किसी अखबार के पहले अंक का संपादकीय कई मायनों में ऐतिहासिक होता है। वह अखबार जब ‘चौथी दुनिया’ हो तो ऐतिहासिकता और बढ़ जाती है। बंद होने के 16 साल बाद अब जब चौथी दुनिया फिर से प्रकाशित किया जा रहा है, इसका विशेषांक चुनिंदा लोगों तक पहुंच चुका है, 23 साल पहले शुरू हुए इस अखबार के पहले संपादकीय को पढ़ना कई मायनों में नया अनुभव होगा। दूसरी पारी के विशेषांक में 14 दिसंबर 1986 को छपे पहले अंक के संपादकीय को भी प्रकाशित किया गया है।
संपादकीय से पहले भूमिका के तौर पर कहा गया है- ”चौथी दुनिया को बंद हुए 16 साल हो गए. जब हमने इसे फिर से प्रकाशित करने का फैसला किया, तो हमारे सामने वही सवाल खड़े थे जो आज से 23 साल पहले थे. ये सवाल अपनी जगह से हिले नहीं है. हां, विकास तो हुआ है. टीवी और इंटरनेट गांव-गांव में पहुंच गए हैं. समाज की समस्याएं वही हैं. राजनीति का रंग वही है. वही शोषक है. वही शोषित हैं. हम उसी मोड़ पर खड़े हैं जहां आज से 23 साल पहले खड़े थे. समाज में मौजूद विरोधाभास वही हैं. समय तो नहीं बदला है. हां, कैलेंडर की तारीख बदल गई है, चेहरे बदल गए हैं. चौथी दुनिया नहीं बदली है. चौथी दुनिया का मतलब क्या है, यह बताने के लिए हम आपके लिए उस लेख को फिर से प्रस्तुत करते हैं जिसे हमने 14 दिसंबर 1986 को छापा था.”
14 दिसंबर 1986 को प्रकाशित चौथी दुनिया के पहले अंक का संपादकीय
चौथी दुनिया का मतलब
किसी भी नए अखबार को निकालने के लिए एक नाम की जरूरत होती है. नाम दिए जाते हैं और उस नाम को लेकर सवाल भी खड़े होते हैं. अक्सर होता है कि पहले कोई भी नाम दे दिया जाता है, फिर उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए तर्कों की कलाबाजियां खाई जाती हैं. हमारे साथ ऐसा नहीं है. हमने अपने अखबार का नामकरण यों तो नहीं कर दिया है और ना ही अब इस नामकरण का औचित्य सिद्ध करने के लिए यह संपादकीय लिख रहे हैं. आने वाले समय में अखबार अपना नाम खुद ही परिभाषित कर देगा. फिर भी, हम चाहते हैं कि अखबार का नाम चौथी दुनिया रखने के पीछे हमारे मन में जो बातें हैं, वे आप तक पहुंचें.
हम मानते हैं कि अपने जन्म से लेकर आज तक समाज का जो बंटवारा हुआ है, उसे हमेशा सत्ता, साहूकार और सिपाही ने परिभाषित किया है. आदिम समाज से चलकर कबीलाई, सामंती, पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्था में पहुंचे. इस मौजुदा समय तक विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं को परिभाषित करने में जनता की कोई हिस्सेदारी नहीं रही है. इसका सिर्फ इस्तेमाल हुआ है. यही वजह है कि चाहे रेगन-गोर्बाचौव की पहली दुनिया हो या पश्चिम के विकसित औद्योगिक देशों के साहब-बहादुरों की दूसरी दुनिया या फिर राजीव गांधी, जयवर्द्धने, जिया-उल-हक, इरशाद आदि की तीसरी दुनिया. इनमें कहीं भी वह आदमी शामिल नहीं है, जो समाज का निर्माता तो है, नियंता नहीं है. उसके पास सिर्फ मेहनत है, आवाज नहीं, जिसका कोई मुल्क नहीं है. लेकिन सत्ता ने बेहद चालाकी से भूगोल की सीमा में कैद कर दिया है. इन तीनों दुनिया का अर्थ आज वहां की जनता के बजाय वहां की सरकारों में निहित हो गया है.
अपने अखबार का नाम चौथी दुनिया रखने के पीछे हमारी ईमानदार मंशा यह है कि इन तीनों दुनिया की सत्ता द्वारा जिन लोगों को जीवन के हाशिए पर धकेल दिया गया है, यह अखबार उनकी आशा-आकांक्षा, सुख-दुख, और उनके अपने संघर्ष का मंच बने. तीन दुनियाओं का मौजूदा नकली बंटवारा हमें इसलिए नामंजूर है क्योंकि इन दुनियाओं के सभी देशों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी अपनी आर्थिक इयत्ता, मर्यादा और गरिमा के लिए संघर्षशील है. संस्कृति के तल पर, जात या पात के आधार पर पैदा किए गए अल्पसंख्यक, औरत, बूढे, जवान और बच्चे अपनी ही सरजमीन पर हाथ-पाव गंवा बैठे हैं. रोजमर्रा की जरूरतों के लिए मर-खप रहे हैं. क्या दीन दुनियाओं के भीतर सांस लेती चौथा दुनिया की शक्ल ऐसी ही नहीं है. यही लोग चौथी दुनिया के नायक हैं. हम दुनिया के एक और नकली बंटवारे के हिमायती नहीं हैं, न ही तीन दुनियाओं के समानांतर हम कोई नई दुनिया खड़ी करना चाहते है. हम तो उन तमाम वंचित और सताए जा रहे लोगों की आवाज बनने के आकांक्षी हैं, जो अपने-अपने मुल्कों में कहीं पीछे छूट गए हैं. इन छूटे हुए लोगों का मंच है चौथी दुनिया. हमारी कोशिश रहेगी कि अपने हक और मर्यादा के लिए लड़ता हुआ आदमी इस अखबार में अपनी सच्ची तस्वीर देख सके और इसे अपने दुख-दर्द का भरोसामंद साथी समझ सके. किसी भी सही अखबार का इससे बड़ा मतलब और होता भी नहीं है
15 मार्च 2009 को चौथी दुनिया की दूसरी पारी के पहले विशेषांक का संपादकीय
जब तोप मुकाबिल हो
क्या हमारी दुनिया सचमुच अंधेरी और अंधी होती जा रही है? हमारी दुनिया से मतलब हम पत्रकारों की दुनिया से है. हम इसलिए यह बात उठा रहे हैं क्योंकि पत्रकारों को अलिखित अधिकार मिले हैं जिनका सभी सम्मान करते हैं. लोकतंत्र की सर्वमान्य धारणा है कि विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की तरह मीडिया भी समान अधिकार संपन्न क्षेत्र है और उसे तीनों पर सार्थक और सही टिप्पणी का अधिकार है. किसी को भी, कहीं भी रोक कर सवाल पूछने का हक सिर्फ पत्रकारों का माना गया है और लोग भी उस हक की इज्जत करते हैं. आम लोगों के बीच अब तक यह विश्वास बना हुआ है कि जब कहीं भी उनकी सुनवाई न हो, कोई भी बात नहीं सुने तो पत्रकारों के पास चले जाओ. वे जरूर बात सुनेंगे और जब छापेंगे या दिखाएंगे, तो सरकार का वह व्यक्ति जो उनके दुख-का जिम्मेदार है, जवाब देने को मजबूर होगा.
हम इन कसौटियों से जुड़े अधिकारों का तो जम कर उपयोग करते हैं. लेकिन उसकी जिम्मेदारियां नहीं उठाते. इन जिम्मेदारियों को न उठाने का परिणाम अपने सबसे बुरे स्वरूप में हमारे सामने आ रहा है. पहले कहा जाता था कि थोड़ी शराब पिला दो और जो चाहे लिखवा लो. धीरे-धीरे बात काम कराने की, ठेकेदारी तक पहुंच गई और आज हमारे ही पेशे के कई बड़े और छोटे साथी काम कराने का ठेका लेने लगे हैं. चाहे अक्षरों की दुनिया हो या तस्वीरों की दुनिया, गंदी मछलियां हर जगह दिखाई दे रही हैं. पीआर जर्नलिज्म की एक नई श्रेणी पैदा हो गई है जो राजनैतिक दलों या बड़े घरानों को सलाह देती है कि कैसे उन्हें अपनी ताकत और साख बढ़ानी चाहिए. जब चुनाव आते हैं, तो चाहे बड़े पत्रकार हों या छोटे, वे अपने-दलों के रणनीतिकार में तब्दील हो जाते हैं. वे अपनी टोली बनाते हैं और प्रचार का हिस्सा बन जाते हैं.
सबसे बुरी हालत तो अब हो गई है. पिछले आम चुनाव से यह बीमारी खुलेआम सामने आ गई है और कोई इसे छिपाना नहीं चाहता. अखबारों ने और टेलीविजन चैनलों ने अपने संवाददाताओं से कहा कि आप उम्मीदवारों से पैसा लीजिए और उनकी रिपोर्ट छापिए या दिखाइए. एक संपादक जो मालिक हैं, उन्होंने अपने संवाददाताओं से भरी मीटिंग में कहा कि हम जानते हैं कि आप लोग चुनावों में लिखने का पैसा लेते हैं. अब आप हमारे बताए रेट पर पैसा लीजिए और अपना कमीशन उसमें से लीजिए. मीटिंग में मौजूद एक भी संवाददाता ने प्रतिवाद नहीं किया कि वे ऐसा नहीं करते. बड़े राजनैतिक दल टेलीविजन के बड़े पत्रकारों को व्यक्तिगत रूप से और चैनलों को संस्था के रूप में मोटी रकम देते हैं ताकि वे उनके बारे में प्रचार न करें तो कोई बात नहीं, लेकिन हानि पहुंचाने वाली रिपोर्ट तो न ही दिखाएं. अगर कोई अखबार या चैनल इससे इनकार करता है, तो हम उसे अपवाद मानकर अपनी गलती की क्षमा मांग लेंगे. पर यदि सभी ऐसा करते हैं, तो हमें इस कहानी के विद्रूप स्वरूप को सामने लाने का हक होगा. इस सारे क्षरण में आम आदमी की तकलीफें हमारें एजेंडे से गायब हो गई हैं और परिणाम सामने आ रहा है कि वह हम पर विश्वास खोता जा रहा है. यह अजीब अंतर्विरोध है कि जिसके लिए मीडिया की बुनियादी प्रतिबद्धता है, वही मीडिया पर भरोसा नहीं करता या कम भरोसा करने लगा है.
प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट और पत्रकार सुधीर तैलंग जब मिलने आए, तो व्यथा से बोले कि पिछले पांच सालों की पांच ऐसी रिपोर्टं याद नहीं आ रही हैं. संतोष तिवारी मिलने आए तो कहने लगे कि इतनी ज्यादा घुटन है कि नौकरी छोड़ने का मन कर रहा है. साथ ही कहा कि पत्नी का कहना है कि पत्रकारिता करो, नहीं तो तुम टूट जाओगे. ऐसे नामों की लम्बी फेहरिस्त है, पर सवाल है कि आखिर यह स्थिति आ क्यों रही है. क्यों खबर से, खबर तलाशने की मेहनत से, पाठक को सही बात बतलाने से और पाठक के पक्ष में खड़े होने से हम घबरा रहे हैं. किसका दबाव पत्रकारिता के पेशे पर है, क्या बाजार हमें यह कहता कि समाचार या जो घट रहा है, उसे न दिखाएं या छापें. क्या मालिक संपादकों को इसके लिए विवश कर रहे हैं या संपादक ही पत्रकारों को समाचार के अलावा सब कुछ लिखने या दिखाने के लिए प्रेरित कर रहे है.
मेरा मानना है कि जितना हम अपने कर्तव्य से दूर जाएंगे, उतना हम देश को खतरे में डालेंगे. जितना ज्यादा समाचारों का या जानकारी का संप्रेषण सीमित होगा, उतना ही देश में अविश्वास बढ़ेगा. यह अविश्वास वर्गों के बीच का हो सकता है, धर्मों के बीच का हो सकता है और जनता तथा सरकार के बीच का हो सकता है. और यहीं मीडिया का रोल आता है कि वह यह सब न होने दे. अगर मीडिया की चूक, भूल या जान-बूझ कर की गई गलती की वजह से अविश्वास बढ़ता है तथा हम अराजकता की ओर बढ़ते हैं, तो इसका सबसे पहला असर हम पर यानी मीडिया पर ही पड़ने वाला है. अगर सत्ता को हमने यह अहसास करा दिया कि हम मैनेज हो सकते हैं, तो हमे आगे सेंसरशिप के लिए तैयार रहना चाहिए. और यदि विपक्ष को हमने यह संकेत दिया कि हम आसानी से प्रभावित किए जा सकते हैं, तो हमें गोली और लाठी से दबने की दिमागी तैयारी रखनी चाहिए.
संपादकों, पत्रकारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोगों को अगर अब भी संभलना न आया या उन्होंने संभलना ना चाहा, तो अगले पांच साल यानी पंद्रहवीं लोकसभा के कार्यकाल के बाद उन्हें संभलने का मौका ही नहीं मिलेगा. लोकतंत्र के नाम पर ऐसी ताकतें सामने आ रही हैं जिनका लोकतंत्र में भरोसा ही नहीं है. उसी तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी पैठ बढ़ रही है जो पत्रकारिता के सिद्धांतों को तोड़ने में अपनी शान समझते हैं. अगर गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन पर उनकी याद मीडिया को न आए, तो मानना चाहिए कि हमारा यानी मीडिया का नेतृत्व लिलिपुटियंस के या बौने पत्रकारों के हाथ में है.
पर ऐसे पत्रकारों की भी कमी नहीं है जो खामोश तो हैं, पर वे ऐसी स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. इन सबको मिल कर अपने-अपने संस्थानों में आवाज बुलंद करनी होगी और बौने पत्रकारों को उनका धर्म याद कराना होगा. एक वक्त ऐसा आता है जब बोलना परम कर्तव्य बन जाता है और पत्रकारिता के क्षेत्र में चल रही अराजक स्थिति, गलत परिभाषा और पत्रकारिता की बुनियाद को हिलाने वाली गतिविधयों के विरूद्ध हाथ उठाना ऐतिहासिक कर्तव्य बन जाता है. हमें ऐसी ही तोपों का मुकाबला करना है और ऐसे दोस्तों की तलाश भी करनी है जो तोप का मुकाबला करने में न केवल साथ दें बल्कि नेतृत्व भी करें.