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मन पर तनी धन की गन का मुंह कौन फेर सकता है?

[caption id="attachment_15010" align="alignleft"]देशपाल सिंह पंवारदेशपाल सिंह पंवारदेशपाल सिंह पंवार[/caption] कई अखबारों और प्रदेशों की यात्रा करने के बाद इन दिनों रायपुर में दैनिक हरिभूमि के स्थानीय संपादक के रूप में कार्यरत हैं। मेरठ के एक गांव के किसान परिवार में जन्मे डीपीएस पंवार बोलने, लिखने और जीवन में बेहद स्पष्टवादी रहे हैं। बी4एम के नियमित पाठक होने के बावजूद कुछ भी लिखने से अब तक परहेज करते रहे हैं लेकिन ”सबसे भ्रष्ट चुनावी मालिक-संपादक कौन?” पढ़ने के बाद उन्होंने मुझे एक निजी पत्र लिखकर मेल के जरिए भेज दिया। उनसे अनुमति लेकर यह पत्र यहां इस भावना के साथ प्रकाशित कर रहा हूं कि इससे पत्रकारिता की दशा-दिशा को समझने-बूझने में मदद मिल सके और बहस एकांगी होने से बच सके। पत्र में कही गई बातों को सैद्धांतिक नजरिए से देखा-पढ़ा जाना चाहिए, निजी आक्षेप या हमले के रूप में नहीं। -यशवंत, भड़ास4मीडिया

देशपाल सिंह पंवार

देशपाल सिंह पंवार कई अखबारों और प्रदेशों की यात्रा करने के बाद इन दिनों रायपुर में दैनिक हरिभूमि के स्थानीय संपादक के रूप में कार्यरत हैं। मेरठ के एक गांव के किसान परिवार में जन्मे डीपीएस पंवार बोलने, लिखने और जीवन में बेहद स्पष्टवादी रहे हैं। बी4एम के नियमित पाठक होने के बावजूद कुछ भी लिखने से अब तक परहेज करते रहे हैं लेकिन ”सबसे भ्रष्ट चुनावी मालिक-संपादक कौन?” पढ़ने के बाद उन्होंने मुझे एक निजी पत्र लिखकर मेल के जरिए भेज दिया। उनसे अनुमति लेकर यह पत्र यहां इस भावना के साथ प्रकाशित कर रहा हूं कि इससे पत्रकारिता की दशा-दिशा को समझने-बूझने में मदद मिल सके और बहस एकांगी होने से बच सके। पत्र में कही गई बातों को सैद्धांतिक नजरिए से देखा-पढ़ा जाना चाहिए, निजी आक्षेप या हमले के रूप में नहीं। -यशवंत, भड़ास4मीडिया


झूठ का रास्ता और सच के नारे

प्रिय यशवंत, वैसे तो मैं विवादों से दूर ही रहता हूं खासकर पत्रकारिता के, लेकिन यमुना की तरह हर रोज काला होता पानी अब अपच हो रहा है। ना तो मैं पत्रकारिता के पुरोधाओं की तरह ज्ञानी हूं और ना ही बाकी साथियों की तरह अनचाहे लेक्चर की डोज देने वाला पत्रकार। कारण, इनकी डोज से अगर मेरा पेट खराब हो चुका है तो फिर मैं क्यों किसी का हाजमा और खोपड़ी खराब करूं। जिस तरह की पत्रकारिता और जिस कथित सच की ये मठाधीश डुगडुगी पीट रहे हैं, जनता से क्रांति का आह्वान कर रहे हैं, इनसे यह पूछा जाना चाहिए कि अपने समय में इन्होंने कब, कहां और कैसे इस धंधे को मिशन में तब्दील करने के प्रयास किए?

इन मठाधीश पत्रकारों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि आखिर इस राह पर चलने के लिए कितने पत्रकार इन्होंने पैदा किए? अगर किए तो ये धारा फिर मैली क्यों है? अगर नहीं कर पाए हैं तो फिर लेक्चर देने का क्या इन्हें नैतिक अधिकार है? क्या इन्हें याद है कि सच की राह पर चलने वाले कितने पत्रकारों की इन्होंने पीठ थपथपाई? पैर छूने वालों को छोड़कर कितनों को साथ लिया और कितनों का साथ दिया? दिल्ली के बाहर दिन-रात संघर्ष करने वाले कितने पत्रकारों के नाम इन्हें याद हैं? उन्हें बधाई देना तो दूर, शायद ही उनके फोन तक रिसीव किए होंगे। अपना और अपनों का छोड़ कितनों का लिखा सच इन्हें याद है? क्या ये सच-सच बता सकते हैं कि कब-कब इन्होंने पद और कद का फायदा उठाते हुए पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों की हद लांघी? ऐसा हो ही नहीं सकता कि ऐसा ना किया हो।

मुझे तो हैरत हो रही है कि कंबल ओढ़कर घी पीने वाले शब्दों के ये जादूगर किस खूबसूरती से खुद को पाक और दूसरों को नापाक बता रहे हैं। झूठ के रास्ते पर चलने वाले सच के नारे लगा रहे हैं। रात के जुगनुओं का अस्तित्व ना मानने वाले दिन में जुगनु पकड़ने का आह्वान कर रहे हैं। हकीकत यही है कि जब-जब और जब तक ये लोग उस सबसे बड़ी गद्दी पर रहे, चंद चेहरों के अलावा बाकी पत्रकारिता जगत इनके लिए दलित था और पत्रकार अछूत तथा अज्ञानी। आप इतिहास उठाकर देख लीजिए, 20-25 साल पहले जो गोल था, वही आज भी है। बाद में पैर छूकर चाहे कोई नया बंदा इस गोल में चला गया हो लेकिन कम से कम ज्ञान के सहारे तो नहीं घुस पाया या बुलाया गया। हां, इस कौम में शामिल जिस ज्ञानी की जब आंख खुली, वो किनारा जरूर कर गया। तुम मुझे पंत कहो और मैं तुम्हें निराला- यूं ही चलती रहेगी हमारी धर्मशाला– की थीम पर चलने वाली ये खास बिरादरी खुद को पत्रकारिता की बीम समझती है, खुश होती है और सच के नाम पर, जनहित की पत्रकारिता के नाम पर, पत्रकारिता के मूल्यों के नाम पर दूसरों की बलि लेने की कोशिश में जुटी रहती है। पुदीने के झाड़ पर चढ़ाने में जुटी रहती है।

इनके दौर में भी यही होता था- खबर मत बनाओ पर तारीफ के कसीदे पढ़ते जाओ तो कोई टोकने वाला नहीं, रोकने वाला नहीं, बोलने और छूने वाला नहीं। ऐसे कोई एक नहीं, कई गोल हैं। उनके अपने खोल हैं, ये सब अनमोल हैं, बजवाते घूम रहे ढोल हैं। इनके यहां ज्ञान जीरो, जात हीरो, सच जीरो, झूठ हीरो, यहां सिर्फ रीढ़ विहीन पत्रकारों की ही जरूरत है। इससे बड़ा मजाक और क्या होगा कि ऐसी फौज पैदा करने वाले ही क्रांति की उम्मीद कर रहे हैं? क्रांति के वाहक बनने की कोशिश कर रहे हैं। गोल के मोल की बदौलत नाम साथ में है। कलम हाथ में है, जो चाहे लिख दो। शब्दों के मायाजाल को ही ये लोग असली पत्रकारिता मानते हैं। हकीकत यही है कि ऐसे सारे लोग माइंड सेट के शिकार हैं। पत्रकारिता को दो हिस्सों में खुद बांट रहे हैं और नई कौम को 30 साल पुराने रास्ते पर चलने को कह रहे हैं।

आखिर युवा कौम से बूढ़ों की तरह चलने की अपेक्षा क्यों? खुद गले तक फुल हैं और जिनके पेट में दो रोटी किसी तरह जा रही है, उनसे आस लगा रहे हैं कि वे पीछे-पीछे आएं, इनकी अलख जगाएं, घर वालों के हाथों में कटोरा पकड़ाएं और पत्रकारिता के इनके स्वहित मिशन को परवान चढ़ाएं। ईमानदारी की बात करना अच्छी बात है। उस पर चलना और भी अच्छी बात है। पर साथ ही समाज में हो रहे बदलाव को ना मानना कहां का ज्ञान है? हम सही, हमारा दौर सही, नई पत्रकारिता खराब, पुरानी पत्रकारिता सही। क्या ये मान लिया जाए कि आज देश में पत्रकारिता होती ही नहीं?  इनके जमाने के साथ ही वो खत्म हो गई?  एक शहर, एक अखबार के बाहर भी दुनिया है। उसे जानने, समझने की जरूरत है। जो नहीं बदलते उन्हें समय बदल देता है। राजनीति के मैदान से ऐसे तमाम चेहरे इस बार गायब हो गए हैं। शायद एक दिन पत्रकारिता को भी चैन मिले। फिलहाल तो ये सब रेगिस्तान में खड़े हैं। आंखों में धूल है। ठौर की तलाश है। हल्ला करने पर शायद कोई ठौर मिल जाए। मंशा यही होगी।

एक और बात, यह कहां का तुक है कि एक करप्ट आईएएस से एक धंधा करने वाले अखबार मालिक की तुलना की जा रही है। आईएएस ने अगर करप्शन किया है तो वह व्यक्तिगत है। घूस का धन सिर्फ उसके काम आएगा। अखबार मालिक अगर अपने अखबार का स्पेस बेचकर पैसा कमा रहा है तो उसका कुछ हिस्सा स्याही से लेकर दवाई तक में काम जरूर आएगा। अखबार के विस्तार में काम जरूर आएगा। रोजगार पैदा करने में काम जरूर आएगा। जिस भी अखबार मालिक की बात की जा रही है, जाहिर सी बात है वहां से 5-7 हजार लोग जरूर अपना घर चला रहे होंगे। इस घराने ने धंधा करने और धंधों को बचाने व चलाने के वास्ते ही अखबार खोला होगा। अगर वो पैसा कमा रहे हैं तो इसमें गलत क्या है? अगर पैसा नहीं होगा तो पत्रकार कहां से होंगे?

वैसे भी पत्रकारिता का मूल मंत्र जनहित है। इस बात से शायद ये कथित आत्ममुग्ध मठाधीश भी इनकार ना करें। अगर बात छिड़ ही गई है तो अखबार मालिक का नाम खोलने से पहले अब इस पर बहस हो जानी चाहिए कि चुनाव के दौरान नेताओं के दौरों की खबरों और उनकी तस्वीरों में क्या जनहित है? चुनाव के दौरान समाज में जहर घोलती उनकी कड़वी वाणी में क्या जनहित है? दूसरों की कमीज पर कीचड़ उछालने वाले नेताओं की घटिया सोच में क्या जनहित है? दूसरों की नाक काटने वाले नेताओं के बयान छापने में क्या जनहित है? अगर इसे ये जनहित मानते हैं तो फिर हम भी गलत हैं और वो अखबार सबसे बड़ा गुनाहगार। जो चाहे सजा दो, जो चाहे फतवा सुनाओ। अगर ये जनहित नहीं है तो फिर लाख टके का सवाल यही है कि क्यों इन नेताओं को फ्री स्थान अखबार में दिया जाए? ऐसे नेताओं से इसकी कीमत अखबारों को वसूलनी ही चाहिए। ना जनता की गरज है ना अखबार की, गरज नेताओं की है। जिस दिन केवल मीडिया के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने का दौर खत्म हो जाएगा, उस दिन राजनीति की आधी गंदगी अपने आप ही खत्म हो जाएगी। अगर प्रत्याशी काबिल है, असली जनसेवक है तो वो अपनी काबलियत से जीते। मीडिया की हुंकार से नहीं।

पीड़ा करप्ट और कमजोर नेताओं की, पेट में दर्द पत्रकारिता के मठाधीशों को। आखिर क्यों? संपादकों के हक पर डाका पड़ रहा है, कहीं इसलिए तो नहीं! इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ये चलन पुरानी पत्रकारिता के दौर में सौ फीसदी था। नई पत्रकारिता में अब वहां है, जहां खबर का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। संपादक ने बुलाया, रिपोर्टर को आदेश सुनाया, फलां नेता का ध्यान रखो। पत्रकार की क्या हिम्मत, जो मना कर जाए। अब इसमें किसे, कितना मिलता था या मिलता है, लेने वाले जानें। अब यह हिस्सा सीधे मालिक या अखबार के कोष में जा रहा है तो फिर हमें तकलीफ क्यों हो रही है? क्या ये मठाधीश बता सकते हैं कि इस देश में आजकल ऐसा कौन सा अखबार या संपादक है, जिसका नाम किसी दल, नेता, अफसर या सरकार के साथ ना जुड़ा हो। अगर ये सही है तो फिर चुनाव में सीधे पैसा लेकर खबर छापना गलत कैसे? शुक्र मनाइए इससे कुछ पत्रकार तो करप्ट होने से बच जाएंगे। यह तो पत्रकारिता का ही फायदा है।

वैसे भी रामायण या धार्मिक ग्रंथ बेस कौन सा अखबार चल रहा है और कितने दिन चलाया जा सकता है? हो सकता है दूसरों को पढ़ाने वाले ये ज्ञानी पत्रकार चला सकते हों?  इसमें कोई दो राय नहीं कि पत्रकारिता बस मन से की जा सकती है लेकिन अखबार या मीडिया का कोई भी साधन धन से ही चलता है और धन विज्ञापन से आता है। विज्ञापन या तो सरकार देती है या बाजार। ऐसे में खबर आखिर किसके दबाव में होगी? मन पर तनी धन की गन का मुंह कौन फेर सकता है? या तो राजा की औलाद, या परिवार के प्रति गैर जिम्मेदार लोग। एक और आदर्श स्थिति हो सकती है- इन मठाधीशों में से कोई एक अपना अखबार या चैनल खोले, इस राह पर चलने वाले पत्रकारों के लिए रोजगार के द्वार खोले, कोरे कागजों को काला करते समय लिखे गए शब्दों की तर्ज पर हुबहू जनहित के बोल बोले, मुंशी प्रेमचंद के दौर की पत्रकारिता के पथ पर गाड़ी लेकर डोले तो पत्रकारिता भी बच सकती है। इनकी चाह भी पूरी हो सकती है। मेरे जैसे निपट अनाड़ी पत्रकार को भी असली राह की थाह मिल सकती है। काश ऐसा हो। हुआ तो बस दो वक्त की रोटी और रोजाना दो ज्ञान की बातों के मेहनताने में मैं इन मठाधीशों के नीचे ट्रेनी के रूप में 16 घंटे काम जरूर करना चाहूंगा।

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मैं भी 24 साल से इस धंधे (मान जाओ) में हूं। उस राह पर चलने, सच बोलने और लिखने की सजा झेल चुका हूं। तुम भी वाकिफ हो। आगे कितनी झेलूंगा पता नहीं। इस दौर से ना जानें कितने गुजर चुके हैं और रोजाना गुजर रहे हैं। तमाम पत्रकारों पर लक्ष्मी बरसती देख चुका हूं। ये आज आदरणीय हैं। सरस्वती के पुजारियों को दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करते देख चुका हूं। ये सब गुनाहगार हैं। इस अखबार मालिक का नाम खोलने से पहले इन लक्ष्मी पुत्र पत्रकारों की संपत्ति का ब्योरा भी जनता को जरूर देना ताकि यह सबको पता चले कि आखिर खेल-खेल में खेल कैसे हुआ? किस तरह पत्रकारिता का मिशन बेमेल हुआ? इस अखबार मालिक का नाम खोलने से पहले यह भी जरूर बताया जाना चाहिए कि सरस्वती के पुजारी आज इस हालत में क्यों हैं? क्यों कभी इन मठाधीशों ने आवाज नहीं उठाई? अगर सच का यही रास्ता है तो फिर इस पर वे क्यों जाएं? ये रहनुमा पहले चलकर दिखाएं तो बात बनें।

प्रिय यशवंत, कड़वा सच यह भी है कि काले हाथों को अखबार की फ्रेंचाइजी देने वाले नैतिकता का पहाड़ा पढ़ा रहे हैं? नाम खोलने से पहले यह भी लिखा जाना चाहिए कि आखिर क्यों ऐसा किया गया? सलाह देना आसान है। रोजगार देना मुश्किल। तुम हर रंग देख चुके हो, क्यों किसी की रोजी-रोटी पर लात मारने की कोशिश करने वालों को मसीहा बनाने पर तुले हो। इनके घरों में इतना बंदोबस्त पहले से है कि शायद ही जबरन उपवास की नौबत आई हो पर ऐसे खुशनसीब सब नहीं। जब भी लिखना तो उनके घर के चूल्हे का ध्यान जरूर कर लेना। उनमें आग जरूर रहे। पता है ना, मेहनतकशों को रोटी की भूख ज्यादा लगती है। उनका उपवास कुपोषण की ओर ले जाता है। तुम खुद बेहद समझदार हो। बताओ, जिस बिरादरी का हर आदमी दूसरे की टांग खींचने और नाक काटने में जुटा हो वो मिशन की बात करती है, वो नैतिकता की बात करती है, दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकती है तो इस पर हंसना चाहिए या रोना? मैं खुद को अज्ञानी मानता हूं।

पत्रकारिता के बारे में सिर्फ इतना ही समझता हूं कि किसी तरह रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, दीक्षा, रोजगार, पानी, हवा, पर्यावरण, सेहत, इज्जत आदि मुद्दे मेन रहें। एक पत्रकार के नाते भी और एक संपादक के नाते भी। इस तरह से कलम चलाई जाए कि उनका मोल देने और लेने वालों को उनकी सरल बोली में समझ में आ जाए। समाज के हर क्षेत्र के आदर्श चेहरों का सम्मान हो। वो मीडिया में स्थान पाएं ताकि सबकी चाह की ये राह बने। जरूरत सकारात्मक पत्रकारिता की है। ज्ञान बढ़ाने की है। ज्ञान बघारने की नहीं। भूखा तन घपलों-घोटालों की खबरों से नहीं भरता। ये बात पत्रकारों की समझ में आ जानी चाहिए, खासकर उनकी जिनकी जेब और पेट खाली हैं।


डीपीएस पंवार से संपर्क [email protected] This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it या 09303508100 से कर सकते हैं.

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