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…मुझे मिली है जो दुनिया बड़ी अधूरी है…

[caption id="attachment_17026" align="alignleft"]मख्मूर सईदीमख्मूर सईदी[/caption]मख्मूर सईदी नहीं रहे। वह मख्मूर सईदी, जिनकी जिंदगी का सफर 31 दिसम्बर, 1934 को टोंक (राजस्थान) से शुरू हुआ और जो अपनी आला-अलहदा शायरी से पूरी दुनिया में खुशबू की तरह छा गए। वह मख्मूर सईदी, जो उस दौर के शायर, विचारक और आलोचक थे, जिस दौर को उर्दू साहित्य का प्रवर्तक दौर माना जाता है। वह मख्मूर सईदी, जिन्होंने सिर्फ साधना के लिए कलम थाम रखी थी, पेशा या ओहदा पाने के मकसद से नहीं। वह मख्मूर सईदी, जो कई साल पहले टोंक छोडकर ‘दिल्ली वाले’ हो गए थे। जिन्हें साहित्य अकादमी समेत जाने कितने इनामात से नवाजा गया।

मख्मूर सईदी

मख्मूर सईदीमख्मूर सईदी नहीं रहे। वह मख्मूर सईदी, जिनकी जिंदगी का सफर 31 दिसम्बर, 1934 को टोंक (राजस्थान) से शुरू हुआ और जो अपनी आला-अलहदा शायरी से पूरी दुनिया में खुशबू की तरह छा गए। वह मख्मूर सईदी, जो उस दौर के शायर, विचारक और आलोचक थे, जिस दौर को उर्दू साहित्य का प्रवर्तक दौर माना जाता है। वह मख्मूर सईदी, जिन्होंने सिर्फ साधना के लिए कलम थाम रखी थी, पेशा या ओहदा पाने के मकसद से नहीं। वह मख्मूर सईदी, जो कई साल पहले टोंक छोडकर ‘दिल्ली वाले’ हो गए थे। जिन्हें साहित्य अकादमी समेत जाने कितने इनामात से नवाजा गया।

जिनके नामभर से मुशायरों की गरिमा बढ़ जाती थी। जिन्होंने देश के छोटे-बडे कई शहरों में ही सफर नहीं किया, बल्कि जिन्हें विदेश से भी मुसलसल बुलावे आते थे। शायद सफर के इस लंबे सिलसिले को लेकर ही उन्होंने कहा था- ‘मैं किसी दूर के सफर में हूं/ राह देखे न मेरा घर मेरी/ फिर उसी धूप में सफर मेरा/ फिर वही राह बेशजर मेरी।’ लेकिन नियति का खेल देखिए कि दुनियाभर में घूमने के बाद जनाब मख्मूर सईदी की जिंदगी का सफर थमा, तो अपनी जन्मभूमि टोंक के एकदम किनारे पर आकर। होली के दूसरे दिन दो मार्च को जयपुर में उन्होंने आखिरी सांस ली।

उनके रचना-संसार की सबसे बडी खूबी यह है कि उन्होंने कभी अपनी कलम को किसी वाद से नहीं जोडा। इंसानियत, धर्म निरपेक्षता और तरक्की की उम्मीदों के इर्द-गिर्द ही उन्होंने व्यापकता की तलाश की। वह संवेदनशील जन-मानस और मजबूत लोकतंत्र के हिमायती थे। सत्तर के दशक में अपने शायर दोस्त कुमार पाशी (अब मरहूम) के साथ उन्होंने इमरजेंसी की पुरजोर मुखालफत की थी। वह नवाबी खानदान से ताल्लुक रखते थे, लेकिन सर्वहारा का दर्द उनकी शायरी में साफ महसूस किया जा सकता है। लेखन में वह किसी तरह की प्रतिबद्धता के कायल नहीं थे। वह यह बात अकसर दोहराया करते थे कि किसी का पैरोकार होने की बजाय शायर को खालिस शायरी करनी चाहिए, जिसमें अवाम को अपनापन महसूस हो। जब उनके नहीं रहने की खबर मिली, तो कई मुशायरे आंखों में घूम गए, जिनमें मख्मूर साहब को अपना कलाम सुनाते हुए, दिल से रूह तक हलचल मचाते हुए महसूस किया था। खासकर जब वह लहराते हुए अपने ये शेर सुनाते कि ‘न रस्ता न कोई सफर है यहां/ मगर सबकी किस्मत सफर है यहां/ हवाओं की उंगली पकडकर चलो/ वसीला यही मोतबर है यहां’, तो शिद्दत से महसूस होता था कि हमें वाकई हवाओं की उंगली थाम लेनी चाहिए।

जब सारे वसीले (माध्यम) नाकारा साबित हो चुके हों, तब हवाओं से बढकर मोतबर (भरोसेमंद) और हो भी क्या सकता है वह हवा, जो हर दौर की नुमाइंदगी करती है, जो हमारी सांस है, जो हमारे इर्द-गिर्द जाने कैसी-कैसी खुशबू बिखेर जाती है और जो हमें जाने कहां से कहां बहा ले जाती है। अगर आप मख्मूर साहब के शायरी के संकलन ‘गुफ्तनी’, सियाह बर सफेद, आवाज का जिस्म, सबरंग, वाहिद मुतकल्लम, बांस के जंगलों से गुजरती हवा, आते-जाते लम्हों की सदा, ‘पेड गिरता हुआ’ और ‘दीवारो-दर के दरमियां’ पर गौर करें, तो पता चलेगा कि रिवायती जमीन पर भी कोई जदीद (आधुनिक), पुख्ता और असरदार शीराजा (क्रम) किस तरह तामीर किया जाता है। मख्मूर सईदी के बाद रचना-कर्म का यह जादू राजस्थान के दूसरे

मशहूर शायर शीन काफ निजाम की शायरी में ही देखने को मिलता है। मख्मूर साहब के इंतकाल पर शोक जताते हुए शीन काफ निजाम फोन पर बता रहे थे कि रिवायती और जदीद रंगों को मिलाकर मख्मूर सईदी ने अपनी जो खास शैली विकसित की, वह पढने और सुनने वालों पर गहराई तक असर डालती है। इस शैली में भरपूर ताजगी भी है और सादगी भी। मिसाल के तौर पर ये शेर देखिए- ‘भीड में है मगर अकेला है/ उसका कद दूसरों से ऊंचा है/ अपने-अपने दुखों की दुनिया में/ मैं भी तन्हा हूं, वो भी तन्हा है।’ यानी रिवायती और जदीद शायरी के

बीच किसी मुकम्मल पुल की तरह खडी नजर आती है मखमूर सईदी की अदबी दुनिया। अपनी जमीन से मुसलसल दूर हो रही दुनिया में मख्मूर साहब की शायरी उस ‘मोतबर हवा’ की तरह है, जिसमें इंसानियत तथा हिन्दुस्तान के माहौल की सच्ची, असरदार और ईमानदार खुशबू है। मख्मूर सईदी को पढने के साथ-साथ दूसरों को सुनने में सुकून मिलता था। उनकी शख्सीयत उनकी शायरी की तरह ही सहज थी, कहीं कोई नाटकीयता नहीं, शोहरत की जरा-सी भी अकड़ नहीं (वरना साहित्य में थोडे-सा नाम ही कइयों की चाल और चेहरा बदल देता है)। हां, मुशायरों के दौरान जरूर कलाम पेश करने की शैली में वह अद्भुत नाटकीयता झलकाते थे, जो सुनने वालों को अपनी गिरफ्त में लेती थी, कभी उन्हें सुला देती थी, कभी जगा देती थी, गुदगुदा देती थी, हंसा देती थी और कभी-कभी रूला जाती थी। जब वह कहते थे कि ‘तूने फिर हमको पुकारा सरफिरी पागल हवा/ हम न आएंगे दुबारा सरफिरी पागल हवा’, तो लगता था कि अपने साथ हुई वक्त की ज्यादतियों को सीना ठोककर अंगूठा दिखा रहे हों।

ज्यादातर लोग मख्मूर सईदी को शायर के तौर पर ही जानते होंगे, लेकिन आलोचना और सम्पादन के मैदान में भी उनकी कलम चली तथा खूब चली। काफी समय तक उन्होंने साहित्यिक पत्र ‘तहरीक’ का सम्पादन किया। उनके सम्पादन में आईं ‘शीराजा’, किस्सा-ए-कदीमो-जदीद, ‘साहिर लुधियानवी : एक मुताअला’ और ‘बिस्मिल सईदी शख्सो-शायर’ जैसी किताबें भी खासी चर्चित रहीं। सरस और चुस्त भाषा में लिखे ऎसे कई लेख हैं, जो उनके गहरे चिंतन और दर्शन को उजागर करते हैं।  दरअसल, वह लफ्जों के घडिया थे। उनके पारखी और जडिया थे। उनकी शायरी में नए-नए और अप्रचलित लफ्जों को आप ऎसी-ऎसी जगहों पर जडा हुआ पाएंगे कि लगेगा, यह लफ्ज यहां कितना सटीक और सही है। मसलन ये दो शेर- ‘अना के हाथ में तलवार किसने दे दी थी/ कि लोग अपनी ही परछाइयों से लडने लगे/ तेरी तलब की ये रातें, ये ख्वाब कैसे हैं/ कि रोज नींद में हम तितलियां पकडने लगे।’ इतनी सरल और सरस जुबान के शायर कम ही नजर आते हैं, जो आम लफ्जों से खेले हों और खुलकर खेले हों। यही वजह है कि मख्मूर सईदी पढने और सुनने वालों के अंतरतम तक आसानी से पैठ जाते थे। वह निर्मल थे, सजल थे, दूसरों के थे और यही वजह है कि आम आदमी के बहुत-बहुत अपने थे। भले ही उन्हें ताउम्र यह शिकायत रही हो- ….कहीं पे गम तो कहीं पर खुशी अधूरी है, मुझे मिली है जो दुनिया बड़ी अधूरी है….

लेखक दिनेश ठाकुर वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका यह लिखा ‘राजस्थान पत्रिका’ से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.
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0 Comments

  1. shweta mathur

    March 6, 2010 at 12:33 am

    मखमूर सईदी साहब पर इस शानदार लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. मीडिया में ऐसे संवेदनशीलता से भरपूर लेख कम ही नज़र आते हैं. दिनेश ठाकुरजी खुद अच्छे शायर हैं (आजकल कई जाल पत्रिकाओं पर उनकी शायरी पढने को मिल रही है), शायद इसीलिए वह मखमूर साहब पर इतना विस्तार से लिख पाए. हैरानी होती है की फ़िल्मी कलाकारों की शादियों के कवरेज के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देने वाले इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इतने नामवर शायर के देहांत की खबर तक को ढंग से कवर नहीं किया. उनका भी कोई दोष नहीं है. आजकल जो फटाफट पत्रकार तैयार हो रहे हैं, उनका सामान्य ज्ञान बहुत सीमित है. उनके लिए तो गुलज़ार और जावेद अख्तर ही कवरेज के काबिल शायर हैं. दूसरे प्रमुख शायरों के तो शायद ये नाम तक नहीं जानते होंगे. इसीलिए कृषण बिहारी नूर और अमीर कजलबाश जैसे बेमिसाल शायर कब दुनिया छोड़कर चले गए, आम जनता को खबर तक नहीं हुई. आपने मखमूर सईदी पर सामग्री देकर बड़ा नेक काम किया है. कृपया इस जागरूकता और संवेदनशीलता को बरक़रार रखें.
    -श्वेता माथुर, भोपाल.:(

  2. tehseen munawer

    March 4, 2010 at 7:27 am

    Makhmoor Saeedi nayi tarz k shayer the.Hum bachpan se unhien apne Marhoom Abba k saath dekhte the. Tab woh Tehreek mien hote the. Hamien yaad hai k Iran Culture House mien Farsi ki class mien dakhle k liye woh hamare saath gaye the…Tab hum ghaliban 6th class mien rahe honge.

    Do chaar Mushairon mien unke saath padhne ka mauqa bhi mila. Urdu Academy k risale Aiwan e Urdu mien woh hamari Ghazal bohet mohabeet se shaya kerte the…..Abhi pichle dinon Ghalib Inamaat ki taqseem ke dauran unhien dekha tha to woh bohet kamzor dikhayi diye. Poocchne per bataya ki bas theek hai…Hum ne mazaq mien kaha tha ki Abba Mushaira sajaye bethe hain..intezar mien …bohet shafqat se hanse the… DD URDU k liye unka interview record kiya tha HUMKALAAM mien. Doordarshan Urdu Channel ne unhien khiraje aqeedat ke taur per kal se aaj tak usko teen bar chaklaya to laga haq ada ho gaya….

    Dheere dheere sabhi buzurg saath cchodte ja rahe hain… Aik ajab sa khaali pan aas paas phelta ja raha hai….ab woh log nahin rahe jo tehzeeb sikhate the…Jo haath badhate the…Abba k saath k kai log unse ja mile hain..

    Dinesh ji ka yeh mazmoon Rajasthan Patrika mien padha to khushi hui ki Urdu walon ki bhi zindagi aur maut ki qadar hai…

    Makhmoor saheb ka hi shair hai…

    Kitni deewarie(n) utthi hai(n) aik ghar k darmiya(n)
    Ghar kahi(n) gum ho gaya deewar o dar k darmiya(n)[b][/b]

    Makhmoor Saeedi sb ki maut se shayri ka bohet bada nuqsaan hua hai…aur ise bharna mushkil hai….

    Shukria

  3. antima kinger

    March 4, 2010 at 5:29 am

    मखमूर सईदी आला दर्जे के शायर थे. उनकी कई किताबें भी पड़ी हैं और उन्हें मुशायरों में रु-ब-रु सुनने का मौका भी मिला है. उनके देहांत से उर्दू साहित्य को ही नहीं, देश के हर प्रबुद्ध नागरिक को क्षति हुई है. दिनेश ठाकुरजी ने बड़ी गहराई और संवेदनशीलता से उन पर लिखा है. लेख वाकई दिल को छू गया. मीडिया से इसी तरह की संवेदनशीलता की अपेक्षा की जाती है. इस लेख के लिए दिनेशजी को हार्दिक धन्यवाद और आपको भी, क्योंकि राजस्थान पत्रिका मुंबई में नहीं मिलती है. आप इसे प्रस्तुत नहीं करते, तो हम एक उम्दा लेख से वंचित रह जाते.
    -अंतिम किंगर, मुंबई.[i][/i]

  4. आरिफ हसन वस्तवी

    March 4, 2010 at 4:26 am

    दिनेश ठाकुर जी का लेख बहुत ही अच्छा है…लेख पढ़ने के बाद हम यह कह सकते हैं कि आज भी उन लोगों की कमी नहीं जो सचमुच साहित्य को अपने दिल से इतने क़रीब रखते हैं….और जब कभी भी ज़रुरत पड़ती है तो उनका कलम बोल उठता है…मख़मूर सईदी के व्यक्तित्व को केवल हम शायरी के बंधन तक बांध कर कभी नहीं रख सकते…वह एक ही समय में बहुत ही अच्छे कवी होने के साथ साथ एक खुले दिमाग़ के आलोचक और एक सलीक़ेमंद साहित्यकार थे…इन सब के अलावा वह बहुत ही शरीफ,नेक और अच्छे इंसान थे…हम यह कह सकते हैं कि मख़मूर सईदी उन भाग्यशाली लोगों की पंक्ति में शामिल थे जिन्हें उनकी ज़िन्दगी में ही लोगों का प्यार,स्नेह और सम्मान हासिल हुआ…मैंने स्वंय उनहें पटना और हैदराबाद के कई मुशायरों में सुना…उनकी सम्पादन में निकलने वाले मासिक पत्रिकाओं का मुताला किया…हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि सईदी साहब वही हैं जो हमें पत्रिकाओं में एक अपरिचित की तरह दिखते हैं और मुशायरों में ठीक सामने बैठे नज़र आते हैं….
    दिनेश ठाकुर जी ने अपने लेख में सईदी साहब की शायरी और उनके फन को कई हवालों से परखने की कामयाब कोशिश की है…मैं इस लेख के लिए दिनेश जी को अपनी ओर से बधाई देता हों…….अल्लाह से दोआ है कि दुनिया से जाने वाले की क़ब्र को नूर से भर दे….और उनकी याद ताज़ा करने वालों में पहला स्थान पाने वाले लेखक दिनेश ठाकुर को लंबी हयात दे……….आरिफ,हैदराबाद

  5. ravi vijay vargia taj bharti & tathyabharti

    March 25, 2010 at 7:33 am

    ravi vijay vargiya piplu tonk
    dinesh ji thakur ka lekh bahut achha hai
    aur to kya kahu upar -श्वेता माथुर, भोपाल आरिफ,हैदराबाद ne kaha hai jo kam thode hi hai.
    very best lekh

  6. ravi vijay vargia taj bharti & tathyabharti

    March 25, 2010 at 7:34 am

    ravi vijayvargiya piplu tonk
    मखमूर सईदी साहब पर इस शानदार लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. मीडिया में ऐसे संवेदनशीलता से भरपूर लेख कम ही नज़र आते हैं. दिनेश ठाकुरजी खुद अच्छे शायर हैं (आजकल कई जाल पत्रिकाओं पर उनकी शायरी पढने को मिल रही है), शायद इसीलिए वह मखमूर साहब पर इतना विस्तार से लिख पाए. हैरानी होती है की फ़िल्मी कलाकारों की शादियों के कवरेज के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देने वाले इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इतने नामवर शायर के देहांत की खबर तक को ढंग से कवर नहीं किया. उनका भी कोई दोष नहीं है. आजकल जो फटाफट पत्रकार तैयार हो रहे हैं, उनका सामान्य ज्ञान बहुत सीमित है. उनके लिए तो गुलज़ार और जावेद अख्तर ही कवरेज के काबिल शायर हैं. दूसरे प्रमुख शायरों के तो शायद ये नाम तक नहीं जानते होंगे. इसीलिए कृषण बिहारी नूर और अमीर कजलबाश जैसे बेमिसाल शायर कब दुनिया छोड़कर चले गए, आम जनता को खबर तक नहीं हुई. आपने मखमूर सईदी पर सामग्री देकर बड़ा नेक काम किया है. कृपया इस जागरूकता और संवेदनशीलता को बरक़रार रखें.

  7. ravi vijay vargia taj bharti & tathyabharti

    March 25, 2010 at 7:35 am

    मखमूर सईदी साहब पर इस शानदार लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. मीडिया में ऐसे संवेदनशीलता से भरपूर लेख कम ही नज़र आते हैं. दिनेश ठाकुरजी खुद अच्छे शायर हैं (आजकल कई जाल पत्रिकाओं पर उनकी शायरी पढने को मिल रही है), शायद इसीलिए वह मखमूर साहब पर इतना विस्तार से लिख पाए. हैरानी होती है की फ़िल्मी कलाकारों की शादियों के कवरेज के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देने वाले इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इतने नामवर शायर के देहांत की खबर तक को ढंग से कवर नहीं किया. उनका भी कोई दोष नहीं है. आजकल जो फटाफट पत्रकार तैयार हो रहे हैं, उनका सामान्य ज्ञान बहुत सीमित है. उनके लिए तो गुलज़ार और जावेद अख्तर ही कवरेज के काबिल शायर हैं. दूसरे प्रमुख शायरों के तो शायद ये नाम तक नहीं जानते होंगे. इसीलिए कृषण बिहारी नूर और अमीर कजलबाश जैसे बेमिसाल शायर कब दुनिया छोड़कर चले गए, आम जनता को खबर तक नहीं हुई. आपने मखमूर सईदी पर सामग्री देकर बड़ा नेक काम किया है. कृपया इस जागरूकता और संवेदनशीलता को बरक़रार रखें.

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