हैं तो कोई बात नहीं, हमें सूचना दे दीजिए, हम नियम तोड़ने नहीं आये हैं। ऐसा व्यक्ति अगर अदालत में वक्त पर पेश नहीं हो पाया तो अदालत को भी उसकी परेशानी और कारण समझने चाहिए थे।
अब मैं बतौर संपादक यह महसूस करता हूं कि कितनी जिम्मेदारी वाला कार्य होता है। पटियाला के बतौर ब्यूरो चीफ दिनेश जी के रिपोर्टर ने जो लिखा, उसकी जवाबदेही में ही वह अदालत में पेश हुए थे। यानी उन्होंने अदालत के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचाई बल्कि उसके आदेश का पालन किया। दिनेश जी से केवल इस कारण अदालत का खफा होना लाजिमी नहीं कि जज यह सोचे कि वे संपादक हैं तो अदालत में नहीं आएंगे। दिनेश जी गिरफ्तार होकर नहीं, खुद अदालत पहुंचे थे। अदालत को समझना चाहिए कि एक ब्यूरो चीफ और संपादक की नौकरी रोज के काम से ही तय होती है। ऐसे में वह काम छोड़कर आता है तो उसकी नौकरी पर भी संकट पड़ सकता है। इसलिए व्यक्ति के चरित्र, पद और स्वभाव तथा परेशानी पर भी गौर करना चाहिए था। दिनेश जी को केवल अपने इगो में जेल भेजने का फैसला निहायत गलत है।
-अजय शुक्ल
संपादक (नगर संस्करण)
आज समाज चंडीगढ़
ashok mishra assistant editor india news
January 19, 2010 at 11:10 am
ajayji aapna bilkul sahi mudda uthaya hai. badhai.
bal krishan goyal
January 19, 2010 at 11:17 am
ab sawal yeh paida hota hai key kaya kabhi jugde ko koi kamm nahi padta , kaya wo bimar nahi hote, jab yeh bate unke sath hoti hai or wo adalat nahi laga pate or jo log peshi bhugtne aye hote hai wo intzar kerte rehte hai , too judge jab bin bate chutti ker sakta hai too aam janta ko kau pessa jata hai , judge na hoo ke khuda ho gay , jo kaam ek peshi me ho sakta hai us ke liay 10 bar bulaya jata hai , matlab judge nahi khuda hai yeh , jo kisi kee majburi or samya kee keemat nahi samajte
रैम्बो
January 19, 2010 at 12:12 pm
महोदय,
यह सभी अनावश्यक बातें हैं. अदालत में पहुंचना है तो पहुंचना ही है.
यदि आप किसी कारण विशेष से नहीं पहुँच सकते तो उसके लिए भी प्रावधान हैं. अदालत में अग्रिम रूप से आवेदन किया जा सकता है. परन्तु दो दो बार अदालत में उपस्थित न हो कर आप निश्चित रूप से उसकी अवमानना ही कर रहे हैं.
अजय शुक्ला का कहना कि ऐसे में वह काम छोड़कर आता है तो उसकी नौकरी पर भी संकट पड़ सकता है। यानि जो लोग ऐसी परिस्थितियों से गुजरते हैं उन्हें छूट दे दी जाये?
“इसलिए व्यक्ति के चरित्र, पद और स्वभाव तथा परेशानी पर भी गौर करना चाहिए था।” अर्थात, मंत्री, मुख्य मंत्री, प्रधानमंत्री आदि को पूरी छूट दे दी जाये. फिर राजनैतिक लोग तो पूरी तरह से ही उन्मुक्त हो जायेंगे.
एक सज्जन ने कहा है कि जज भी छुट्टी लेते हैं. जो यहाँ पर अप्रासंगिक है. छुट्टी लेना एक अलग बात है और उनके एवज में आवश्यक प्रबंध करना अलग बात है.
रैम्बो
KUMAR SAUVIR, LUCKNOW
January 19, 2010 at 4:08 pm
nahi ajay
tum bilkul sahee kah rahe ho
hamaara maksad is masle par ek bahas chhedne ki hae. aur mujhe ummeed hae ki hum kaamyaab honge
Arun athak
January 19, 2010 at 4:51 pm
Ajay bhai aap ka khana sahi hai. phir bhi case to sambandhit news paper ko heandil karna tha. Editor profaishnol hota hai.