Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

तीन रास्ते- चुप रहो, सफाई दो, शरण लो

देशपाल सिंह पंवारप्रिय यशवंत, मैं जानता था कि मठाधीशों के पैर छुए बिना हिंदी पत्रकारिता में आना गुनाह है, यहां टिकना गुनाह है और बड़े ओहदों पर पहुंच जाना तो सबसे बड़ा गुनाह। ये भी जानता था कि ऐसे मठों के सामने से सिर झुकाए बिना निकलना गुनाह है, उनकी ओर आंख उठाकर देखना गुनाह है और उनके बारे में बोलना तो सबसे बड़ा गुनाह। यह कैसे हो सकता है कि इन मठाधीशों की चरण वंदना और चाकरी की भभूत के बिना कोई पत्रकार बने व कहलाए। ना चाहते हुए भी मुझ जैसे ढेरों अज्ञानी ये गुनाह कर बैठे हैं या कर रहे हैं तो मठों की चाकरी करने वालों का हल्लाबोल तो झेलना ही होगा। आज की दुनिया में नानसेंस सबसे बड़ी पावर है। यही इन मठों का सबसे बड़ा हथियार है। एक सुर में इतना हल्ला मचाओ कि असली मुद्दा गौण हो जाए। ये पाक और दूसरे नापाक दिखने व लगने लगें। चरण वंदना से दूर, अपनी काबलियत से कोई साथी टीवी न्यूज चैनलों में बड़े ओहदे पर पहुंचता है, लाख-दो लाख वेतन लेता है, दफ्तर व घर बखूबी चलाता है तो इन्हें पत्रकारिता खतरे में नजर आने लगती है। चैनल पर इन्हें प्राइम टाइम में नहीं बुलाता तो फिर उस भाई की खैर नहीं।

देशपाल सिंह पंवार

देशपाल सिंह पंवारप्रिय यशवंत, मैं जानता था कि मठाधीशों के पैर छुए बिना हिंदी पत्रकारिता में आना गुनाह है, यहां टिकना गुनाह है और बड़े ओहदों पर पहुंच जाना तो सबसे बड़ा गुनाह। ये भी जानता था कि ऐसे मठों के सामने से सिर झुकाए बिना निकलना गुनाह है, उनकी ओर आंख उठाकर देखना गुनाह है और उनके बारे में बोलना तो सबसे बड़ा गुनाह। यह कैसे हो सकता है कि इन मठाधीशों की चरण वंदना और चाकरी की भभूत के बिना कोई पत्रकार बने व कहलाए। ना चाहते हुए भी मुझ जैसे ढेरों अज्ञानी ये गुनाह कर बैठे हैं या कर रहे हैं तो मठों की चाकरी करने वालों का हल्लाबोल तो झेलना ही होगा। आज की दुनिया में नानसेंस सबसे बड़ी पावर है। यही इन मठों का सबसे बड़ा हथियार है। एक सुर में इतना हल्ला मचाओ कि असली मुद्दा गौण हो जाए। ये पाक और दूसरे नापाक दिखने व लगने लगें। चरण वंदना से दूर, अपनी काबलियत से कोई साथी टीवी न्यूज चैनलों में बड़े ओहदे पर पहुंचता है, लाख-दो लाख वेतन लेता है, दफ्तर व घर बखूबी चलाता है तो इन्हें पत्रकारिता खतरे में नजर आने लगती है। चैनल पर इन्हें प्राइम टाइम में नहीं बुलाता तो फिर उस भाई की खैर नहीं।

उसे पता भी नहीं चलेगा- पत्रकारिता की अस्मिता और देश की कल्चर का उसे हत्यारा घोषित कर देंगे ये मठवाले। ऐसे में उसके सामने तीन ही रास्ते होते हैं- चुप रहे, सफाई दे या फिर शरण ले। प्रिंट को ले लीजिए, जहां-जहां इनके ज्ञान की धारा सिकुड़ती गई, वहां वहां सब इनकी नजर में चोर दिखने लगे। ये पत्रकारिता के ढोर हैं। किसी दल में दाल नहीं गली तो वहां दलदल बताएंगे, दूसरों को भस्मासुर ठहराएंगे और अपनी गोटी फिट करने को गिटपिट करेंगे। मानना पड़ेगा भाई- शब्दों की जादूगरी से नैतिकता की बात, व्यवहार तथा चरित्र से अनैतिकता को मात, दोनों को खूबसूरती से साथ लेकर चलने व चलाने वाले हाथ की करामात सिर्फ इन्हीं के पास है। ये भी कला है, जो चाहे इसे सीख सकता है। फौरी तौर पर फीस बस इतनी सी दिखती है- पैर छुओ, मठ की रक्षा की कसम खाओ, बिना दिमाग लगाए विरोधियों पर वार में जुट जाओ, जहरीले शब्दों के बाण बरसाओ और नेताओं की तरह चिल्लाओ- जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा। अंदरखाने और भी कुछ करना पड़ता है, मुझे जानकारी नहीं है। इस बार भी ये यही कर रहे हैं। मुद्दा कुछ और था पर चाहत-आदत से मजबूर व निष्ठा में बंधे भाई लोग उसे बांध आए मठ की सबसे बड़ी गद्दी से। जो सबसे ज्यादा पावन है। पत्रकारिता की जननी है। जिस पर बैठा पुरोधा पत्रकारिता का रखवाला है। पत्रकारिता की दीक्षाशाला है। जो हम सबका आदर्श है। जो कभी गलती नहीं करता। यानि या तो वो भगवान है या फिर राजा। लाख टके का सवाल यही है कि अगर वो भगवान है तो हम जैसे तुच्छ इंसानों को ठीक क्यों नहीं करता? अगर वो राजा है तो फिर उस राजा का ये राज कैसा? पत्रकारिता का ये बेसुरा साज कैसा?

मुद्दा था- चुनाव में कुछ अखबारों द्वारा पैसा लेकर खबर छापने का, जनता को धोखा देने का, पत्रकारिता को बचाने का और उस अखबार मालिक का नाम खोलने का। मेरा सिर्फ यही कहना था कि शिक्षा कौन दे सकता है? सही रास्ते पर चलने की बात करने का नैतिक अधिकार किसे है? क्या झूठ के रास्ते पर चलने वाले सच के नारे लगा सकते हैं? मैंने पढ़ा भी था, सुना भी था और गुना भी था कि जिसने कोई पाप ना किया हो वही पत्थर फेंक सकता है। खासकर राजाओं के मामले में यह मापदंड और भी सख्ती से लागू होता है। पाप भले ही आपके हाथों से ना हुआ हो पर आपके राज में हुआ हो, आपकी मौन सहमति से आपके चहेतों ने किया हो, आपकी आंखों के आगे या पीछे आपकी फौज ने किया हो, उससे आप बच नहीं सकते। ऐसे में दूसरों को नैतिकता का पाठ आप पढ़ा नहीं सकते। पहले खुद को ठीक करो, घर ठीक करो, राजपाट ठीक करो, आदर्श की स्थिति पैदा करो तो फिर बिना टोके, बिना कहे, बिना लिखे, बिना नसीहत दिए और बिना रोए सारा जमाना आपके पीछे होगा। मठ का घंटा बजाकर कोई साधु नहीं होता। हल्ला बुलवाकर मसीहा का दर्जा नहीं पाया जा सकता। पत्रकारिता को नहीं बचाया जा सकता। खास लोगों के साथ दिखना, बैठना, खड़े रहना, गलत-सही बात पर उनकी हिमायत करना आम को कदापि पास नहीं आने देता और जब तक पत्रकारिता में ये खास और आम का अंतर है तब तक ये धारा यूं ही मैली होती जाएगी।

प्रिय यशवंत, कोई इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि इस चुनाव में पैसा लेकर खबर छापने वाले अखबार बस एक-दो ही नहीं हैं। हां, इससे बचने वाले बस एक-दो हो सकते हैं। वे सही राह पर हैं, पत्रकारिता को बचाने की चाह पर हैं, यही एकमात्र कारण नहीं होगा। हो सकता है उनके मिशन और बड़े हों। उनके मालिकों या संपादकों को राज्यसभा जाना हो, या कोई विशिष्ट नागरिक सम्मान पाना हो। देख लेना, जिस दिन उनका ये मिशन पूरा हो जाएगा, वे भी इस बिरादरी के साथ गोते लगाते नजर आएंगे। दूसरों को छोड़िए -ज्ञानी पुरोधा जिस अखबार से जुड़े हैं, और उस अखबार के जो फ्रेंचाइजी हैं, वहां भी इस चुनाव में यही खेल खेला गया। वहां भी ऐसी पैसे वाली खबरों के अलावा ऐसे-ऐसे सरकारी व अन्य उत्पादों के विज्ञापन छपते हैं कि सुबह-सवेरे देखकर ही चाल और हाल समझ में आ जाते हैं। घर में नैतिकता हलाल और जगत में बजते गाल का धमाल सही नहीं। जहां तक चुनाव के दौरान पैसा लेकर खबर छापने का सवाल है, तो इसे गलत ठहराने से पहले कुछ और सवालों के जबाव खोजने होंगे। अगर उनके जबाव मिल गए तो यकीनन चाह की राह को थाह जरूर मिल जाएगी। पहले इस बात पर बहस होनी चाहिए कि राजनीति जनसेवा है या धंधा? अगर जनसेवा है तो फिर आज जनसेवक नजर क्यों नहीं आते? ये मठाधीश उन्हें ठीक क्यों नहीं करते? हां अगर मठाधीशों को आज भी जनसेवक नजर आते हैं तो मेरे जैसा अज्ञानी उनके दर्शन से धन्य जरूर होना चाहेगा। वैसे यकीन है कि ये मठवाले भी इस बात को मानेंगे कि राजनीति धंधा बन गई है। अगर ऐसा है तो फिर चुनाव के दौरान पैसा लेकर इन धंधेबाजों को स्पेस देना कहां का गुनाह है? समाज में जहर घोलने वाले नेताओं की बातों में अगर कोई जनहित नहीं है तो फिर उन्हें समाज में फैलाने का वाहक मीडिया क्यों बने और वो भी फ्री में? है ना बेतुकी बात, नेता आग लगाने की बात करते रहें और मीडिया उनके लिए इस आग के वाहक का रोल अदा करता रहे? अगर इससे इंकार करें तो अपनों की ओर से पत्रकारिता के मूल्यों का हवाला हमारे गले में मुसीबत का निवाला बन जाए।

80 के दशक तक राजनीति धंधा नहीं थी। चुनाव लड़ने वाले नेता भी कम थे और जहर घोलने वाले तो गिने-चुने ही थे। उस समय यह बात सही थी कि हर चुनाव से पहले प्रिंट मीडिया अपनी गाइडलाइन तय कर लेता था। क्या करना है और क्या नहीं करना। उस दौर में भी ढेरों नेताओं को ये पीड़ा रहती थी कि उन्हें स्थान नहीं मिल रहा है। वे पत्रकारों और संपादकों को पटाते थे। कड़वा सच यह भी है कि उस दौर में भी मठाधीशों की ओर से प्रत्याशियों पर बराबरी का सिद्धांत लागू नहीं होता था। खैर वो पुरानी बात है और दफन मुर्दे निकालना हमारा मकसद नहीं। लेकिन आज के दौर में जब सारा सीन बदल चुका है, हर कोई माननीय होने के वास्ते सारे हथकंडे अपना रहा है, जनता को लड़ा रहा है तो फिर लाख टके का सवाल यही है कि पत्रकारिता के वे सारे सिद्धांत इन नेताओं और आज की राजनीति पर हूबहू क्यों लागू हों? क्या उनमें परिवर्तन की जरूरत नहीं है? क्या पत्रकारिता के ग्रंथ में समय के हिसाब से किसी परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं है? अगर है तो करो, ताकि कोई रास्ता नजर आए। अगर नहीं है तो फिर इसी तरह से रोते फिरो, कोई रास्ता नहीं मिलने वाला, कोई हल नहीं निकलने वाला। जिनके पास स्पेस है, वे दे रहे हैं, लेने वाले ले रहे हैं, जनता भी जानती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि खबर किसी भी कीमत पर नहीं बिकनी चाहिए लेकिन अब ये भी तय हो जाना चाहिए कि किसकी और कैसी खबर को इस दायरे में रखा जाए? राजनीति का अपराधीकरण और अपराधियों की राजनीति के गुणगाण को भी क्या सच्ची और अच्छी खबरों की श्रेणी में रखा जाए? इस श्रेणी को पत्रकारिता से हटाने तथा विज्ञापन की ओर वैधानिक रूप से ठेलने का वक्त आ गया है, ताकि पत्रकारिता भी बचे और बिना खाए-पिए अठन्नी का ग्लास तोड़ने के लांछन से पत्रकार भी बचें। चुनाव आयोग ही कोई रास्ता निकाले तो बात बने।

प्रिय यशवंत, एक बात और। मुद्दा सामूहिक था और साथी उसे व्यक्तिगत बनाने में जुट गए। किसी के भी बौद्धिक अस्तित्व पर कोई सवाल नहीं उठाया जा रहा है। किसी की निष्ठा को भी कोई दूसरा तय नहीं कर सकता। लेखनी और व्यक्तित्व दो अलग-अलग बातें हैं। दोनों का घालमेल करना ठीक नहीं। मैं इन पुरोधाओं की लेखनी का कायल हो सकता हूं लेकिन ये कहां की जबरदस्ती है कि उन्हें महान व्यक्तित्व का स्वामी भी मानूं। महान व्यक्तित्व बायस नहीं होते। संकुचित दायरे में नहीं जीते। गलत फैसले नहीं करते। विश्वविख्यात पत्रकार ने हमें दी नसीहत में खुद इसका उल्लेख किया है कि पत्रकारिता के इस पुरोधा ने जिन-जिन पत्रकारों को चुना, वे निकम्मे और करप्ट निकले। इस भाई को छोड़कर, जो लगातार दफ्तरों में मारपीट और गाली-गलौज करता रहा पर तरक्की पाता गया। जहां मारपीट व गाली-गलौज ही तरक्की का जरिया रहा हो, जहां ऐसी अनुशासनहीनता को शह मिलती रही हो, वहां का आलम कैसा रहा होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है? खोज और ज्ञान का विषय ये भी है कि ऐसा क्यों होता रहा? इस राज को मेरे जैसे हजारों लोग भी जानना चाहेंगे। उम्मीद है ये सच पुरोधा द्वारा ही लिखवाया जाएगा ताकि आने वाली पीढ़ी को पता चले कि पत्रकारिता में ज्ञान की बात से ज्यादा लात की महत्ता होती है। जब लात और हाथ चलाने वाले नैतिकता की बात करते हैं तो कुछ कहना ही फिजूल है।

वैसे इनकी एक और खूबी की दाद देनी पड़ेगी कि बात कहां की हो रही थी और ये अपने ही कसीदे पढ़ने लगे। ये तक भूल गए कि अपने शब्दों से ये अपने आका को ही पलीता लगा रहे हैं। कितने गर्व से कह रहे हैं कि बेटे की नौकरी मैंने लगवाई। यानि काबिल बेटे को नौकरी इनके रहमोकरम से मिली। कहीं यही तो वो राज नहीं। मूल विषय से भटककर वो बार-बार कद का एहसास कराने में जुटे रहे। आखिर वो ये क्यों बताना चाह रहे हैं कि पुरोधा की चाह राज्यसभा जाने की नहीं थी? अब ये मत कहना कि राज्यसभा जाना गुनाह है  इसलिए नहीं गए। अगर चाह नहीं थी तो फिर इस पर इतना जोर देने की जरूरत क्या है? कहीं अंगूर खट्टे तो नहीं थे? वैसे इनकी एक बात से मेरा ज्ञान भी बढ़ा है कि लालू प्रसाद जैसे नेताओं का उद्धार इस पुरोधा की सिफारिश पर हुआ। मेरा सवाल इनसे यही है कि क्या यह भी पत्रकारिता है? क्या नेता बनाना भी पत्रकारों का काम है? क्या ये पत्रकारिता के मूल्यों का हनन नहीं है? ऐसा करके क्या अपने कद और पद की हद नहीं लांघी गई? अगर ऐसा है तो फिर किस बिना पर हम नैतिकता की बात करते हैं? वैसे मैंने लालू जी से इस संदर्भ में जानकारी चाही है। जो उन्होंने बताया है वो ठीक उल्टा है। जल्दी ही इन साथियों को जानकारी मिल जाएगी। सच सामने आ जाएगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अखबार बेहद लोकप्रिय था। अब इसका श्रेय चाहे सही वक्त और सही चाह को दें, उनकी कप्तानी को दें, या भाषा को लेकिन इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि उस भाषा को लिखने व बोलने वाले युवाओं का परीक्षा में डिब्बा गोल हो जाता था। अब आप ही बताएं- ऐसी भाषा से फायदा हुआ या नुकसान?

इस अखबार से किसी जमाने में जुड़े साथियों ने प्रसार संख्या पर भी जोर दिया है। मैं इससे इंकार भी नहीं कर रहा हूं पर सब जानते हैं कि भारत में प्रसार संख्या किस तरह से बढ़ाई जाती है। विज्ञापन पाने को किस तरह से उस संख्या को हासिल किया जाता है। या तो सरकारों की नासमझी समझ लीजिए या फिर बिजली महकमे की शराफत- भारत के किसी भी कोने में अखबार जो फिगर बताते हैं, उसके हिसाब से बिजली का वास्तविक खर्च अगर वसूला जाए तो सबको पता चल जाएगा। उस दिन बेहद मुश्किल हो जाएगी जिस दिन सरकारें ये चाह लेंगी। तब पता चलेगा कौन कितने पानी में था और है? हो सकता है देश के इतिहास का यह सबसे बड़ा घोटाला हो। मेरे ये साथी जिन अखबार मालिकों को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं, वहीं पर जाकर इनकी लाइन ठहरती है और हर माह पैसा लेकर आती है। यह दोहरी चाल क्यों? अगर वे गलत हैं तो उनसे कैसा वास्ता? पैसा पाने का ये कैसा रास्ता? मुझे नहीं पता था मुझे अब पता चला कि भाटगिरी ही है असली सत्य पथ। मेरे एक दूसरे साथी रोजी-रोटी को मां और बहन तक ले गए हैं। ऐसी भाषा लिखने से क्या पत्रकारिता के मूल्य बच जाएंगे? तर्क पर बात करिए। व्यक्तिगत स्तर पर जो आपके पास है, उसे बेचने की बात करिए। ये 35 साल में दर्जनों किताबें लिख चुके हैं। अच्छी ही लिखी होंगी जरूर पढ़ना चाहूंगा। उन किताबों को बेचकर मुझे भी बताना कि क्या एक महीने का राशन घर में आ गया है? अगर हां, तो मैं कायल हूं। वैसे ये भी कमाल की बात है कि अखबार में कोई शख्स संपादक ना हो फिर भी वो दर्जनों किताब लिख सकता है। वरना किसको सिर उठाने की फुरसत मिलती है। शायद जरूरत से ज्यादा ज्ञानी हैं, काम से ज्यादा नाम पर ध्यान देते हैं इसलिए समय मिल गया होगा या निकाल लिया होगा। ये बेधड़क कथित अखबार का नाम बता देते हैं, जिसके बारे में चाहो इनसे पूछ सकते हो। शायद ये इस धरती के सबसे अच्छे अखबार का हिस्सा हैं, जहां विज्ञापन के नाम पर, प्रसार के नाम पर समूह संपादक कोई बात नहीं करते, बस पत्रकारिता के मूल्यों को ही आगे बढ़ाते हैं, सबको एक नजर से देखते हैं। इन मेरे साथी को आजकल के संपादकों से भी नफरत है। इनकी नजर में सब पैर छूकर संपादक बने हैं और 24 घंटे घुंघरू बांधकर मालिकों के सामने नाचते हैं। शायद इनका ऐसे ही संपादकों से पाला पड़ा होगा। जैसा इन्होंने भोगा व देखा होगा, उससे ही ऐसी धारणा बनाई होगी।

खैर इन बातों में कुछ नहीं रखा है और ना ही कुछ निकलने वाला। एक-दूजे को कोसने व नंगा करने से कुछ नहीं होने वाला। अगर पत्रकारिता गलत राह पर है तो सही रास्ते पर लाने के रास्ते खोजे जाएं। जो बिगड़ चुके हैं उन्हें सुधारने की बजाय जो आ रहे हैं उन्हें बचाया और सही रास्ता दिखाया जाए। एक बार सबको पत्रकारिता के मूल्यों से अवगत कराया जाए, हो सकता है 70 फीसदी फौज को जंग के कायदे-कानून ही ना पता हों। राज्य और राष्ट्र के स्तर पर कोई कमेटी बनाई जाए जो मीडिया के हर स्तर पर मान्य हो। और सबसे बड़ी बात- साथ ही यह भी देखा जाए कि मीडिया का कोई भी अंग घाटे में ना जाए। मालिकों को भी दो पैसे का मुनाफा हो, अखबार बंद ना हों, चैनल दम ना तोड़े। रोजगार चलता और बढ़ता रहे। काबिल पत्रकारों को उनकी असली जगह मिलती रहे। मुझे पूरा विश्वास है कि जिस दिन ये लक्ष्य हासिल कर लिए जाएंगे, पत्रकारिता का भी उद्धार हो जाएगा और पत्रकारों का भी। भरे हुए पेट वाले भूखों का भविष्य तय नहीं कर सकते। हवा में तैरने वाले पैदल चलने वालों को रास्ता नहीं दिखा सकते। पर आदत है। आसानी से नहीं जाएगी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक देशपांल सिंह पंवार वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों दैनिक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। इनसे संपर्क करने के लिए आप [email protected] या 09303508100 का सहारा ले सकते हैं।

This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement